अपने 43 वर्षो के इतिहास में विश्व पर्यावरण दिवस आंदोलन ने पर्यावरण बचाने, इसके बारे में लोगों को जागरूक करने तथा सकारात्मक सक्रियता के लिए महत्वपूर्ण कार्य किया है. पिछले 50 सालों में वैश्विक जनसंख्या में दोगुनी वृद्धि हुई है. ऐसे में संसाधनों के सुविचारित उपयोग और संरक्षण के साथ हमारी जीवन-शैली में बदलाव की भी जरूरत है. विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर इन मसलों के विभिन्न पहलुओं पर विमर्श आज के विशेष में..
अविनाश चंचल
पर्यावरण कार्यकर्ता
आज यानी पांच जून, 2015 को हमें पर्यावरण दिवस मनाते हुए चार दशक से ज्यादा हो जायेंगे. पांच जून, 1972 को पहली बार संयुक्त राष्ट्र ने स्वीडन में पर्यावरण के विषय पर कॉन्फ्रें स का आयोजन किया था. उसके बाद हर साल पांच जून को पर्यावरण दिवस मनाने की परंपरा शुरू हुई. इस दिन दुनियाभर में पर्यावरण की वर्तमान चुनौतियों और उसके समाधान पर चर्चा की जाती है.
वर्तमान में पूरी दुनिया जलवायु परिवर्तन की समस्या से जूझ रही है. दुनियाभर की सरकार जलवायु परिवर्तन और लगातार बिगड़ते पर्यावरण असंतुलन को लेकर चिंतित है. सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाएं लगातार इस समस्या का हल ढूंढ़ने का प्रयास कर रहे हैं. संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस साल पर्यावरण दिवस की थीम रखी है- ‘सात अरब सपने, एक ग्रह, देखभाल के साथ उपभोग.’
अपने अभियान में संयुक्त राष्ट्र संघ लोगों को अपनी जीवन-शैली पर फिर से विचार करने, प्राकृतिक संसाधनों पर मानव समूहों का प्रभाव कम करने के लिये प्रेरित करेगा. विश्व पर्यावरण दिवस पिछले कुछ दशकों में वैश्विक रूप ले चुका है. लगभग 100 देशों में इस दिन पर्यावरण को लेकर सकारात्मक चर्चाएं आयोजित की जाती हैं, पर्यावरण को बचाने के लिये कदम बढ़ाये जाते हैं. यह एक माना हुआ सच है कि मानवता की भलाई, पर्यावरण, अर्थव्यस्था का संचालन इसी बात पर टिका है कि हम प्राकृतिक संसाधनों का किस तरह इस्तेमाल कर पाते हैं. लेकिन विडंबना है कि आज हम प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग उसकी क्षमता से अधिक कर रहे हैं.
धरती के कई पारिस्थितिक तंत्र आज जनसंख्या बढ़ोतरी और आर्थिक विकास पर जोर देने की वजह से खतरे में हैं. संयुक्त राष्ट्र के दावों पर अगर विश्वास करें, तो 2050 तक अगर हमारे उपभोग और उत्पादन का ऐसा ही पैटर्न रहा और साथ ही हमारी जनसंख्या 9.6 अरब हो गयी, तो संभव है कि हमें जीवित रहने और रहन-सहन को बचाये रखने के लिये दो नये ग्रहों की जरूरत होगी. हालांकि, कुछ लोग अन्य ग्रहों पर जाकर बस्ती बसाने का सपना देख रहे हैं, लेकिन इस धरती पर कम से कम 21वीं सदी के वर्तमान जीवन शैली को बनाये रखते हुए आने वाले भविष्य को नहीं बचाया जा सकता है. अकेले इस वर्तमान व्यवस्था पर लगभग एक अरब पूर्ण रूप से गरीब लोगों को गरीबी से बाहर निकालने और एक से तीन अरब मध्यवर्गीय उपभोक्ता तैयार करने का बोझ है. पर्यावरण संतुलन बिगड़ने और जलवायु परिवर्तन से सबसे ज्यादा प्रभावित इसी वर्ग के लोग होंगे.
