पेरिस में आतंकी हमले : आतंक की त्रासदी और भविष्य का भय
पेरिस में हुए हमलों ने आतंकवाद के भयावह और विनाशकारी चेहरे को फिर बेनकाब किया है. एक तरफ इस त्रासदी के बाद आतंक को जड़ से उखाड़ने के वैश्विक संकल्प को पूरी ताकत से पूरा करने की बात कही जा रही है, तो दूसरी तरफ परस्पर सहभागिता के अभाव और अंतरराष्ट्रीय समुदाय में अनिर्णय से […]
पेरिस में हुए हमलों ने आतंकवाद के भयावह और विनाशकारी चेहरे को फिर बेनकाब किया है. एक तरफ इस त्रासदी के बाद आतंक को जड़ से उखाड़ने के वैश्विक संकल्प को पूरी ताकत से पूरा करने की बात कही जा रही है, तो दूसरी तरफ परस्पर सहभागिता के अभाव और अंतरराष्ट्रीय समुदाय में अनिर्णय से निराशा भी गहरी होती जा रही है. आतंक न सिर्फ कट्टरपंथी विचारधाराओं का प्रतिफलन है, बल्कि दुनिया के स्तर पर आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक गतिविधियों और परिस्थितियों का भी परिणाम है.
उससे मुक्ति पाने के लिए उसके प्रति व्यापक रणनीति की आवश्यकता है. मानव सभ्यता अनगिनत हादसों और त्रासदियों से गुजर कर इस मुकाम पर पहुंची है, और यह भरोसा हमें रखना है कि पेरिस के बाद समुचित और संतुलित समझ से हम एक शांतिपूर्ण विश्व के निर्माण की प्रक्रिया को बरकरार रखेंगे.
नताली नौगेरेदे
वरिष्ठ पत्रकार, द गार्डियन
पे रिस में एक बार फिर दहशत. सड़कों पर लाशों की गिनती हो रही है. परिवार के लोग और दोस्त बेचैनी में फोन कर रहे हैं. देश सदमे में है. यह वर्ष शार्ली एब्दो की त्रासदी से शुरू हुआ था, अब और बड़े हमले के साथ खत्म हो रहा है. गोलीबारी और विस्फोटों में मरनेवालों की संख्या सामने आने के साथ यह बात तो स्पष्ट है कि फ्रांसीसी गणराज्य के लिए, उसके राजनीतिक विकास के लिए और इसके सामाजिक सद्भाव के लिए इन हमलों के नतीजे बहुत दूरगामी होंगे.
राष्ट्रपति फ्रांक्वा ओलांद ने आपातकाल की स्थिति की घोषणा की है. पिछली बार ऐसा 2005 के पेरिस उपनगरीय दंगों में हुआ था, जब युवाओं, जिनमें अधिकतर मुसलिम या दूसरी पीढ़ी के आप्रवासी थे, तथा पुलिस के बीच हिंसा हुई थी. लेकिन फ्रांस की ऐतिहासिक स्मृति में ‘आपातकाल की स्थिति’ 1960 के दशक के अल्जीरियाई युद्ध और सैन्य क्रांति की कोशिश से संदर्भित है. अब पेरिस में हालात युद्धक्षेत्र की तरह हैं और इसी तरह से इन्हें याद भी रखा जायेगा. आघात बहुत गहरा होगा. सुरक्षा-तंत्र की विफलता क्या थी, हमले कैसे हुए आदि जैसे सवालों के साथ इसके राजनीतिक नतीजों की भी आशंका होगी तथा सवाल यह भी होगा कि इससे धुर दक्षिणपंथी नेशनल फ्रंट को क्या हासिल होगा.
शार्ली एब्दो के बाद फ्रांस के प्रधानमंत्री मैनुअल वाल्स ने संसद के सामने देश को ‘युद्धरत’ बताया था. उन्होंने कहा था कि फ्रांस ‘इसलाम के विरुद्ध युद्ध में नहीं है’ और यह देश की मुसलिम आबादी के लिए संकेत था. यूरोप में सबसे अधिक मुसलिम आबादी फ्रांस में ही वास करती है. लेकिन, उनके शब्दों से विभिन्न समुदायों के भीतर पनप रहे तनावों को दबाने में बहुत मदद नहीं मिली.
एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि एक हमलावर ने गोलीबारी से पहले ‘यह सीरिया के लिए है’ का नारा लगाया. ओलां ने ‘आतंकवादियों’ का उल्लेख करते हुए राष्ट्रीय टेलीविजन पर कहा- ‘हमें पता है कि ये लोग कौन हैं’. निश्चित रूप से यह सुनियोजित घटना थी, जिसमें एक ही रात में अलग-अलग जगहों पर हमले हुए जहां लोगों के जुटने की पूरी संभावना थी.
