जजों की नियुक्ति का अधिकार किसे?
संसद के दोनों सदनों और 20 विधानसभाओं द्वारा पारित राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग तथा 99वें संविधान संशोधन को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निरस्त करने का निर्णय हमारे संवैधानिक इतिहास की महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है. स्वाभाविक रूप से इस फैसले के पक्ष और विपक्ष में राय दी जा रही है और ऐसा भी माना जा […]
संसद के दोनों सदनों और 20 विधानसभाओं द्वारा पारित राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग तथा 99वें संविधान संशोधन को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निरस्त करने का निर्णय हमारे संवैधानिक इतिहास की महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है. स्वाभाविक रूप से इस फैसले के पक्ष और विपक्ष में राय दी जा रही है और ऐसा भी माना जा रहा है कि इससे न्यायपालिका और विधायिका में टकराव की स्थिति बन सकती है. यदि ऐसा होता है, तो यह लोकतांत्रिक वातावरण के लिए उचित नहीं होगा.
आशा है कि न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका संविधानप्रदत्त मर्यादाओं और स्वायत्तताओं की सीमाओं को भली-भांति समझतेहुए न्यायिक नियुक्तियों के बारे में कोई सर्वसम्मत निर्णय लेने में सक्षम होंगे. मौजूदा परिस्थिति भारतीय गणराज्य की सर्वोच्च संस्थाओं की परिपक्वता और अनुभवों के लिए बड़ी कसौटी है. इस मुद्दे पर आधारित है आज का समय…
संविधान में प्रावधान
भारतीय संविधान में स्पष्ट कहा गया है कि न्यायपालिका की सलाह से कार्यपालिका न्यायाधीशों की नियुक्ति करेगी. इस संबंध में अनुच्छेद 124 और 217 प्रासंगिक प्रावधान हैं.
अनुच्छेद 124 में उल्लिखित है कि ‘उच्चतम न्यायालय के और राज्यों के उच्च न्यायालयों के ऐसे न्यायाधीशों से परामर्श करने के पश्चात, जिनसे राष्ट्रपति इस प्रयोजन के लिए परामर्श करना आवश्यक समझे, राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर और मुद्रा सहित अधिपत्र द्वारा उच्चतम न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश को नियुक्त करेगा… परंतु मुख्य न्यायाधीश से भिन्न किसी न्यायाधीश की नियुक्ति की दशा में भारत के प्रधान न्यायाधीश से सदैव परामर्श किया जायेगा…’
अनुच्छेद 217 में उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति का उल्लेख है. इसमें कहा गया है कि ‘भारत के प्रधान न्यायाधीश से, उस राज्य के राज्यपाल से और मुख्य न्यायाधीश से भिन्न किसी न्यायाधीश की नियुक्ति की दशा में उस उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श करने के पश्चात, राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर और मुद्रा सहित
अधिपत्र द्वारा उच्च न्यायालय के प्रत्येक न्यायाधीश को नियुक्त करेगा…’
न्यायिक स्वतंत्रता के लिए महत्वपूर्ण फैसला
प्रशांत भूषण
वरिष्ठ अधिवक्ता, सुप्रीम कोर्ट
मेरा मानना है कि जजों की नियुक्ति में पारदर्शिता लाने के लिए एक स्वतंत्र आयोग बनाने की जरूरत है, जो सरकार और जजों के प्रभाव से पूरी तरह से मुक्त हो. जजों की नियुक्ति को पारदर्शी बनाने के लिए एक मानक तय किया जाना चाहिए और नियुक्ति के लिए खुला आवेदन मंगाया जाना चाहिए.
सुप्रीम कोर्ट और हाइकोर्ट के जजों के लिए बनाये गये राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को शीर्ष अदालत ने असंवैधानिक करार दिया. यह ऐतिहासिक फैसला है. अगर यह आयोग गठित हो जाता, तो इससे न्यायपालिका की कार्यप्रणाली पर प्रतिकूल असर पड़ना तय था.