ऐसा कहा जा रहा है कि तीसरा विश्व युद्ध पानी को लेकर ही लड़ा जायेगा. अनेक देश जल-संकट का सामना कर रहे हैं. दुनिया की तीन प्रतिशत पानी ही पीने लायक है, जिसमें 2.5 प्रतिशत अंटार्कटिका, आर्कटिक और ग्लैशियर में जमी है. इंसान आज पानी को बड़ी तेजी से गंदा कर रहा है, लेकिन प्रकृति उतनी तेजी से नदी और झीलों के पानी को साफ नहीं कर पा रही है. एक अरब लोगों को साफ पानी नसीब नहीं है, जबकि पानी को पीने लायक बनाने का सिस्टम काफी लागत वाला है.
ऊर्जा की बड़ी भूमिका
वर्तमान आर्थिक व्यवस्था में ऊर्जा एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है. संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार, साल 2020 तक हमें 35 प्रतिशत अधिक ऊर्जा उत्पादन की जरूरत है. साथ ही, वाहनों की संख्या भी लगातार बढ़ रही है और 2020 तक इनकी संख्या में 32 प्रतिशत बढ़ोतरी का अनुमान है. ऐसे में अगर उपभोक्ताओं को सार्वजनिक वाहनों के इस्तेमाल के लिये प्रोत्साहित किया जाये, तो हम कार्बन उत्सर्जन को नियंत्रित कर पायेंगे.
एक समस्या भोजन की बरबादी से जुड़ी है. जहां एक तरफ भोजन के उत्पादन (कृषि, खाद्य प्रसंस्करण) से पर्यावरण प्रभावित होता है, वहीं दूसरी तरफ घरों में भोजन के अनियंत्रित तौर-तरीकों की वजह से भोजन से संबंधित ऊर्जा की खपत और अपशिष्ट उत्पादन भी पर्यावरण को प्रभावित करता है. पूरी दुनिया में 1.3 अरब टन भोजन प्रत्येक साल बरबाद होता है, जबकि एक अरब लोग भूखमरी की हालत में जीने को विवश हैं. भोजन का जरूरत से ज्यादा उपभोग पर्यावरण और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है. वैश्विक स्तर पर 1.5 अरब लोग अधिक वजन की समस्या से ग्रसित हैं. धरती के क्षरण, मिट्टी की उर्वरता, पानी का गलत उपयोग और समुद्री पर्यावरण में गिरावट की वजह से खाद्य आपूर्ति करने के लिये जरूरी प्राकृतिक संसाधनों की क्षमता भी घट रही है. खाद्य सेक्टर दुनिया के 30 प्रतिशत ऊर्जा खपत के लिए जिम्मेवार है और 22 प्रतिशत ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन खाद्य सेक्टर की वजह से होता है.
इस तरह खाद्य का जरूरत से अधिक इस्तेमाल हमारे खाद्य सुरक्षा के लिये खतरनाक है. इसका सीधा परिणाम होगा कि हमारे खाद्य पदार्थो की कीमत बढ़ जायेगी और खाद्य उत्पादन के लिये अधिक संसाधनों की आवश्यकता होगी. ऐसे में यह लोगों पर निर्भर है कि हम कितना और कैसे खाद्य पदार्थो का उपभोग करते हैं. खासकर, भारत जैसे देश में जहां खाद्य बरबादी ज्यादा है, व्यक्तिगत और सामाजिक सुधारों को अपना कर ही इस समस्या से निजात पाया जा सकता है.
ऐसी परिस्थितियों में आर्थिक रूप से विकास करने का सिर्फ एक ही रास्ता है- प्रकृति का कम दोहन करते हुए उत्पादन की क्षमता बढ़ाना. हर हाल में वर्तमान आर्थिक व्यवस्था को दोहन, उत्पादन, उपभोग और बरबादी से निकाल कर ग्रीन या हरित आर्थिक व्यवस्था की तरफ ले जाना होगा, जहां प्राकृतिक प्रक्रिया को अपनाया जा सके और बरबादी को कम करने की कोशिश की जा सके.
हरित अर्थव्यवस्था में पर्यावरण को कम खतरे होंगे और इससे ज्यादा से ज्यादा लोगों को फायदा पहुंचेगा, जिससे सामाजिक रूप से समानता के लक्ष्य को भी पूरा किया जा सकता है. हरित अर्थव्यवस्था का सीधा सा मतलब है कि कम कार्बन उत्सर्जन, संसाधन कुशल और समाज का समावेशी विकास. उत्पादकता के मामले में, हरित अर्थव्यवस्था पर्यावरण संतुलन बनाये रखते हुए आर्थिक विकास के रास्ते पर चलने का हिमायती है. यही वजह है कि प्राकृतिक संसाधनों के उपभोग पर संतुलन बनाने की मांग जोर-शोर से उठायी जा रही है. प्रकृति के उपभोग के संतुलन से मतलब है- अपने भविष्य को सुरक्षित बताते हुए अपने सपनों को पूरा करना.
