असली विपक्ष तो हम हैं : अशोक वाजपेयी

ये राजनीतिक पार्टियां एक-दूसरे की विपक्ष नहीं हैं, ये तो एक ही थैले के चट्टे-बट्टे हैं अशोक वाजपेयी का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है. कवि, आलोचक और स्तंभकार होने के साथ-साथ एक सजग संस्कृतिकर्मी और संगठनकर्ता की भूमिका भी ये लंबे समय से सफलता के साथ निभा रहे हैं. साहित्य के साथ-साथ ललित […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 13, 2015 8:46 AM
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ये राजनीतिक पार्टियां एक-दूसरे की विपक्ष नहीं हैं, ये तो एक ही थैले के चट्टे-बट्टे हैं

अशोक वाजपेयी का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है. कवि, आलोचक और स्तंभकार होने के साथ-साथ एक सजग संस्कृतिकर्मी और संगठनकर्ता की भूमिका भी ये लंबे समय से सफलता के साथ निभा रहे हैं. साहित्य के साथ-साथ ललित कलाओं पर भी इनका समान अधिकार रहा है. समय-समाज की दशा-दिशा और उनके अपने सफर से जुड़े अहम सवालों के साथ अशोक वाजपेयी से खास बातचीत की प्रीति सिंह परिहार ने.

आप आज जहां खड़े हैं, वहां से पीछे मुड़कर देखते हैं तो क्या महसूस करते हैं? ये देखना जिंदगी को भी है, समय-समाज को भी है.

पीछे मुड़ कर देखने पर तो यही लगता है कि हम लोगों को जिस मुक्ति की तलाश थी और जो बहुत कठिन थी, बहुत सारे युवाओं को सहज ही मिल गयी है. मसलन, नये किस्म के संबंध बनाने के अवसर, संबंधों को आजादी के साथ जीने के अवसर. एक तरफ तो लगता है कि मुक्ति का स्पेस बढ़ा है. दूसरी तरफ प्रश्नांकन करने की क्षमता, दूसरों के मुकाबले अपने को खंगालने की इच्छा, अपने से कुछ वृहत्तर पाने का सपना, ये सब थोड़ा कम हो गया है या शिथिल पड़ गया है.

बहुत सारे क्षेत्रों में लोकतांत्रिकता का विस्तार हुआ है. अब लोग सवाल पूछने लगे हैं, सवाल पूछने की हिम्मत करने लगे हैं, लेकिन दूसरी तरफ धर्माधता, सांप्रदायिकता, परस्पर विद्वेष इत्यादि बहुत बढ़ा है. ऐसी शक्तियां, जिनमें एक बहुत बड़ी शक्ति बाजार है, बढ़ी हैं और ‘एकसेपन’ का तमाशा स्थापित कर रही हैं. एक सा खाना, एक ही सा मनोरंजन, एक ही सी भाषा. ये भी एक पक्ष है. दूसरी तरफ ये भी लगता है कि लोगों के पास अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और उसके प्रति जिम्मेदारी का एहसास तो बढ़ा है, लेकिन शब्द कम हो रहे हैं. बहुत कम लोग अब शब्दों की विपुलता में विश्वास रखते हैं. ऐसे साधन पैदा हो गये हैं, जिनमें आपको बहुत ज्यादा शब्द जानने की जरूरत ही नहीं है. उच्चरण जानने की जरूरत नहीं है और हिज्जे भी पूरे जानने की जरूरत नहीं है. ये शब्द संकोच, एक तरह की मानवीयता का संकोच है.

आज ऐसी दुनिया बन गयी है, जिसमें हमको बार-बार ये मानने पर मजबूर किया जा रहा है कि अब कोई विकल्प नहीं है. न तो बाजार का विकल्प है, न एकसेपन की तानाशाही का कोई विकल्प है. न बहुत ही टुच्चे सपनों में फंस जाने से बचने का कोई विकल्प है.

हम ये मानते रहे हैं कि मनुष्यता का एक बड़ा भारी लक्षण विकल्प खोजने और पाने के लिए जद्दोजहद करना रहा है. लेकिन ये विकल्प खोजने का काम जिनका है, वो युवा ही ऐसे विकल्पहीन नजर आते हैं कि हैरत होती है.

2. आपने आजादी के बाद के पूरे दौर को देखा है. आपको क्या लगता है, समाज में आर्थिक-सामाजिक विषमता बढ़ी है या घटी है?

