सीरिया संकट -2 : यूरोप की ओर बढ़ता पलायन

छिपे हैं खाड़ी देशों के लिए कई सवाल द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के सबसे बड़े शरणार्थी संकट से दुनिया बेचैन है. सीरिया से 2011 से पलायन का जो सिलसिला शुरू है, वह समय के साथ बढ़ता ही जा रहा है. इन सब के बीच सवाल यह है कि आखिर ये लोग पास के अरब देशों […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 9, 2015 7:43 AM
an image
छिपे हैं खाड़ी देशों के लिए कई सवाल
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के सबसे बड़े शरणार्थी संकट से दुनिया बेचैन है. सीरिया से 2011 से पलायन का जो सिलसिला शुरू है, वह समय के साथ बढ़ता ही जा रहा है. इन सब के बीच सवाल यह है कि आखिर ये लोग पास के अरब देशों की जगह यूराेप क्यों जा रहे हैं. क्या खाड़ी देश कोई नैतिक व जवाबदेह पहल करेंगे. आइए जानें इस विषय पर जानकारों की राय. पेश है दूसरी कड़ी.
सीरिया से लाखों लोगों के पलायन के साथ शरणार्थी संकट लगातार गहरा होता जा रहा है. सीरिया से पलायन का सिलसिला 2011 से ही शुरू हुआ है,
लेकिन अब हालात दिन-ब-दिन खराब ही होते जा रहे हैं. संकट की शुरुआतसीरिया के मौजूदा राष्ट्रपति बशर-अल-अशद को हटाने के अभियान के साथ हुई थी. पड़ोस के कई मुल्कों ने इसमें विद्रोहियों को आर्थिक और सामरिक मदद मुहैया करायी. आज सीरिया न सिर्फ आतंकवाद से प्रभावित है, बल्कि गंभीर आंतरिक संकट का सामना कर रहा है.
चार वर्षों से जारी लंबे गृह युद्ध के कारण लाखों नागरिक पलायन को मजबूर हैं. पलायन का यह संकट जल्द खत्म नहीं होनेवाला है. इस समय इराक, यमन से लेकर मोरक्को में जैसे हालात है, उसे देख कर कहा जा सकता है कि आनेवाले समय में करोड़ों लोग विस्थापित हो सकते हैं.
अपने वतन छोड़ कर भागनेवाले नागरिकों की कोशिश होती है कि वे वैसे मुल्क में जायें, जहां जीने की बेहतर संभावनाएं हों, पैसा कमाने के अवसर हों. हालांकि खाड़ी के कुछ मुसलिम देशों ने शरणार्थियों को हरसंभव मदद देने का भरोसा दिया है, लेकिन पलायन करनेवालों को इन देशों में बेहतर संभावनाएं नहीं दिख रही है. सीरिया के लोगों को पता है कि कुछ मुसलिम देशों ने ही आतंकवादी गुटों का समर्थन कर हालात को खराब किया है, इसलिए इन लोगों की पहली पसंद यूरोपीय देश हैं.
उन्हें लगता है कि मुसलिम देश उनकी समस्या का समाधान नहीं कर सकते हैं. आज पाकिस्तान, अफगानिस्तान जैसे देशों में आतंकवाद के कारण स्थिति बेहद खराब है. यह किसी से छिपा नहीं है कि ज्यादातर मुसलिम देशों में लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष ताकतों का कठोरता से दमन किया जा रहा है.
ऐसे में शासन के खिलाफ कट्टरपंथी ताकतें मजबूत होती जा रही है. यही कारण है कि कई मुसलिम देशों में शासन विफल हो रहा है और हिंसा बढ़ रही है. इस संकट से निबटने के लिए इन देशों के पास कोई व्यवस्था नहीं है. यही नहीं विरोध के बावजूद शासक किसी कीमत पर अपना पद छोड़ने को तैयार नहीं हैं, भले ही देश में अराजकता फैल जाये.
कुछ खाड़ी देशों में अराजकता फैलने के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक कारण भी हैं. तेल की अपार संपदा के कारण विकसित देशों की नजर इस क्षेत्र पर हमेशा से रही है. इराक में सद्दाम हुसैन को हटाने के लिए अमेरिका ने युद्ध थोप दिया. इससे वहां काफी तबाही हुई. अगर सद्दाम हुसैन को वहां के स्थानीय लोग सत्ता से हटाते तो समस्या पैदा नहीं होती, लेकिन जबरन हटाने से शिया-सुन्नी के बीच खूनी संघर्ष तेज हो गया. उसी प्रकार सीरिया में आतंकवादियों को पैर जमाने के लिए खाड़ी के कई देशों ने सहयोग दिया. लीबिया में गद्दाफी को हटाने के लिए बल प्रयोग करना पड़ा और आज वहां के हालात से सभी वाकिफ हैं.
बाहरी हस्तक्षेप से इस क्षेत्र में धर्मयुद्ध छिड़ गया. शिया, सुन्नी, यजीदी, इसाई के खिलाफ खूनी संघर्ष होने लगा. हर समुदाय एक-दूसरे को मारने पर उतारू है. हिंसा के कारण इन मुल्कों में लोगों का रहना दुश्वार हो गया है.
