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विज्ञान का कोई धर्म नहीं हो सकता

प्रो एस इरफान हबीब इतिहासकार विज्ञान के इतिहास को उसकी स्थानीयता के साथ संबद्ध करने की परियोजना तो नयी है, पर यह सोच नयी नहीं है. जो यूरोप-केंद्रित इतिहास है, जिसे अंगरेजों तथा अन्य यूरोपीय भाषाओं के विद्वानों ने औपनिवेशिक दौर या उसके बाद में लिखा, उस इतिहास में यूरोपीय और अमेरिकी सभ्यताओं के अलावा […]

प्रो एस इरफान हबीब
इतिहासकार
विज्ञान के इतिहास को उसकी स्थानीयता के साथ संबद्ध करने की परियोजना तो नयी है, पर यह सोच नयी नहीं है. जो यूरोप-केंद्रित इतिहास है, जिसे अंगरेजों तथा अन्य यूरोपीय भाषाओं के विद्वानों ने औपनिवेशिक दौर या उसके बाद में लिखा, उस इतिहास में यूरोपीय और अमेरिकी सभ्यताओं के अलावा जितनी भी सभ्यताएं दुनियाभर में हैं, उनके योगदान को हाशिये पर रखा गया. उन्हें कोई विशेष महत्व नहीं दिया गया.
इस परियोजना में हमारी कोशिश है कि यूरोप-केंद्रित आधुनिक विज्ञान के इतिहास को विखंडित (डिकंस्ट्रक्ट) कर देखा जाना चाहिए. उसमें यह भी देखा जाना है कि आधुनिक विज्ञान सिर्फ इंग्लैंड या यूरोप का उत्पादन नहीं है, बल्कि वह सामूहिक प्रयासों का परिणाम है. उसमें योगदान के मामले में हर सभ्यता और संस्कृति ने अपनी एक उत्कृष्ट भूमिका निभायी है. विभिन्न सभ्यताओं ने विभिन्न शताब्दियों में ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में अपनी समझ का विस्तार किया और उसे साझा किया.
यूनान की सभ्यता के अवसान के बाद उसके ज्ञान को अनुवाद के माध्यम से अरब सभ्यताओं में लाया गया.वहां उस ज्ञान का परिमार्जन और परिवर्द्धन किया गया. इस ज्ञान में गणित, चिकित्सा, इतिहास, अर्थशास्त्र आदि विभिन्न विधाएं और विषय शामिल थे. यूनान के अतिरिक्त भारत से भी बहुत-सी चीजें वहां गयीं, जिनका अरबी में अनुवाद हुआ. इस संयोजन से जो विज्ञान उत्पन्न हुआ, उसे इसलामी विज्ञान की संज्ञा भी दी जाती है.
आठवीं सदी से 11-12वीं सदी तक अरब में ज्ञान संग्रहण की प्रक्रिया में यूनानी विज्ञान के साथ चीनी और भारतीय ज्ञान भी शामिल था. इस ज्ञान में अरबों ने गुणात्मक विकास भी किया और इसके परिमाण को भी विस्तार दिया. बारहवीं सदी में इस ज्ञान को अरबों से यूरोप ने वापस लिया.
यह प्रक्रिया भी अनुवाद के जरिये ही संपन्न हुई. पहले इसका अनुवाद लैटिन में हुआ और फिर बाद में लैटिन से विभिन्न यूरोपीय भाषाओं में वह अनुदित हुआ.अरबों से लिये गये इसी ज्ञान-विज्ञान के आधार पर यूरोप में वैज्ञानिक और औद्योगिक क्रांतियां हुईं तथा पुनर्जागरण का दौर आया.
उल्लेखनीय है कि अरबों के ज्ञान के आगमन से पूर्व यूरोप में अंधकार युग की परिस्थितियां थीं. वैज्ञानिक क्रांति के बाद यूरोप ने तीव्रता से ज्ञान-विज्ञान को आगे बढ़ाया. हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि यूरोप ने अरबों से हासिल ज्ञान को विस्तार देने की एक परिस्थिति यूरोप के अंदर पैदा की. वह दौर यूरोप में भी मूलभूत परिवर्तनों का काल है.
उसी समय वहां पूंजीवाद, वाणिज्यवाद, राज्यों की स्थापना और उपनिवेशवाद भी तेजी से पनप रहे थे. इस परिवर्तन में उस ज्ञान का बहुत महत्वपूर्ण योगदान था, जो अरब से अनुदित होकर आया था.
उससे मिली ताकत और तकनीक ने उनके औपनिवेशिक विस्तार में बड़ी भूमिका निभायी तथा उन्होंने पूरी दुनिया में अपने साम्राज्य कायम किये.