आर्थिक विषमता, जो उस समय थी उसके मुकाबले तो निश्चय ही घटी है. लेकिन वो घटने के साथ-साथ अधिक हृदयविदारक हो गयी है. इस अर्थ में कि अब विषमता को लेकर जो एहसास है, वो ज्यादा तीखा और गहरा है. विषमता के बरक्स समृद्धि भी बहुत बढ़ी है. पहले जो अंतर विषमता के कारण लगता था, वो अंतर बहुत बढ़ गया लगता है. कुछ लोग हैं जिनको शानोशौकत के लिए पूरी दुनिया मिली हुई है. दूसरी ओर ऐसे लोग ज्यादा हैं, जिनके घर में चिराग नहीं जलता. ये जो दूरी है, अव्वल तो ये बढ़ी ही है और किसी भी हालत में इसका एहसास बहुत तीखा और गहरा हुआ है.

3. मूल्य के रूप में धैर्य और सहिष्णुता कम हुई है या बढ़ी है?

यह बहुत ही अधीर समय है. इसमें कोई ठौर ठिकाना ही नजर नहीं आता. किसी को ठिठक कर, दो मिनट पीछे मुड़ कर देखने की फुरसत नहीं. ऐसा लगता है, जैसे समय की गति कुछ ज्यादा ही तेज हो गयी है, दूसरी तरफ धीरज बहुत ही कम हो गया है. छोटी-छोटी बातों पर बच्चे अधीर हो जाते हैं. हमारे जमाने में तो हम सोच ही नहीं सकते थे कि बोर हो रहे हैं, लेकिन आजकल बच्चे तक बोर होने लगे हैं. इस ऊब का एक कारण जो मुङो समझ में आता है वो ये है कि अब ऐसा कुछ नहीं रह गया है, जो सफलता के बजाय सार्थकता पर बल देता हो.

लोगों को सफल होने की इतनी ज्यादा हड़बड़ी या अधीरता है कि वो सफलता में हो रही देरी पर ऊबने लगते हैं, सफलता की ओर न बढ़ने पर ऊबने लगते हैं. सार्थकता की खोज आपको कई तरह से व्यस्त रखती है. आत्मालोचन के लिए भी प्रेरित करती रहती है. लेकिन सफलता की चूहा दौड़ में बार-बार आपको निराशा होती है, ऊब होती है, क्योंकि आप सफलता की ओर नहीं बढ़ रहे हैं या वहां से खिसक रहे हैं, जो भी है, इसने भी बहुत फर्क डाला है.

4. सफलता की बात चली है तो हम जानना चाहेंगे, हर सफल आदमी कभी-न-कभी असफलता का भी सामना करता है, आपके साथ भी ऐसा हुआ होगा, आप जब कभी असफल हुए तो उससे कैसे उबरे?

हां, बहुत बार. बहुत सारे ऐसे मौके आये हैं जब ऐसा लगा. मसलन, मैं बहुत वर्षो से ये कोशिश करता रहा हूं कि साहित्य और कलाओं के बीच, जो हमारे यहां पारंपरिक संवाद और सहकार था, फिर से स्थापित हो. मैं उसमें सफल नहीं हुआ. मैंने ये कोशिश की कि हिंदी की आलोचना सिर्फ साहित्य तक महदूद न रहे. वो कलाओं को, संस्कृति के दूसरे पक्षों को भी अपनी जद में ले, लेकिन वो भी नहीं हुआ. ये कोशिश भी की कि हमारे समय और समाज में साहित्य की और कलाओं की जगह कुछ बढ़े. उनका आदर-सम्मान बढ़े, वो भी नहीं हुआ.

तो ये सब बड़ी-बड़ी विफलताएं हैं. अब इनसे पार पाने का एक यही उपाय है कि आप किसी तरह से इस कोशिश को जारी रखें और ये उम्मीद न छोड़ें कि बहुत व्यापक सफलता न सही, लेकिन इस प्रयत्न की अपने आप में एक सार्थकता तो है. मैं यही कर रहा हूं.

5. क्या चीज है, जो आपको सबसे ज्यादा परेशान करती है?