पूरी दुनिया में लोगों को संतुलन और टिकाऊपन के साथ जीवन जीने की सलाह दी जा रही है. इसका मतलब है हमें अपने प्राकृतिक संसाधनों का उचित उपयोग करने के साथ-साथ आर्थिक विकास की वजह से होने वाले पर्यावरणीय खतरों पर ध्यान देने की जरूरत है. लेकिन ऐसा देखा जा रहा है कि पर्यावरण दिवस भी दूसरे दिवसों की तरह ही महज औपचारिक आयोजन भर बनता जा रहा है. पर्यावरण दिवस के नाम पर हर बार सरकारी और गैर-सरकारी आयोजन किये जाते हैं. कुछ नयी योजनाएं लायी जाती हैं, नये संकल्प लिये जाते हैं.
चार दशक से ज्यादा समय से हम पर्यावरण दिवस मना रहे हैं, लेकिन नतीजा सिफर ही रहा है. पर्यावरण की हालत दिन प्रतिदिन बिगड़ती ही जा रही है. कार्बन उत्सर्जन की मात्र बढ़ती जा रही है. हमारे शहर भयानक वायु प्रदुषण की चपेट में हैं, हमारी नदियों का पानी गंदा पड़ा है. पिछले कुछ सालों से हम लगातार कभी सुखाड़, कभी बाढ़, कभी बेमौसम बारिश, कभी भूकंप की चपेट में आ रहे हैं.
जलवायु परिवर्तन का असर
संयुक्त राष्ट्र की जलवायु परिवर्तन पर बनी समिति आइपीसीसी की रिपोर्ट के अनुसार, जलवायु परिवर्तन का सबसे ज्यादा असर एशिया तथा अफ्रीका के गरीब और विकासशील देशों पर पड़ने वाला है.
अगर हाल की घटनाओं पर नजर डालें, तो यह बात काफी हद तक सच साबित होती नजर आती है. भारत जैसे देशों को पिछले कुछ सालों में उत्तराखंड त्रसदी, कश्मीर में बाढ़, सूखे की समस्या, बेमौसम बारिश की वजह से फसलों के बरबाद होने, समुद्री आपदाओं, भूकंप, दिल्ली के वायु में बेतहाशा प्रदूषण की वृद्धि जैसी प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ा है. इन वजहों से देश को महंगाई, किसानों की आत्महत्या, लाखों लोगों को विस्थापन, गरीबी, भूखमरी जैसी समस्याओं से दो चार होना पड़ रहा है. विशेषज्ञों का मानना है कि इस साल अधिक गर्मी का पड़ना भी स्पष्ट रूप से जलवायु परिवर्तन का ही नतीजा है.
पूरी दुनिया में और खासकर भारत जैसे देशों में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिये और पर्यावरण संतुलन के लिये ज्यादातर लोग सरकारी नीतियों पर ही निर्भर हैं. यह बात काफी हद तक सही भी है कि पर्यावरण को संतुलित बनाने के लिये ठोस सरकारी नीतियों की जरूरत है, जो समावेशी विकास पर जोर दे, ऊर्जा के परंपरागत साधनों की अपेक्षा अक्षय ऊर्जा के साधनों को अपनाये, वनों के संरक्षण के लिए विशेष प्रयास करे.
लेकिन साथ ही, इस समस्या का हल बिना व्यक्तिगत प्रयास के संभव नहीं है. इसलिए संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने कहा है कि वैश्विक जलवायु खतरों के सामने व्यक्तिगत निर्णयों और पहल कुछ देर के लिए छोटे लग सकते हैं, लेकिन इन्हीं छोटे-छोटे प्रयासों से अरबों लोग एक साथ मिलकर एक जबरदस्त फर्क पैदा कर सकते हैं.
सिविक सेंस जरूरी
संयुक्त राष्ट्र ने भी इसी बात को ध्यान में रखते हुए इस साल पर्यावरण दिवस पर प्रत्येक व्यक्ति के प्रयास और सपनों को महत्वपूर्ण माना है. स्पष्ट है कि पर्यावरण को बचाने के लिये हमें सिविक सेंस या नागरिक आचार संहिता को मजबूत बनाना होगा. देश के प्रत्येक नागरिक को पर्यावरण से जुड़ी नैतिक शिक्षा देनी होगी.
