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अब किसी के एजेंडे में नहीं है समाज सुधार
हिंदी साहित्य के प्रतिष्ठित समालोचक, गहन अध्येता और प्राध्यापक नामवर सिंह की हिंदी आलोचना एवं वैचारिकता के विस्तार व विकास में अहम भूमिका रही है. 90 वर्ष की आयु में भी हिंदी आलोचना परिदृश्य में उनकी बौद्धिक उपस्थिति असंदिग्ध है. आज के समय में देश, समाज और साहित्य की दशा-दिशा व भविष्य को लेकर नामवर […]
हिंदी साहित्य के प्रतिष्ठित समालोचक, गहन अध्येता और प्राध्यापक नामवर सिंह की हिंदी आलोचना एवं वैचारिकता के विस्तार व विकास में अहम भूमिका रही है. 90 वर्ष की आयु में भी हिंदी आलोचना परिदृश्य में उनकी बौद्धिक उपस्थिति असंदिग्ध है. आज के समय में देश, समाज और साहित्य की दशा-दिशा व भविष्य को लेकर नामवर सिंह से प्रभात खबर की प्रीति सिंह परिहार ने बातचीत की. पेश हैं उसके खास अंश.
आप आज जहां खड़े हैं, वहां से पीछे मुड़ कर देखते हैं तो क्या महसूस करते हैं?
वर्तमान के दबाव इतने होते हैं कि पीछे मुड़ कर देखने का ख्याल ही नहीं आता. कभी-कभी जरूरत पड़ने पर ही पीछे मुड़ कर देखता हूं, वरना मैं आगे देखने में ही विश्वास करता हूं. आज क्या हो रहा है, कल क्या होगा, इसकी चिंता ज्यादा रहती है. मैं उन लोगों में नहीं हूं, जो अतीतजीवी होते हैं और अतीत की स्मृतियों में ही खोये रहते हैं. मैं उस मन:स्थिति में अभी नहीं पहुंचा हूं. आमतौर पर मेरी उम्र में यही होता है कि भविष्य नहीं दिखायी पड़ता है. लोग अतीतजीवी हो जाते हैं और बीते हुए दिनों में से कुछ अच्छे दिनों को खास तौर पर याद कर जीना चाहते हैं. इस दृष्टि से मैं अतीतजीवी नहीं हूं. जो बीत गयी, सो बात गयी. मेरी जीवनदृष्टि भविष्यदर्शी है.
चलिए आज की बात करते हैं. आज जो हालात हैं, उसमें देश का क्या भविष्य नजर आता है?
मैं निराशावादी नहीं हूं. अतीतजीवियों को अतीत बहुत सुंदर लगता है और वे उससे आज की तुलना करते रहते हैं और कहते हैं कि कल की अपेक्षा आज का समय बहुत बुरा है. सवाल ये है कि अगर बुरा है, तो उसको बदलो. उसमें अच्छा क्या हो सकता है, इस बारे में सोचो और उसके लिए पहल करो. मनुष्य होने के कारण हमारा कर्तव्य है कि हम सक्रिय रूप से अपने वर्तमान में हस्तक्षेप करें.
आपने आजादी के बाद का पूरा दौर देखा है. आर्थिक- सामाजिक विषमता बढ़ी है या घटी है?
ये तो अर्थशास्त्री और समाजशात्री ही बेहतर बता सकते हैं. लेकिन मेरा ख्याल है कि स्वाधीनता के बाद बहुत से क्षेत्रों में विकास हुआ है. भारत में अनेक चीजों का उत्पादन बढ़ा है या शुरू हुआ है. कुल मिला कर देखें, तो स्वाधीनता के पहले का जो भारत था, जिसे हमने देखा है, वो अब नहीं है. गांव तक बदल गये हैं. पहले गांव में सड़कें नहीं थीं, लेकिन अब हैं. टेलीफोन और टेलीविजन पहुंच गया है. यातायात के साधन बढ़े हैं. लोगों की पोशाक बदल गयी है. इसलिए विकास तो हुआ है और कई पैमानों पर विकास हुआ है. शिक्षा के क्षेत्र में देश ने बहुत प्रगति की है. नये स्कूल और विश्वविद्यालय खुले हैं. सांस्कृतिक संस्थाओं की स्थापना हुई. साहित्य अकादमी, संगीत नाटक अकादमी, ललित कला अकादमी की स्थापना हुई.