एक तो हिंदी समाज की, उसके पढ़े-लिखे वर्ग की अपनी मातृभाषा से बढ़ती हुई दूरी और मातृभाषा से होता अलगाव. भारत का सबसे बड़ा मध्यवर्ग, हिंदीभाषी मध्यवर्ग है. ये अपनी मातृभाषा से दूर जाता हुआ मध्यवर्ग भी है. यह बहुत हताश करनेवाली बात है. अंगरेजी के प्रति ललक के चलते अपनी मातृभाषा और उसमें जो एक स्मृतियों और अनुगूंजों का संसार है, उसको बेरुखी से तज देना बहुत बड़ी ट्रेजडी है.

6. जीवन में कई बार अवसाद या दु:ख के क्षण भी आते होंगे, इस क्षण से कैसे उबरते हैं?

मेरी कविता में शुरू से ही अवसाद की छाया है. इसका कोई भौतिक कारण नहीं है, सिवाय इसके कि अस्तित्व ही एक तरह का अवसाद है. नश्वरता आपको अवसाद से भर देती है कि आपके पास बस थोड़ा ही समय है, इसमें जो कुछ कर सकते हैं, कर लीजिए. अंतंत: तो सब कुछ नष्ट हो जाना है, आप भी मिट जायेंगे. ये बात अवसाद पैदा करती है, लेकिन मेरे एक अध्यापक ने बहुत पहले कहा था, ‘अपने अवसाद को अपने तक ही रखो या अपनी अभिव्यक्ति तक रखो. व्यर्थ दूसरों पर उसका बोझ मत डालो.’ मैंने उनकी बात पर अमल करते हुए एक हंसता-मुस्कुराता परसोना बना लिया. मैं हंसमुख व्यक्ति हूं. हर जगह हंसता रहता हूं. कुछ लोग पूछते हैं कि आप हमेशा क्यों हंसते रहते हैं, तो उसका जवाब देता हूं, भई इतनी मूर्खताएं रोज करता हूं कि उनको याद करके हंसता हूं, कुछ दूसरों की मूर्खताएं भी मुङो नजर आती हैं, इसलिए भी हंसता हूं. बहरहाल वो एक परसोना बन गया और मैंने कभी भी अपने अवसाद को अपनी सकारात्मकता को धीमा करने या उसके आड़े आने की इजाजत नहीं दी, इतना काबू मैंने उस पर कर के रखा है.

7. खुशी देनेवाली भी कुछ बातें होंगी?

बहुत सारी बाते हैं. कोई अच्छी पुस्तक पढ़ना मुङो खुशी से भर देता है. कोई उत्कृष्ट कला मुङो खुश कर देती है. मैं तो शास्त्रीय संगीत का ही शैदाई हूं. अच्छा शास्त्रीय संगीत सुनने मिल जाये, तो उससे बहुत उल्लास पैदा होता है. पोते, नातिन हैं इनसे भी एक उल्लास होता है. ऐसे बहुत अवसर होते हैं पर मुख्यत: मैं कहूंगा मेरे उल्लास का संबंध साहित्य, कलाओं और प्रकृति से जुड़ा है. कोई चिड़िया नजर आये या पेड़ पौधों का कोई ऐसा संयोजन नजर आया, जो मैंने पहले लक्ष्य न किया हो, ये सारी चीजें मुङो खुशी से भर देती हैं.

8. पुस्तकों का जिक्र किया आपने, मैं जानना चाहूंगी ऐसी कौन-कौन सी पुस्तकें हैं जिन्हें आप बार-बार पढ़ना चाहेंगे?

ऐसी पुस्तकों की सूची तो बहुत लंबी है. लेकिन मैं अ™ोय की ‘शेखर एक जीवनी’ और उनकी एक लंबी कविता ‘असाध्य वीणा’, मुक्तिबोध की ‘एक साहित्यिक की डायरी’ और उनकी लंबी कविता ‘अंधेरे में’, श्रीकांत वर्मा का कविता संग्रह ‘मगध’, रघुवीर सहाय का पहला कविता संग्रह ‘सीढ़ियों पर धूप’ का जिक्र करना चाहूंगा. मुङो प्रसाद की ‘कामायनी’ भी पसंद है, निराला की ‘राम की शक्ति पूजा’ भी. महादेवी वर्मा के संस्मरण भी. विदेशी भाषा की भी बहुत सारी पुस्तकें हैं.