यातायात के लिए सार्वजनिक साधनों के इस्तेमाल को बढ़ावा देना होगा. ऊर्जा की कम खपत, उपभोग संस्कृति पर संतुलन, अक्षय ऊर्जा के साधनों पर निर्भरता, जैविक खेती जैसी छोटी-छोटी चीजों पर ध्यान देकर ही पर्यावरण को बचाया जा सकेगा. तमाम निराशाओं के बावजूद अच्छी बात है कि मंद गति के साथ ही सही हरित अर्थव्यवस्था को लेकर दुनिया सजग हो रही है. लगभग 65 देशों ने हरित अर्थव्यव्यस्था को अपनाने की प्रक्रिया शुरू कर दी है. इनमें शामिल देश अपने निवेश और नीतियों को स्वच्छ तकनीक, टिकाऊ ऊर्जा के साधनों, पर्यावरण संतुलन आदि पर जोर दे रहा है. विश्वभर में अक्षय ऊर्जा के साधनों पर जोर दिया जा रहा है.
सौर ऊर्जा जैसे सेक्टर तेजी से बड़े बाजार के रूप में उभर रहे हैं. सरकारी और प्राइवेट सेक्टर की कंपनियों से मांग की जा रही है कि वे किसी भी परियोजना की लागत में उस प्रोजेक्ट से पर्यावरण को पहुंचने वाले नुकसान का भी आकलन करे. उपभोक्ताओं को शिक्षित करने और यह बताने की जरूरत है कि हरित अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देना, समावेशी विकास की नीतियों को बनाना न केवल वांछनीय है, बल्कि अतिआवश्यक है. इन सारी नीतियों को अपनाने के बाद ही आने वाला समय तय करेगा कि नौ अरब लोगों को हम भोजन, ऊर्जा और सुरक्षित जीवन देने में कितना सफल हुए.
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था- पर्यावरण के पास प्रत्येक लोगों की आवश्यकता पूरी करने की क्षमता है, लेकिन एक आदमी के भी लोभ की पूर्ति में वह असमर्थ है. आज इस बात को गहराई से समझने की जरूरत है, क्योंकि सच में हमारे पास अपनी इस धरती को बचाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है.
सात अरब सपने.. एक ग्रह.. सावधानी से करें चीजों की खपत
मानवता की भलाई, पर्यावरण संरक्षण और अर्थव्यवस्था का संचालन यह सब इस बात पर निर्भर करता है कि धरती पर हम प्राकृतिक संसाधनों का प्रबंधन किस प्रकार से करते हैं यानी कुल मिलाकर हम खुद इसके लिए जिम्मेवार हैं. इस तथ्य के अनेक साक्ष्य देखे जा रहे हैं कि धरती पर मौजूद प्राकृतिक संसाधनों का इंसान अपने हित के लिए ज्यादा से ज्यादा दोहन करते हैं. दुनिया की बढ़ती आबादी और आर्थिक विकास की प्रक्रियाओं ने पृथ्वी के पारिस्थितिक तंत्र को क्षरण की गंभीर अवस्था में ला दिया है और उसके दोहन का बुरा नतीजा खतरनाक स्तर पर पहुंच चुका है.
इंसान यदि इसी प्रकार से चीजों की खपत करता रहा और उत्पादन की मौजूदा प्रवृत्ति बरकरार रही, तो जिस तरह से दुनिया की आबादी बढ़ रही है, उसे देखते हुए वर्ष 2050 तक इसके 9.6 अरब तक पहुंच जाने की संभावना है और जिस तरह से हमारी रोजमर्रा की जिंदगी चली रही है, उसे कायम रखने के लिए तीन ग्रहों की जरूरत हो सकती है. इसीलिए इस बार विश्व पर्यावरण दिवस का थीम रखा गया है- ‘सात अरब सपने. एक ग्रह. सावधानी से करें चीजों की खपत.’ भविष्य को सुरक्षित बनाने के दृष्टिकोण से हमें अपने ग्रह की सीमाओं के दायरे में ही मुकम्मल रणनीति बनानी होगी. पृथ्वी की कीमत पर मानवीय समृद्धि की प्रवृत्ति को रोकना होगा.