एनजेएसी के गठन से जजों की नियुक्ति में सरकार का हस्तक्षेप बढ़ने की संभावना थी. इस आयोग में प्रावधान था कि कोई भी दो व्यक्ति नियुक्ति के खिलाफ वीटो कर सकता था. साथ ही इस आयोग का सेक्रेटेरिएट कानून मंत्रालय के अधीन काम करता. आयोग द्वारा जजों की नियुक्ति में पारदर्शिता की भी कमी थी. ऐसी संभावना थी कि सरकार के पक्ष में काम करनेवाले लोगों को ही जज के तौर पर नियुक्त किया जाये. इससे न्यायपालिका के कामकाज पर प्रतिकूल असर पड़ता, क्योंकि काफी मामले सरकार के खिलाफ ही अदालतों में चलते हैं. सुप्रीम कोर्ट के फैसले से विभिन्न लोकतांत्रिक संस्थाओं पर नियंत्रण बनाने के सरकार के प्रयास को रोकने में मदद मिलेगी.
भारत जैसे विविधता वाले देश में न्यायिक स्वतंत्रता काफी अहम है. यह सही है कि जजों की नियुक्ति की मौजूदा कॉलेजियम प्रणाली भी पारदर्शी नहीं है और जज ही जजों की नियुक्ति करते हैं. इस प्रक्रिया के कारण जज अपने चहेतों को नियुक्त करते हैं. इस प्रणाली में भी बदलाव की जरूरत है, क्योंकि जज ही जज की नियुक्ति नहीं कर सकते हैं. इसलिए मेरा मानना है कि जजों की नियुक्ति में पारदर्शिता लाने के लिए एक स्वतंत्र आयोग बनाने की जरूरत है, जो सरकार और जजों के प्रभाव से पूरी तरह से मुक्त हो. जजों की नियुक्ति को पारदर्शी बनाने के लिए एक मानक तय किया जाना चाहिए और नियुक्ति के लिए खुला आवेदन मंगाया जाना चाहिए.
जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया काफी जटिल है. पूर्व के अनुभवों पर गौर करें, तो सुप्रीम कोर्ट का फैसला कई मायनों में अहम है. शुरुआत में नियुक्ति का अधिकार सरकार के पास था और उसे सिर्फ मुख्य न्यायाधीश से सलाह-मशविरा करना होता था. वर्ष 1993 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि संविधान में न्यायपालिका को स्वतंत्र रखने की वकालत की गयी है, लेकिन जजों की नियुक्ति में सरकार के दखल से इसका हनन हो रहा है. इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम प्रणाली बनाने का फैसला सुनाया.
इस प्रणाली के तहत वरिष्ठ तीन या पांच जजों द्वारा सरकार से सलाह-मशविरा कर जजों की नियुक्ति करने का निर्णय लिया गया. इसमें सरकार की भूमिका सिर्फ यह रह गयी कि जजों के पैनल द्वारा सुझाये गये नाम को सरकार सिर्फ पुनर्विचार करने के लिए वापस भेज सकती है. लेकिन अगर कॉलेजियम नियुक्ति पर सर्वसम्मत फैसला सुनाता है, तो सरकार को यह मानना ही होगा.
निश्चित तौर पर कॉलेजियम प्रणाली से न्यायपालिका अधिक स्वतंत्र हुई. इस प्रणाली की भी अपनी खामियां है. इसे दूर करने और जजों की नियुक्ति पर सरकार का प्रभाव बढ़ाने के लिए एनजेएसी का गठन किया गया. लेकिन इसके तहत होनेवाली नियुक्ति प्रक्रिया भी पारदर्शी नहीं दिखी.
यह इस आधार पर असंवैधानिक था कि जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में सरकार का दखल होने से न्यायपालिका की स्वतंत्रता को खतरा था. ऐसा नहीं है कि संसद संविधान के दायरे से बाहर जाकर कोई कानून बना दे, तो उसे लागू करना अनिवार्य है. इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने 99वें संविधान संशोधन को असंवैधानिक करार दिया.
संसद को कानून बनाने का अधिकार है, लेकिन इससे संविधान की मूल भावना का उल्लंघन नहीं होना चाहिए. एनजेएसी को लेकर सरकार के पास कोई विकल्प नहीं है. पहले ही अदालत ने कई कानूनों को असंवैधानिक करार दिया है. सरकार को न्यायिक सुधार के लिए जजों की नियुक्ति प्रक्रिया के लिए एक स्वतंत्र आयोग के गठन पर विचार करना चाहिए.
कॉलेजियम प्रणाली विश्व के किसी लोकतांत्रिक देश में नहीं है. न्यायपालिका की स्वतंत्रता का मतलब यह नहीं है कि जवाबदेही तय नहीं हो और जज ही जज की नियुक्ति करें. लेकिन, सरकार न्यायिक प्रणाली में सुधार के नाम पर अदालत की स्वतंत्रता को अपने नियंत्रण में नहीं ले सकती है.
उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला न्यायिक सुधार की दिशा में महत्वपूर्ण साबित होगा. सरकार को पहले लोगों को त्वरित न्याय दिलाने के लिए कदम उठाना चाहिए. कई विधि आयोग की रिपोर्ट में न्यायिक सुधार की सिफारिश की गयी है, लेकिन इस ओर सरकार का ध्यान नहीं है. न्यायपालिका में भ्रष्टाचार पर रोक लगाने की भी जरूरत है. लंबित मामलों को देखते हुए त्वरित न्याय की व्यवस्था की जानी चाहिए, तभी आम लोगों का विश्वास अदालतों पर बढ़ेगा.
(विनय तिवारी से बातचीत पर आधारित)
एनजेएसी नहीं, सुप्रीम कोर्ट का फैसला है असंवैधानिक
सुभाष कश्यप
संविधानविद
किसी भी संस्था या व्यक्ति के हाथ में निरंकुश शक्तियों को देना लोकतंत्र की भावना के नितांत विरुद्ध है और यह तभी होता है, जब कोई दूसरे के अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण करे, जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने एनजेएसी को असंवैधानिक करार देकर किया है. चाहे वह विधानपालिका हो, चाहे न्यायपालिका हो, चाहे कार्यपालिका हो या फिर कोई और संस्था हो, किसी को भी ऑर्बिट्रेरी पॉवर (निरंकुश शक्ति) नहीं दी जा सकती.
सुप्रीम कोर्ट ने जजों की नियुक्ति की कॉलेजियम प्रणाली को ही वैध मानते हुए केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तावित राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (नेशनल ज्यूडिशियल एप्वाइंटमेंट्स कमीशन) यानी एनजेएसी को असंवैधानिक करार दिया. संविधान का एक विद्यार्थी होने के नाते मैं समझता हूं कि सुप्रीम कोर्ट का एनजेएसी को असंवैधानिक करार देनेवाला यह फैसला अपने आप में असंवैधानिक है. यह फैसला संविधान के विरुद्ध है, क्योंकि जजों की नियुक्ति के लिए संविधान में जो प्रावधान है, यह फैसला उसके विरुद्ध जाता है.
संविधान की धारा 124 में यह प्रावधान है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति करेंगे और नियुक्ति से पहले राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट की या वे जिनको चाहेंगे, उनकी राय लेंगे. जजों की नियुक्ति के लिए हमारे संविधान ने सिर्फ राष्ट्रपति को शक्ति दी है. दूसरी बात यह कि अगर सुप्रीम कोर्ट ने एनजेएसी को असंवैधानिक करार दिया है, तो उसे यह भी बताना पड़ेगा कि सरकार का यह प्रस्ताव संविधान के किस अनुच्छेद के विरुद्ध है.
हमारी संसद ने जजों की नियुक्ति को लेकर जो संविधान संशोधन पास किया, वह संवैधानिक है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट को संविधान संशोधन की या कानून बनाने की कोई शक्ति प्राप्त नहीं है. हमारा संविधान कहता है कि संविधान बदलने या संशोधन करने की शक्ति केवल और केवल संसद के पास है. सुप्रीम कोर्ट के पास ऐसी कोई शक्ति नहीं है, उसके पास इन प्रावधानों की व्याख्या करने की ही शक्ति है. संविधान की व्याख्या करने के नाम पर सुप्रीम कोर्ट संविधान में न तो कोई संशोधन कर सकता है और न ही नया संविधान बना सकता है.
इस ऐतबार से सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से लगता है कि वह एक नया संविधान बनाने की कोशिश कर रहा है. जाहिर है, अगर कोई भी संस्था अपने अधिकार क्षेत्र को इस कदर खींचेगी, तो संविधान की अवहेलना तो होगी ही. इसलिए मैं समझता हूं कि सुप्रीम कोर्ट अपने इस फैसले से अपने अधिकार क्षेत्र के दायरे से बाहर आ गया है. इसलिए मैंने कहा कि उसका निर्णय असंवैधानिक है.
सरकार द्वारा राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग यानी एनजेएसी के गठन में कोई जल्दबाजी नहीं की गयी है. इसके गठन में बाकायदा संविधान सम्मत प्रक्रियाओं का पालन किया गया है. यह गठन पूरी तरह से संवैधानिक है, इसलिए इसको असंवैधानिक कहने का फैसला खुद-ब-खुद असंवैधानिक बन जाता है.