इस विस्तार के दौरान यूरोप ने जो इतिहास लिखा, जो विज्ञान का इतिहास लिखा, उसे अपने हिसाब से लिखा क्योंकि वे समझते थे कि सब कुछ उन्होंने ही पैदा किया है और जहां वे अपना उपनिवेश बना रहे थे, वहां के निवासियों को नीचा दिखाना जरूरी था. यह साबित करना जरूरी था कि यूरोपीय अधिक शक्तिशाली और ज्यादा सभ्य हैं. इस कोशिश में इतिहास बिल्कुल दूसरे सिरे से लिखा गया. दुनिया के बड़े हिस्से को उन्होंने बिल्कुल ही अलग कर दिया.
अब जो कोशिश हो रही है, वह यह है कि विज्ञान के पूरे इतिहास को नये तरीके और सलीके से लिखा जाये और विभिन्न सभ्यताओं और संस्कृतियों को उनका समुचित स्थान इतिहास में मिले. ‘ग्लोबल हिस्ट्री ऑफ साइंस’ का यही उद्देश्य है कि हाशिये पर धकेल दी गयी सभ्यताओं की भूमिका को इतिहास में सही परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए. यह बताया जाना जरूरी है कि आधुनिक विज्ञान एक साझी परियोजना है.
इस पर यूरोप का एकाधिकार नहीं हो सकता है. यह जरूर है कि यूरोप ने उसे पहचान दी और उसे चरम सीमा तक पहुंचाया है, लेकिन यह भी रेखांकित किया जाना जरूरी है कि वह विज्ञान किसी शून्य से यूरोप में पैदा नहीं हुआ. आधुनिक विज्ञान की पृष्ठभूमि और उसमें विभिन्न सभ्यताओं के अमूल्य योगदान का रेखांकन करना अत्यावश्यक है.
इस परियोजना में कैंब्रिज विश्विद्यालय शामिल है और भारत से हम दो-तीन लोग हैं तथा अफ्रीका से भी कुछ विद्वान हैं. इसमें ज्यादातर शोध छात्र हैं जो कैंब्रिज में पढ़ते हैं. इस परियोजना का एक हिस्सा वह भी है जिस पर मेरा पहले से काफी काम रहा है और जो इसलामी विज्ञान के मसले से संबद्ध है.
इस पर मेरी किताब में भी विस्तार से चर्चा है. इसलामी विज्ञान नामक कोई चीज नहीं हो सकती है. इसलामी सभ्यता हो सकती है, संस्कृति हो सकती है. विज्ञान का कोई धर्म नहीं हो सकता है. उसकी सभ्यता और संस्कृति तो हो सकती है, पर धर्म नहीं हो सकता. यही बात हिंदू विज्ञान या वैदिक विज्ञान के मामले पर लागू होती है. क्योंकि हमारी सभ्यता के अंतर्गत विज्ञान के विकास में बौद्धों और अन्य संप्रदायों का भी बड़ा योगदान रहा है. वैज्ञानिकों में अनेक निरीश्वरवादी और धर्म को नहीं माननेवाले भी थे.
धर्म और विज्ञान के दायरे अलग-अलग हैं. धर्म को दैवी माना जाता है और वह आस्था पर आधारित होता है, जबकि विज्ञान संदेह और अनुसंधान पर आधारित है. आज जो वैज्ञानिक सत्य और तथ्य हैं, वे कल अस्वीकार भी किये जा सकते हैं तथा विज्ञान की यह सर्वसम्मत प्रक्रिया है. ऐसा धर्म के साथ नहीं होता. इस परियोजना में सभी के योगदान का रेखांकन होना है, न कि अपनी पसंद और मर्जी की चीजों को भर देना. अगर यूरोप-केंद्रित इतिहास अलोकतांत्रिक है, तो इस्लाम या हिंदू केंद्रित इतिहास भी अलोकतांत्रिक है. इनकी समस्याएं समान हैं.
बहरहाल, हम अपना काम कर रहे हैं, पर मुझे उम्मीद नहीं है कि स्कूलों और कॉलेजों के पाठ्यक्रम में विज्ञान के इतिहास के इस समझ को निकट भविष्य में जगह मिल सकेगी. पर यह जरूर है कि इस संबंध में शोध-कार्य होते रहेंगे. इतिहास और विज्ञान के हमारे विभागों को इस समझ को सही परिप्रेक्ष्य में समझना चाहिए. वे अपने पारंपरिक सोच और सांचे से बाहर निकलकर नये शोधों और नये प्रयासों में शामिल नहीं होना चाहते हैं. मुझे लगता है कि इस नकारात्मकता में सुधार की जरूरत है.
