17.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

तकनीक और वैश्वीकरण के युग में गांधी

21वीं सदी सूचना तकनीक (आइटी) की सदी है. आज के युवाओं को इंटरनेट और सोशल मीडिया के बिना जीवन की कल्पना बेमानी सी लगने लगी है. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ऐसी ही स्थिति के प्रति आगाह करते थे, जिसमें इंसान तकनीक से संचालित होने लगे. गांधी की युवावस्था और आज के युवाओं के बीच एक सदी […]

21वीं सदी सूचना तकनीक (आइटी) की सदी है. आज के युवाओं को इंटरनेट और सोशल मीडिया के बिना जीवन की कल्पना बेमानी सी लगने लगी है. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ऐसी ही स्थिति के प्रति आगाह करते थे, जिसमें इंसान तकनीक से संचालित होने लगे.
गांधी की युवावस्था और आज के युवाओं के बीच एक सदी का फासला है.
ऐसे में यह सवाल अकसर बहस का हिस्सा बन जाता है कि इंटरनेट और `ग्लोबल िवलेज` के मौजूदा दौर में गांधी के विचार कितने प्रासंगिक रह गये हैं? इसी संदर्भ में छह सवालों के साथ हमने बात की वरिष्ठ गांधीवादी कुमार प्रशांत और वरिष्ठ अर्थशास्त्री गुरचरण दास से, तो कुछ ऐसे पहलू भी सामने आये, जो गांधी की प्रासंगिकता से जुड़ी बहस पर नयी रोशनी डालते हैं. राष्ट्रपिता की जयंती पर पढ़ें यह विशेष.
गांधी को नहीं, खुद को कसौटी पर चढ़ाइए!
कुमार प्रशांत
वरिष्ठ पत्रकार एवं गांधीवादी चिंतक
हमारी हर क्षुद्रता, हर संकीर्णता, हर प्रतिगामी विचार को गांधी पहली चुनौती लगते हैं. सबको यही लगता है कि यह मानक गिरे तो हम अपने मन की करें! यह ताकत है प्रतीक गांधी की! अगर ताकत कोई मूल्य है, नैतिक विवेक प्रासंगिक है, तो गांधी हमारे लिए अाज की जरूरत हैं.
1. दुनिया में हर युग तकनीक का युग ही रहा है, क्योंकि मनुष्य जो भी करता है किसी-न-किसी तकनीक के सहारे ही! इसलिए हमें इस भ्रम या गुरूर में नहीं रहना चाहिए कि हम ही हैं तकनीक के जनक, या हमारा ही युग तकनीक का युग है. गूगल, फेसबुक, ट्यूटर, इंटरनेट अादि भी तकनीक के नाम हैं, जो कल कहीं पीछे छूट जाएंगे अौर कुछ दूसरे नाम हमारे सामने होंगे.
इसलिए गांधी की लड़ाई मशीनों से या तकनीक से थी ही नहीं अौर अाज भी है नहीं. उनका सवाल तब भी अौर अाज भी जमाने के सामने खड़ा है कि मशीनों अौर तकनीक के इस जंगल में मनुष्य की जगह कहां है अौर उसकी भूमिका क्या है? वह मशीनों अौर तकनीक के हाथ का गुलाम है या कि उनका मास्टर है? वे तब भी पूछ रहे थे अौर अाज भी पूछ रहे हैं कि अाज की सूचना तकनीक (आइटी) हमें जैसी दुनिया में पहुंचा रही है, क्या वह कल की दुनिया से अधिक नैतिक अौर मानवीय दुनिया है?
क्या इन सारी नयी तकनीकों से एक नयी अनैतिक, मनुष्यता निरपेक्ष, कठोर दुनिया हमारे सामने नहीं खुल रही है? क्या इसने युद्धों को ज्यादा अमानवीय नहीं बना दिया है? क्या इसने विकास अौर संसाधनों की असमानता को ज्यादा मजबूत नहीं किया है? संवाद, संचार, विचार-विनमय सबको अति केंद्रित व्यवस्था में जकड़ नहीं दिया है? सारी जानकारी, सारा ज्ञान, सारी सूचनाएं एक अति केंद्रित व्यवस्था के हाथों में कैद हैं अौर हमें उतना ही बताया, दिखाया जा रहा है जितना वे चाहते हैं! अाजादी का ऐसा छलावा! अाप देखिए कि साइबर क्राइम एक नया ही अपराधशास्त्र लिख नहीं रहा है क्या? सेक्स की जैसी दुकान इस तकनीक ने खोली अौर सुलभ कर दी है, क्या उसकी कभी कल्पना भी की थी किसी ने?