9. शास्त्रीय गायन की बात की आपने. अगर शास्त्रीय संगीत में किसी एक को ही सुन पाने का विकल्प हो, तो किसे सुनेंगे. यह स्थिति क्रमश: शास्त्रीय नृत्य, चित्रकला और रंगमंच के लिए भी हो, तो कौन से नाम सबसे पहले जेहन में उभरेंगे?

अगर मुङो चुनना ही होगा, तो शास्त्रीय संगीत में मैं दो नाम चुनूंगा, एक नहीं. एक तो मल्लिकाजरुन मंसूर और दूसरे कुमार गंधर्व. चित्रकला में भी मैं दो चित्रकार चुनूंगा, सैयद हैदर रजा और जगदीश स्वामीनाथन. शास्त्रीय नृत्य में मैं फिर दो कलाकारों को चुनूंगा, केलुचरण महापात्र और प्रेरणा श्रीमाली. रंगमंच में मैं हबीब तनवीर और अब्राहिम अल्काजी के नाटक चुनूंगा.

10. सबसे पंसदीदा राग या बंदिश के बारे में बताएं?

मुङो मल्लिकाजरुन मंसूर का राग ललिता गौरी और कबीर भैरव बहुत पसंद हैं. उनका गाया हुआ राग नट और कन्नड़ के वचन भी अद्भुत हैं. अलीअकबर खान ने पंडित रविशंकर के साथ एक जुगलबंदी बजायी थी सिंधुभैरवी, वो अविस्मरणीय है. कुमार गंधर्व के निगरुणी भजन तो पसंद हैं ही, राग लगन गंधार, राग श्री, जो कि एक कठिन राग है, के साथ भीम पलाश और मालकौंस के प्रकार का जिक्र करना चाहूंगा. मुङो भीमसेन जोशी का पुरिया धनाश्री और मालकौंस भी पसंद है.

11. आप इस उम्र में भी ऊर्जा से भरपूर हैं. इस ऊर्जा का स्नेत क्या है?

कोई स्नेत नहीं है. ऊर्जा का क्या स्नेत होगा, ऊर्जा स्वयं अपने आपमें स्नेत है. मुझमें हमेशा से अपने से बाहर जो बहुत बड़ी सच्चई है, उसमें शिरकत करने का उत्साह रहा है. मुङो लगता है कि संसार में जो इतनी विपुलता, इतनी समृद्धि है बावजूद बहुत सारी विकृतियों के, वो आपको सक्रिय रखने के लिए काफी है. अगर आपके किये से दूसरों को कोई सकारात्मक फर्क पड़ता है, तो ऐसा प्रयत्न कभी छोड़ना नहीं चाहिए.

12. क्या किसी तरह का अफसोस भी है, जो मन को आहत करता हो?

जी हां, क्योंकि उन्होंने मेरे साथ बड़ा अबौद्धिक और सांस्कृतिक र्दुव्‍यवहार किया था, इसलिए मैं उन पूर्वाग्रहों के चलते धर्मवीर भारती का ठीक से आकलन नहीं कर पाया. मुङो इस पर भी खेद रहा कि शरद जोशी जैसे व्यक्ति ने मुङो लगातार गलत समझने का लगभग व्यवसाय ही बना लिया था. कई बार ये भी लगता है कि मुझसे नागाजरुन की पूरी व्याप्ति को समझने में भी कोताही हुई.

13. किसी से क्षमा मांगने या क्षमा करने की भी कोई इच्छा मन को सालती है?

ऐसा तो कुछ याद नहीं आता. अब तो अपने पर संयम अधिक हो गया है, लेकिन पहले कई बार मैं ज्यादा डांट वांट लगा देता था. गुस्से में आ जाता था. ऐसे बहुत सारे अवसर आ जाते थे, लेकिन वो ऐसे नहीं हैं कि जिनको याद करके पछताया जाये. जो बीत गयी, सो बीत गयी.

14. मीडिया के बारे में कुछ कहना चाहेंगे?

हिंदी का मीडिया तो लगभग ध्वस्त है. उससे तो कोई उम्मीद करना ही व्यर्थ है. प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक दोनों की हालत बहुत खराब है. इन्होंने अपने को बहुत विस्तृत और शक्तिशाली भले बना लिया है, लेकिन इनमें सार्थकता बहुत कम रह गयी है. रुचि को बनाने में, संसार को पोसने में इनकी जो भूमिका हो सकती थी, उसे इन्होंने नकार दिया है.