नये सिरे से लिखा जा सकता है विज्ञान की दुनिया का इतिहास
इतिहास हमेशा से वर्तमान के लिए संघर्ष का क्षेत्र रहा है. लेखक, लेखन के तरीके और उद्देश्य सवालों के घेरे में होते हैं और नये सोच तथा तथ्यों के आलोक में प्रस्थापनाओं को निरंतर चुनौती दी जाती है. इसी क्रम में ब्रिटेन, भारत और अफ्रीका के कतिपय विद्वान ऐसी परियोजना पर काम कर रहे हैं, जिसका लक्ष्य यूरोप द्वारा रचे गये विज्ञान के इतिहास का परीक्षण करना है और उन सभी सभ्यताओं के योगदान का समुचित उल्लेख करना है, जिन्हें उक्त इतिहास ने हाशिये पर रख दिया है. स्थानीयकरण की प्रक्रिया पर प्रस्तुत है आज का विशेष
वर्ष 1789. स्थान बंगाल. आइजक न्यूटन की महान कृति प्रिंसिपिया मैथमैटिका के 100 वर्ष पुराने इतिहास में उसे मात्र तीसरी बार अनुदित किया जा रहा था. इस बार इस कृति को अरबी भाषा में अनुदित किया जा रहा था. तफज्जुल हुसैन इस महत्वपूर्ण अध्यवसाय के रचयिता थे.
तब सत्ताधारी इस्ट इंडिया कंपनी के एक सदस्य के अनुसार, ‘खान (तफज्जुल हुसैन) ने अमर न्यूटन के लेखन के अनुवाद द्वारा अरबी साहित्य के अध्येताओं को तमाम भौतिक एवं खगोलीय ज्ञान से जोड़ दिया है.’
तफज्जुल की उपलब्धियों पर शोध करनेवाले प्रोफेसर साइमन शैफर के लिए अनुवाद का यह जटिल कार्य बहुत महत्वपूर्ण है. न्यूटन के सिद्धांतों को भारतीय-फारसी बौद्धिक परंपरा से जोड़ने के प्रयास में तफज्जुल ने अंगरेजी, फारसी, अरबी और संस्कृत भाषा-भाषी समुदायों के विद्वानों के साथ काम किया था. जैसा कि शैफर रेखांकित करते हैं, तफज्जुल इन दो धाराओं के बीच की कड़ी थे.
वे कहते हैं, ये ‘बीच की कड़ी’ वैसे लोग थे, जिन्होंने सदियों से विज्ञान को आगे ले जाने में पहिये का काम किया था. इन लोगों में ज्ञान संवादी और अनुवादक, संबंध स्थापित करनेवाले और संदेशवाहक थे, जो कि ‘मौलिक ज्ञान हस्तांतरित करनेवाले समन्वयक’ थे. विज्ञान की मुख्यधारा के इतिहासों से उनकी भूमिका गायब भले ही हो गयी है, लेकिन उनका कौशल विज्ञान के वैश्वीकरण के लिए अनिवार्य है.
शैफर और डॉ सुजीत शिवसुंदरम विज्ञान इतिहासकार हैं, जिनकी दिलचस्पी यह समझने में है कि वैज्ञानिक ज्ञान के बीज किस तरह फैले और फले-फूले. इनका मानना है कि विज्ञान का वैश्विक इतिहास वास्तव मेंदुनियाभर में विज्ञान का अध्ययन करने के तौर-तरीकों में बदलाव और पुनर्आविष्कार का इतिहास है.इन्होंने और अन्यों ने विज्ञान के अतीत के पुनर्प्रस्तुति की मांग की है, जिससे न सिर्फ ‘सांस्कृतिक रूप से समरूपता’ आये, बल्कि इसलिए भी कि इस मुद्दे की बहुत अधिक समकालीन प्रासंगिकता भी है.
शैफर इस मुद्दे को विश्लेषित करते हुए कहते हैं, ‘यह कथा बहुत प्रचलित है कि आधुनिक विज्ञान पश्चिमी यूरोप से सारी दुनिया में प्रचलित हुआ, जिसकी शुरुआत करीब 500 साल पहले न्यूटन, कोपरनिकस और गैलीलियो, फिर डार्विन, आइंस्टीन आदि के साथ हुई थी. लेकिन, विज्ञान के वैश्वीकरण के बारे में यह कथन पूरी तरह से बेमानी है. यह सदियों से होती रही पूर्व और पश्चिम के बीच ज्ञान विनिमय की उल्लेखनीय प्रक्रिया को नजरअंदाज करता है.’
