जयप्रकाश नारायण जयंती पर विशेष : राजनीति में लोकनीति को प्राथमिकता

प्रो आनंद कुमार वरिष्ठ समाजशास्त्री विचारक, संगठनकर्ता, जननेता और रचनात्मक सुधारक के रूप में भारतीय राजनीति में योगदान देनेवाले जयप्रकाश नारायण ने चार पीढ़ियों को आंदोलित और प्रेरित किया. आज उनकी जयंती पर उनके विचारों और जीवन मूल्यों के साथ-साथ यह भी जानना जरूरी है कि उनके विचार आज भी कितने प्रासंगिक हैं. किस तरह […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 11, 2015 8:51 AM
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प्रो आनंद कुमार
वरिष्ठ समाजशास्त्री
विचारक, संगठनकर्ता, जननेता और रचनात्मक सुधारक के रूप में भारतीय राजनीति में योगदान देनेवाले जयप्रकाश नारायण ने चार पीढ़ियों को आंदोलित और प्रेरित किया. आज उनकी जयंती पर उनके विचारों और जीवन मूल्यों के साथ-साथ यह भी जानना जरूरी है कि उनके विचार आज भी कितने प्रासंगिक हैं. किस तरह वह अपने वचन और कर्म से विरोधियों को भी अपना कायल बना लेते थे.
11 अक्तबूर, 2015 लोकनायक जयप्रकाश नारायण की 113वीं जयंती है. बहुत कम राष्ट्रनायक ऐसे हुए, जिन्होंने देश की चार पीढ़ियों को गहराई तक आंदोलित और प्रेरित किया. 1934 में उनकी राष्ट्रनायक के रूप में शुरू हुई यात्रा, 1974-1979 तक जारी रही. उन्होंने अपने जीवन को निर्मल भाव से पहले देश की आजादी के लिए, फिर देश में शोषण और गैरबराबरी के खात्मे के लिए और फिर सर्वोदय के लिए नि:स्वार्थ भाव से समर्पित किया.
इसीलिए उनके जीवन में विचारधाराओं के अलग-अलग लहरों के प्रभाव के बाद भी देश में उनके आलोचक भी मानते थे कि जयप्रकाश जी का कर्म और वचन एक जैसा रहा. उनके मन में अपने लिए तुच्छ राजनीतिक उपलब्धि के बजाय देश और दुनिया के लिए नवनिर्माण और मानवीय मूल्यों के लिए अनुकूलता ही लक्ष्य था. जयप्रकाश जी ने अपने जीवन में चार विचारधाराओं से अपना मार्ग तय किया. अमेरिका की पढ़ाई पूरी करने तक वह एक राष्ट्रवादी नवयुवक थे.
अमेरिका में उच्च शिक्षा के दौरान वह मार्क्सवादी बने और आजादी के संघर्ष के सबसे रोमांचक दौर यानी भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान मार्क्सवादी कम्युनिस्टों के बजाय, लोकतांत्रिक समाजवादियों के साथ नजदीक पाया. फिर 1954 के बाद उन्होंने अपना जीवन दलविहीन लोकतंत्र और सर्वोदय के लिए समर्पित कर दिया.
जयप्रकाश जी एक विचारक के रूप में एक संगठनकर्ता के रूप में जननेता के रूप में और रचनात्मक सुधारक के रूप में योगदान दिया और चारों ही रूपों में देश ने उन्हें स्वीकारा और उन्हें आदर दिया. जयप्रकाश के कर्म धारा में संकुचित विचारों का कहीं कोई योगदान नहीं था.इसीलिए उन्हें जातिवादी, सांप्रदायिक, कट्टरतावादी ताकतों ने उन्हें हमेशा अप्रिय माना. उनकी आलोचना की. उनकी निंदा की.
यह बताना अप्रासंगिक नहीं होगा कि जयप्रकाश जी उन थोड़े से लोगों में थे, जिनको उनकी लगन और लोकप्रियता के कारण एक तरफ अंगरेजी राज ने लंबी अवधि तक जेलों में बंद रखा, तो दूसरी ओर आजादी के बाद के शासकों ने भी उन्हें गिरफ्तार करने में संकोच नहीं किया.
जयप्रकाश जी अपने आलोचकों के प्रति हमेशा संवाद का भाव रखते थे. इसलिए उनके जीवन के अलग-अलग दौर में पहले राष्ट्रवादियों ने, उसके बाद समाजवादियों ने और फिर इंदिरावादियों और कम्युनिस्टों ने उनकी बहुत आलोचना की. लेकिन, जेपी ने इन आलोचनाओं के बाद भी अपने व्यक्तिगत संबंधों को बिगाड़ने की अनुमति नहीं दी.