भाषा को जिम्मेदारी से बरतने और उसके लिए उत्साह पैदा करने में इनका जो योगदान हो सकता था, ये उससे विरत दिखते हैं. लगभग गैरसांस्कृतिक माध्यम हैं ये. इनमें संस्कृति की स्थिति बहुत ही नगण्य सी है.

15.आपको अगर मौजूदा व्यस्था में चार बड़े बदलाव करने का मौका मिले, तो क्या बदलना चाहेंगे?

एक तो प्राइमरी स्तर में मातृभाषा में शिक्षा अनिवार्य हो. दूसरा, पुस्तकों में लोगों की रुचि बनी रहे और बढ़े, इसके लिए संस्थागत जो भी प्रयत्न करना जरूरी है, वो हो. तीसरा, ये जो आतंक है धन-दौलत का, उसके बरक्स सृजन के वर्चस्व का एक महौल बना सकना. चौथा, दिल्ली में पैदल चलनवालों के लिए अधिक और सुरक्षित जगह बनाना, बजाय कार वालों के लिए सारी सड़कें लगभग आरक्षित कर देने के.

16. साहित्य-संस्कृति के विकास में संस्थानों का क्या योगदान हो सकता है. विशेषकर भारत भवन के संदर्भ में बताएं?

संस्थानों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है. चाहे वो साहित्य हो, चाहे कलाएं, इनके प्रचार-प्रसार, विस्तार, स्थिरता, समर्थन और प्रोत्साहन के लिए एक संस्थागत ढांचे की जरूरत है. सारी दुनिया में है. हमारे यहां संस्थानों ने यह जिम्मेदारी निभायी है. हर कला अपने आप में एक संस्था है. साहित्य को प्रकाशक चाहिए, पाठक चाहिए. ये अपने आप में एक संस्थागत ढांचा है.

भारत भवन जब बनाया गया था, तो उसके पीछे दो उद्देश्य थे. पहला, मध्यप्रदेश का जो सर्वश्रेष्ठ है, उसको देश के सर्वश्रेष्ठ के समकक्ष खड़ा किया जाये और दूसरा, देश के सर्वश्रेष्ठ को मध्यप्रदेश लाया जाये. दोनों काम एक साथ हों. उसमें जब तक उत्कृष्टता की चिंता रही, जो कि पहले दस वर्ष रही, तब तक वो शिखर पर रहा, अब उसको कोई पूछता नहीं है. वहां, गतिविधियां बहुत बढ़ गयी हैं, उसके वित्तीय साधन बहुत बढ़ गये हैं, लेकिन मीडियोक्रिटी, नौकरशाही, गलत किस्म की राजनीति, वैचारिक हस्ताक्षेप ने उस उत्कृष्टता को समाप्त कर दिया. ये सब वहीं नहीं हुआ, लगभग हर जगह हुआ है और हर पार्टी ने किया है.

भारतीय जनता पार्टी ऐसा कुछ ज्यादा ही जोर-शोर से करती है, क्योंकि उसे लगता है कि उसे संस्कृति की समझ है. जबकि भारतीय जनता पार्टी वह पार्टी है, जिसमें भारतीय संस्कृति की रत्ती भर भी समझ नहीं है, क्योंकि उसमें संस्कृति के क्षेत्र का कोई बड़ा जानकार नहीं है. अब चूंकि उनकी सरकार है, इसलिए जब वे संस्थाओं में अपने लोग रखेंगे, तो वो मीडियोकर ही होंगे. शेखर सेन को संगीत नाटक अकादमी का अध्यक्ष बना दिया गया. कौन हैं वो, अधिक से अधिक एक अभिनेता हैं. वो क्या करेंगे संगीत नाटक अकादमी में!

भले आदमी होंगे, पर भले लोग ही तो दुनिया को नष्ट कर रहे हैं. संस्थानों में उत्कृष्टता चाहिए और एक लोकतांत्रिक रुख चाहिए. भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद का अध्यक्ष किसको बना दिया, कोई उनका नाम ही नहीं जानता. अगर आपके हिसाब से मान लें कि वामपंथी इतिहासकारों ने अन्याय किया है, र्दुव्‍याख्या की है, तो उसका मुकाबला करने के लिए उन्हीं के कद के लोग चाहिए, पर आप तो किसी को भी वहां बैठा दे रहे हैं.