तो गांधी एक ताबीज दे कर गये हैं हमें कि जब कभी संशय में पड़ो अौर अनिश्चय से घिरो तो इसका अवलंबन लो. हम वही ताबीज लेकर यू-ट्यूब, इंटरनेट, फेसबुक, गूगल, ट्विटर अादि सबके जनकों के पास चलते हैं अौर पूछते हैं कि बताअो, तुम्हारी यह सारी तकनीक तुम्हारे ही देखे सबसे असहाय, गरीब, अकिंचन मनुष्य व प्रकृति को क्या इतना समर्थ बनाती है कि वह अपनी किस्मत के पन्ने खुद लिख सके? मैं नहीं समझता हूं कि इनमें से कोई इसका जवाब भी दे सकेगा!
2. अाज के युवा जिन चेहरों के दीवाने बना कर पेश किये जा रहे हैं, क्या वैसी दीवानगी रचे बिना इन बिल गेट्सों का, मार्क जुकरबर्गों अादि का साम्राज्य टिक सकता है? कंप्यूटरों को जिस तरह सारी दुनिया पर लाद कर, इसे हमारा अनिवार्य अंग बना दिया गया है, क्या अापने कभी सोचा है कि यदि ऐसा न किया गया होता तो क्या कंप्यूटर संभव होते? ये कंप्यूटर बन पा रहे हैं, बिक पा रहे हैं, तो सिर्फ इस कारण कि इनका एकाधिकार सुनिश्चित कर दिया गया है. सरकारें, व्यापार, कारपोरेट जगत, सब कंप्यूटर के पीछे खड़े हैं तो यह जादू चल रहा है. गांधी ने भी तो इतनी ही बात रखी थी न कि खादी को मिलों से संरक्षण दीजिए, बाकी सारा जादू खादी खुद ही कर देगी.
बगैर किसी संरक्षण-समर्थन के गुलामी के दिनों में भी खादी ने लंकाशायर की मिलें बंद कर अपनी ताकत तो दिखा ही दी थी न! क्यों अाजाद भारत की सरकार खादी के लिए वह संरक्षण नहीं रच सकी जो देशी पूंजीपतियों के शोषण के दांत तोड़ सके? गांधी की स्वदेशी की सारी मांग तो इतनी ही थी कि जीवन जीने के जरूरी संसाधन अाप लोगों के हाथों में रहने दीजिए, लोग अपने सार्थक, समृद्ध जीवन की रचना खुद कर लेंगे. ऐसे में गांधी के बारे में शिद्दत से जानकारी पाने की जरूरत इसलिए है कि उमंग, उत्साह के साथ जीवन जीने की कला तो उनके पास हीमिलती है.
3. अगर यह सच है कि आज ‘ग्लोबल विलेज’ की कल्पना साकार हो रही है तो हमें यह सोचना ही चाहिए कि फिर दुनिया के सारे देश एक-दूसरे से इतने डरे हुए क्यों हैं? हथियारों की ऐसी होड़ क्यों है? सोचने की जरूरत अा पड़ी है कि यह ‘ग्लोबल विलेज’ है या गुफायुग का ‘सर्वाइवल फॉर द फिटेस्ट’ है? अाज सारे यूरोप में शरणार्थियों की जैसी भगदड़ मची है, क्या वह किसी ‘फेस-टू-फेस सोसाइटी’ की कल्पना जगाता है? ‘ग्लोबल विलेज’ का यह शब्दजाल अच्छा है, लेकिन एकदम अर्थहीन है. गांधी का ग्रामस्वराज्य बुनियादी इकाई के स्तर पर मनुष्य की आत्मनिर्भरता और सार्वभौमता को पाने का उपक्रम है. जब तक मनुष्य है, तब तक ग्रामस्वराज्य की अवधारणा प्रासंगिक है.
4. अगर हम ‘ग्लोबल विलेज’ की तरफ जा रहे हैं तब मल्टीनेशनल कंपनियों की जरूरत कैसे आ न पड़ रही है?
