इमरजेंसी के 40 साल
आज ही के दिन 40 साल पूर्व तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की अनुशंसा पर तत्कालीन राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद ने देश में आपातकाल लगाया था. उन दिनों लोकनायक जयप्रकाश नारायण (जेपी) के नेतृत्व में छात्र आंदोलन चल रहा था. इलाहाबाद हाइकोर्ट के न्यायाधीश जगमोहन ने इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध ठहराया था. कोर्ट के […]
आज ही के दिन 40 साल पूर्व तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की अनुशंसा पर तत्कालीन राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद ने देश में आपातकाल लगाया था. उन दिनों लोकनायक जयप्रकाश नारायण (जेपी) के नेतृत्व में छात्र आंदोलन चल रहा था. इलाहाबाद हाइकोर्ट के न्यायाधीश जगमोहन ने इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध ठहराया था. कोर्ट के फैसले के बाद श्रीमती गांधी को पद से हटाने की मांग हो रही थी. जेपी ने दिल्ली के रामलीला मैदान में ऐतिहासिक सभा की थी. इसी के तुरंत बाद आपातकाल लगाने की घोषणा की गयी थी.
विपक्ष के तमाम नेता गिरफ्तार कर लिये गये थे. अखबारों और धरना-प्रदर्शन, रैली पर प्रतिबंध लगा दिया गया था. नागरिक अधिकार छीन लिये गये थे. आपातकाल में हजारों लोगों को मीसा के तहत जेल में भर दिया गया था. जेपी आंदोलन में भाग लेनेवाले और मीसा व अन्य कानूनों के तहत जेल में बंद उस वक्त के कई नेता आज सत्ता में हैं. झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार इसी आंदोलन की उपज हैं.
इमरजेंसी में एक भी दिन मैं अपने घर पर नहीं सोया था
रघुवर दास
मुख्यमंत्री
वह दिन अब भी याद है, जब देश में इमरजेंसी लगी थी. इमरजेंसी लगने की जानकारी मुझे नहीं थी. मैं जमशेदपुर के भालूबासा चौक पर छात्र संघर्ष समिति का कार्यालय बना रहा था. उसी समय एक साइकिल सवार आया. उसने मुझसे कहा.. यहां से भागो. देश में इमरजेंसी लग गयी है.
पुलिस तुम लोगों को गिरफ्तार कर सकती है. मैं और मेरे साथी पास में ही जाकर छिप गये. थोड़ी देर में ही पुलिस वहां पहुंच गयी. हमलोग एक घर में छिप कर पुलिस की कार्रवाई देख रहे थे. थोड़ा विलंब होता, तो हम लोग गिरफ्तार कर लिये गये होते. वह साइकिल सवार आज भी मुझे याद है. आज पता चलता है कि एक आम आदमी भी इमरजेंसी के कितने खिलाफ था. इमरजेंसी के दौरान मैं अपने साथियों के साथ वाल राइटिंग करता था. यह काम आम-तौर पर रात में ही होता था.
पुलिस लगातार पीछा कर रही थी, लेकिन मैं और मेरे कई साथी इस काम को लगातार अंजाम दे रहे थे. कई बार पुलिस के साथ आंखमिचौनी भी हुई. दिन में इमरजेंसी के खिलाफ परचा बांटता था. यह सुन कर ताज्जुब लगेगा कि परचा बांटने के लिए पैसा कांग्रेस के ही एक नेता देते थे. सीतारामडेरा के प्रखंड अध्यक्ष जलेश्वर मुखी आर्थिक मदद के साथ प्रोत्साहित भी करते थे.
इमरजेंसी के दौरान मैं किसी भी दिन अपने घर पर नहीं सोया. एक दिन बारिश हो रही थी. सोचा कि पुलिस इस बारिश में क्या करने आयेगी. मैं घर चला गया. पीछे बरामदे में खटिया पर सो रहा था. मेरे एक पड़ोसी थे, उन्होंने पुलिस को सूचना दे दी. आधे घंटे बाद पुलिस आ गयी. साकची के थाना प्रभारी केके सिंह, हवलदार सत्यनारायण सिंह और एक यादव जी मुझे तलाश रहे थे. पूरे घर को खंगाला. मैं पुलिस की आहट पाकर चुपचाप सोया रहा.
हवलदार की नजर मुझ पर पड़ गयी और मैं गिरफ्तार कर लिया गया. साकची जेल में मुझे रखा गया. जेल गया, तो देखा.. वहां की स्थिति नारकीय है. उसके बाद मैंने वहां आंदोलन किया. हमारा नारा होता था : जेल का फाटक टूटेगा, जयप्रकाश नारायण छूटेगा.
16 अगस्त को मुझे साकची जेल से गया सेंट्रल जेल भेज दिया गया. वहां पूर्व विधायक दीनानाथ पांडेय सहित जमशेदपुर के कई नेता बंद थे. एक ही सेल में जनसंघ के नेता थे, तो मुसलिम लीग के भी.
खाने पीने को लेकर गया जेल में भी मैंने आंदोलन किया. गया जेल में लगभग साढ़े चार माह बंद रहा. उस समय जेल से निकलने के तुरंत बाद आंदोलनकारियों को मीसा में गिरफ्तार कर लिया जाता था. मैं जिस दिन जेल से छूट कर जमशेदपुर पहुंचा, उसी दिन मेरी गिरफ्तारी के लिए पुलिस ने मेरे घर पर छापेमारी की. मैं वहां से भाग कर गुवाहाटी चला गया. इस दौरान पुलिस ने मेरे परिवार को काफी परेशान किया.
वह दिन भी मुझे याद है, जब जमशेदपुर में बसंत टॉकीज के सामने गोलीबारी हुई थी. तीन लड़के मारे गये थे. एक को पैर में गोली लगी थी. वह लड़का आज एक सरकारी अस्पताल में डॉक्टर है.
तभी से उस जगह को शहीद चौक नाम दिया गया. हम लोगों ने पुलिस को उस दिन बाजार में घुसने नहीं दिया था. पुलिस जिस टीयर गैस का इस्तेमाल कर रही थी, हम लोग उसी टीयर गैस को पुलिस पर वापस फेंकते थे. आज पीछे देखता हूं, तो याद आता है कि कैसे उस समय मीडिया, न्यायपालिका सहित पूरी व्यवस्था को बंदी बना लिया गया था. उसी आंदोलन में मुझे गलत से लड़ने की प्रेरणा दी. (लेखक झारखंड के मुख्यमंत्री हैं)
मुझे लोकवाणी का प्रकाशन करना था
सरयू राय
मंत्री
25 और 26 जून 1975 की आधी रात को देश में आपातकाल लगने की खबर हैरान करनेवाली थी. मेरे जैसे व्यक्ति को उस समय आपातकाल के संवैधानिक प्रावधान की समझ नहीं थी. समाचार पत्रों में संपादकीय का स्थान रिक्त रहना भी समझ से परे था. तब मैं पटना के पूर्वी लोहानीपुर में नारायण साव के मकान में रहता था. उस समय मैं विद्यार्थी परिषद का पूर्णकालिक कार्यकर्ता था.
हमलोग सुबह हाथ-मुंह धोकर सड़क किनारे चाय की दुकान पर जाते थे और वहीं हिंदी अखबार पढ़ते थे. उस समय पटना से हिंदी के दो अखबार – आर्यावर्त और प्रदीप-छपते थे और पूरे बिहार (वर्तमान झारखंड क्षेत्र सहित) बंटते थे. चाय दुकान के इन अखबारों से ही पता चला कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश पर आपातकाल थोप दिया है.
कुछ ही देर बाद सूचना आयी कि गिरफ्तारी से बचने के लिए मुझे वह घर छोड़ देना है. अपेक्षाकृत सुरक्षित स्थान पर जाने के बाद देश भर से खबरें आने लगी, तब पता चला कि आपातकाल का मतलब है तानाशाही शासन, जिसमें लोगों के नागरिक अधिकार, अखबारों की आजादी छिन गये हैं. अन्याय, अत्याचार, दमन के मुखालफत की गुंजाइश समाप्त हो गयी है.
लोकनायक जयप्रकाश सहित विपक्ष के तमाम नेता जो जहां थे, वहीं नजरबंद कर लिया गया. राष्ट्रीय स्तर ही नहीं बल्कि प्रदेश, जिला, प्रखंड स्तर तक के राजनीतिक दलों, छात्र संगठनों, मजदूर संगठनों, आरएसएस, सर्वोदय, जमायते इसलामी, बिहार आंदोलन की छात्र संघर्ष समिति व जन संघर्ष समिति के विभिन्न स्तर के नेता और कार्यकर्ता पुलिस द्वारा पकड़ लिये गये. जो भी अपने संगठन अथवा आंदोलन में सक्रिय था और सावधान नहीं था, वह शाम होते-होते गिरफ्तार हो चुका था. बाकी बचे लोग भूमिगत हो गये थे. किसी से भी संपर्क साधना संभव नहीं था. संचार के उपलब्ध सभी साधन निगरानी में थे. इनका जाने-अनजाने उपयोग करना यानी गिरफ्तारी को दावत देना था.
मैं किंकर्तव्यविमुढ़ था. तीन दिन पहले हजारीबाग में संघ शिक्षा वर्ग का समापन हुआ था. मैं इस वर्ग में द्वितीय वर्ष का प्रशिक्षणार्थी था. प्रो राजेंद्र सिंह उर्फ रज्जु भैया, जो बाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक बने, ने वर्ग में मुझसे दो वर्ष का समय संघ कार्य हेतु देने तथा प्रचारक के रूप में काम करने के लिए कहा. अनिच्छा के बावजूद मैं उनका आदेश टाल नहीं सका.
वहां गोविंदाचार्य भी थे. तय हुआ था कि वर्ग की समाप्ति के बाद मैं संघ के छपरा जिला प्रचारक का दायित्व ग्रहण करूंग. तब संघ के एक वरीय प्रचारक लक्ष्मी नारायण केसरी छपरा और वैशाली जिलों के प्रचारक थे. उन्होंने ही मुझे 1962 में चीन के साथ हुए युद्ध के समय राष्ट्रवाद के राष्ट्रीय ज्वार के माहौल में संघ से जोड़ा था. मैं नये कार्य दायित्व हेतु प्रस्थान करने ही वाला था कि आपातकाल घोषित होते ही संघ पर प्रतिबंध लग गया.
संघ और जनसंघ के जो दो-एक नेता गिरफ्तार होने से बच गये थे, उनमें से स्व कैलाशपति मिश्र और गोविंदाचार्य भी थे. चंद्रेश्वर जी जो बिहार छात्र आंदोलन के समय सिवान के जिला प्रचारक थे, भी गिरफ्तारी से बच कर पटना आ गये थे. तय हुआ कि आपातकाल विरोधी भूमिगत आंदोलन संगठित किया जाये और आंदोलन का समाचार प्रसारित करने के लिए एक मुखपत्र प्रकाशति किया जाये. इस मुखपत्र का नाम ‘लोकवाणी’ तय हुआ. मेरे ऊपर इसका संपादन करने तथा समाचार सामग्रियां एकत्र करने का जिम्मा दिया गया. इसकी छपाई करनेवाली टीम और वितरण करनेवाली टीम अलग थी. विद्यार्थी परिषद के सीनियर कार्यकर्ता अशोक कुमार सिंह इस टीम के प्रमुख थे. इसके साथ ही लालकृष्ण आडवाणी, डॉ सुब्रह्मण्यम स्वामी जैसे नेताओं द्वारा जेल से या भूमिगत आंदोलन से अंगरेजी में जो साहित्य भेजे जाते थे, उनका अनुवाद करना और प्रकाशन करने का काम भी मुझ पर था.
लोकवाणी पत्र का छपवाना और बंटवाना भारी जोखिम भरा था. कोई प्रिटिंग प्रेस छापने के लिए तैयार नहीं होता था. मजदूर प्रेस व एकाध अन्य प्रेस तैयार भी हुए, तो दो-तीन अंक छपने के बाद पुलिस को भनक लग जाती और छापा पड़ जाता. तय हुआ कि मैटर कहीं और बने तथा छपाई कहीं और हो. छपने के तुरंत बाद फर्मा तोड़ दिया जाये और टाइप फांट को अन्यत्र ले जाकर फिर अगले अंक की कंपोजिंग किया जाये. छपी सामग्री तुरंत हटा दी जाये, ताकि पुलिस छापा पड़े, तो कोई सबूत वहां न मिले.
इस शर्त पर छपाई के लिए पटना के आलमगंज मुहल्ले का एक प्रिटिंग प्रेस तैयार हुआ. इसकी खासियत थी कि जिस मकान में यह प्रेस था, उसकी दीवार आलमगंज थाना की दीवार से सटी हुई थी. इस प्रेस में करीब एक वर्ष तक लोकवाणी की छपाई चली.
एक दिन मैं और अशोक जी पत्र के मैटर का कंपोजिंग किया हुआ एक अंक का फर्मा पकड़े प्रेस के पास सड़क की दूसरी ओर रु के ही थे कि पुलिस की गाड़ियां धड़ाधड़ उस मकान में घुसी, जहां लोकवाणी की छपाई हो रही थी. हमलोगों को तो जैसे काठ मार गया.
प्रेस मालिक गिरफ्तार हो गये. प्रेस जब्त होकर थाना आ गया. दो-चार मिनट देर से पुलिस आयी होती, तो हम दोनों भी पकड़े गये होते. यह सोच कर सुहाना हो रही थी. कुछ घंटे लगे सामान्य होकर फिर से काम में लग जाने में. कुछ दिन प्रकाशन रु का रहा. नये प्रेस की तलाश हुई, तब छपाई शुरू हुई.
आपातकाल खत्म हुआ, देश और बिहार में भी जनता पार्टी सरकार बनी, तब पुलिस के यहां से जब्त प्रेस सामगियां छूटी और इनके आधार पर अशोक जी ने लोकवाणी प्रिटिंग प्रेस शुरू किय. यह प्रेस अब बड़ा, यशस्वी और आधुनिक हो गया है. दूसरी पीढ़ी इसे आगे बढ़ा रही है. नाम वही है -लोकवाणी प्रिंटिंग प्रेस-दुखद आपातकाल की एक सुखद यादगार.
ऐसा ही एक सुखांत रोमांचक स्मरण आपातकाल के दौरान पटना साइंस कॉलेज का है. 1976 में संभवत:. एक मई को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का कार्यक्रम पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में था.
वे वहां सीपीआइ और कांग्रेस द्वारा आयोजित फासिस्ट विरोधी सम्मेलन को संबोधित करनेवाली थी. हमलोगों ने पटना के हर घर में इसके विरोध में पंपलेट और लोकवाणी का अंक पहुंचाने का निर्णय किया. रात में सार्वजनिक स्थलों पर आपातकाल विरोधी नारे लिखने का निर्णय भी हुआ. इसके लिये अलग- अलग टोलियां बनी. मुझे पटना विश्वविद्यालय के सभी छात्रावासों व क्वार्टरों में लोकवाणी का अंक और परचे पहुंचाने का जिम्मा मिला.
मैं साइंस कॉलेज का प्रथम वर्ष से एमएससी तक विद्यार्थी रहने के दौरान विभिन्न छात्रावासों में रहने के कारण इलाके को अच्छी तरह जानता था.
रणनीति बनी कि एक साथ बहुत सामग्री लेकर चलने के बदले साइकिल के हैंडल में झोला लटका कर थोड़ी-थोड़ी सामग्री शाम नौ-दस बजे तक विभिन्न स्थानों पर पहुंचा दिया जाये और देर रात में कोई चुपचाप छात्रावासों के सभी कमरों और सभी क्वार्टरों – घरों के दरवाजे से इसे भीतर डाल दे.
फिर आकर सामग्री की दूसरी खेप ले जाये. सामग्री की ऐसी ही एक खेप रानी घाट स्थित पीजी हॉस्टल में एक कार्यकर्ता के पास रखने के लिए करीब नौ बजे रात मैं साइकिल से निकला. पीजी हॉस्टल रानी घाट पर गंगा जी के किनारे पर था. मैं स्वयं उसके सामने स्थित रामानुज हॉस्टल में काफी दिन रहा था. वहां के चप्पे चप्पे से परिचित था. तय किया कि लॉ कॉलेज मेन रोड से जाने की बजाय नदी किनारे की पतली सड़क का उपयोग किया जाये.