बाताक्लां एक लोकप्रिय मनोरंजन गृह है, जो शुक्रवार की शाम लोगों से भरा रहता है. अन्य हमला भी एक मजबूत संकेत है जिसमें स्तेद दे फ्रांस फुटबॉल स्टेडियम के नजदीक हमला हुआ, जहां फ्रांस और जर्मनी के बीच मैच चल रहा था और इसमें स्वयं राष्ट्रपति ओलांद मौजूद थे. ठिकानों का चुनाव बहुत सोच-समझ से किया गया था. हमले में मरने और घायल होने की मानवीय त्रासदी के साथ इसके मनोवैज्ञानिक प्रभाव और भय का असर बहुत लंबे समय तक रहेगा.
शार्ली एब्दो पर हमले के बाद से ही सुरक्षा विशेषज्ञ इसलामी स्टेट से संबद्ध जेहादी गुटों और अन्य गिरोहों से हमले की चेतावनी दे रहे थे, पर राजधानी के बीच इस स्तर के हमले की संभावित आशंका का कभी उल्लेख नहीं किया गया. फ्रांस काफी समय से जेहादी आतंकवाद के विरुद्ध सैनिक कार्रवाई में संलग्न है- विशेष रूप से जनवरी, 2013 से साहेल में उसकी सक्रियता है जब उसने माली में ऑपरेशन की शुरुआत की थी और उसका दायरा आस-पड़ोस के कुछ अफ्रीकी देशों तक पसरा हुआ था.
अब तक जारी कार्रवाई में कई हजार फ्रांसीसी सैनिक लगे हैं और इसमें हवाई हमले भी हो रहे हैं जिनमें लगातार लोग मारे जाते हैं. वर्ष 2014 से फ्रांस इराक में चल रहे इसलामिक स्टेट के खिलाफ गठबंधन का भी हिस्सा है. इस गठबंधन ने इस साल से सीरियाई इलाकों में भी कुछ हमले करना शुरू किया है.
फ्रांस उन यूरोपीय देशों में से है, जहां से सैकड़ों की संख्या में जेहादी इसलामिक स्टेट से जुड़ कर सीरिया जाते हैं और इनमें से अक्सर वे लोग होते हैं जो फ्रांस में पैदा हुए हैं और वहीं शिक्षा पायी है. कई तो ऐसे हैं जिन्होंने इसलाम धर्म बाद में स्वीकार किया है. उग्र विचारों का ऑनलाइन प्रचार भी बढ़ रहा है. निश्चित रूप से इस रुझान का सामाजिक और आर्थिक संदर्भ है, जैसे- युवाओं में भारी पैमाने पर बेरोजगारी, खासकर उपनगरों में, तथा अरबों और अफ्रीकियों के खिलाफ नस्ली भेदभाव.
अब फ्रांस में मुस्सलमानों में उत्तरोत्तर कट्टरवाद और आतंक से जोड़े जाने का भय बढ़ेगा. उन्मादी उग्र दक्षिणपंथी समूह घृणा बढ़ाने की कोशिश कर सकते हैं. शार्ली एब्दो के बाद हजारों फ्रांसीसी सैनिकों को महत्वपूर्ण ठिकानों, स्कूलों, रेलवे स्टेशनों, संस्थाओं आदि की सुरक्षा के लिए तैनात किया गया है.
जनवरी में शार्ली एब्दो और यहूदी दुकान को निशाना बनानेवाले आतंकियों ने तीन दिनों तक हमले कर पत्रकारों, पुलिसकर्मियों और यहूदियों की हत्या की थी. हमले के अगले रविवार को बहुत बड़ी रैली शार्ली एब्दो के साथ सहानुभूति जताते हुए आयोजित की गयी थी, जो 1944 में पेरिस की आजादी के बाद के प्रदर्शन के बाद सबसे बड़ी सभा थी.
फ्रांसीसी अधिकारियों के सामने अब यह चुनौती है कि वे ऐसे संकेत दें ताकि सामाजिक विभाजन और राष्ट्रीय अवरोध को रोका जा सके, जो निःसंदेह इस ताजा हमले के साजिशकर्ताओं का इरादा है. जहां तक यूरोप और पश्चिमी दुनिया की बात है, बहुतों की नजर में पेरिस की भयावह घटना निर्णायक मोड़ होगी और वे इसे अमेरिका में हुए हमले (9/11) के बाद की दुनिया में असभ्य, क्रूर, हिंसक, त्रासद प्रमाण के रूप में देखेंगे.
(द गार्डियन से साभार)
इसलामिक स्टेट द्वारा 2015 में इराक और सीरिया के बाहर किये गये हमले
13 नवंबर : लेबनान की राजधानी में दो आत्मघाती हमलों में 43 की मौत.
6 अक्तूबर : यमन के दो बड़े शहरों में आत्मघाती हमला, 25 की मौत.