यही कारण था कि अपने सर्वोदय यात्रा से असंतुष्ट होकर जीवन के आखिरी वर्षों में जब वह फिर से जनांदोलनों के प्रति मुड़े, तो उनका लंबे अरसे तक विरोध करनेवाले राजनीतिक दलों, विशेषकर समाजवादियों ने पूरी तरह से अपना महानायक मान लिया था. जयप्रकाश जी के लिए यह दुर्भाग्य की बात थी कि उनका अनुयायी होने का तो सभी दावा करते थे, लेकिन उनके सपनों के साथ निष्ठा के साथ अपने आचरण को प्रभावित करना अधिकांश लोगों ने नहीं किया. इसीलिए 1977 में जनता क्रांति के बाद भी जब बुनियादी राजनीतिक सुधार नहीं हुए और शिक्षा और रोजगार की उपेक्षा की गयी, तो जयप्रकाश जी ने असंतोष को लिखित रूप में तबके प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई को भेजने में संकोच नहीं किया.
जयप्रकाश जी की सबसे बड़ी विरासत राजनीति में लोकनीति को प्राथमिकता देना और राजसत्ता से लोकशक्ति को महत्वपूर्ण मानना रहा है. जयप्रकाश जी शायद दलविहीन लोकतंत्र के सपने के साथ जोड़कर याद किये जाते हैं, लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि भारत की तीन शानदार राजनीतिक पार्टियों के निर्माण में जयप्रकाश जी ने बुनियादी योगदान किया था. 1948 का कांग्रेस पार्टी, समाजवादी पार्टी और 1977-78 में जनता पार्टी.
इस प्रसंग को रेखांकित करने का यह अभिप्राय है कि जयप्रकाश जी लकीर के फकीर नहीं थे, वह मूलत: एक समाजवौज्ञानिक थे, जिसने परिस्थिति के अनुकूल या प्रतिकूल होने पर दिशा में सुधार करने में कभी कोई संकोच नहीं किया. वह राजनीतिक वाद के समर्थक नहीं थे. अपनी छवि के प्रति तो उन्हें कोई चिंता ही नहीं थी. इसीलिए अपने समय के तमाम अलोकप्रिय प्रश्नों पर खुलकर साहस के साथ मानवीयता की राह पकड़ी. और तिब्बत से लेकर हंगरी तक उनके दिखाये रास्ते पर लोगों ने जाने की निर्णय किया.
उन्हें विदेशी ताकतों के एजेंट से लेकर देशद्रोही तक कहने में संकोच नहीं किया. बाद में उनके आलोचकों को उनकी दिखायी राह का महत्व समझ में आया. आज भी भारतीय जनतंत्र के दोषों की गिनती करते समय पूरा देश यह मानता है कि 1974 और 1979 में जयप्रकाश जी की बात सुनी होती, तो हमारे जनतंत्र पर धनतंत्र का और राजनीति में अपराधियों का हस्तक्षेप नहीं होता. आज भी जयप्रकाश जी द्वारा भारत की निर्धनता, कृषि, नक्सल समस्या, शिक्षा में नवनिर्माण और सबसे ऊपर लोकतंत्र को जनसाधारण के शक्ति का माध्यम बनाना प्रासंगिक है.
लेकिन, यह अफसोस की बात है कि जयप्रकाश जी के नाम पर विश्वविद्यालय, चिकित्सा केंद्र और हवाई अड्डे तक बन गये, लेकिन राजनीति के क्षेत्र में जयप्रकाश जी के रास्ते पर चलनेवालों का अभाव है. यह जरूरी है कि भारत के भविष्य के बारे में लगातार सोचने और रचनात्मक तरीके से रास्ता बनानेवाले भारतरत्न जयप्रकाश जी के विचारों और उनके चलाये गये कार्यक्रमों का पुन: अध्ययन मूल्यांकन किया जाये, क्योंकि आज हम जहां खड़े हैं, वहां बाजारवाद, भोगवाद और व्यक्तिवाद बढ़ता जा रहा है.
ऐसे में जयप्रकाश जी की याद बार-बार आना स्वभाविक है, क्योंकि उन्होंने इन दोषों के बारे में उन्होंने पहले ही चेतावनी दी थी. हमने नहीं सुना यह हमलोगों का दोष है.
(अंजनी कुमार सिंह से बातचीत पर आधारित)
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