विकास के इस क्रम के कई दौर देखे जा सकते हैं. एक दौर लंबा चला है, जो मोटे तौर पर नेहरू के साथ जुड़ा हुआ है. दूसरा दौर इंदिरा गांधी का आया. कांग्रेस की सरकार हटी, तो गैर कांग्रेसी सरकारें बनीं, वो दौर भी हमने देखा है. एक नया दौर आजकल चल रहा है, जिसमें फिर कुछ नयी योजनाएं आ रही हैं. अब स्थिति उनकी जैसी भी हो. लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि बहुत बड़े पैमाने पर लोगों को रहन-सहन, खान-पान, मकान, यातायात और शिक्षा की सुविधाएं मिलीं. सवाल ये है कि ये संस्थाएं जिन सपनों के साथ खुली थीं, क्या उसे पूरा कर रही हैं! असल में जो परिवर्तन हुए, उसमें हृस भी है.
कुल मिला कर देखें तो हमारा जो अर्थतंत्र है, उसमें पूंजी की शक्तियां हावी हैं. हमारे देश में जितनी तेजी से पूंजीवाद का विकास हुआ है, उसकी तुलना में आम लोगों का विकास कम हुआ है. बेशक, लोगों के रहन-सहन में बहुत फर्क आया है, लेकिन विषमता की लकीर मोटी ही हुई है. अमीर बहुत अमीर हो गये हैं, गरीब और ज्यादा गरीब हो गये हैं.
हम लोग जो सोचा करते थे कि एक समतामूलक समाज बनायेंगे, आर्थिक खाई कम होगी, वो नहीं हो पाया. एक जमाने में हमारे यहां बड़े पूंजीपति बहुत कम थे.
लोग टाटा-बिड़ला यही गिने-चुने नाम जानते थे. आज देखें तो भारत में पूंजीपतियों की बहुत बड़ी संख्या है. वहीं गरीबों की स्थिति में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं आया है. अब भी एक बड़ी आबादी अभाव और बदहाली में जी रही है. हां इस बीच एक नया मध्यमवर्ग जरूर पनपा है. बहुत लोगों को नौकरियां मिलीं, लेकिन इसके साथ बेकारी भी उसी अनुपात में बढ़ी. खेती-किसानी में कोई बड़ा परिवर्तन नहीं हुआ.
किसानों को जो सुविधाएं मिलनी चाहिए थीं,नहीं मिलीं. कम से कम पहले किसान आत्महत्या तो नहीं करते थे, लेकिन आज वो आत्महत्या करने को मजबूर हैं. हमारे देश को कृषि प्रधान देश कहा जाता है लेकिन इस पहचान को कायम रखने के लिए कोई ठोस काम नहीं हुआ. एक जमाने में खूब नहरें बनीं, हरित क्रांति का नारा दिया गया, इसके अलावा कुछ नहीं हुआ.
प्रकृति पर तो इंसान का बस नहीं. बेमौसम बरसात से फसलें खराब हो जाती हैं, पर्याप्त बारिश न होने पर उपज प्रभावित होती है, सरकारें उसकी क्षतिपूर्ति का प्रयास भी करती हैं, लेकिन इस स्थिति से निपटने के लिए कोई ठोस पहल आज तक नहीं हो सकी है. इतने दिन में कोई ऐसा मजबूत सिस्टम नहीं बना, जो किसान और खेती-बाड़ी के लिए हो. मैं कृषि विशेषज्ञ या अर्थशास्त्री तो हूं नहीं, लेकिन एक आम नागरिक के नाते जो लगता है, वो सब तो यही है.