24 सितंबर : यमन की राजधानी सना में मसजिद में हमला, 25 की मौत.
2 सितंबर : यमन की राजधानी सना में हमले में 20 से अधिक की जान गयी.
7 अगस्त : सऊदी अरब में आतंकी हमला, 15 की मौत.
20 जुलाई : तुर्की के एक शहर में हमला, 32 लोगों की मौत.
1 जुलाई : मिस्र के सिनाई में सैनिक ठिकानों पर हमले में दर्जनों सैनिक शहीद.
26 जून : ट्यूनीशिया में हमले में 32 से अधिक पर्यटकों की मौत.
26 जून : कुवैत में आतंकी हमले में 25 लोगों की जान गयी.
19 जून : यमन में आतंकी हमले में 30 से अधिक लोगों की मौत.
3 जून : अफगानिस्तान में आइएस द्वारा 10 संदिग्ध तालिबानियों की हत्या.
22 मई : सऊदी अरब में आतंकी वारदात, 22 लोगों की हत्या.
30 अप्रैल : यमन में 15 सैनिकों की हत्या का वीडियो आइएस द्वारा जारी.
19 अप्रैल : इथियोपिया के दर्जनों ईसाइयों की हत्या का वीडियो लीबिया में जारी.
12 अप्रैल : मिस्र में कम-से-कम 12 सैनिकों की हत्या.
2 अप्रैल : मिस्र के सिनाई में हमले में 12 लोगों की
मौत.
20 मार्च : यमन में 130
लोगों की हत्या.
18 मार्च : ट्यूनीशिया में एक संग्रहालय में हमले में 22 लोगों की मौत.
20 फरवरी : लीबिया में देर्ना में कम-से-कम 40 लोगों की मौत.
3 फरवरी : लीबिया में 12 लोगों की हत्या.
29 जनवरी : मिस्र के सिनाई में 43 सुरक्षाकर्मियों की हत्या.
7 जनवरी : पेरिस में शार्ली एब्दो पत्रिका के दफ्तर
पर हमला, 11 की मौत.
फ्रांस के समाज में बढ़ सकती है टकराहट
पुष्परंजन
दिल्ली संपादक, इयू-एशिया न्यूज
पेरिस हमला ठीक उस समय हुआ जब प्रधानमंत्री मोदी, ब्रिटिश पीएम कैमरन के साथ लंदन के वेंबले स्टेडियम में आतंकवाद समाप्त करने का संकल्प कर रहे थे. पेरिस में आतंकी हमले से पूरी दुनिया हिल गयी है. दुनियाभर से जो प्रतिक्रियाएं मिली हैं, उससे इसके असर का अंदाजा लगाया जा सकता है. यह मैड्रिड के बाद सबसे बड़ा आतंकी हमला माना जा सकता है. 11 मार्च, 2004 को स्पेन की राजधानी मैड्रिड में हुए ट्रेन बम विस्फोट में 191 लोग मारे गये थे, 1,800 घायल हुए थे. उसके एक साल बाद लंदन में भी 7 जुलाई, 2005 को आतंकी हमले में 52 लोग मारे गये थे. इन हमलों में समानता यह है कि इनमें निर्दोष नागरिक आतंकियों के शिकार हुए हैं.
पेरिस हमलों की जिम्मेवारी शनिवार शाम आइएस ने ले ली है और इसका कुछ मकसद भी साफ हुआ है. पुलिस व जांच एजेंसियां उन उलझे सिरों को सुलझा रही हैं, जिससे आठ आत्मघाती हमलावरों का पता चल सके. इनमें एक को पुलिस ने मार गिराया था, बाकियों ने खुद को बम से उड़ा लिया.
शुरू में शक अलकायदा पर भी था, क्योंकि जनवरी में हुए शार्ली आब्दो हमले में उसका हाथ था. फ्रांस में आपातकाल 30 नवंबर से 11 दिसंबर तक प्रस्तावित पेरिस अंतरराष्ट्रीय जलवायु सम्मेलन तक रहेगा, कहना मुश्किल है. पर हमले के कुछ घंटे बाद जिस तरह से ओलांद ने जी-20 शिखर बैठक मे जाना स्थगित करने की घोषणा की है, उससे संभावना बनती है कि जलवायु सम्मेलन पेरिस में हो ही नहीं.
तुर्की ने पिछले हफ्ते 20 ‘आइएस’ अतिवादियों को गिरफ्तार किया था. तुर्की के खुफिया अधिकारियों को शक था कि ये लोग जी-20 शिखर बैठक में किसी कांड को अंजाम देनेवाले थे.
