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सुरक्षित खाद्य पदार्थ वर्तमान और भविष्य

पिछले दिनों नूडल्स के उत्पाद के मामले में खाद्य संरक्षा नियामक संस्थाओं की सक्रियता सराहनीय है, लेकिन बाजार में मिलावट और दूषित पदार्थो की भरमार है. जांच-एजेंसियों की लापरवाही, संसाधनों के अभाव, भ्रष्टाचार, केंद्र-राज्य सहयोग का अभाव और लचर दंड-व्यवस्था का खामियाजा उपभोक्ताओं को अपने स्वास्थ्य को खतरे में डाल कर चुकाना पड़ रहा है. […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 14, 2015 5:43 AM
पिछले दिनों नूडल्स के उत्पाद के मामले में खाद्य संरक्षा नियामक संस्थाओं की सक्रियता सराहनीय है, लेकिन बाजार में मिलावट और दूषित पदार्थो की भरमार है. जांच-एजेंसियों की लापरवाही, संसाधनों के अभाव, भ्रष्टाचार, केंद्र-राज्य सहयोग का अभाव और लचर दंड-व्यवस्था का खामियाजा उपभोक्ताओं को अपने स्वास्थ्य को खतरे में डाल कर चुकाना पड़ रहा है.
इस स्थिति को महज व्यावसायिक या व्यवस्थागत समस्या मान कर समाधान की खोज सही नहीं होगी. यह देश और देश के लोगों के जीवन के लिए एक खतरनाक स्थिति है. नूडल्स मामले के बहाने चली खाद्य संरक्षा की बहस से अच्छे परिणामों की उम्मीद है. इस मसले के विभिन्न पहलुओं पर विश्लेषण आज के समय में..
राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखानी होगी
देविंदर शर्मा
वरिष्ठ टिप्पणीकार
मिलावट वाले खाद्य पदार्थ देश के लोगों के सेहत से खिलवाड़ कर रहे हैं और इसे किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए. विदेशी पूंजी और रोजगार की आड़ लेकर इन कंपनियों की गलत हरकत को किसी भी कीमत में स्वीकार नहीं किया जा सकता है. देश में बेहतर इंफ्रास्ट्रर के साथ ही गुणवत्ता वाले खाद्य पदार्थ ही लोगों का सही मायने में विकास कर सकते हैं. इसके लिए सख्त कानून के साथ ही राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखानी होगी.
भारत में नेस्ले कंपनी द्वारा बनायी जाने वाली मैगी पर गुणवत्ता को लेकर उठे सवाल हैरान करने वाले नहीं हैं. इस बात में कोई शंका नहीं है कि देश में खाद्य सुरक्षा की प्रक्रिया काफी लचीली है. खाद्य मानकों को कंपनियां ठीक से पालन नहीं करती है.
देश में डिब्बाबंद खाद्य पदार्थो का बाजार साल-दर-साल बढ़ता जा रहा है. अक्सर देश में दूध के मिलावटी होने के खबर आती रहती है. दूध के 70 फीसदी नमूने गुणवत्ता के मानकों पर खरे नहीं उतरते हैं. लेकिन फिर भी दूध कंपनियों का कारोबार जारी है. मामला सामने आने के बाद दिखावे की कार्रवाई की जाती है और फिर स्थितियां जस की तस हो जाती हैं.
कंपनियां चाहे देशी हो या विदेशी, कोई भी तय मानकों का पालन नहीं करती है. मिठाइयों में मिलावट की बात अब देश में सामान्य बात हो गयी है. दिवाली के समय इस पर खूब हो-हल्ला होता है, सरकार दिखावे के लिए कार्रवाई करती भी है.