मूल्य के रूप में धैर्य और सहिष्णुता कम हुई है या फिर बढ़ी है?
अ™ोय की कविता की एक पंक्ति है-‘मूत्र-सिंचित मृत्तिका के वृत्त में/ तीन टांगों पर खड़ा, नतग्रीव, धैर्य-धन गदहा.’ गदहा सबसे धैर्य धन होता है. कम विद्रोह करने वाला, संतोषी प्रवृत्ति का. हमारा देश भी इस मामलें में धैर्य धन है. पिछले कुछ समय से जो स्थिति चल रही है देश में, उस स्थिति में विद्रोह हो सकता था, पर नहीं हुआ. यह वही देश है, जिसमें गांधी जी के नेतृत्व में सत्याग्रह आंदोलन हुआ, किसानों ने कितने सारे आंदोलन किये थे. आज कहां कोई आंदोलन हो रहा है?
लंबे अरसे से विद्रोह कहीं नहीं दिखायी पड़ रहा है. विद्रोह तो छोड़िये कोई विरोध प्रदर्शन तक नहीं हो रहा है. इसका मतलब यह नहीं है कि सब सुखी हैं. हमारे यहां विद्रोह और आंदोलन की एक लंबी परंपरा रही है, उसे देखते हुए लगता है कि हमारे यहां की आम जनता में धीरज बढ़ा हैं. अपार धीरज है हमारे यहां की आम जनता में. आजादी की लड़ाई के बाद भी कितने सारे आंदोलन हुए थे. इमरजेंसी लगी तो जय प्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया के नेतृत्व में बड़ा आंदोलन हुआ था. मजदूरों की न जाने कितनी हड़तालें हुई हैं.
उसकी तुलना में देखें तो आज देशव्यापी आंदोलन की कहीं हवा तक नहीं है. यहां तक कि कोई राजनीतिक पार्टी भी आंदोलन करनेवाली नहीं है. अब जुलूस निकलते हैं, आंदोलन नहीं होते. इस रूप में देखें तो लगता है कि जनता की सहनशीलता में बहुत ज्यादा इजाफा हुआ है और उसी के बल पर राजकाज चल रहा है. एक जमाने में जिस तरह की राजनीतिक चेतना लोगों में थी, मैं कहना चाहूंगा कि वो अब मद्धम पड़ गयी है. लोकतंत्र में मजबूत विपक्ष का होना जरूरी है, जो कि आज नहीं है. यह स्थिति चिंताजनक है.
आज के समय में कौन सी चीज है, जो आपको सबसे ज्यादा परेशान करती है?
बहुत सी बातें हैं ऐसी. सबसे बड़ी समस्या है रोजगार का न होना. पढ़-लिख कर आनेवाले युवाओं की एक बहुत बड़ी कतार है, उनके लिए काम नहीं है. शिक्षा का प्रसार हो गया है, बड़ी संख्या में युवा पढ़-लिख कर तैयार हो रहे हैं लेकिन वो क्या काम करें? सब खेत मजदूर तो हो नहीं सकते. ऐसे लोगों के लिए सरकार को सोचना चाहिए. आप विद्यालय, विश्वविद्यालय तो खोल रहे हैं लेकिन वहां पढ़ कर निकल रहे बच्चों का क्या भविष्य है? लड़कियां भी आज खूब पढ़ रही हैं, लेकिन शिक्षा प्राप्त करके अधिकतर क्या कर रही हैं? गृहस्थिन ही बन कर रह जा रही हैं. जॉब नहीं है उनके लिए. उत्तर भारत में ऐसी लड़कियों की बहुत बड़ी संख्या है, जो उच्च शिक्षा हासिल करने के बाद भी जॉब में नहीं जा सकीं, क्योंकि उनके लिए मौके ही नहीं थे.