खुद ही जिनकी शिक्षा संदिग्ध है, वे हमारे विश्व प्रसिद्ध शिक्षा संस्थानों में हस्तक्षेप करने की ओर बढ़ रही हैं. ऐसा इसलिए हो रहा है, क्योंकि भारतीय जनता पार्टी मीडियोक्रिटी की बहुसंख्यक पार्टी है. वैसे तो हर पार्टी ऐसी है, पर भाजपा में यह ज्यादा है, क्योंकि इनके यहां इसके साथ-साथ धर्माधता, सांप्रदायिकता, परस्पर विद्वेष आदि का ज्यादा बोलबाला है.

17. संस्थाओं की स्वायत्तता का सवाल साहित्य-संस्कृति से किस तरह जुड़ा है?

इस समय संस्कृति से संबंधित लगभग सभी सार्वजनिक संस्थाएं या तो पूरी तरह से अप्रासंगिक हो गयी हैं या ध्वंस के कगार पर हैं, क्योंकि उनमें जो बद्धमूल नौकरशाही है, बाबूगीरी है, उसने स्वायत्तता को भी पूरी तरह से अपने कब्जे में कर लिया है.

वो तो स्वायत्त हो गये हैं, लेकिन संस्थाओं के उद्देश्यों से उनका कोई संबंध नहीं रह गया है. इन संस्थाओं और अकादमियों को सिरे से समाप्त कर देना चाहिए, क्योंकि अब ये मीडियोक्रिटी, औसतपन बढ़ाने के साधन हो गये हैं. इनमें उत्कृष्टता के लिए न तो कोई जगह बची है, न उसकी कोई परवाह. इन समय तीनों अकादमियों के जो तीन सचिव हैं, अगर वो सचिव न रहें, तो उनका कोई नाम साहित्य व कला जगत में नहीं होगा. वो बाबू से बढ़ कर सचिव हो गये हैं, क्या करेंगे साहित्य और संस्कृति के लिए?

18. समाज में साहित्य की भूमिका को कैसे परिभाषित करेंगे. साहित्य जो काम करता है क्या कोई दूसरी कला कर सकती है?

असल में साहित्य और कलाओं की भूमिका विपक्ष की भूमिका है. असली विपक्ष तो हम हैं. ये राजनीतिक पार्टियां एक-दूसरे की विपक्ष नहीं हैं, ये तो एक ही थैले के चट्टे-बट्टे हैं.

हर कला का अपना काम है और उसको कोई दूसरी कला नहीं कर सकती. संगीत का काम साहित्य नहीं कर सकता, साहित्य का काम संगीत भी नहीं कर सकता. अव्वल तो कलाओं के अपने-अपने स्वायत्त क्षेत्र हैं, अद्वीतिया है. लेकिन वो जब-तब साथ आ सकते हैं, आपस में संवाद और सहकार कर सकते हैं. करते भी हैं. लेकिन उनका इस समय सांस्कृतिक और राजनीतिक महत्व अधिक है.

वो इस सत्ता व्यवस्था के, जो भले लोकतांत्रिक ढंग से आयी है, लेकिन सांप्रदायिक बेचैनी, धर्माधता और विभिन्न समुदायों में विद्वेष,जातिवाद को बढ़ावा दे रही है, के विरुद्ध खड़ी हो सकती हैं. साहित्य और कलाओं को ये भूमिका निभानी चाहिए. ये सारी की सारी कलाएं आत्मालोचक कलाएं हैं. आप से सच कहेंगी, लेकिन उसे मान लेने का इसरार नहीं करेंगी, बल्कि अपने सच पर शक भी करेंगी कि हो सकता है ये सच न भी हो. कोई राजनेता ऐसा नहीं कर सकता. क्या नरेंद्र मोदी कभी ऐसा संदेह कर सकते हैं कि सच उनके पास नही है? लेकिन, लेखक ऐसा संदेह कर सकता है कि हो सकता है सच उसके पास न हो.

19. मौजूदा समय को देखते हुए क्या कभी साहित्यविहीन समाज की कल्पना घेरती है?

देखिये, दो तरह की चीजें हैं, कोई समाज इतिहास से गुजरने के बाद साहित्यहीन नहीं हो सकता. दो संभावनाएं हैं, एक तो ये है कि साहित्य सिकुड़ता जाये, उसकी सामाजिक हैसियत और उपयोगिता सिकुड़ती जाये, जो कि संभवत: इन दिनों हो ही रहा है.