एनजेएसी के गठन के लिए संविधान संशोधन को संसद के दोनों सदनों ने पारित किया और 20 स्टेट लेजिस्लेचर्स (राज्य विधायिकाओं) ने इसका अनुमोदन किया, उसके बाद राष्ट्रपति ने उस पर हस्ताक्षर किया. यह प्रक्रिया पूरी तरह से जनमानस और लोकतंत्र का प्रतिबिंब है, जिसके तहत एनजेएसी का गठन हुआ. जनता के प्रतिनिधियों ने राज्य के स्तर पर भी और केंद्र के स्तर पर भी लगभग एकमत से इसको पास किया है. इसलिए एनजेएसी को असंवैधानिक करार देना लोकतंत्र की भावनाओं की भी अवहेलना है और संविधान की भी अवहेलना है.
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद जहां तक सरकार के पास विकल्प का सवाल है, तो मैं यही कहूंगा कि अगर संसद के निर्णय को न्यायपालिका न माने, तो न्यायपालिका के निर्णय को संसद क्यों मानेगी? अगर सच में संसद इस निर्णय को नहीं मानती है, तो क्या होगा? अगर कॉलेजियम चार नाम भेजता है कि इनको जज नियुक्त किया जाये और कार्यकारिणी नहीं करती, तो फिर क्या होगा?
यानी ये जो हाइपोथेटिकल (काल्पनिक) प्रश्न हैं, अगर इनके उत्तर दूसरे प्रश्न से दिये जा सकते हैं कि अगर कार्यपालिका भी या विधानपालिका भी सुप्रीम कोर्ट की बात को न मानें, तो क्या होगा. इससे तो न्यापालिका और विधानपालिका दोनों में टकराव बढ़ेगा.
इसलिए मेरा मानना है कि संविधान के अनुरूप दोनों के सहयोग से कोई निर्णय होता है, तो ही बेहतर है. ऐसा बिल्कुल नहीं होना चाहिए कि जो संसद तय करे उसको सुप्रीम कोर्ट कहे कि यह असंवैधानिक है और जो सुप्रीम कोर्ट तय करे, उसे संसद कहे कि यह असंवैधानिक है. इस तरह तो न तो लोकतंत्र आगे बढ़ेगा और न ही संविधानवाद ही एक कदम चल पायेगा. इसलिए जरूरी है कि ये दोनों एक दूसरे का सम्मान करें और अपने-अपने क्षेत्राधिकार में रह कर काम करें.
दुनिया का कोई भी सिस्टम हम (मनुष्य) ही चलाते हैं. अगर किसी सिस्टम को हम न चला पायें, तो इसमें सिस्टम का तो कोई दोष नहीं है. कॉलेजियम सिस्टम से पहले जजों की नियुक्ति के लिए जो सिस्टम था, उसमें भी नियुक्ति को लेकर कुछ खामियां रही होंगी, इसलिए उसकी जगह पर कॉलेजियम सिस्टम लाया गया. कॉलेजियम के अंतर्गत भी कई नियुक्तियां गलत तरीके से हुईं. अब जो केंद्र सरकार की प्रस्तावित एनजेएसी है, अगर इसमें भी कोई कमी निकल आयेगी, तो फिर क्या होगा? इस तरह तो हम सिर्फ सिस्टम पे सिस्टम बदलते जायेंगे, लेकिन कमियां दूर नहीं कर पायेंगे.
जाहिर है, सिस्टम कोई भी हो, कुछ लोग उसका गलत इस्तेमाल कर सकते हैं. इसलिए सिस्टम कोई भी हो, उसका संविधान सम्मत होना और उसमें परदर्शिता का होना बहुत जरूरी है. एक सर्वमान्य सिद्धांत है कि दुनिया में कहीं भी ऐसा नहीं होता कि जज ही दूसरे जजों की नियुक्ति करें- जैसा कि कॉलेजियम प्रणाली में है. इससे तो जजों की एक डाइनेस्टी (वंश परंपरा) बन जायेगी, जिससे नियुक्तियों की पारदर्शिता खतरे में पड़ जायेगी.