परिवार और समाज की मानसिकता भी एक हद तक जिम्मेदार है. सरकार के पास समाज सुधार का कोई कार्यक्रम नहीं है. एक जमाने में राजनीतिक पार्टियां समाज सुधार का भी काम किया करती थीं. अब उनका मकसद रह गया है सिर्फ चुनाव लड़ना और जीतना. उनके पास पॉलिटिकल एजेंडा तो है, लेकिन सोशल एजेंडा नहीं है.
अभी आप हिंदू साहित्य को किस स्थिति में पाते हैं?
मैं दुनिया भर का साहित्य पढ़ता हूं. रूसी, अंगरेजी, बांग्ला, तमिल, कन्नड़ सहित देश-विदेश की लगभग हर भाषा के साहित्य का आपको हिंदी में अनुवाद मिल जायेगा. हिंदी को संविधान में भले राजभाषा का दर्जा दिया गया हो, लेकिन राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी अपनी भूमिका निभा रही है. दिल्ली में लगनेवाले विश्व पुस्तक मेले में आप देखिए, हिंदी की मौलिक किताबों सहित अन्य भाषाओं से हिंदी में अनूदित किताबों के स्टॉल पर कितनी भीड़ होती है. साहित्य की हर विधा में हिंदी में बड़े पैमाने पर लिखा ही जा रहा है.
अपनी प्रिय पुस्तकों के बारे में बतायें?
यह सूची बहुत लंबी है. अनेकों प्रिय पुस्तकें, प्रिय कवि और लेखक हैं, जिनको मैं बार-बार पढ़ता हूं. सबका नाम गिनाने में वक्त लगेगा और अब मेरी याददाश्त भी साथ नहीं देती. भारतीय भाषाओं के साथ ही विश्व साहित्य भी मैंने खूब पढ़ा है. एक जमाने में रूसी साहित्य बहुत अच्छा लगता था, तो टॉलस्टॉय, चेखव, पुश्किन को खूब पढ़ा. अंगरेजी के अलावा फ्रेंच, जर्मन, रूसी यहां तक कि अफ्रीकी भाषा का साहित्य भी, जो अंगरेजी में आया है, एक जमाने में मैंने खूब पढ़ा. वैसे भी और कोई शौक तो था नहीं मुङो, सिर्फ किताबें पढ़ने का शौक था. मैं किताबी कीड़ा था. अब भी हूं, आप मेरी लाइब्रेरी देख कर अंदाजा लगा सकती हैं.
आप इस उम्र में भी इतने सक्रिय हैं. इस ऊर्जा का स्नेत क्या है?
मैं 90 के करीब पहुंच रहा हूं. अब बैठ कर लिखने की शक्ति नहीं रह गयी है और बोल कर लिखवाने की आदत नहीं है. कभी ऐसी आदत विकसित नहीं की मैंने. क्लास रूम में व्याख्यान जरूर दिया, लेकिन लिखा हमेशा अपने हाथ से ही. अब वो शक्ति नहीं रही है कि बैठ कर लिख सकूं और रात भर जाग कर किताब पूरी कर सकूं.
लिख भले ही नहीं रहे हैं, लेकिन साहित्य जगत में आप बेहद सक्रिय हैं.
क्या नया आ रहा है, उसे जानने की, उससे परिचित होने की उत्सुकता है. इसका प्रमाण यह है कि नये से नये लेखकों की भी किताबें पढ़ता हूं. दूरदर्शन में एक कार्यक्रम होता है हर सप्ताह, उसमें एक नयी पुस्तक पर चर्चा करता हूं. अभी एक किताब आयी है माधव हाड़ा की ‘पचरंग चोला पहन सखी री’, इसको पढ़ा है, कल इसकी चर्चा करूंगा. मीरा पर उन्होंने ये अद्भुत किताब लिखी है. कविता की भी एक पुस्तक पढ़ी है अभी, मिथलेश श्रीवास्तव की ‘पुतले पर गुस्सा’. इसकी चर्चा आगे करूंगा. मेरे घर में आपको जितनी हिंदी की किताबें मिलेंगी, उतनी ही अंगरेजी की भी मिलेंगी. ये किताबें खरीदी हैं मैंने. मेरा पूरा घर लाइब्रेरी है. पढ़ने का शौक रहा है, आज भी पढ़ता हूं. इसमें सुख मिलता है.