देश की सोच में भी मिलावाटी खाद्य पदार्थो को लेकर जागरुकता का अभाव दिखता है. मैग्गी का मामला सामने आने के बाद उम्मीद है कि लोग इसके प्रति जागरुक होंगे. सरकारों का रवैया इसे लेकर हमेशा निराशाजनक रहा है. आलम यह है कि दिल्ली की खाद्य प्रयोगशाला में कर्मचारियों की कमी है. अगर दिल्ली में ऐसे हालात हैं, तो अन्य जगहों की प्रयोगशालाओं के हालात का अंदाजा लगाया जा सकता है.
देश में निवेश की बात होती है. लेकिन निवेश सिर्फ सड़क, बिजली और इंफ्रास्ट्रर को बेहतर करने तक सीमित रहा है. खाद्य पदार्थो की गुणवत्ता को लेकर निवेश की बात नहीं की जाती है. चीन में प्रति दो लाख आबादी पर एक प्रयोगशाला उपलब्ध है, जबकि भारत में 9 करोड़ लोगों पर एक प्रयोगशाला की सुविधा है. विकास के पैमाने पर हम अक्सर चीन से तुलना करते हैं.
चीन में दूध में मिलावट की की खबर आयी और उसकी जांच की गयी. दोषी पाये जाने पर दो लोगों को फांसी की सजा दे दी गयी. क्या भारत में ऐसी उम्मीद की जा सकती है? विशेषज्ञ कहते हैं कि कड़ी कार्रवाई से निवेश प्रभावित होगा और रोजगार के अवसर कम होंगे. भारत के मुकाबले चीन में अधिक विदेशी पूंजी निवेश होता है, लेकिन वह खाद्य पदार्थो की गुणवत्ता से समझौता नहीं करता है. भारत में खाद्य पदार्थो की मिलावट करने पर अधिकतम 10 साल की सजा का प्रावधान है.
जबकि इसे रोकने के लिए सरकार को 10 करोड़ से अधिक टर्नओवर वाली कंपनी के दोषी होने पर 10 फीसदी का जुर्माना लगाने का प्रावधान करना चाहिए. मैग्गी बनाने वाली विदेशी कंपनी नेस्ले की बात करें तो वह उत्पाद के प्रचार पर सालाना 450 करोड़ रुपये खर्च करती है और गुणवत्ता पर सिर्फ 19 करोड़ रुपये. इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि कंपनियां गुणवत्ता की बजाय अपना व्यापार बढ़ाने पर अधिक ध्यान दे रही है.
आज भारत में दूध, फल, सब्जी से लेकर अधिकांश खाद्य पदार्थ खाद्य सुरक्षा के मानकों पर खरे नहीं उतरते हैं. इसके लिए सरकार को नियम सख्त बनाने के साथ ही खाद्य प्रयोगशालाओं की संख्या बढ़ानी होगी. मौजूदा समय में सिर्फ 72 ऐसे लैब हैं और इससे 100 गुणा बढ़ाने की आवश्यकता है. इसके लिए निवेश चाहिए. मानकों का उल्लंघन करने वाली कंपनियों का लाइसेंस रद्द किया जाना चाहिए और इसके दोषी लोगों के लिए मौत की सजा का प्रावधान किया जाना चाहिए. यह सही है कि यूरोपीय देशों की तरह भारत में खाद्य पदार्थो की गुणवत्ता को लेकर उतनी जागरुकता नहीं है.
देश में एक लॉबी है जो इन कंपनियों के साथ खड़ी होती है. इसका तर्क होता है कि भारत में हवा, पानी जब प्रदूषित है, तो खाद्य पदार्थ कैसे शुद्ध हो सकते हैं. यही जनमानस के बीच कंपनियों के पक्ष में मत बनाती हैं. मेरा सवाल है कि यही कंपनियां अमेरिका और यूरोप में मानकों का सही तरीके से कैसे पालन करती हैं. यूरोप में पानी के जांच में 135 तरह के कीटनाशक पाये गये, लेकिन भारत के मुकाबले कोका-कोला की गुणवत्ता वहां सही है. अगर भारत में कोला-कोला में कीटनाशक पाये जाते हैं, तो सिर्फ डिब्बाबंद पानी भी गंदा होगा क्योंकि भारत का पानी प्रदूषित है. ऐसे तर्क देकर भारत के लोग मिलावट को बढ़ावा दे रहे हैं.