जरा ध्यान दीजिए, इन दोनों में से कोई एक ही अवधारणा सही हो सकती है. समाज ‘ग्लोबल विलेज’ का बने और उसमें तिजारत मल्टीनेशनल कंपनियां करें, यह बात अगर अकल में बैठती हो तो मुझे भी समझाइएगा. मल्टीनेशनल कंपनियों का विरोध क्यों है?
क्योंकि वे एक साथ कई देशों के संसाधनों को लूट कर अपना खजाना भरती हैं! दुनिया की दैत्याकार कंपनियां हमारे जैसे देशों को लूटती है; हम उतने समर्थ नहीं हैं इसलिए हम अपने गांवों को, अपने असमर्थ पड़ोसियों को लूटते हैं. लूट का तंत्र भी एक ही है, लूट की रणनीति भी एक ही है. फर्क सामर्थ्य का है. अब हम भी सामर्थ्यवान हो रहे हैं. हमारी कंपनियां भी बड़े लुटेरों के साथ दो-दो हाथ कर रही हैं, ऐसा कहने में जिन्हें गर्व होता है, उन्हें मुबारक, लेकिन मुझे तो अपने हाथों में लगा खून दिखाई देता है. अादमखोर शेर हो या अादमी या कंपनियां, सब एक ही तरह से मनुष्य के लिए घातक हैं.
5. अगर मैं कहूं कि गांधी का काम करने में लगी संस्थाएं, गांधी के विचारों को फैलाने में लगे लोग, सब विफल रहे हैं, तो आपको खुशी होगी या अफसोस होगा? आपके मन में जो भाव उमड़ेगा, वही इस प्रश्न का जवाब है.
जैसे समाज की अौर जैसे मनुष्य की कल्पना गांधी करते हैं, वह आज से नितांत भिन्न है. वे सभ्यता का नया प्रवाह बनाने और नया मानक गढ़ने की बात करते हैं. तथाकथित सभ्यता से अलग, नया मानव-मन और नयी सामाजिकता को स्थापित करने की एक जंग जारी है. जब सारी सत्ताएं, सारे स्थापित स्वार्थ, परंपराएं, संकीर्ण हित-विचार अापको चुनौती दे रहे हों अौर अापकी जड़ काटने में लगे हों, तब अासान नहीं होता है अपने विश्वासों पर जीने-चलने की कोशिश करना! हमें गांधी के नाम की इस ताकत को पहचानना ही चाहिए कि उसने हजारों-हजार लोगों में यह अास्था भरी कि वे वक्ती सफलताअों की तरफ पीठ करके जी सके, जी रहे हैं.
6. गांधी को जिस दिन हमने गोली मारी, उसी दिन से वे प्रतीक-मात्र बचे हैं! अाखिर जीवन क्या है? मृत्यु के सामने खड़ा एक प्रतीक ही तो है!! अौर कैसा है यह प्रतीक? जिसे सत्ता की, धर्म की, जाति की, सिद्धांतों-वादों की, अंधता अौर क्रूरता की हर ताकत छिन्न-भिन्न कर देना चाहती है. यह प्रतीक बना हुअा है, यही इन ताकतों के लिए सबसे बड़ी चुनौती है.
इसलिए सभी मदमत्त होकर गांधी पर सब तरफ से वार करते हैं- धुर दक्षिणपंथ से लेकर धुर वामपंथ तक! हमारी हर क्षुद्रता, हर संकीर्णता, हर प्रतिगामी विचार को गांधी पहली चुनौती लगते हैं. सबको यही लगता है कि यह मानक गिरे तो हम अपने मन की करें! यह ताकत है प्रतीक गांधी की! अगर ताकत कोई मूल्य है, नैतिक विवेक प्रासंगिक है, तो गांधी हमारे लिए अाज की जरूरत हैं.
(रंजन राजन से बातचीत पर आधािरत)
गांधी के सत्य-अहिंसा के विचार अब और प्रासंगिक
गुरचरण दास,
वरिष्ठ अर्थशास्त्री एवं स्तंभकार
गांधीजी के विचारों की खूबी यह है कि उनका संदेश एकसार्वभौमिकता लिये हुए है. इसलिए वह पूरी दुनिया के लिए प्रेरणात्मक है. हर समय, हर देश और हर माहौल के लिए उनका विचार प्रासंगिक है. आज जिस तरह से दुनियाभर में हिंसक गतिविधियां बढ़ रही हैं, गांधी के सत्य-अहिंसा के विचार और भी प्रासंगिक होते जा रहे हैं.