हिंदी में नयी पीढ़ी के रचनाकारों का क्या भविष्य नजर आता है आपको?
प्रतिभाओं की कमी नहीं है हिंदी में. अच्छे कवि, अच्छे कहानीकार, यहां तक कि अच्छे आलोचक भी हैं. बहुत अच्छा लिखा जा रहा है. हिंदी साहित्य को हम किसी से पीछे नहीं मान सकते. आज के लेखक अपने समाज के प्रति बहुत सजग और चौंकन्ने हैं. विद्रोह का स्वर है उनमें. समाज को बदलनेवाली दृष्टि है. बड़ी संख्या में स्त्रियां लिखने के मैदान में आयी हैं और बहुत अच्छा लिख रही हैं.
क्या साहित्य का कोई विकल्प है?
कोई विकल्प नहीं है साहित्य का. साहित्य पढ़ने की चीज है, दृश्य के रूप में सिनेमा और नाटक हैं. एक जमाना था जब सामाजिक उद्देश्य को ले कर फिल्में बना करती थीं, इन फिल्मों को देखने के लिए भीड़ उमड़ पड़ती थी. साहित्यिक कृतियों पर फिल्में बनती थीं और बहुत अच्छी फिल्में बनती थीं. वह फिल्मों का स्वर्ण युग था, जो बीत गया. एक वक्त था जब ऐसे नाटक हुआ करते थे, जिनकी खूब चर्चा होती थी.
अच्छे नाटक अब भी होते हैं लेकिन नाटक का जो सुनहरा युग हबीब तनवीर और इब्राहिम अल्काजी के जमाने में हुआ करता था, वो बीत गया. इसलिए दृश्य-श्रव्य माध्यम तो कमजोर पड़ गये हैं, लेकिन साहित्य में आज भी बहुत अच्छा लिखा जा रहा है. पुस्तक मेलों किताबों के प्रति लोगों का जुनून देखा जा सकता है. प्रकाशकों की संख्या बढ़ी है. प्रोडक्शन की क्वालिटी बढ़ी है.
फिल्म की बात की आपने. अपनी पसंदीदा फिल्मों और कलाकारों के बारे में बतायें?
ऐसा कोई नाम तो याद नहीं, लेकिन आजादी के बाद का जो दौर था, उस समय की फिल्मों की सूची ले लो, तो उनमें अधिकतर टॉप की फिल्में मिलेंगी. राजकपूर और नरगिस हों या दिलीप कुमार सभी टॉप के कलाकार थे. उस वक्त कोलकाता भी फिल्मों का केंद्र था. मै बनारस में रहता था, जहां हिंदी के साथ-साथ अकसर बांग्ला फिल्में भी देखने को मिल जाती थीं. सत्यजीत रे की ‘पाथेर पंचाली’ और गुरुदत्त की ‘प्यासा’ सब वहीं देखीं.
पहले हर क्षेत्र में विशेषज्ञों को काम करने के लिए एक अलग ढंग की स्वायत्तता मिलती थी. किसी का दखल नहीं होता था, यानी चीजें ऊपर से तय नहीं होती थीं. इसके उत्कृष्ट परिणाम भी होते थे. क्या इस तरह की स्वायत्तता आज है?
आज भी स्वायत्त हैं संस्थाएं. कोई अंकुश नहीं है उनमें. उच्च शिक्षण संस्थाओं और विश्वविद्यालयों का जहां तक सवाल है, उनमें कोई हस्तक्षेप नहीं कर रहा है. लेकिन यह एक हकीकत है कि हर संस्था का एक स्वर्ण युग होता है, जिसके बीत जाने के बाद उसमें गिरावट आती है. इसका अपना आंतरिक नियम होता है. एक दौर था, जिसे साहित्य अकादमी, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, संगीत नाटक अकादमी और ललित कला अकादमी का स्वर्ण युग कह सकते हैं. वो आरंभिक दौर था, तब एक उत्साह था उत्कृष्ट काम करने का. इस तरह का नेतृत्व देनेवाले लोग थे. अब इन संस्थाओं में थोड़ी गिरावट आयी है. शिक्षा संस्थाओं में भी आयी है.