शिवसुंदरम बात को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, ‘सफल विज्ञान में सार्वभौमिक रूप से लागू होने की क्षमता होती है. इसके बावजूद वैज्ञानिक खोज, वीरता और प्राथमिकता साम्राज्यों, राष्ट्रों और सभ्यताओं के प्रतिस्पर्द्धात्मक मालिकाना के राजनीतिक विवरण के अभिन्न हिस्से हैं. इस कहानी को तितर-बितर करने के लिए हम आदान-प्रदान तथा राजनीतिक गणित में ‘चुप्पी’ पर ध्यान दे रहे हैं, जो वैश्विक मंच पर विज्ञान के प्रादुर्भाव के लिए केंद्रीय आधार है.’
क्या विज्ञान के क्षेत्रीयता से परे इतिहास की व्याख्या संभव है?
द आर्ट्स एंड ह्यूमैनिटीज रिसर्च कौंसिल के वित्तीय सहयोग से वे और शैफर पिछले दो वर्ष से अधिक समय से इस प्रश्न पर शोध कर रहे हैं कि क्या अब विज्ञान के यूरो-केंद्रित इतिहास के स्थान पर एक क्षेत्रीयता से परे इतिहास की व्याख्या संभव है?
इस कार्य के लिए उन्होंने भारत और अफ्रीका के विद्वानों-शोधार्थियों को साथ लिया है, जिनमें दिल्ली के नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ एजुकेशनल प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन के प्रोफेसर एस इरफान हबीब और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ध्रुव रैना भी शामिल हैं. उन्होंने दिसंबर, 2014 में नेहरू म्यूजियम लाइब्रेरी में एक अंतरराष्ट्रीय वर्कशॉप का भी आयोजन किया था.
शिवसुंदरम बताते हैं, ‘अब हमारी बहस नयी पीढ़ी के उन शुरुआती शोधार्थियों के द्वारा भी आगे ले जायी जा रही है, जो वर्कशॉप में आये थे.’
एक प्रश्न जिस पर शोधार्थियों ने बहस की, वह यह है कि इतने लंबे समय तक विज्ञान के वैश्विक कथानक विद्वानों की नजर में क्यों नहीं आये. शैफर कहते हैं, ‘यह स्रोतों के उपयोग से पैदा हुई समस्या है. यह एक अभिलेखीय समस्या है- जहां तक स्रोतों के उत्पादन और संरक्षण का सवाल है, उनमें यूरोप से संबंधित स्रोत शेष विश्व के स्रोतों से बहुत ही अधिक हैं.’
शिवसुंदरम विश्लेषित करते हुए कहते हैं, ‘अगर हमें यूरोप से केंद्र को विस्थापित करना है, तो हमें पूरी तरह से नये स्रोतों- स्मारकों, नाविक सारणियों, दरबारी विवरणों आदि- का इस्तेमाल करने की जरूरत है.’ वे भोज-पत्रों पर लिखी श्रीलंकाई पांडुलिपियों का उदाहरण देते हैं : महावंश श्रीलंका के 25 शताब्दियों का बौद्ध इतिहास है. कैंडी के अंतिम शासकों के कार्यों के विवरण में मैंने मंदिर के उद्यानों के बारे में उल्लेख देखा, जो वैसे बहुत विशेष प्रतीत नहीं हो रहे थे. इसके आधार पर मैंने 1821 में बने वानस्पतिक उद्यान बनाने से संबंधित औपनिवेशिक दस्तावेजों का अध्ययन किया, और मैंने पाया कि अंगरेजों ने उद्यान लगाने के कैंडियाई परंपरा को ‘पुनः प्रयुक्त’ करते हुए एक मंदिर उद्यान पर अपना औपनिवेशिक उद्यान बना दिया था.
शिवसुंदरम बताते हैं कि यह भी हुआ कि ज्ञान को समाविष्ट करने के तौर-तरीकों को अक्सर नजरअंदाज किया जाता है. यूरोपियों ने भारत में आम तौर पर पंडितों यानी ज्ञानी लोगों से ज्ञान का संग्रहण किया था. ‘यूरोपियों को विज्ञान और साम्राज्य दोनों पर एकाधिकार नहीं था- क्रिस बायली के शानदार अध्ययन (बॉक्स देखें) में बताया गया है कि किस प्रकार से यूरोपियों ने पहले से स्थापित सूचना-तंत्र और वैज्ञानिक संरक्षण के लिए लड़ाइयां लड़ीं. उदाहरण के लिए, भारत में खगोल विद्या के अध्ययन का अर्थ यूरोपियों के लिए यह था कि संस्कृत की पुस्तकों का अनुवाद कराया जाये और पंडितों से विमर्श किया जाये.’
शिवसुंदर आगे बताते हैं, ‘अक्सर वैज्ञानिक उपलब्धियों को किसी देश की प्रगति के पैमाने के तौर पर देखा जाता है, क्योंकि विज्ञान एवं तकनीक भूख, बीमारी और विकास की समस्याओं के समाधान में मददगार हो सकते हैं. अगर पूर्वाग्रह से ग्रस्त वैज्ञानिक इतिहास बताया जायेगा, तो हमारा अतीत भविष्य के शोध या वस्तुतः संस्कृतियों के बीच विमर्श का प्रस्थान-बिंदु बनने के बजाय एक ‘युद्ध-क्षेत्र’ में तब्दील हो जायेगा, जैसा कि एस इरफान हबीब कहते हैं.
शैफर कहते हैं कि इसीलिए तफज्जुल हुसैन खान जैसे संवाद के माध्यमों और उनके द्वारा प्रयुक्त रास्तों तथा ज्ञान के विभिन्न रूपों के बीच हुई अंतःक्रिया के बेहतर विवरण प्रस्तुत किया जाना बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है.
(www.cam.ac.uk/से साभार)
सुनने की कला
भारतीय इतिहास, या ज्ञान के संचार और गतिशीलता के इतिहास से संबंधित कोई भी चर्चा स्वर्गीय प्रोफेसर सर क्रिस्टोफर बायली (1945-2015) के उल्लेख के बिना पूरी नहीं हो सकती है.
बायली ने 1780 के 1860 के दशकों के बीच सूचनाओं और अफवाहों के प्रचार-प्रसार में भारतीय जासूसों, डाकियों और जानकार सचिवों को अंगरेजों के लिए समान रूप से मददगार माना है. अपने बहुत उल्लेखनीय शोध में उन्होंने इन सूचना देनेवालों के सामाजिक और बौद्धिक पृष्ठभूमि का खुलासा किया है, और यह प्रदर्शित किया है कि इन ‘संपर्क-सूत्रों’ के नेटवर्क ने किस प्रकार अंगरेजों को भारत की राजनीति, आर्थिक गतिविधियों और संस्कृति को समझने में मद की.
अपने महत्वपूर्ण ग्रंथ ‘एंपायर एंड इंफॉर्मेशन’ (1996) में उन्होंने विश्लेषित किया है, ‘भारत को इस्ट इंडिया कंपनी द्वारा जीते जाने का एक बहुत बड़ा कारण यह था कि अंगरेजों ने भारतीय राजनीति और समाज के आंतरिक संचार को सुनने की कला सीख ली थी.’ आखिरकार, बहस और संचार के जटिल भारतीय संस्करण ने अंगरेजों के राजनीतिक और बौद्धिक प्रभुत्व को चुनौती दी थी; बायली के अनुसार, भारतीय राजनीति और मूल्यों की गूढ़ता को ठीक से समझ नहीं पाने के कारण ही अंगरेज 1857 के विद्रोह का पूर्वानुमान लगाने में असफल रहे थे.
अपने विषय में योगदान के लिए विश्व प्रसिद्ध बायली 2014 में सेवानिवृत होने तक कैंब्रिज के दक्षिण एशियाई अध्ययन केंद्र के निदेशक थे, और साथ ही, सेंट कैथरीन कॉलेज के अध्यक्ष और इतिहास विभाग में साम्राज्य-संबंधी एवं नौसैनिक इतिहास के वियर हार्म्सवर्थ प्रोफेसर भी थे.
अध्ययन केंद्र की मौजूदा निदेशक प्रोफेसर जोया चटर्जी बताती हैं कि उन्होंने 18वीं और 19वीं सदी के भारत की लोगों में समझ को पूरी तरह बदल दिया- ‘क्रिस आधुनिक भारतीय इतिहास के क्षेत्र में सर्वाधिक प्रभावशाली लोगों में रहे हैं. उनके हर आलेख ने नयी प्रस्थापना दी, चाहे वह राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक हो, या बाद में बौद्धिक इतिहास का क्षेत्र हो.’
उनके कार्यों की उत्तरोत्तर दिशा ‘वैश्विक ऐतिहासिक’ तुलनाओं और संपर्कों की ओर रही; उनकी पुस्तक ‘द बर्थ ऑफ द मॉडर्न वर्ल्ड’ (2004) ने तो आधुनिकता के अति गूढ़ और अनेक आवरणों से युक्त इतिहास की समझ को ही बदल कर रख दिया.

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