1. कोई भी दौर ठहर कर नहीं रहता. वक्त हमेशा चलायमान रहता है. जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते जायेंगे, वक्त आगे बढ़ता जायेगा, वैसे-वैसे चीजें बदलती जायेंगी. सूचना और ज्ञान के आयाम बदलेंगे. इसी आयाम का नतीजा है इंटरनेट तकनीक और मौजूदा दौर का सोशल मीडिया. संभव है कि आज की ये सब चीजें कल न रहें और इनकी जगह कोई और तकनीक ले ले.
जाहिर है, वक्त के साथ चलने को ही आधुनिकता कहा जाता है, और अगर इस तकनीकी दौर के साथ हम नहीं चलते, तो लोग इसे पिछड़ापन मानें. लेकिन, ध्यान रहे कि यह बात तकनीक पर लागू हो सकती है, विचार पर नहीं. अच्छे और मौलिक विचार हमारे जीवन के लिए हमेशा प्रासंगिक रहते हैं. यही वजह है कि महात्मा गांधी के विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितना कि एक सदी पहले थे, जब इनका प्रतिपादन हुआ था. गांधीजी के विचारों की खूबी यह है कि उनका संदेश एक सार्वभौमिकता लिये हुए है. इसलिए वह सिर्फ भारत के लिए नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के लिए प्रेरणात्मक है. हर समय, हर देश और हर माहौल के लिए उनका विचार प्रासंगिक है.
2. हमें राजनीतिक आजादी 1947 में मिली थी और आर्थिक आजादी 1991 के बाद मिली. आजादी के पहले हमें आजादी की तलाश थी. इसलिए जब गांधीजी आजादी की लड़ाई के नायक बने, तो हम उन्हें ज्यादा-से-ज्यादा जानने-समझने की कोशिश करने लगे. उनके विचारों से प्रेरणा लेने लगे और मैं समझता हूं कि हम आज भी उनसे प्रेरणा पा रहे हैं. तब आधुनिक तकनीक का दौर नहीं था. तब नौकरियों के लिए तकनीक की उतनी जरूरत भी नहीं थी, जितनी आज है.
आज तकनीक और उद्यमिता का दौर है. पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का दौर है. साथ ही, देश में बेरोजगारी भी पहले के मुकाबले ज्यादा है. अब हमारे युवाओं को जरूरत है नौकरियों की.
अब यह तो जाहिर है कि मौजूदा दौर में नौकरियां तकनीक के रास्ते से होकर ही निकलती हैं. इसलिए हमारे युवा दुनिया के बड़े-बड़े एंटरप्रेन्योर और उद्योगपतियों के बारे में ज्यादा-से-ज्यादा जानने की कोशिश करते हैं. लेकिन, जब भी अहिंसा की बात होती है, तो यही युवा गांधीजी के सत्य और अहिंसा के विचारों को ही प्रेरणा का स्रोत मानते हैं.
जाहिर है, गांधीजी का विचार मानव मूल्यों से जुड़ा हुआ है, जबकि आज के कामयाब एंटरप्रेन्योर और उद्याेगपतियों को अपना आदर्श मानने की बात पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में युवाओं की आजीविका के सवाल से जुड़ा हुआ है. इसलिए तकनीक और उद्यमिता से इतर जब भी मानव मूल्यों की बात आयेगी, गांधीजी के विचार हमेशा प्रासंगिक हो जायेंगे.
3. गांधी के ग्राम स्वराज की अवधारणा को मैं उचित नहीं मानता. मैं इसे आर्थिक नजरिये से देखता हूं. हो सकता है यह अवधारणा उस वक्त के लिए उचित रही हो, लेकिन आज के दौर के ऐतबार से तो नहीं है. आज वैश्विक अर्थव्यवस्था का दौर है, किसी एक देश की अर्थव्यवस्था में उतार-चढ़ाव से दूसरे देशाें की अर्थव्यवस्थाओं पर असर पड़ने लगता है. आज से तीन सौ साल पहले, जब से औद्योगिक क्रांति दुनिया में आयी है, इतिहास यही बताता रहा है कि लोग आधुनिकता की ओर भागे चले आये हैं. होना भी चाहिए. गांवों से लोग अगर शहर में काम करने जा रहे हैं, तो इसमें कुछ बुरा नहीं है, इससे गांवों का भी विकास होता है.