जवाहरलाल नेहरू विवि अब वैसा नहीं रह गया है, जैसा शुरू के दौर में था. दिल्ली विवि के कई प्रतिष्ठित कॉलेज अब वैसे नहीं रहे, जैसे एक दौर में हुआ करते थे. उत्थान-पतन का एक ऐतिहासिक नियम है. अनेक संस्थाओं में गिरावट आयी है. स्वयं संसद में गिरावट आयी है. आज संसद में हंगामा ज्यादा होता है, बहस कम होती है. ऐसा इसलिए है क्योंकि संस्थाओं का अपना आंतरिक नियम होता है, उत्थान-पतन का. स्वाधीन भारत के निर्माण का एक दौर था, जिसमें हम शिखर पर पहुंचे थे. अब देखें तो, उस शिखर में थोड़ी गिरावट आ रही है. अब वो दौर नहीं रहा, न वो उत्साह, आशा और विश्वास रहा.
क्या वो दौर आनेवाले समय में लौटेगा?मैं ज्योतिषी तो हूं नहीं, भविष्यवाणी कर नहीं सकता. लेकिन लौटेगा जरूर.
गुरु-शिष्य परंपरा को किस रूप में देखते हैं. क्या यह परंपरा अवसान की ओर है?
हमारे देश में गुरु-शिष्य परंपरा सदियों से चली आ रही है. यह केवल शिक्षा में नहीं है, संगीत, नृत्य सहित कला की लगभग सभी विधाओं में है. लेकिन इस महत्वपूर्ण भारतीय परंपरा में आज थोड़ी शिथिलता आयी है. क्यों आयी है मैं कह नहीं सकता, लेकिन आयी जरूर है.
क्या मौजूदा समाज को सूचनायुक्त, पर ज्ञानरहित समाज कहा जा सकता है?
देखो, सूचनातंत्र केवल सूचना देने के लिए है, ज्ञानवर्धन के लिए नहीं है. ज्ञानवर्धन मीडिया और इंटरनेट से नहीं हो सकता. शिक्षण संस्थाएं हैं ज्ञान के लिए. ज्ञान के स्नेत तो साधना की चीजें हैं.
क्या दुनिया को बदलनेवाली विचारधारा के तौर पर मार्क्सवाद आज भी प्रासंगिक है? भारत में आज कम्युनिस्ट पार्टियां मुख्यधारा की राजनीति में हस्तक्षेप करने की स्थिति में क्यों नहीं हैं?
यह बहुत पेचीदा सवाल है. एक दौर था जब दुनिया दो हिस्सों में बंटी हुई थी. एक समाजवादी दुनिया थी, दूसरी पूंजीवादी. तब लगभग एक तिहाई दुनिया समाजवादी थी. रूस, चीन तथा लैटिन अमेरिका के कई देशों में समाजवाद था. अफ्रीकी देशों में था. यूरोप के कई देश थे, जिनमें आम तौर पर लेबर पार्टी हुआ करती थी. फिर हमने एक और दौर देखा, जिसमें रूस में ही समाजवाद खत्म हो गया, चीन में खत्म हो गया है.
