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जीवन पथ पर सक्षम बनें सभी आचार्य, श्री रकुम स्कूल में बच्चों को स्वावलंबन की शिक्षा

आचार्य श्री रकुम ने नेत्रहीन बच्चों के लिए जून 1998 में बेंगलुरु में एक स्कूल खोला. इस आवासीय स्कूल में नेत्रहीन बच्चों के अलावा उन बच्चों को भी पढ़ने, रहने, खाने की मुफ्त सुविधा मिलती है, जो शारीरिक रूप से तो समर्थ हैं, लेकिन उनकी पढ़ाई-लिखाई का खर्च उनके माता-पिता नहीं उठा सकते. आज वह […]

आचार्य श्री रकुम ने नेत्रहीन बच्चों के लिए जून 1998 में बेंगलुरु में एक स्कूल खोला. इस आवासीय स्कूल में नेत्रहीन बच्चों के अलावा उन बच्चों को भी पढ़ने, रहने, खाने की मुफ्त सुविधा मिलती है, जो शारीरिक रूप से तो समर्थ हैं, लेकिन उनकी पढ़ाई-लिखाई का खर्च उनके माता-पिता नहीं उठा सकते. आज वह तीन स्कूलों में 600 से अधिक बच्चों के बेहतर जीवन का प्रबंध कर रहे हैं.
मलयेशिया में जन्मे और भारतीय माता-पिता की संतान आचार्य रकुम एक जमाने में कराटे और मार्शल आर्ट्स के विश्व चैंपियन रह चुके हैं. इसके अलावा हिंदी, अंगरेजी और जापानी सहित देश-विदेश की कई भाषाओं के भी वे जानकार हैं.
आचार्य को प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति की भी अच्छी जानकारी है जिसके जरिये वे अपने तीन स्कूलों के छह सौ बच्चों में रोग प्रतिरोधक क्षमता का विकास करके उन्हें बीमारियों से दूर रखते हैं.
आचार्य श्री रकुम ने समाज में गरीबी के बीच जीवन गुजार रहे बच्चों की दुर्दशा से व्यथित होकर एक ऐसे स्कूल की शुरुआत करने की सोची, जहां नेत्रहीन, गरीब और लावारिस बच्चे न केवल अक्षर ज्ञान प्राप्त करें, बल्कि अपने हुनर व हौसले से समाज में भी योगदान दें. इस स्कूल की स्थापना में मार्शल आर्ट्स के अपने करियर की आहूति देनेवाले आचार्य रकुम ने यहां पढ़नेवाले बच्चों को शिक्षा के अलावा, पाक-कला, कराटे, कारपेंटरी, इलेक्ट्रॉनिक्स, वाहन चालन जैसे वोकेशनल शिक्षा के क्षेत्रों में पारंगत बनाने पर भी बल दिया है. ताकि यहां से अपनी पढ़ाई पूरी करनेवाले बच्चे, अपने हुनर के दम पर आगे चल कर खुद का कुछ उद्यम शुरू कर सकें.
यही नहीं, बेंगलुरु स्थित आचार्य रकुम के इन स्कूलों में बच्चों को छठी कक्षा से ही सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी शुरू करा दी जाती है, ताकि वे बड़े होकर सरकारी तंत्र के किसी ऊंचे ओहदे पर पहुंचें और अपने गांव और लोगों की स्थिति सुधार सकें. बीते 17 वर्षों में आचार्य रकुम का यह प्रयास रंग भी लाया है़ उनके इस विशेष स्कूल से पढ़ाई पूरी करनेवाले कई बच्चे सरकारी और गैर-सरकारी संस्थानों में अच्छे पदों पर काम कर रहे हैं.
आचार्य रकुम के इस विशेष स्कूल को चलाने का खर्चा जन भागीदारी से चलता है़ फेसबुक के अपने पेज पर मदद की अपील के अलावा, इस स्कूल के लिए मदद मांगने का एक अनोखा तरीका भी है. बच्चे इस स्कूल के बाहर लगे बोर्ड पर अपनी जरूरतें लिख देते हैं.
इनमें कॉपी-किताबों के अलावा, कपड़े, जूते, खाने के सामान, दूध आदि चीजें शामिल होती हैं. और इस स्कूल के सामने से गुजरनेवाला हर शख्स इससे वाकिफ हो जाता है और जो जहां तक संभव हो, मदद जरूर करता है़ इसके बावजूद आचार्य रकुन इस स्कूल की आधारभूत संरचना और फंड की कमी दूर करने के लिए लगातार जूझ रहे हैं. स्कूल में बिजली, पानी ओर शौचालय जैसी बुनियादी जरूरतें तो पूरी हैं, लेकिन कक्षाएं छोटी-छोटी हैं, जिनके एस्बेस्टस के छत बारिश का पानी रोकने में कारगर नहीं हैं. लेकिन ये मुश्किलें आचार्य रकुन के इरादों को कमजोर नहीं करतीं.
बेंगलुरु के इंदिरानगर, देवानाहल्ली और अर्कावती इलाके में चलनेवाले उनके तीन स्कूलों की ख्याति कर्नाटक ही नहीं, पूरे दक्षिण भारत में फैली है और जब भी कोई बच्चा यहां पढ़ने के लिए आता है, तो उसे निराश नहीं होना पड़ता़ रकुम कहते हैं, दुनिया का कोई ऐसा काम नहीं है, जो हमारे बच्चे नहीं कर सकते.
लेकिन इससे पहले हम बड़ों की यह जिम्मेवारी बनती है कि हम उनकी जरूरतें समझें और उन्हें सक्षम बनने का पूरा अवसर मुहैया करायें. वह कहते हैं कि हमें बच्चों के लिए साधन जुटाने से ज्यादा उन्हें इतना सशक्त बनाने पर बल देना चाहिए कि वे बड़े होकर अपनी जरूरतें खुद पूरी कर सकें.

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