दरअसल, हमारे देश की ग्राम्य व्यवस्था कई तरह की परंपरावादी मानसिकता लिये हुए है. इसलिए भी लोग शहरों में आने लगे, क्योंकि शहरों में रूढ़ियों से थोड़ी-बहुत आजादी जरूर मिल जाती है. शहरों में खास तौर पर जाति से आजादी है, कि शहर में रह कर कुछ भी कर सकते हैं, जो गांवों में संभव नहीं हो पाता है. इसलिए मेरे ख्याल में आज ग्राम स्वराज की अवधारणा उचित नहीं जान पड़ती. लेकिन हां, गांवों का विकास होना चाहिए और वहां हर बुनियादी चीज मुहैया होनी चाहिए, ताकि लोगों का जीवन समृद्ध हो सके.
4. कुटीर उद्योग की अवधारणा भी गांधीजी की कुछेक अन्य अवधारणाओं की तरह मुझे सही नहीं लगती है. भारत को कुटीर उद्योग को नहीं अपनाना चाहिए. यह बहुत पीछे की बात है. आज यह संभव नहीं है. कुटीर उद्योग की अवधारणा गांधीजी ने इसलिए दी थी, क्योंकि उन्हें मशीनीकरण पसंद नहीं था. एक दूसरी बात यह है कि जो भी शहरों में पला-बढ़ा होता है, वह गांवों की ओर भागने की कोशिश करता है. शहरों में रहते हुए ग्रामीण जीवन को लेकर, किसान-खेत-हरियाली को लेकर एक प्रकार का रोमांस आने लगता है. गांधीजी भी शहर में ही पले-बढ़े थे, इसलिए उन्होंने कुटीर उद्योग का एक रोमांटिक आइडिया दिया.
तकरीबन सौ साल पहले दुनिया की आबादी दो-ढाई अरब के आसपास थी, लेकिन आज यह आठ अरब के करीब है. अगर सिर्फ भारत की ही बात करें, तो इतनी बड़ी आबादी के लिए कुटीर उद्योग का कोई मतलब ही नहीं बनता. हम बड़े उद्योगों को, बड़ी कंपनियों को किसी भी तरह नकार नहीं सकते. यह तकनीक और औद्योगीकरण की ही देन है कि आज की आम जिंदगी सौ साल पहले की आम जिंदगी से ज्यादा अच्छी है. आज तमाम सुख-सुविधाएं हैं और इसलिए आज लोगों की जीवन प्रत्याशा भी बढ़ी है, जो सौ साल पहले बहुत कम थी. यह उपलब्धि तकनीक और औद्योगीकरण की ही देन है. इसका अर्थ यह कतई नहीं कि गांधीजी महान नहीं थे. वे महान थे, खासकर मानव मूल्यों के लिए उत्तम विचारों का प्रतिपादन करने के मामले में तो वे बहुत महान व्यक्ति थे.
5. सत्य-अहिंसा के विचार का प्रतिपादन करनेवाले गांधी मानव मूल्यों को मजबूती देने के मामले में बहुत महान व्यक्तित्व थे. गांधीजी के विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए दुनिया भर में जहां भी गांधीवादी केंद्र या संस्थाएं हैं, वे सभी सत्य-अहिंसा के बारे में ही सिखाती हैं. अब इन संस्थाओं की यात्रा कितनी सफल रही या उनकी उपलब्धियां क्या रहीं, इस पर मैं ज्यादा कुछ नहीं कहना चाहता, इसका विचार ये संस्थाएं ही करें. लेकिन इतना जरूर कह सकता हूं कि आज जिस तरह से दुनियाभर में हिंसक गतिविधियां बढ़ रही हैं, पूरी दुनिया में गांधी के सत्य-अहिंसा के विचार और भी ज्यादा प्रासंगिक होते जा रहे हैं.
6. हमारे नैतिक जीवन और धार्मिक जीवन के लिए गांधी का बहुत महत्व है. अगर हम नैतिक और धार्मिक रूप से सत्य-अहिंसा का पालन करने लगें, तो इसका असर हमारे जीवन के हर पहलू पर पड़ेगा ही, फिर चाहे वह हमारी राजनीति हो या शासन व्यवस्था. जाहिर है, अगर ऐसा नहीं होगा, तो गांधी एक प्रतीक के रूप में ही रह जायेंगे. अब यह हमारे ऊपर है कि हम गांधी को क्या बनाना चाहते हैं.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें