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तुलसी जयंती पर विशेष : अपनी भाषा की ताकत को पहचाना था तुलसीदास ने

कृपाशंकर चौबे तुलसी काव्य खास तौर पर रामचरितमानस 440 वर्षों से देश के मूर्धन्य विद्वानों के साथ ही साधारण जनों को भी प्रभावित करता आ रहा है. रामचरितमानस की लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि हिंदी में इसके जितने संस्करण छपे हैं, उस पर जितने शोध प्रबंध छपे हैं, जितनी टीकाएं […]

कृपाशंकर चौबे

तुलसी काव्य खास तौर पर रामचरितमानस 440 वर्षों से देश के मूर्धन्य विद्वानों के साथ ही साधारण जनों को भी प्रभावित करता आ रहा है. रामचरितमानस की लोकप्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि हिंदी में इसके जितने संस्करण छपे हैं, उस पर जितने शोध प्रबंध छपे हैं, जितनी टीकाएं लिखी गयी हैं, उतनी किसी अन्य काव्यकृति पर नहीं. अकेले गीता प्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित होकर रामचरितमानस के सिर्फ मंझले साइज की बत्तीस लाख चालीस हजार प्रतियां अब तक बिक चुकी हैं.

यह एक उदाहरणमात्र है. सवाल है कि रामचरितमानस उत्तरोत्तर आधुनिक काल का भी ‘मानस’ कैसे बना हुआ है? आखिर चार शताब्दियों के बाद भी तुलसी जनमानस में क्यों और कैसे बसे हुए हैं? दरअसल तुलसी ने रामचरितमानस को समय के साथ इस तरह जोड़ा कि वह हमेशा वर्तमान बना रहता है. इतनी बड़ी आबादी यदि रामचरितमानस से जुड़ी है तो जाहिर है कि इसका एक बड़ा कारण भाषा है. तुलसीदास ने अपनी भाषा की ताकत को पहचाना था. तुलसी ने जो कुछ कहा है, वह लोक के लिए कहा है.

उन्होंने नया कुछ नहीं कहा. तुलसी ने संस्कृत में कही बातों को ही कहा, किंतु नये ढंग से कहा और उसे अभिव्यक्त करने के लिए जनता की भाषा को चुना. तुलसी से यह प्रेरणा ग्रहण की जा सकती है कि मातृभाषा को अपने समाज में पुनर्प्रतिष्ठित करने के लिए अभियान चलाया जाए क्योंकि हिंदी के जातीय तत्वों को पुनर्गठित करने और अपनी सांस्कृतिक पहचान की रक्षा के लिए दूसरा कोई पथ नहीं है.

नयी पीढ़ी में जब अपनी भाषा से वांछित प्रेम विकसित होगा, तभी उनकी आवाज बनेगी. नयी पीढ़ी की रामचरितमानस के प्रति उदासीनता का एक कारण यह भी हो सकता है कि जब वह अपने सवालों को लेकर मानस के पास जाती है तो उसे कुछ निराशा हाथ लगती है. लेकिन इस तथ्य पर विवाद की भी पर्याप्त गुंजाइश है.

तुलसी के जीवनकाल में ही काशी के कथावाचकों ने उनका विरोध शुरू कर दिया था. वे कथावाचक संस्कृत परंपरा के थे और श्रीमद्भागवत की कथा बांचते थे, वे लोक भाषा में रचित रामचरितमानस को कैसे बर्दाश्त कर सकते थे? तुलसी के जमाने में ही मानस के बारे में जो गलतबयानी शुरू हुई, वह आज तक जारी है. इसे कोई भी इंकार नहीं कर सकता कि जनता में रामचरितमानस के प्रचार-प्रसार में कथावाचकों ने बड़ी भूमिका निभायी है. कथावाचकों ने तुलसी के साथ एक भारी अन्याय किया. वे अपना आशय सिद्ध करने के लिए कई बार तुलसी के कवि रूप का वध करने से भी नहीं हिचकते. वे मूल पाठ को भी अपनी सुविधा के लिए बदल कर विकृत कर डालते हैं. हद तो तब हो जाती है जब धर्मभीरु श्रोताओं में कथावाचक का बिंब बड़ा हो जाता है और तुलसी का छोटा. तुलसी के साथ कथावाचक दूसरा अन्याय यह करते हैं कि वे मानस को धार्मिक ग्रंथ सिद्ध करने के लिए सदा आकुल रहते हैं.

धर्मग्रंथ बनाम काव्यग्रंथ के इस विवाद में मानस के काव्य रूप के महत्व की बहुधा अनदेखी होती रही है. तुलसीदास द्वारा वर्णाश्रम धर्म को समर्थन दिए जाने को लेकर भी गंभीर और वाजिब सवाल खड़े किए जाते रहे हैं. इन सारे विरोधों व विवादों के बावजूद इस सत्य को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि तुलसी ने जनमानस में जिस कदर आलोड़न पैदा किया, वैसा करने में हिंदी का और कोई कवि समर्थ नहीं हुआ. मानस की लोकप्रियता का उपयोग सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए करने का विचार सबसे पहले राममनोहर लोहिया के मन में आया था. लोहिया ने इसी उद्देश्य से रामायण मेले का कार्यक्रम भी बनाया था, हालांकि वे उसमें शरीक नहीं हो पाये थे और उनके निधन के बाद उनके अनुयायियों ने रामायण मेले का आयोजन किया था.

लोहिया की तरह लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने भी तुलसी काव्य के महत्व को समझा था और सात जनवरी 1974 को काशी हिंदू विश्वविद्यालय में आयोजित मानस चतुश्शती समारोह के उद्घाटन सत्र को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था, ‘‘मानस नये सिरे से इतिहास लेखन का प्रयास है. यहीं तुलसीदास राजा-महाराजाओं से बड़े हो जाते हैं. यदि हम कहते हैं कि तुलसीदास अकबर के जमाने में हुए, तो गलत है. हमें कहना होगा कि तुलसीदास के जमाने में अकबर हुए.

लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विवि में एसोसिएट प्रोफेसर व कोलकाता केंद्र के प्रभारी हैं

आज भी इतिहास को नए सिरे से लिखने की जरूरत है और इसके लिए रामचरितमानस हमारी सबसे बड़ी प्रेरणा बन सकता है.’’

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