बदलाव की राह पर म्यांमार
म्यांमार की संसद के लिए आठ नवंबर को हो रहे चुनाव में नोबेल पुरस्कार विजेता ऑन्ग सान सू की की पार्टी नेशनल लीग फार डेमोक्रेसी की जीत के साथ लोकतंत्र बहाली की उम्मीद जतायी जा रही है. हालांकि सैन्य अधिकारियों की सत्तारूढ़ यूनियन सालिडरिटी एंड डेवलपमेंट पार्टी उनका रास्ता रोकने के लिए पूरा जोर लगा […]
म्यांमार की संसद के लिए आठ नवंबर को हो रहे चुनाव में नोबेल पुरस्कार विजेता ऑन्ग सान सू की की पार्टी नेशनल लीग फार डेमोक्रेसी की जीत के साथ लोकतंत्र बहाली की उम्मीद जतायी जा रही है.
हालांकि सैन्य अधिकारियों की सत्तारूढ़ यूनियन सालिडरिटी एंड डेवलपमेंट पार्टी उनका रास्ता रोकने के लिए पूरा जोर लगा रही है. इस बीच संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने म्यांमार में जारी हिंसा और भड़काऊ बयानबाजी पर चिंता जतायी है. इस चुनाव से जुड़े अहम पहलुओं के बीच ले जा रहा है आज का विशेष.
कृपाशंकर चौबे
एसोसिएट प्रोफेसर, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय
म्यां मार की जनता को दशकों बाद वास्तविक बदलाव का अवसर मिल रहा है. आठ नवंबर को होने जा रहे संसदीय चुनाव में 90 से ज्यादा पार्टियां भाग ले रही हैं. इतनी ज्यादा पार्टियों का गठन होने और चुनाव में उनके उतरने से स्पष्ट है कि सैन्य शासन के प्रभाव से उबर रही वहां की जनता में लोकतंत्र और स्वाधीनता के लिए कितनी तड़प है. पिछले चार साल से म्यांमार में सेना की कठपुतली सरकार है. सेना द्वारा 2011 में सत्ता नागरिक शासन को सौंपे जाने के बावजूद म्यांमार में कहने के लिए ही लोकतंत्र है. इसलिए म्यांमार की जनता इस चुनाव के बहाने देश की राजनीतिक प्रक्रिया में शामिल होकर इतिहास रचने जा रही है.
जो नेता जनता की शक्ति पर भरोसा रखते हैं, जनता के सुख-दुःख से जुड़े रहते हैं, वे राजनीति में कभी अप्रासंगिक नहीं होते. म्यांमार में नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी की नेता ऑन्ग सान सू की अपने देश की जनता के सुख-दुःख से सदा-सर्वदा जुड़ी रही हैं, इसलिए राजनीति में कभी अप्रासंगिक नहीं होंगी. संसदीय चुनाव में सेना और उसके समर्थनवाली सत्तारूढ़ पार्टी की यदि पराजय होती है और सत्ता में परिवर्तन होता है, तो उसका श्रेय सू की को ही जायेगा. सू की अभी उसी नये दौर के लिए अपने लोकतांत्रिक लक्ष्य को आगे बढ़ा रही हैं.
सू की का संघर्ष
ऑन्ग सान सू की ने म्यांमार में लोकतंत्र की बहाली के लिए लंबे समय तक संघर्ष किया. वे 15 साल तक नजरबंद रखी गयीं. आखिरी समय बीमार पति से भी नहीं मिल पायीं, क्योंकि उनके पति को वीसा देने से म्यांमार की सरकार ने मना कर दिया था और सू की इस आशंका से बर्मा छोड़ कर नहीं गयीं कि उन्हें फिर देश में लौटने नहीं दिया जायेगा. लोकतंत्र की बहाली के लिए सूकी को संघर्ष की प्रेरणा विरासत में मिली.
सू की के पिता ऑन्ग सान ने राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ भारत से अंगरेजी शासन को हटाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी. ऑन्ग सान ने जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया, अशोक मेहता, मधु लिमये के साथ एशियन सोशलिस्ट संघर्ष को भी आगे बढ़ाया था. ऑन्ग सान ने आधुनिक बर्मी सेना की स्थापना की थी और यूनाइटेड किंगडम से 1947 में बर्मा की स्वतंत्रता पर बातचीत की थी.
उसी साल उनके प्रतिद्वंद्वियों ने उनकी हत्या कर दी.परवर्ती काल में सू की की मां खिन ने बर्मा में सैनिक शासन के खिलाफ लोकतंत्र की बहाली के लिए आंदोलन चलाया. मां के निधन के बाद लोकतंत्र समर्थक आंदोलन का नेतृत्व सू की ने अपने हाथ में ले लिया. सू की ने दुनिया को दिखाया कि लोकतांत्रिक संघर्ष अपनी माटी में ही जन्मता है, तेज होता है और कामयाब भी होता है.
म्यांमार की सरकार को भी सू की के संघर्ष के आगे अंततः झुकना पड़ा और पांच साल पहले 2010 में उनकी नजरबंदी खत्म करनी पड़ी. हालांकि उसके पीछे आर्थिक कारण थे. सैन्य व उसके सहयोगियों की सरकार सू की को रिहा कर दुनिया को संदेश देना चाहती थी कि देश में लोकतंत्र की वापसी हो रही है.
उस सरकार को भली भांति बोध हो गया था कि लोकतंत्र की वापसी दिखाये बगैर विदेशी निवेश पुनः प्रारंभ नहीं होनेवाला था. म्यांमार का आर्थिक ढांचा पूरी तरह चरमरा गया था. जो म्यांमार कभी उर्वर धरती के लिए ख्यात था और चावल का निर्यात करता था, उसे आयात करना पड़ रहा था. सू की के लोकतांत्रिक आंदोलन को कुचलने से नाराज होकर यूरोप के देशों ने म्यांमार पर आर्थिक पाबंदी लगा दी थी.
चुनावी इितहास
म्यांमार में 8 अगस्त, 1988 को सेना सत्ता पर काबिज हो गयी थी. 1990 के आम चुनाव में सू की के दल नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी एनएलडी ने 80 प्रतिशत सीटों पर जीत दर्ज की थी.
उस समय सू की नजरबंद थीं. सेना ने उनकी जीत को खारिज कर दिया था. 1990 के बाद 2010 में संसद के लिए जब आम चुनाव हुए, तो सू की के दल ने यह कहते हुए उसमें हिस्सा नहीं लिया कि चुनाव निष्पक्ष नहीं होने दिया जायेगा. फलतः उस चुनाव में सैन्य समर्थक पार्टियां ही जीतीं. लेकिन, 2012 के उपचुनावों में सू की ने जीत दर्ज की.
उपचुनाव में जीतने के बाद पिछले तीन वर्षों के दौरान सू की ने पहली बार संसद में एक छोटे से गुट का न सिर्फ नेतृत्व किया, बल्कि औरों की मुक्ति के लिए भी संघर्ष किया. सूकी के संसद में पहुंचने के बाद और म्यांमार में राजनीतिक सुधार को देखते हुए वह पाबंदी हटायी जाने लगी. राजनीतिक स्वाधीनता के साथ ही आर्थिक स्वाधीनता भी प्रयोजनीय होती है और इस प्रयोजन को यूरोपीय संघ के साथ ही सू की ने भी महसूस किया.
आठ नवंबर के चुनाव के बाद म्यांमार में नया दौर सू की की उंगली पकड़ कर भले आनेवाला हो, लेकिन इसका यह आशय नहीं कि सू की के दल नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी को ही इस चुनाव में स्पष्ट बहुमत मिलेगा. इसकी वजह यह है कि सैनिक शासन के दौरान संविधान में प्रावधान कर संसद में 25 प्रतिशत स्थान सेना से जुड़े लोगों के लिए आरक्षित कर दिया गया था. उधर, इस चुनाव में कई मानवाधिकार समूह और अल्पसंख्यक जातीय समूह दो सौ से ज्यादा संसदीय सीटों पर प्रभावशाली हैं और वे समूह स्वयं चुनाव लड़ रहे हैं.
इसलिए उन समूहों के समर्थन के बगैर सू की का दल साफ बहुमत शायद ही हासिल कर पायेगा. फिर भी तथ्य है कि यह चुनाव म्यांमार के लिए महत्वपूर्ण मोड़ है और इसमें मानवाधिकार संगठनों व अल्पसंख्यक बौद्ध समूहों के अलावा सू की के दल नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी) की बड़ी भूमिका होगी. चुनाव में समान विचारवालों के समर्थन से बहुमत मिलने के बाद भी सू की राष्ट्रपति का चुनाव लड़ पाएंगी अथवा नहीं, यह अभी निश्चित नहीं है.
म्यांमार का संविधान सात साल पहले 2008 में सैन्य शासन के दौरान बना था, जिसके मुताबिक विदेशी नागरिक से शादी करनेवाला सर्वोच्च पद पर काबिज नहीं हो सकता. सू की ने चूंकि विदेशी नागरिक से शादी की थी, अतः संविधान में संशोधन बाद ही वे राष्ट्रपति बन सकेंगी और संविधान में संशोधन नयी सरकार ही कर सकेगी. राष्ट्रपति का चुनाव मार्च, 2016 में होगा. यदि सू की स्वयं राष्ट्रपति नहीं बन पातीं हैं, तो अपने किसी विश्वस्त को इस पद पर बिठा सकती हैं.
भारत के साथ संबंधों पर असर
समझा जाता है कि 8 नवंबर, 2015 के चुनाव के बाद भारत के साथ म्यांमार के संबंधों में भी नया दौर आयेगा. दोनों ओर बहुत-कुछ साझा है. भारत और बर्मा केवल अपनी भौगोलिक परिस्थितियों के कारण मित्र नहीं हैं, बल्कि उनकी यह मैत्री साझा मूल्यों, विरासत तथा आजादी के संघर्ष पर आधारित है.
भारत में स्वतंत्रता के लिए संघर्ष उसी दौर में हुआ, जब बर्मा अपनी आजादी के लिए जूझ रहा था. दोनों देशों ने एक दूसरे से बहुत कुछ सीखा है और उनके बीच मित्रता वस्तुतः दोनों देशों की जनता के बीच मित्रता है.
आठ नवंबर के चुनाव के बाद म्यांमार में नया दौर सू की की उंगली पकड़ कर भले आनेवाला हो, लेकिन इसका यह आशय नहीं कि सू की के दल नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी को ही इस चुनाव में स्पष्ट बहुमत मिलेगा. इसकी वजह यह है कि सैनिक शासन के दौरान संविधान में प्रावधान कर संसद में 25 प्रतिशत स्थान सेना से जुड़े लोगों के लिए आरक्षित कर दियागया था.
जातीय हिंसा से ग्रस्त है म्यांमार
लोकतंत्र की बहाली के साथ अल्पसंख्यक तथा जातीय समुदायों के अधिकारों की रक्षा भी रविवार को म्यांमार में हो रहे चुनाव की प्रमुख कसौटी होगा और इस मसले पर अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षकों की नजर रहेगी.
म्यांमार में पिछले कुछ सालों में बौद्ध कट्टरपंथियों की मुसलिम विरोधी गतिविधियों में हजारों लोग मारे गये हैं. सांप्रदायिक हमलों और आर्थिक बहिष्कार से शुरू हुआ उनका आंदोलन अब एसोसिएशन फॉर द प्रोटेक्शन ऑफ रेस एंड रिलीजन, जिसे बर्मी भाषा में ‘माबाथा’ कहा जाता है, के रूप में संगठित हो चुका है.
म्यांमार के सैन्य समर्थित इस संगठन के दबाव में इस साल जुलाई में चार विवादित कानून पारित किये गये थे- अंतर्धार्मिक विवाह पर पाबंदी, बौद्ध स्त्रियों के धर्मांतरण पर रोक, बच्चे पैदा करने की सीमा और बहुविवाह पर रोक. सभी नागरिक अधिकारों से वंचित करीब 1.40 लाख रोहिंग्या मुसलिम शरणार्थी शिविरों में रह रहे हैं. वर्ष 1982 में रोहिंग्य समुदाय को 135 आधिकारिक नृजातीय समूहों की सूची से बाहर कर दिया गया था.
मौजूदा चुनाव में दो प्रमुख पार्टियों द्वारा मुसलिम उम्मीदवार नहीं खड़े किये जाने को चरमपंथी बौद्धों के सफल दबाव के रूप में देखा जा रहा है. बड़ी संख्या में मुसलमान मतदाताओं को भी मतदाता सूची से बाहर रखा गया है.
म्यांमार के सीमावर्ती क्षेत्रों में रहनेवाले सात बड़े जातीय समूह 1948 में बर्मा की आजादी के बाद से ही भेदभाव का आरोप लगाते रहे हैं. ये समुदाय देश की आबादी का एक तिहाई हिस्सा हैं. शांति वार्ताओं के बावजूद काचिन और शान प्रांतों में वर्षों से हिंसा जारी है और अभी तीन लाख से अधिक लोग अस्थायी शिविरों में रहने के लिए विवश हैं.
जानकारों का मानना है कि केंद्र सरकार और सेना के प्रति जातीय समूहों के अविश्वास का नकारात्मक असर चुनाव पर पड़ सकता है. परंतु इन समूहों का प्रतिनिधित्व करनेवाली पार्टियां संसद में अपनी संख्या बढ़ाने की जुगत में भी लगी हुई हैं और माना जा रहा है कि वे सू की के एनएलडी के साथ सहयोग कर प्रांतीय स्वायत्तता और समुदायों की सुरक्षा की दिशा में ठोस अधिकार हासिल कर सकती हैं.
इन समूहों के स्वायत्त आंदोलनों को आधार बना कर सत्ता में बैठी सेना के लिए यह स्थिति मुश्किल पैदा कर सकती है. ऐसे में इन इलाकों में स्वतंत्र चुनाव और शांति समझौतों की बहाली पर भी प्रश्नचिह्न लग रहा है.
म्यांमार चुनाव से जुड़ी पांच खास बातें
कुल 498 सीटों के लिए मतदान होंगे
म्यांमार में पांच दशकों के सैन्य शासन के बाद हो रहे स्वतंत्र एवं लोकतांत्रिक संसदीय चुनाव में छह हजार से अधिक उम्मीदवार और 91 पंजीकृत राजनीतिक दल मैदान में हैं. संसद के उच्च और निम्न सदनों की 498 सीटों के लिए मतदान होंगे. इनमें 330 सीटें निम्न सदन और 168 सीटें उच्च सदन के लिए हैं. इस चुनाव में क्षेत्रीय या प्रांतीय संसदों के लिए 644 सीटों के चुनाव भी होंगे. प्रांतीय संसदों में अतिरिक्त 29 सीटें राष्ट्रीय नस्लों के लिए भी हैं.
दो दलों के बीच मुख्य मुकाबला संभावित
चुनाव में मुख्य मुकाबला दो दलों- सत्ताधारी सैन्य समूह द्वारा समर्थित सोलिडारिटी एंड डेवलपमेंट पार्टी (यूएसडीपी) और ऑन्ग सान सूकी के नेशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी (एनएलडी)- के बीच है. पर्यवेक्षकों का आकलन है कि सू की की पार्टी भारी जीत हासिल कर सकती है. वर्ष 2012 में 44 संसदीय सीटों के लिए हुए उपचुनाव में एनएलडी को 43 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. एनएलडी ने 1990 में 52.5 फीसदी मतों के साथ 492 में से 392 सीटों पर जीत दर्ज की थी.
वर्ष 2012 के उपचुनाव में उसका मत-प्रतिशत 66 था. मतों में बढ़ी हिस्सेदारी का एक कारण यह भी था कि उपचुनाव की अधिकतर सीटें बामार-बहुल इलाकों में थीं. अब बामार इलाकों में अतिवादी बौद्ध आंदोलन के कारण सूकी के मतों में कमी की आशंका जतायी जा रही है. हालांकि सू की रोहिंग्या मुस्लिमों के मामले में चुप ही रही हैं, पर कट्टरपंथी बौद्ध उन्हें मुस्लिम समुदाय का समर्थक मानते हैं.
राष्ट्रपति का चुनाव अगले वर्ष मार्च में
म्यांमार में राष्ट्रपति का चुनाव अप्रत्यक्ष तरीके से किया जाता है. वर्ष 2008 के संविधान के प्रावधानों के तहत संसद राष्ट्रपति को निर्वाचित करती है. आशा है कि राष्ट्रपति पद का चुनाव अगले वर्ष मार्च में होगा. नियमों के तहत संसद को तीन भागों में विभाजित किया जाता है- उच्च सदन, निम्न सदन और सेना द्वारा मनोनीत सदस्य. ये तीनों समूह एक-एक नाम राष्ट्रपति पद के लिए प्रस्तावित करते हैं. इन तीनों प्रत्याशियों के लिए संसद के संयुक्त अधिवेशन में मतदान होता है. सबसे अधिक मत पानेवाला व्यक्ति राष्ट्रपति निर्वाचित होता है और अन्य दो उप-राष्ट्रपति बनाये जाते हैं.
सू की के राष्ट्रपति बनने में हैं अड़चनें
सू की की पार्टी के बहुमत में आने की स्थिति में भी उनका राष्ट्रपति बनना असंभव है. संविधान के अनुच्छेद 59एफ के अनुसार वह व्यक्ति राष्ट्रपति नहीं बन सकता है, जिसकी वैध संतान किसी विदेशी सत्ता के प्रति समर्पित हो. सूकी के दोनों बेटों के पास ब्रिटिश पासपोर्ट हैं. सैन्य और सेना-समर्थित प्रतिनिधियों की मौजूदगी के कारण इस नियम में बदलाव के आसार भी नहीं हैं.
चुनाव में मुसलमानों की हो रही उपेक्षा
इस चुनाव में मुख्य पार्टियों की ओर से कोई भी मुसलिम प्रत्याशी नहीं होने की संभावना है.म्यांमार की 5.10 करोड़ की आबादी में पांच फीसदी मुसलमान हैं. दस लाख रोहिंग्या मुसलिम समुदाय के अलावा बड़ी संख्या में मुसलमानों को बर्मी मूल का नहीं मानते हुए मतदाता सूचियों से हटा दिया गया है. ऐसी खबरें भी आयी हैं कि कुछ मुसलमानों को मूल बर्मी श्रेणी में रख कर मतदाता मानने के लिए अधिकारियों को रिश्वत देनी पड़ रही है.
उल्लेखनीय है कि बर्मा में 200 साल से भी अधिक पुरानी मसजिदें हैं, फिर भी अधिकतर मुसलमानों को भारतीय या पाकिस्तानी मूल का मान कर मताधिकार से वंचित कर दिया गया है. इस मामले पर मुख्य दलों की चुप्पी का कारण अतिवादी बौद्ध समूहों के दबाव को माना जा रहा है.