लोकतंत्र को मजबूत बनाने के लिए और न्यायपालिका पर लोगों का भरोसा बढ़ाने के लिए यह बहुत जरूरी है कि संसद यानी विधानपालिका और सुप्रीम कोर्ट यानी न्यायपालिका दोनों एक-दूसरे के परस्पर सहयोग से काम करें. दोनों एक-दूसरे के दायरे और अधिकार का सम्मान करें और संविधान की मूल भावना का आदर करते हुए संविधानसम्मत निर्णय लें. ऐसा कोई नया कानून बनाने से नहीं होगा, बल्कि संविधान में जो प्रावधान हैं, उनके सही-सही पालन से ही चीजें सुधर सकती हैं.
किसी भी संस्था या व्यक्ति के हाथ में निरंकुश शक्तियों को देना लोकतंत्र की भावना के नितांत विरुद्ध है और यह तभी होता है, जब कोई दूसरे के अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण करे, जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने एनजेएसी को असंवैधानिक करार देकर किया है. चाहे वह विधानपालिका हो, चाहे न्यायपालिका हो, चाहे कार्यपालिका हो या फिर कोई और संस्था हो, किसी को भी ऑर्बिट्रेरी पॉवर (निरंकुश शक्ति) नहीं दी जा सकती. जहां तक न्यायिक सुधारों का सवाल है, न्याय व्यवस्था में बहुत सारे सुधारों की आवश्यकता है, लेकिन वह एक बहुत बड़ी बहस का विषय है.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
ऐसे आयी कॉलेजियम प्रणाली
कॉ लेजियम प्रणाली की शुरुआत 1993 में सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले के बाद हुई थी. यह संस्था सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों और उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीश तथा अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए नामों की सिफारिश करती है. उच्च न्यायालय में नियुक्ति के लिए सिफारिश उस न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और दो सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश करते हैं.
इन नामों में से सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश के नेतृत्व में पांच सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश नियुक्ति का निर्णय करते हैं. सर्वोच्च न्यायालय का यही कॉलेजियम उच्च न्यायालय में सेवारत मुख्य न्यायाधीशों और अन्य न्यायाधीशों में से जजों की सर्वोच्च न्यायालय में पदोन्नति करता है. मूल संविधान और बाद के संशोधनों में कॉलेजियम प्रणाली का कोई उल्लेख नहीं है.
इस प्रणाली का विकास सर्वोच्च न्यायालय के तीन महत्वपूर्ण फैसलों के द्वारा हुआ है जिन्हें ‘थ्री जजेज केसेज’ कहा जाता है. इस कड़ी में पहला मामला एसपी गुप्ता केस था, जिसका निर्णय 30 दिसंबर, 1981 को हुआ था. इसमें कहा गया था कि राष्ट्रपति उचित कारणों के आधार पर प्रधान न्यायाधीश द्वारा सुझाये गये नामों को खारिज कर सकता है. इससे नियुक्ति प्रक्रिया में कार्यपालिका की ताकत बढ़ गयी.
नौ न्यायाधीशों की एक खंडपीठ ने दूसरे मामले में एसपी गुप्ता केस के निर्णय को छह अक्तूबर, 1993 को बदल दिया. इस पीठ के बहुमत के फैसले को न्यायाधीश जेएस वर्मा ने लिखा था. इसमें कहा गया था कि न्यायिक नियुक्तियों में प्रधान न्यायाधीश की प्रमुखता होनी चाहिए, क्योंकि ‘न्यायिक परिवार में कार्यपालिका की समान भूमिका अनुशासनहीनता को बढ़ा सकती है.’ लेकिन इस पीठ में प्रधान न्यायाधीश की भूमिका को लेकर तीन जजों की असहमति के कारण कई सालों तक नियुक्तियों और स्थानांतरण को लेकर भ्रम की स्थिति बनी रही थी.
इस कड़ी में तीसरा निर्णय 1998 में आया जब राष्ट्रपति ने सर्वोच्च न्यायालय से स्थिति स्पष्ट करने को कहा. इस निर्णय में अदालत ने कॉलेजियम प्रणाली के संचालन के लिए नौ दिशा-निर्देश जारी कर दिये. इसी के साथ न्यायिक नियुक्तियों और स्थानांतरण में न्यायपालिका की प्रमुखता ठोस हो गयी.
विपक्ष में तर्क
– मूल संविधान और बाद में हुए संवैधानिक संशोधनों में जजों की नियुक्ति के लिए किसी कॉलेजियम प्रणाली का उल्लेख नहीं है. ‘कॉलेजियम’ शब्द भी संविधान में नहीं है. ऐसी प्रणाली के बारे में संविधान सभा में बहस हुई थी, पर उसे स्वीकार नहीं किया गया था.