दूसरी, तरफ वो अपने को विन्यस्त करने के नये साधन खोजे. यानी जैसा होता आया है, जिसको हम साहित्य कहते आये हैं, उससे अलग कोई साहित्य रूप बनने लगे ये संभव है. अभी तो लगता नहीं है कि ऐसा हो रहा है, क्योंकि मेरे पास सोशल मीडिया का कोई अनुभव नहीं है. जहां तक मेरी जानकारी है, वहां बहुत संक्षेप में अपनी बात कहने का बहुत उत्साह है, वगैरह.

20. युवा रचनाकारों से कितनी उम्मीदें हैं और आज के दौर में जो साहित्य रचा जा रहा है, उसकी

प्रासंगिकता कैसे देखते हैं?

देखिये, हम जैसे लोग इतने बूढ़े होने के बाद भी न तो उम्मीद लगाना छोड़ते हैं, न सपने देखना बंद करते हैं. अब ये हो सकता है कि ये एक बीमारी हो. अब है तो है, क्या कर सकते हैं.

दूसरी बात ये है कि इस समय जो लिखा जा रहा है, हमेशा की तरह उसका बहुत बड़ा हिस्सा खराब है, थोड़ा अच्छा भी है. जैसा कि हमेशा होता है, ये कोई आज की बात नहीं है. तीसरी बात ये है कि आज के साहित्य में अपने से पहले की याद कम और शिथिल हो रही है.

साहित्य तो स्मृति और कल्पना का ही मामला है. इसमें अगर स्मृति इतनी क्षीण हो जायेगी फिर कल्पना को भी खिलने का अवसर नहीं मिलेगा, ये बात आज के युवाओं को समझना चाहिए. नये रचनाकारों को लेकर थोड़ा उत्साह जागता है, ज्यादा निराशा जागती है, लेकिन दोनों साथ-साथ जागते हैं.

जन्म : 16 जनवरी 1941

दुर्ग (मध्य प्रदेश)

भाषा : हिंदी, अंगरेजी

विधाएं : कविता, आलोचना वैचारिकी.

मुख्य कृतियां

कविता संग्रह

शहर अब भी संभावना है, एक पतंग अनंत में, कुछ रफू कुछ थिगड़े, अभी कुछ और,अगर इतने से, जो नहीं हैं, कहीं नहीं वहीं, घास में दुबका आकाश, तिनका तिनका, तत्पुरुष, दु:ख चिट्ठीरसा है, विवक्षा, इबारत से गिरी मात्रएं, उम्मीद का दूसरा नाम, समय के पास समय, पुरखों की परछी में धूप, उजाला एक मंदिर बनाता है.

आलोचना

फिलहाल, सीढ़ियां शुरू हो गयी हैं, कुछ पूर्वग्रह, समय से बाहर, कविता का गल्प, पाव भर जीरे में ब्रह्म भोज, कभी कभार, बहुरि अकेला.

संपादन

बहुबचन, समास, पूर्वग्रह, कविता एशिया (सभी पत्रिकाएं), तीसरा साक्ष्य (कुमार गंधर्व), प्रतिनिधि कविताएं (मुक्तिबोध), पुनर्वसु (निर्मल वर्मा), टूटी हुई बिखरी हुई (शमशेर बहादुर सिंह की कविताओं का एक चयन), कविता का जनपद, जैनेंद्र की आवाज, परंपरा की आधुनिकता, शब्द और सत्य, सन्नाटे का छंद (अ™ोय की कविताएं), पंत सहचर, मेरे युवजन मेरे परिजन, संशय के साये (कृष्ण बलदेव वैद संचयन)

अनुवाद

जीवन के बीचोंबीच (पोलिश कवि तादेऊष रूजेविच की कविताओं का अनुवाद), अंत:करण का आयतन (पोलिश कवि ज्बीग्न्येव हर्बेर्त की कविताओं का अनुवाद), खुला घर (चेश्वाव मीवोष की कविताओं का अनुवाद).

सम्मान

साहित्य अकादमी पुरस्कार, दयावती मोदी कवि शिखर सम्मान, कबीर सम्मान, आफिसर ऑव द ऑर्डर आव आर्ट्स एंड लेटर्स (फ्रांस सरकार), आफिसर ऑफ द ऑर्डर ऑव क्रॉस (पोलिश सरकार), भारत भारती सम्मान.

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