अमेरिका और यूरोपीय देशों की ऊर्जा जरूरतों के लिए तेल प्रमुख साधन है. तेल पर वर्चस्व के लिए खाड़ी के देशों को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर दिया जाता रहा है. इसी कड़ी में आइएसआइएस का हौवा खड़ा कर अस्थिरता फैलाने की कोशिश की जा रही है. साथ मिल कर आइएसआइएस से से लड़ने के लिए कोई देश आगे नहीं आ रहा है. यह समस्या सिर्फ हथियारों से हल नहीं होनेवाली है. आइएसआइएस जैसे संगठन से मुकाबला करने के लिए स्थानीय लोगों का सहयोग जरूरी है.
धार्मिक कट्टरता और उन्माद से किसी देश का भला नहीं होनेवाला है. ज्यादातर मुसलिम देशों में अस्थिरता और खूनखराबे के कारण ही इस क्षेत्र के लोगों का पलायन यूरोप की ओर हो रहा है. खुद को मुसलमानों का रहनुमा होने का दावा करनेवाले देशों को इस पर जरूर गौर करना चाहिए.
(विनय तिवारी से बातचीत पर आधारित)
कमर आगा
विदेश मामलों के जानकार
शरणार्थियों के प्रति धनी देशों का रवैया दुर्भाग्यपूर्ण
इशान थरूर
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के सबसे बड़े शरणार्थी संकट ने दुनिया को बेचैन कर दिया है. तुर्की में समुद्र के किनारे मृत बच्चे की तसवीर ने इस संकट की भयावहता को बहुत मार्मिक तरीके से रेखांकित किया है. कुछ यूरोपीय देशों द्वारा बहुत कम संख्या में शरणार्थियों को शरण देने या मुसलमान और ईसाई विस्थापितों में भेदभाव करने की बड़ी आलोचना हुई है. लेकिन उन देशों पर नाराजगी अपेक्षाकृत कम जाहिर की गयी है, जिन्हें इस संकट में निश्चित रूप से अधिक भूमिका निभाना चाहिए था. ये देश हैं सऊदी अरब और खाड़ी के धनी अरब देश.
हाल में एमनेस्टी इंटरनेशनल ने कहा है कि छह खाड़ी देशों- कतर, संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब, कुवैत, ओमान और बहरीन- ने शून्य की संख्या में सीरियाई शरणार्थियों को पनाह दी है. इस दावे के साथ ह्यूमन राइट्स वाच के एक्जेक्यूटिव डायरेक्टर केनेथ रॉथ ने भी सहमति जतायी है. ब्रूकिंग्स इंस्टीट्यूशन के अनिवासी फेलो लुआय अल खतीब ने भी कहा है कि धनी अरब देशों ने किसी भी शरणार्थी को अपने यहां जगह नहीं दी है.
यह बहुत ही निराशाजनक स्थिति है, क्योंकि ये देश सीरिया के निकट भी हैं और इनके पास भारी मात्रा में संसाधन हैं. दुबई-स्थित राजनीतिक टिप्पणीकार सुल्तान सऊद अल-कासमी का कहना है कि इन खाड़ी देशों में कुछ का सैन्य बजट पूरे अरब में सर्वाधिक है, उनका जीवन-स्तर बेहतरीन है. संयुक्त अरब अमीरात का इतिहास रहा है कि उसने अरब देशों के आप्रवासियों को अपने यहां जगह भी दी है और उन्हें नागरिकता भी प्रदान की है.
इतना ही नहीं, ऐसा भी नहीं है कि ये देश निर्दोष हैं और किनारे खड़े हैं. सऊदी अरब, कतर, संयुक्त अरब अमीरात और कुवैत के कुछ तत्वों ने सीरियाई संकट में निवेश भी किया है और सीरियाई राष्ट्रपति बशर अल-असद के विरुद्ध लड़ रहे विद्रोहियों और इसलामिक ताकतों को इनके द्वारा धन और हथियार भी दिये जा रहे हैं. इनमें से किसी देश ने 1951 के शरणार्थियों से संबंधित संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव पर भी हस्ताक्षर नहीं किया है.
इन देशों में सीरियाई नागरिकों को प्रवेश के लिए वीजा लेने की जरूरत होती है. अलजीरिया, मॉरिटानिया, सूडान और यमन में वीजा की शर्त नहीं है, पर ये देश शरणार्थियों के लिए व्यावहारिक पड़ाव नहीं है.
यूरोपीय देशों की तरह सऊदी अरब और उसके पड़ोसी देशों को भी शरणार्थियों से पड़नेवाले दबावों की चिंता है, पर सीरियाई शरणार्थियों की मदद के लिए बने कोष में इनका योगदान एक बिलियन डॉलर से कम है. इससे कहीं अधिक भारी रकम सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात ने यमन में जारी युद्ध में निवेश किया है.
क्वार्ट्ज के मैनेजिंग एडिटर बॉबी घोष के अनुसार इन खाड़ी देशों के पास लेबनान और जॉर्डन जैसे गरीब पड़ोसियों से मदद की बहुत अधिक क्षमता है. हज के दौरान लाखों की भीड़ के प्रबंधन का अनुभव इस मानवीय संकट के समय उपयोग में लाया जा सकता है. कासमी कहते हैं, खाड़ी देशों को शरणार्थियों से संबंधित अपनी नीति में बदलाव करने का समय आ गया है. यह एक नैतिक और जवाबदेह पहल होगा.
(वाशिंगटन पोस्ट से साभार)
Exit mobile version