अंधेरे में रानी घाट मंदिर के समीप पहुंचा तो गालियों की सामूहिक आवाज कान में पड़ी. ये पुलिसवाले थे. हमारी दूसरी टीम वालों को गालियां बक रहे थे, जिन्होंने मंदिर और आसपास की दीवालों पर आपातकाल विरोधी और इंदिरा गांधी विरोधी ढेर सारे नारे लिख दिया था.
पुलिस को सरकार की सख्त हिदायत थी कि मेन रोड हो या गली- कूचा जहां कहीं भी ऐसे नारे लिखे हों, उन्हे दिन-रात देखे बिना तुरंत मिटायें. ये पुलिसवाले यही नारे मिटा रहे थे और इन्हें लिखनेवालों पर भड़ास निकाल रहे थे कि मैं उनकी जद में आ गया.
मेरी हालत तो ऐसी हो गयी कि काटो तो ख़ून नहीं. हाथ में साइकिल, साइकिल की हैंडल से लटके झोले में वैसे ही पंपलेट और लोकवाणी के अंक और सामने खड़ी भन्नाई पुलिस बल का समू. एक क्षण के लिए सन्न रह गया. पुलिसवालों ने देखते ही एक साथ कई कड़क सवाल दागे. कौन हो, इतनी रात कहां से आ रहे हो, कहां जा रहे हो और इस झोले में क्या है, आदि आदि.
मैंने बताया गांव गया था, मेरा छोटा भाई सामने के रामानुजम हॉस्टल में रह कर पढ़ाई कर रहा है, उसके लिए खाने नाश्ते का सामान लाया हूं, वही झोले में है, उसे देने जा रहा हूं. अगला सवाल गूंजा, भाई का नाम क्या है? मेरे मस्तिष्क में अचानक एक नाम कौंधा और ज़ुबान पे आया – चुन्नू. एक दूसरे सिपाही ने पूछा, पटना में क्या करते हो? मैंने कहा – नौकरी करता हूं. तीसरे का सवाल था- कहां? मैने बताया सचिवालय में.
इसके बाद का सवाल था- सचिवालय में किस पद पर हो? तब तक मैं थोड़ा संभल गया था. मेरे मुंह से निकला कि शिक्षा विभाग में किरानी हूं, तभी तो साइकिल लेकर घूम रहा हूं. इस पर पुलिस टीम का प्रभारी सा दिखने वाले ने अपने दो सिपाहियों को निर्देश दिया कि इसके साथ रामानुजम हॉस्टल जाओ और देखो कि इसका भाई चुन्नू वहां रहता या नहीं. मेरी जान में जान आयी कि मेरे झोले की तलाशी नहीं हुई.
पर सामने एक संकट अभी भी था. यदि चुन्नू नाम का कोई लड़का हॉस्टल में नहीं मिला, तो ये दोनों सिपाही मुझे नहीं छोड़ेंगे. जैसे ही मैं सिपाहियों के साथ हॉस्टल के गेट पर पहुंचा, तो वहां मौजूद वार्ड सर्वेंट, जिसका पुकारा नाम मड़ई था, ने मेरा नाम लेकर अभिवादन किया और जानना चाहा कि मैं किससे मिलने आया हूं.
सिपाहियों के चेहरे की प्रतिक्रिया भांपते हुए मजबूरन मैंने कहा चुन्नू से. मड़ई ने कहा- चुन्नू बाबू 15 नंबर कमरे में हैं. चलिए पहुंचा देता हूं. अब तक पुलिसवालों को भरोसा हो गया था. वे वापस लौट गये. इस तरह आपातकाल के दौरान मुझ पर आया एक और संकट टल गया.
मैं मड़ई के साथ 15 नंबर कमरे तक गया. उसने चुन्नू नाम के लड़के को आवाज दी, तो कमरे के भीतर से निकल कर तकरीबन 15 साल का एक दुबला- पतला लड़का सामने आया. मड़ई यह कह कर चला गया कि यही चुन्नू बाबू हैं. मैंने साइकिल के हैंडल से वह थैला निकाला और कहा कि यह सामग्री रख लीजिए, फिर कभी बातें करूंग. यह कहते हुए मैं साइकिल से सरपट भाग निकला और सीधे अपने गुप्त ठिकाने पर पहुंच कर ही दम लिया.