– विरोधियों का मानना है कि कॉलेजियम प्रणाली निष्पक्ष नहीं है और ऐसे कई उदाहरण हैं जिनमें योग्य जजों की अवहेलना की गयी क्योंकि कॉलेजियम के सदस्यों का रवैया पक्षपातपूर्ण था.
– कॉलेजियम की पूरी प्रक्रिया अपारदर्शी है जिसके कारण नियुक्तियों पर शंका होना स्वाभाविक है.
पक्ष में तर्क
– कॉलेजियम प्रणाली के तहत सिफारिश किये गये नामों में से गिने-चुने नाम ही होंगे, जिन पर केंद्र सरकार ने आपत्ति की हो. केंद्र की आपत्ति को कॉलेजियम ने हमेशा स्वीकार किया है.
– इस प्रणाली के तहत जजों की नियुक्ति में न्यायपालिका की भूमिका काफी महत्वपूर्ण है और ऐसा होना आवश्यक भी है.
– कार्यपालिका के, दूसरे शब्दों में राजनेताओं के, जजों की नियुक्ति में हस्तक्षेप करना न्यायपालिका और उसकी स्वायत्तता के लिए उचित नहीं होगा.
राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग
पक्ष में
– न्यायिक नियुक्ति आयोग का कानून बनाते समय संविधान में संशोधन किया गया था और इस कारण सर्वोच्च न्यायालय का 1993 का फैसला अप्रभावी हो जाता है, क्योंकि संविधान में नया प्रावधान आ गया है जो उस समय नहीं था.
– इस प्रणाली में न्यायपालिका की स्वायत्तता पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है, क्योंकि नियुक्ति आयोग का प्रमुख प्रधान न्यायाधीश ही हैं और उनकी इस प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका है.
– आयोग लोकतंत्र के लिए अच्छा है और हमारी संवैधानिक व्यवस्था में न्यायपालिका समेत राज्य के किसी भी अंग को पूर्ण स्वतंत्रता नहीं दी गयी है.
– अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी के अनुसार, लोगों के भरोसे को बहाल करने के लिए न्यायिक नियुक्तियां न्यायपालिका की स्वतंत्रता और उस पर नियंत्रण तथा विभिन्न अंगों में संतुलन का परिचायक होनी चाहिए.
– संसद को संविधान ने विधायी सर्वोच्चता दी है और इसी कारण वह 99वां संविधान संशोधन विधेयक पारित कर न्यायिक नियुक्ति आयोग की स्थापना कर सकी.
– आयोग में गणमान्य सदस्यों की उपस्थिति लोगों और नागरिक समाज के प्रतिनिधित्व का सूचक है. इससे न्यायपालिका में लोगों का भरोसा बढ़ेगा. इस तरह से नियुक्त जज भी लोगों के हितों के प्रति सजग रहेंगे. गणमान्य लोगों की मौजूदगी से आयोग के अन्य सदस्यों की मनमानी पर भी नियंत्रण रखा जा सकेगा.
विपक्ष में
– संसद ने अनुच्छेद 124ए को संविधान में लाकर असंवैधानिक संशोधन किया है. वर्ष 1993 के फैसले में स्पष्ट कहा गया था कि संविधान की मूल संरचना में प्रधान न्यायाधीश की प्रमुखता है और 99वें संशोधन द्वारा अब इसका उल्लंघन नहीं किया जा सकता है.
-अनुच्छेद 124सी विधायिका को यह अधिकार देता है कि वह आयोग से संबंधित कोई भी कानून कभी भी बना सकता है. यह विधायिका के पक्ष में शक्ति के संतुलन को झुका देता है.
– परंपरा के अंगरेजी कानून सिद्धांत के मुताबिक कॉलेजियम प्रणाली संवैधानिक परंपरा बन चुका है और इसमें बेजा बदलाव की आवश्यकता नहीं है.
-आयोग में गणमान्य व्यक्तियों को न तो परिभाषित किया गया है और न ही उनकी योग्यताओं-अहर्ताओं के बारे में कोई विवरण दिया गया है. ये गणमान्य सदस्य न्यायपालिका की स्वायत्तता को नुकसान पहुंचा सकते हैं क्योंकि इन्हें किसी भी नियुक्ति को रोकने का प्रभावी अधिकार है.
– न्यायिक क्षेत्र में अनुभवहीनता के कारण गणमान्य लोग किसी जज की क्षमता का सही आकलन नहीं कर सकेंगे.