खाद्य पदार्थ अमेरिका में मानकों पर खरे नहीं उतरते हैं, तो उन पर कड़ी कार्रवाई की जाती है, फिर भारत में ऐसा क्यों नहीं हो सकता है? क्या कंपनियां अपने उत्पाद के प्रचार में यह कहती हैं कि हवा और पानी के प्रदूषित होने के कारण उनके उत्पाद स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं? अगर ऐसा दावा कंपनियां नहीं करती हैं तो फिर मानकों पर खरा नहीं उतरने पर सरकार को सख्त कार्रवाई तो करनी ही चाहिए. भारत में इसे लेकर राजनीतिक इच्छाशक्ति की भी कमी रही है.
चीन अपने हितों को देखते हुए निवेश को मंजूरी देता है. जबकि भारत में सिर्फ निवेश आकर्षित करने और रोजगार बढ़ाने पर जोर दिया जाता है. इसका सबसे बेहतर उदाहरण है जहाजों को तोड़ने का उद्योग. अधिकांश देशों ने इसे प्रतिबंधित कर दिया है, लेकिन भारत में यह उद्योग तेजी से बढ़ रहा है. इस उद्योग से कई तरह के प्रदूषण हो रहे हैं.
लेकिन निवेश और रोजगार के नाम पर इसे देश में चलाया जा रहा है. भारत पूरी दुनिया का कूड़ाघर बनता जा रहा है. लेकिन अब शिक्षा बढ़ने और लोगों में जागरुकता आने के बाद खाद्य पदार्थो की गुणवत्ता को लेकर आम लोग जागृत हो रहे हैं. मैग्गी प्रकरण से इसे बढ़ावा मिला है.
मिलावट वाले खाद्य पदार्थ देश के लोगों के सेहत से खिलवाड़ कर रहे हैं और इसे किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए. विदेशी पूंजी और रोजगार की आड़ लेकर इन कंपनियों की गलत हरकत को किसी भी कीमत में स्वीकार नहीं किया जा सकता है. देश में बेहतर इंफ्रास्ट्रर के साथ ही गुणवत्ता वाले खाद्य पदार्थ ही लोगों का सही मायने में विकास कर सकते हैं. इसके लिए सख्त कानून के साथ ही राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखानी होगी.
अंतरराष्ट्रीय संरक्षा परिदृश्य
दुनिया में शायद ही कोई देश ऐसा होगा जहां खाद्य पदार्थो की गुणवत्ता की जांच और उसे उपभोक्ताओं के लिए गैरनुकसानदेह बनाने की व्यवस्था नहीं है. बदलती वैश्विक परिस्थितियों में अब कानूनों में सुधार और समरूपता की जरूरत भी महसूस की जा रही है. भारत, चीन और अमेरिकी कानूनों पर एक नजर..
भारत में खाद्य संरक्षा कानून
– वर्ष 2011 में नये कानून के साथ भारतीय खाद्य संरक्षा व्यवस्था को अंतरराष्ट्रीय मानदंडों के अनुरूप बनाने की कोशिश की गयी. हालांकि यह कानून 2006 में ही संसद द्वारा पारित कर दिया गया था, पर उसे लागू होने में पांच साल का समय लग गया. इस कानून का मुख्य उद्देश्य उपभोक्ताओं के लिए खाने-पीने की वस्तुओं की गुणवत्ता बेहतर करना और उत्पादकों द्वारा भ्रामक तथा गलत सूचनाएं और विज्ञापन देने पर रोक लगाना है.
इसके तहत भारतीय खाद्य संरक्षा एवं मानक नियामक (एफएसएसएआइ) को वैज्ञानिक आधारों पर गुणवत्ता के मानदंड स्थापित करने का निर्देश है. इस संस्था की स्थापना 2008 में हुई थी. इस कानून के तहत आवश्यक प्रावधान के अनुसार सभी राज्यों और केंद्र-शासित प्रदेशों में खाद्य आयुक्तों की नियुक्ति की गयी है.
इस कानून में पूर्ववर्ती कानूनों- मिलावट निरोधक कानून, 1954; फल उत्पादन आदेश, 1955; मांस उत्पाद आदेश, 1973; वनस्पति तेल उत्पादन नियंत्रण आदेश, 1947; खाद्य तेलों से संबंधित विभिन्न आदेश; दूध और दुग्ध उत्पाद आदेश, 1992 तथा आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 के खाद्य संबंधी प्रावधानों आदि को समाहित कर दिया गया है.
नियामक संस्था के जिम्मे खाद्य उपभोग, जैविक खतरों, मिलावट आदि से संबंधित आंकड़े और सूचनाएं जुटाने तथा आसन्न खतरे के लिए चेतावनी व्यवस्था स्थापित करने का काम है. यह संस्था देश की राजधानी दिल्ली से काम करती है और हर राज्य में एक खाद्य सुरक्षा आयुक्त कार्यरत होता है. जिलों में निगरानी की जिम्मेवारी अनुमंडलाधिकारों को दी गयी है.
कानून के तहत शिकायतों और अपराधों के निपटारे के लिए विभिन्न स्तरों पर सुनवाई की व्यवस्था है. शिकायत दर्ज होने या अपराध घटित होने के एक वर्ष के भीतर मुकदमा शुरू करने का प्रावधान भी है. इन व्यवस्थाओं के बावजूद भारत में खाद्य संरक्षा की स्थिति बहुत चिंताजनक है जिसे निम्न बिंदुओं के आधार पर रेखांकित किया जा सकता है :
> केंद्रीय नियामक संस्था नियमित रूप से उत्पादों की जांच नहीं करती है.
> राज्य सरकारों के खाद्य संरक्षा विभागों में सुस्ती और लापरवाही है.
> केंद्र और राज्यों के बीच समुचित संयोजन का अभाव है तथा राज्य के विभाग इन मामलों में केंद्र को जानकारी नहीं भेजते हैं.
> गिने-चुने मान्यता प्राप्त प्रयोगशालाओं के अलावा अनेक जांच प्रयोगशालाएं निर्धारित मानदंडों पर खुद ही खरी नहीं उतरती हैं. इनमें प्रयुक्त मशीनों और औजारों को समय-समय पर अपडेट नहीं किया जाता है.
> कानूनी रूप से अधिकार-संपन्न होने के बावजूद संबंधित अधिकारी नियमित रूप से जांच, निगरानी और पड़ताल का काम नहीं करते हैं.
> वर्ष 2009-10 में केंद्र व राज्यों द्वारा तय पंचवर्षीय कार्य-योजना अब तक लंबित है.
चीन में संरक्षा कानून
– चीन ने पिछले कुछ वर्षों में खाद्य संरक्षा व्यवस्था में बड़े बदलाव किये हैं. इस वर्ष 24 अप्रैल को नेशनल पीपुल्स कांग्रेस की स्थायी समिति ने खाद्य संरक्षा कानून में महत्वपूर्ण संशोधनों के द्वारा नियमों के उल्लंघन पर प्रशासनिक, सिविल और आपराधिक दंडों को बढ़ाया गया है. संशोधित कानून इस वर्ष एक अक्तूबर से लागू हो जायेंगे. इस कानून में कुल 154 अनुच्छेद हैं, जबकि संशोधन से पूर्व इसमें 104 अनुच्छेद थे.
प्रस्तावित कानून ने निगरानी प्रक्रिया को ठोस बनाते हुए अनुच्छेद 21 में व्यवस्था की है कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार नियोजन आयोग खाद्य एवं औषधि प्रशासन तथा गुणवत्ता निरीक्षक विभागों के साथ मिलकर जांच के परिणामों को स्तर निर्धारित करने के लिए वैज्ञानिक आधार मानेंगे.
इस कानून में गड़बड़ियों की सूचना देनेवाले लोगों को पुरस्कृत करने का भी प्रावधान किया गया है, बशर्ते शिकायतें सही पायी जायें. पूरी प्रक्रिया में व्यापारिक और उपभोक्ता संगठनों का भी प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया गया है.
चीन ने नये कानून में खतरनाक टॉक्सिक कीटनाशकों के प्रयोग को सब्जियों, फलों, चाय-पत्तियों, पारंपरिक चीनी जड़ी-बूटी औषधियों आदि में प्रतिबंधित कर दिया गया है. जेनेटिक संवर्धित खाद्य पदार्थों पर इस बारे में स्पष्ट सूचनाएं उत्पाद के पैक पर दिया जाना अनिवार्य कर दिया गया है.
इन प्रावधानों का उल्लंघन करने पर दंड में पांच से 30 गुना वृद्धि की गयी है तथा उपभोक्ता को अधिक मुआवजा देने की व्यवस्था की गयी है. चीनी प्रधानमंत्री ली केक्यिांग ने इस कानून को पूरी तरह से लागू करने और खाद्य संरक्षा से किसी तरह का समझौता नहीं करने का निर्देश दिया है.
अमेरिकी खाद्य संरक्षा कानून
– राष्ट्रपति बराक ओबामा ने चार जनवरी, 2011 को खाद्य एवं औषधि प्रशासन-खाद्य संरक्षा आधुनिकीकारण कानून, 2010 को लागू करने का आदेश दिया था. इसमें प्रशासन को खाद्य पदार्थों के ऊपज से लेकर उत्पादन तक की प्रक्रिया के नियमन के अधिकार निर्गत किये गये हैं. यह कानून हाउस ऑफ कॉमंस द्वारा 2009 में पारित खाद्य संरक्षा वृद्धि कानून की तर्ज पर है और इसे 1938 के आदेशों के बाद सबसे महत्वपूर्ण नियम माना जाता है.
इस कानून के तहत प्रशासन को पहली बार खाद्य आपूर्ति पर विज्ञान पर आधारित बचाव नियंत्रणों के तहत निगरानी और जांच का अधिकार दिया गया है. उसे आयातित पदार्थों की गुणवत्ता अमेरिकी उपभोक्ताओं के मद्देनजर निर्धारित करने का जिम्मा भी दिया गया है. परंतु शराब उत्पादों को इससे अलग रखा गया है.
यह कानून पूरी तरह से इस वर्ष लागू होगा और उसके बाद भी कंपनियों को उनके आकार के आधार पर तीन वर्ष का अतिरिक्त समय दिया जायेगा ताकि वे विभिन्न प्रावधानों के अनुरूप अपने उत्पाद बना सकें.
अमेरिका में भारतीय खाद्य उत्पादों पर कठोर पाबंदी
अमेरिकी खाद्य संरक्षा निरीक्षकों ने 2015 के पहले पांच महीनों में भारत में निर्मित कई खाद्य पदार्थों को उपभोक्ताओं के लिए खतरनाक बताते हुए प्रतिबंधित कर दिया है. अमेरीकी खाद्य एवं औषधि प्रशासन के वेबसाइट पर उपलब्ध सूचनाओं के अनुसार खारिज की गयी भारतीय वस्तुओं की संख्या किसी अन्य देश की ऐसी चीजों से बहुत अधिक है. पिछले साल भी प्रतिबंधित वस्तुओं में भारतीय उत्पादों की संख्या सबसे अधिक थी.
इस वर्ष 97 भारतीय उत्पादों को स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह पाया गया है. भारत की तुलना में अमेरिका से बहुत अधिक व्यापार करनेवाले देश मेक्सिको के 30 ही उत्पाद इस श्रेणी में हैं. आधिकारिक वेबसाइट के अनुसार भारतीय खाद्य उत्पादों में कीटनाशकों, फंफूद और सालमोनेला जीवाणुओं की बहुत ज्यादा मात्र पायी गयी है. कई उत्पादों में तो सड़न भी मिली है. भारत में जो खाद्य निरीक्षण की व्यवस्था है, उसके जिम्मे निर्यात की जानेवाली वस्तुओं की गुणवत्ता परखने का काम नहीं है.
यह ध्यान देने की बात है कि अमेरीकी निरीक्षकों ने जिन उत्पादों पर पाबंदी लगायी है, उनमें से कई भारतीय बाजार के बड़े लोकप्रिय ब्रांड हैं. सबसे खतरनाक यह है कि भारतीय कंपनियों ने तर्क यह दिया है कि यह स्थिति दोनों देशों के मानदंडों में अंतर के कारण पैदा हुई है क्योंकि हमारे देश में जो रसायन उपयोग में लाये जा सकते हैं, उन पर अमेरीका में पाबंदी है. प्रश्न यह है कि अगर कोई चीज अमेरीकियों के लिए ठीक नहीं है, वह भारतीयों के लिए सही कैसे हो सकती है.
टीटीआइपी समझौते में खाद्य संरक्षा
टीटीआइपी यानी द ट्रांसअटलांटिक ट्रेड एंड इन्वेस्टमेंट पार्टनरशिप अमेरिका एवं यूरोपीय संघ के बीच चल रहे वार्ताओं की श्रृंखला है जिसके तहत दोनों पक्षों के बीच व्यापारिक नियमों को आसान बनाने की कोशिश की जा रही है. इसमें जिन क्षेत्रों पर अधिक जोर दिया जा रहा है उनमें खाद्य संरक्षा, पर्यावरण, बैंकिंग के नियम तथा राष्ट्रों के संप्रभु अधिकार शामिल हैं.
फिलहाल अमेरिका और यूरोपीय संघ के सदस्य देशों में इस प्रयास को ‘समाजों पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का हमला’ कह कर जोरदार विरोध हो रहा है. टीटीआइपी के तहत यूरोपीय संघ के खाद्य संरक्षा और पर्यावरण के नियमों को अमेरीकी कानूनों के समकक्ष लाने की कोशिश की जा रही है. इसके विरोधियों का कहना है कि अमेरीकी नियम बहुत शिथिल हैं.
इनके अनुसार अमेरीकी सुपरमार्केटों में बेची जानेवाली 70 फीसदी प्रसंस्करित खाद्य वस्तुओं में जेनेटिकली संवर्धित तत्व होते हैं. इसके उलट यूरोपीय संघ में ऐसे तत्वों मिलाने की अनुमति न के बराबर दी जाती है. अमेरिका में कीटनाशकों के प्रयोग पर भी बहुत शिथिलता है. वहां मांस में वृद्धि के हार्मोन भी प्रयुक्त होते हैं, परंतु इनसे कैंसर होने के प्रमाणों के कारण यूरोप में ऐसे हार्मोनों के प्रयोग पर पाबंदी है. चूंकि अमेरीकी खाद्य उत्पादक विश्व व्यापार संगठन के तहत इनमें शिथिलता की कोशिश कर रहे हैं.
इस कारण यूरोप में इस समझौतों का विरोध कर रहे संगठनों और राजनीतिक समूहों को ठोस संदेह है कि टीटीआइपी में भी ये कोशिशें हो सकती हैं. अमेरीका में महज 12 टॉक्सिक तत्वों पर पाबंदी है, जबकि यूरोपीय संघ 1,200 तत्वों के प्रयोग की मनाही करता है. आगामी दिनों में यह मामला वैश्विक नियमों को भी प्रभावित कर सकता है.
फूड सेफ्टी मानकों पर विचार की दरकार
धर्मेद्र कुमार
निदेशक, इंडिया एफडीआइ वाच
यह हकीकत है कि वर्तमान फूड सेफ्टी कानून एग्रीबिजनेस को ध्यान में रख कर बनाया गया है और उसे छोटे व्यापारियों पर जस का तस नहीं थोपा जा सकता. फूड सेफ्टी अथॉरिटी में स्ट्रीट वेंडर्स तक को रजिस्टर करना है. हां, यह बात और है कि इसके तहत पटरी पर काम करनेवालों को लाइसेंस की जरूरत नहीं है.
पिछले महीने आयी उत्तर प्रदेश सरकार की रिपोर्ट में स्विट्जरलैंड आधारित सौ वर्षो से ज्यादा पुरानी कंपनी नेस्ले के लोकप्रिय ब्रांड मैगी में लीड और मोनोसोडियम ग्लूटामेट की मात्र तयशुदा सीमा से कई गुना ज्यादा बतायी गयी. इसने खाद्य सुरक्षा को लेकर एक बहुआयामी बहस छेड़ दी. न सिर्फ भारत सरकार के फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड अथॉरिटी ऑफ इंडिया ने असुरक्षित और हानिकारक बताते हुए इसके सभी नौ ब्रांड को प्रतिबंधित कर दिया है, बल्कि इस का असर एशिया के अन्य देशों से लेकर यूरोप, अमेरिका और अफ्रीका तक पहुंच गया और भारत से लेकर केन्या तक कई सुपर स्टोर्स ने मैगी को अपने शेल्फ से हटा लिया है.
वर्तमान बहस के तमाम पहलुओं में सबसे गंभीर पहलू फूड सेफ्टी का है. यह तो जग जाहिर है की बहुराष्ट्रीय कंपनियां फूड सेफ्टी का दोहरा पैमाना रखती हैं और भारत जैसे विकासशील देश में अपना सुरक्षा मानक नीचे कर लेती हैं. जो विकसित देशों में प्रतिबंधित है उसका हमारे यहां बहुराष्ट्रीय कंपनियां मनमाने तरीके से उपयोग कर जन स्वास्थ्य को गंभीर खतरा पैदा कर देती हैं.
हमें इस वाकये से सबक लेते हुए अपने फूड सेफ्टी नियमों (खाद्य सुरक्षा के मानकों), के अनुपालन में आ रही समस्याओं और लेबलिंग से जुड़े कानूनों पर विचार करने की जरूरत है. भारत सरकार एक नयी स्वास्थ्य नीति ला रही है. इसमे जंक फूड के सवाल को गंभीरता से लेने की जरूरत है. जंक फूड बनानेवाली कंपनियां तो यहां तक प्रयास कर रही है कि स्वास्थ्य नीति में जंक फूड शब्द का ही इस्तेमाल न हो.
खाद्य प्रसंस्करण उद्योग भारत सरकार के उच्च प्राथमिकताओं में है, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए की ज्यादा प्रसंस्करित भोजन बेहद हानिकारक हो सकते हैं. खाद्य प्रसंस्करण को बढ़ावा देने की सरकारी नीति की गंभीरता इसी बात से लगायी जा सकती है कि खाद्य प्रसंस्करण का एक अलग विभाग ही है और हमारी कृषि बजट का एक तिहाई से भी ज्यादा इस विभाग पर खर्च होता है.
आज हमारा खाद्य प्रसंस्करण उद्योग भारत के कुल फूड बाजार का 32 फीसदी है, मैन्युफैरिंग जीडीपी का 14 फीसदी है और कुल औद्योगिक निवेश का 6 फीसदी खाद्य प्रसंस्करण में हो रहा है. जाहिर है कॉरपोरेट अपने हित को संरक्षित करते हुए कभी नहीं चाहेगा की जंक फूड के उद्योग को निशाना बनाया जाये.
हमें अपनी फूड पॉलिसी पर पुनर्विचार करना चाहिए, ताकि हमें स्थानीय ताजा खाना मिल सके, जो पोषण से भरपूर हों और हमारी खाद्य संस्कृति के भी अनुरूप हो. नीति निर्धारण में स्कूली बच्चों को टारगेट करते हुए उन्हें गुड फूड और जंक फूड की समझ दी जाये. फास्ट फूड और स्लो फूड का अंतर बताया जाये. लेबलिंग कानूनों में अवश्यक बदलाव कर न्यूट्रिशन एवं हानिकारक पदार्थो की जानकारी स्पष्ट की जाए.
बाजारों में मिलनेवाले चिकन और दूध मे एंटी बायोटिक पाया जाना आम बात है. यहां तक कि सेब पर एंटी बायोटिक का छिड़काव किया जा रहा है. होली, दिवाली के अवसर पर अचानक बढ़ी मांग को पूरा करने के लिए बाजार नकली खोवा से बनी मिठाई से भर जाता है. खाद्य पदार्थ में हानिकारक मिलावट से हर स्तर पर कराई से निपटना होगा. जन स्वास्थ्य की सुरक्षा से खिलवाड़ नहीं किया जा सकता. लेकिन हालात ये हैं कि खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने की व्यवस्था काफी लुंजपुंज है.
एफएओ और डब्ल्यूएचओ ने 1963 में ही फूड स्टैंडर्ड को निर्धारित करने का कार्यक्रम बनाया था. भारत में फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड विधेयक 2006 मे संसद से पास हो गया था और वह भी बगैर किसी बहस के. फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड अथॉरिटी बनने में पांच साल लग गये.
2011 में अथॉरिटी बनने के बाद कानून के तहत सभी फूड बिजनेस को फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड अथॉरिटी में रजिस्टर करना है और लाइसेंस लेना है. भारत में करोड़ लोग खाद्य पदार्थो के व्यापार में लगे हुए हैं, मगर अभी तक एक लाख से भी कम व्यापारियों ने फूड लाइसेंस लिया है. व्यापारी इस प्रक्रिया से नहीं जुड़ पा रहे, क्योंकि फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्ड कानून और उसके तहत बने नियम विकसित देशों से प्रेरित है और छोटे व्यापारी इसके कई प्रावधानों को अव्यावहारिक मान रहे हैं.
यह हकीकत है कि वर्तमान फूड सेफ्टी कानून एग्रीबिजनेस को ध्यान में रख कर बनाया गया है और उसे छोटे व्यापारियों पर जस का तस नहीं थोपा जा सकता. फूड सेफ्टी अथॉरिटी में स्ट्रीट वेंडर्स तक को रजिस्टर करना है. हां, यह बात और है कि इसके तहत पटरी पर काम करनेवालों को लाइसेंस की जरूरत नहीं है.
दिल्ली सरकार द्वारा गैरसरकारी संगठनों के साथ मिल कर चलाये जा रहे सैकड़ो जेंडर रिसोर्स सेंटर को पटरी पर काम करनेवाले लोगों को फूड सेफ्टी अथॉरिटी से रजिस्टर करने को कहा गया. सबसे जरूरी बात विदेशों की तरह हमारे यहां सिर्फ होटल, रेस्टोरेंट और सुपर मार्केट ही फूड बिजनेस में नहीं हैं. इसमें करोड़ों स्वरोजगारी और सूक्ष्म और लघु उद्योग लगे हैं. दूध और दुग्ध उत्पाद देनेवाले भी हैं. रेहड़ी, पटरी, खोमचा वाले भी हैं और ढाबा वाले भी हैं. इन सबको ध्यान में रख कर नियमों को बनाना होगा और वह सख्ती से लागू हो सके, इसके लिए तमाम संसाधन देने होंगे.

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