मार्क्सवाद के आधार पर जो समाजवादी संसार बना था, वो खत्म हो गया. और तो और इंग्लैंड में कभी जो लेबर पार्टी बहुत मजबूत हुआ करती थी, आज उसका बुरा हाल है. अमेरिका तक में ये पार्टी थी. अब ये इतिहास की बातें हो चुकी हैं. लेकिन ये एक परिवर्तन है, जिसे स्वीकार करना होगा. हमारे देश में भी कभी समाजवादी पार्टी और क्रांगेस पार्टी मजबूत हुआ करती थीं. ट्रेड यूनियन मजबूत हुआ करती थीं, आज नहीं हैं. अब इसके लिए जिम्मेदार कौन है, यह कहना कठिन है. इतिहास के चक्र के जो नियम होते हैं, उनका विेषण करना पड़ेगा. इसके लिए किसी एक व्यक्ति या एक पार्टी को दोष नहीं दिया जा सकता है.
आज मार्क्सवाद की प्रासंगिकता पर क्या कहेंगे?
देखो, इतिहास तो बदलेगा ही. कभी लोग समझते थे कि पूंजीवाद नहीं जायेगा, लेकिन पूंजीवाद एक तिहाई दुनिया में खत्म हो गया था और समाजवाद आ गया था. फिर अतंर्विरोध पैदा हुआ, समाजवाद खत्म होने लगा और पूंजीवाद आ गया. लेकिन पूंजीवाद कोई अमरौती खा कर नहीं आया है. पूंजीवाद के पहले सांमतवाद था. परिवर्तन इतिहास का नियम है. बदलाव तो होगा ही, ये और बात है कि उसे देखने के लिए मैं रहूं न रहूं. परिवर्तन के अपने नियम होते हैं. जिस तरह पूंजीवाद के अंदर से ही समाजवाद पैदा हुआ था, उस तरह से फिर एक संकट खड़ा होगा और फिर एक नयी व्यवस्था आयेगी. अब उसका नाम समाजवाद हो न हो.
मौजूदा समय में मीडिया की भूमिका को कैसे देखते हैं?
मीडिया के पास आज जितनी ताकत है, पहले कभी नहीं थी. लेकिन आजकल चूंकि बाजारवाद चल रहा है, मार्केट इकोनॉमी है, इसलिए हर मीडिया संस्थान मार्केट के अधीन है. पहले वह ध्यान रखता था कि उसकी कुछ जिम्मेदारियां हैं, नियम और नैतिकताएं हैं, लेकिन आज सब पर बाजार हावी है. हमारे यहां आम तौर पर बाजार शब्द बुरा माना जाता है. किसी को बाजारू कह दो तो, देखो फिर क्या होगा. लेकिन आज हर चीज बिकाऊ है और हर चीज खरीदी जा सकती है. यह स्थिति मानवीय नहीं, अमानुषिक है. अब कुछ ही चीजें रह गयी हैं, जो बिकाऊ नहीं हैं.
मानवीय रिश्ते बिकाऊ नहीं हैं. इनमें नफा-नुकसान नहीं देखा जाता. बाजार इसलिए बुरा है, क्योंकि इसके नियम के अनुसार हर चीज को हम बेचने-खरीदने की कतार में ला कर खड़ा कर देना चाहते हैं, यहां तक कि मानवीय भावनाओं को भी. लोग हर काम के पहले सोचने लगे हैं कि क्या फायदा होगा. यह पूंजीवाद का तर्क है. कुछ चीजें होती हैं, जिनमें नुकसान होता है फिर भी हम वो करना चाहते हैं. बिके न बिके, फायदा हो न हो, लेकिन हम करेंगे. बेशक मीडिया में बाजार हावी है लेकिन पत्रकारिता का उद्देश्य पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है.
आपको अगर व्यवस्था में बदलाव का मौका मिले तो कौन सी चीजें आप बदलना चाहेंगे?
ये तो बड़ा सवाल है. मैं चूंकि लेखन के क्षेत्र से हूं, तो लोगों के दिल और दिमाग बदलना चाहूंगा. समाज को बदलने के लिए तो आंदोलन की, संगठन की जरूरत होगी. लेकिन कलम समाज के बड़े हिस्से को न सही, कुछ लोगों को तो बदल ही सकती है. आज युवाओं में बहुत निराशा है, उनको हिम्मत देने की जरूरत है कि तुम बहुत कुछ कर सकते हो.
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