कम से कम चीजों की खपत करते हुए जीवन जीने की कला को विकसित करना होगा. आíथक प्रगति के बीच प्राकृतिक संसाधनों के इस्तेमाल और पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों को भी हमें समझना होगा और यह सुनिश्चित करना होगा कि आर्थिक सुधारों के साथ कैसे इनसे भी सामंजस्य बिठाया जा सकता है.
प्रदूषित भूगर्भीय जल
भूगर्भीय प्रदूषण का मूल कारण मिट्टी एवं सतह पर मौजूद जल का प्रदूषित होना है. मिट्टी में घातक रासायनिक तत्वों के लगातार घुलने-मिलने से उनकी पहुंच भूगर्भीय जल तक हो जाती है. इसी तरह मल-मूत्र और घातक रासायनिक तत्वों के नदी में प्रवाहित किये जाने से प्रदूषित नदी जल निकटवर्ती इलाकों के भूगर्भीय जल को भी प्रदूषित कर देता है. भूगर्भीय जल के प्रदूषित होने का एक बहुत बड़ा कारण कृषि कार्यो में उपयोग किया जानेवाला फर्टिलाइजर, हर्बीसाइड, इन्सेक्टिसाइड आदि भी है.
जल प्रदूषण के कारण
जल प्रदूषण का मुख्य कारण घातक रसायन, जैसे- कैल्सियम, सोडियम, मैंगनीज, पैथोजेन आदि, को माना जाता है. इस आलोक में जल प्रदूषण के कारकों को चार भागों में विभाजित किया जा सकता है:-
– ऑर्गेनिक : डिटर्जेंट, क्लोरोफॉर्म, फूड प्रोसेसिंग वेस्ट, इनसेक्टीसाइड, हबीर्साइड, पेट्रोलियम हाइड्रोकार्बन (मसलन- गैसोलीन, डीजल, जेट फ्यूल आदि) वोलाटाइल ओर्गेनिक कंपाउंड, सोलवेंट्स, आदि को इस वर्ग में रखा जा सकता है.
– इनऑर्गेनिक : कल-कारखानों से उत्सर्जित एसिडिटी, जैसे सल्फर डाइऑक्साइड, अमोनिया, रसायनिक अवशेष आदि, फर्टिलाइजर, मसलन, नाइट्रेट, फास्फेट आदि; हेवी मेटल, सिल्ट आदि को इनओर्गेनिक की श्रेणी में रखा गया है.
– मैक्रोस्कोपिक : इस तरह के प्रदूषण का मुख्य कारण जलीय कचरा है, जिसे प्लास्टिक थैलियों, रसायनिक अवशेषों के रूप में नदी एवं समुद्र में डाला जाता है. समुद्र में जहाज के डूबने, दुर्घटनाग्रस्त होने आदि से भी समुद्री जल प्रदूषित होता है.
– थर्मल : इस तरह के प्रदूषण का मुख्य स्नेत इंसान स्वयं है. नदियों के जल को रोक कर ऊर्जा उत्पन्न करने की संकल्पना को साकार करने के लिए नदियों पर बांध बनाये जाते हैं, जिससे जल का तापमान बढ़ जाता है. अधिक तापमान से जल में ऑक्सीजन की मात्र कम हो जाती है, जिससे जलीय वनस्पतियों और जीवों का जीना दुष्कर हो जाता है. हमें ऊर्जा के अन्य संसाधनों को विकसित करना होगा.
कैसे स्वछ हो जल
घर से निकलनेवाले जलीय वेस्ट का 99.9 प्रतिशत हिस्सा जल होता है और 0.1 प्रतिशत प्रदूषित अवशेष. ऐसे प्रदूषित जल का उपचार जलशोधन प्लांट में किया जाता है, लेकिन तकनीकी कमी और जानकारी के अभाव में शोधन प्लांट में जल पूरी तरह स्वच्छ नहीं हो पाता है.
उधर, नदी में प्रवाहित इंडस्ट्रियल वेस्ट का शोधन करना भी आसान नहीं होता है, क्योंकि इसमें जहरीले रसायन, हेवी मेटल्स, वोलाटाइल ऑर्गैनिक कंपाउंड आदि पाये जाते हैं. अन्य दूसरे प्रकार के जलीय अवशेषों का शोधन भी सरल नहीं है. इस तरह की अड़चनों के बावजूद अगर हम अपनी दिनचर्या और सोच में कुछ बदलाव लाते हैं, तो नदी, झील, नहर, तालाब, भूगर्भीय जल, सागर आदि का पानी स्वच्छ हो सकता है.
पर्यावरण संरक्षण के सामान्य कदम
अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में सामान्य इंसान भी अपने स्तर से पर्यावरण संरक्षण में योगदान दे सकता है. किस तरह से पर्यावरण संरक्षण को अंजाम दे सकता है आम आदमी, जानते हैं उन तरीकों को :
– पौधे रोपने के कार्यक्रम : वृक्षारोपण कार्यक्रम युद्धस्तर पर चलाना चाहिए. परती भूमि, पहाड़ी क्षेत्र, ढलान क्षेत्र सभी जगह पौधरोपण जरूरी करना है. तभी लगातार जंगल कट रहे हैं, जिससे पर्यावरण संतुलन बिगड़ा है, वह संतुलन बनेगा. तभी वनस्पति सुरक्षित रह सकती है. वन संपदा पर्यावरण के लिए आवश्यक है.
– इस्तेमाल हुई चीजों का दोबारा इस्तेमाल करें : डिस्पोजल ग्लास, नैपकिन, रेजर आदि का उपयोग दोबारा किया जाना चाहिए, क्योंकि इसका दुष्परिणाम पर्यावरण पर पड़ता है. जहां तक संभव हो हम ऐसी वस्तु का प्रयोग न करें, जिसका बुरा प्रभाव जैविक हो, और जिसके परिणामस्वरूप अनेक जीव-जंतु नष्ट हो जायें और अनेक रोगाणु पनप जायें.
त्न भूजल संबंधी उपयोगिता का मापदंड : नगर विकास औद्योगिक शहरी विकास के चलते पिछले कुछ समय से नगर में भूजल स्नेतों का तेजी से दोहन हुआ. एक ओर जहां उपलब्ध भूजल स्तर में गिरावट आयी है, वहीं उसमें गुणवत्ता की दृष्टि से भी अनेक हानिकारक अवयवों की मात्र बढ़ी है.
शहर के अधिकतर क्षेत्रों के भूजल में विभिन्न अवयवों की मात्र, मानक मात्र से अधिक देखी गयी है. 35.5 प्रतिशत नमूनों में कुल घुलनशील पदार्थो की मात्र से अधिक देखी गयी, इसकी मात्र 900 मिग्रा प्रतिलीटर अधिक देखी गयी. इसमें 23.5 प्रतिशत क्लोराइड की मात्र 250 मिलीग्राम प्रति लीटर से अधिक थी. 50 प्रतिशत नमूनों में नाइट्रेट, 96.6 प्रतिशत नमूनों में अत्यधिक कठोरता विद्यमान थी.
– पॉलीथिन का बहिष्कार करें : पर्यावरण संरक्षण के लिए पॉलीथिन का बहिष्कार आवश्यक है. दुकानदारों से पॉलीथिन पैकिंग में सामान न लें. आसपास के लोगों को पॉलीथिन से उत्पन्न खतरों से अवगत करायें.
– कूड़ा-कचरा न जलायें : सारा कूड़ा कचरा एक ही स्थान पर फेंकना चाहिए. सब्जी, छिलके, अवशेष, सड़ी-गली चीजों को एक जगह एकत्र करके पहले ग्रामीण इलाकों में वानस्पतिक खाद तैयार की जाती थी.
चुनौतियां
धरती के तापमान में हर साल बढ़ोतरी होती जा रही है. पशु-पक्षियों की कई प्रजातियां लुप्त हो रही हैं. वन्य प्राणी प्राकृतिक संतुलन स्थापित करने में सहायक साबित होते हैं. उनकी घटती संख्या आने वाले समय में पर्यावरण के लिए घातक हो सकती है. पर्यावरण के लिए वन्य प्राणियों की रक्षा जरूरी है.
पृथ्वी के सभी प्राणी एक-दूसरे पर निर्भर हैं तथा विश्व का प्रत्येक पदार्थ एक-दूसरे से प्रभावित होता है. इसलिए यह बहुत जरूरी है कि प्रकृति की इन सभी वस्तुओं के बीच जरूरी संतुलन को बनाये रखा जाये. जिस प्रकार से हम तेज औद्योगिक विकास और भौतिक समृद्धि की और बढ़ रहे है, उससे पर्यावरण संतुलन लगातार बिगड़ता जा रहा है.