इसके आगे का वाकया कम रोचक नहीं है. कुछ दिन बाद आपातकाल रहते हुए श्रीमती गांधी ने लोकसभा का आम चुनाव घोषित कर दिया. चुनाव में कांग्रेस बुरी तरह पराजित हुई. श्रीमती गांधी स्वयं तनाव हार गयी. जनता पार्टी की सरकार बनी, तो उसने आरएसएस पर से प्रतिबंध हटा लिया. राष्ट्रव्यापी प्रवास के क्रम में संघ के सरसंघचालक माननीय बाला साहेब देवरस के पटना आने का कार्यक्रम बना. गांधी मैदान में आयोजित इस कार्यक्रम में पटना विश्वविद्यालय के शक्षिकों को आमंत्रित करने का काम मुझे सौंपा गया.
इस क्रम में एक दिन मैं विश्वविद्यालय के सामने से गुजर रहा था, तो एक गोरे-चिट्टे विद्यार्थी ने दूर से मुझे आवाज लगायी और दौड़ते हुए मेरे निकट आया. आते ही उसने सवाल दागा-मुझे पहचान रहे हैं? मैंने नकारात्मक जवाब दिया. इस पर उसने कहा कि मै चुन्नू हूं. एक रात आप मेरे हॉस्टल में आये थे और बिना परिचय दिये एक झोला छोड़ कर निकल गये. अब बताइये आपका परिचय क्या है? मैंने उसे अपने बारे में बताया. तबसे उसके साथ छोटे भाई से भी बढ़ कर घनिष्ठता हो गयी, जो पारिवारिक संबंध में बदल गयी.
आगे चल कर 1984 में यह युवक भारतीय प्रशासिनक सेवा में चुन लिया गया. उसे आइएएस का राजस्थान कैडर मिला. राजस्थान में सेवा के दौरान दिल्ली विश्वविद्यालय से भौतिक शास्त्र में स्नातकोत्तर करनेवाले इस युवा अधिकारी ने राजस्थान विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में सर्वोच्च स्थान के साथ स्नातकोत्तर किया और फिर अमेरिका के किसी विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की उपाधि हासिल की. केंद्रीय प्रतिनियुक्ति में डिपार्टमेंट ऑफ इकॉनामिक अफेयर्स में सेवाकाल के दौरान इसकी प्रतिनियुक्ति एशियन डेवेलपमेंट बैंक में हुई, जहां वह संप्रति कार्यरत है.
आपातकाल के दौरान भूमिगत आंदोलन के दौरान काफी कठिनाइयों से सामना हुआ. कई रातें पानी पीकर गुजारनी पड़ी, कई दिन पावरोटी और सेव- दालमोट के कंबिनेशन पर बीते. ऐसे कई रोमांचक संस्मरण समय- समय पर याददाश्त के झरोखे से झांकते रहते हैं और उस दौरान झेले गये दुख का स्मरण कराते हैं. पर कई ऐसे रोचक वाकये भी हैं, जो जिंदगी का जीवंत हिस्सा बन गये हैं और सुख की अनुभूति प्रदान करते हैं.
पंपलेट बांटते वक्त मैं पकड़ा गया था
चंद्रेश्वर प्रसाद सिंह
मंत्री
1975 में जब आपातकाल लगा था, मैं स्थानीय मारवाड़ी कॉलेज में बीकॉम (प्रतिष्ठा) का छात्र था. पठन-पाठन के साथ-साथ उन दिनों की सक्रिय राजनीति से मेरा भी जुड़ाव था. मेरी संबद्धता अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद से थी. अखबारों पर सेंसर के फलस्वरूप सही खबर नहीं आ पाती थी.
इस कमी को मैं पूरा करने का प्रयास राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोकवाणी पंपलेट से करता था. मैं इसके वितरण का कार्य जोर-शोर से करता था. यह कार्य ऐसा था, जिसके कारण सत्ता के खुफिया तंत्र की निगाहों में मुझे आना ही था.
इन सबके बावजूद मेरी राजनीतिक गतिविधियों पर विराम कहां लगना था, शायद नियति ने मेरी इस तरह की भूमिका उसी समय तय कर दी थी. उन दिनों रांची में संघ के प्रमुख प्रचारक मधुसूदन बापट जी हुआ करते थे, जो शर्मा जी के नाम से ख्यात थे और गुप्त राजनीतिक बैठकों का आयोजन, आंदोलन की रूपरेखा तैयार करने का कार्य उनकी देखरेख में हुआ करता था.
इन बैठकों की सूचना लोगों तक पहुंचाने से लेकर आयोजन की समुचित और सुरक्षित व्यवस्था तय करने में मेरी सक्रिय भूमिका रहा करती थी. 25 जनवरी, 1976 को रातू रोड आवास पर कृपा प्रसाद सिंह, उमाशंकर केडिया आये और प्रस्ताव रखा कि 26 जनवरी को प्रात: नौ बजे मोरहाबादी मैदान में झंडोत्तोलन के बाद पंपलेट बांटना है.
हम तीनों ने यह जानते हुए भी पंपलेट बांटने में गिरफ्तारी होगी, उत्साहित होकर इस कार्य को पूरा किया. इसी क्रम में ‘स्वतंत्रता का मूल्य प्राण है, देखो कौन चुकाता है’ शीर्षक पंपलेट को बांटते हुए मेरी गिरफ्तारी 26 जनवरी, 1976 को मोरहाबादी मैदान में हुई. मुझे रांची केंद्रीय कारागार में डाल दिया गया, जहां कड़िया मुंडा, देवदास आप्टे, सुखाड़ी उरांव, सूर्यमणि सिंह तथा खूंटी के आदिवासी नेता खुदिया पाहन, लेम्सा सिंह मुंडा, गणोश मानकी एवं गोमेश्वरी मानकी जैसे आंदोलनकारी नेता पहले से मौजूद थे.
रांची जेल से मुझे 2हजारीबाग जेल में ट्रांसफर कर दिया गया.जेल में भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रात:कालीन और सायंकालीन शाखा का आयोजन होता था. रात्रि में राष्ट्रीय महापुरुषों की जीवनी पर विशद् चर्चा भी आयोजित की जाती थी. इन चर्चाओं का व्यापक प्रभाव आज भी मैं अपने जीवन और जीवन शैली पर महसूस करता हूं.
जब कभी आपातकाल की चर्चा होती है, मुझे रांची के बहुत सारे लोग याद आते हैं, जो इसके विरोध में अग्रणी थे. इनमें कृपा प्रसाद सिंह जी जो आज अखिल भारतीय वनवासी कल्याण केंद्र के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं तथा श्री उमाशंकर केडिया जी थे. भारी सुरक्षा बंदोबस्त के बावजूद कोतवाली थाना की दीवार तथा कमिश्नर कार्यालय के अंदर जाकर यह नारा हमलोगों ने लिख दिया था-
‘रूसी बिल्ली दिल्ली छोड़ो
इटली जाकर होटल खोलो.’
आपातकाल में लोग इतने भयभीत थे कि रांची जेल में अपने लोग भी आकर मिलने से डरते थे. मैं संघ प्रचारक श्री गुरुशरण जी को भी नहीं भुलूंगा जो बराबर हमलोगों का ख्याल रखते थे एवं जमानत दिलाने में जिनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी. मुझे याद आते हैं, जेल में बिताये गये हर दिन. मुझे सरकार विरोधी होने की सजा दी गयी थी. 1976 में बीकॉम की परीक्षा देने से मुझे वंचित किया गया.
1977 के चुनाव परिणामों में काली रातों के बीतने का शंखनाद किया. भारत लोकतंत्र फिर से बहाल हुआ. आजादी की इस दूसरी लड़ाई में बहुतेरे लोग शहीद हुए. उन्हीं की शहादत की नींव पर हमारे संसदीय लोकतंत्र की भव्य इमारत अब तक टिकी हुई है, जो अक्षुण्ण बनी रहेगी.
(लेखक झारखंड सरकार में मंत्री हैं)