तुर्की ने तब आधिकारिक बयान दिया था कि ऐसे 20 हजार संदेहास्पद विदेशी लड़ाकों को उसने अपनी सीमा में घुसने नहीं दिया और 2000 ‘फॉरेन फाइटर्स’ को वापस सीरिया की ओर घकेल दिया था. पक्की बात है कि इसकी सूचना फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन और दूसरे यूरोपीय देशों को रही होगी. पश्चिमी यूरोप से जो फॉरेन फाइटर्स ‘आइएस’ से आतंकवाद की दीक्षा लेने जाते रहे हैं, उसमें जर्मनी के बाद सबसे बड़ी संख्या फ्रांस की बतायी गयी है. ‘डीजीएसइ’ फ्रांस की बाहरी सुरक्षा पर नजर रखनेवाली और ‘डीजीएसआइ’ आंतरिक खुफिया एजेंसी है. इन दोनों खुफिया एजेंसियों ने आकलन किया था कि हजार से अधिक फ्रांसीसी ‘इसलामिक स्टेट’ से जिहाद की दीक्षा लेने सीरिया और इराक जा चुके हैं. इनमें से कितने लोग वापस फ्रांस लौटे, उनकी क्या गतिविधियां रही हैं, इस बारे में राष्ट्रपति कार्यालय से कोई बयान नहीं आया था.
सवाल यह है कि क्या इस आतंकी हमले की पूर्व सूचना फ्रांस की खुफिया एजेंसियों को थी? यदि नहीं, तो इसे खुफिया तंत्र की विफलता क्यों नहीं कहें? ऐसा तब भी हुआ था, जब इस साल की शुरुआत में पेरिस से प्रकाशित अखबार शार्ली आब्दो के दफ्तर पर आतंकी हमला हुआ था.
मोहम्मद साहब का कार्टून छापनेवाले अखबार शार्ली आब्दो पर 7 जनवरी, 2015 को हमला हुआ था, जिसमें आतंकियों ने 11 लोगों की हत्या की थी और इतने ही लोगों को घायल किया था. हमलावर शेरीफ और सईद यमन से आये थे और अलकायदा ने उन्हें बाकायदा प्रशिक्षित किया था. तब शार्ली आब्दो पर हमले को लेकर सवाल उठा था कि खुफिया एजेंसियां कहां सोयी हुई थीं, लेकिन फ्रांस की सुरक्षा एजेंसियों ने सबक नहीं सीखा और आतंकियों ने सालभर के भीतर उससे भी भयानक कांड को अंजाम दे दिया. यह भी संभव है कि अलकायदा और आइएस दोनों ने साझा तौर पर इस हमले को अंजाम दिया हो.
पेरिस हमले से फ्रांस का समाज प्रभावित होगा, संस्कृतियों की टकराहट होगी, इससे इनकार नहीं किया जा सकता. 1999 में फ्रांस के आंतरिक सुरक्षा मंत्रालय ने 41 लाख, 55 हजार मुसलिम जनसंख्या का आकलन किया था. 16 साल में यह संख्या 80 लाख तक पहुंच गयी होगी, इसका अंदाजा फ्रांसीसी विद्वान ज्यों पॉल गोरविच ने लगाया है. पूर्व राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी के समय फ्रांस में बुर्के पर प्रतिबंध सबसे बड़ी बहस और प्रतिरोध का सबब बना था, जिसकी प्रतिक्रिया में ओलांद को फ्रांसीसी मुसलमान मतदाताओं ने वोट दिया था. फ्रेंच मीडिया का एक बड़ा हिस्सा वामपंथ को पसंद करता है, इसलिए पेरिस में दक्षिणपंथी ताकतें बहुत तेजी से सिर नहीं उठा पातीं. मगर इस बार सूरतेहाल में बदलाव संभव है.
फ्रांस में सरकारें अक्सर इसलाम के विरुद्ध उकसानेवाले तत्वों को बढ़ावा देती रही हैं. वैसे जर्मनी, ब्रिटेन, स्पेन, इटली जैसे देश इसलामी आतंकवाद के विरुद्ध फायरिंग लाइन पर रहे हैं. सितंबर, 2010 में डेनिस कार्टूनिस्ट कुर्त वेस्टरगार्ड को जर्मन चांसलर आंगेला मैर्केल ने ‘एम-100’ मीडिया पुरस्कार दिया था.
यह वही कुर्त वेस्टरगार्ड है, जिसके कार्टून से पूरी दुनिया में आग लग गयी थी. 7 जनवरी, 2015 को आतंकी हमले के बाद भी फ्रांसीसी साप्ताहिक ‘शार्ली आब्दो’ ने 12 जनवरी, 2015 के अंक में मोहम्मद साहब पर ‘इनटचेबल-2’ शीर्षक से कार्टून निकाल कर आग में घी का काम किया. ‘शार्ली आब्दो’ ने राष्ट्रपति ओलांद के लिए नयी मुसीबत का आगाज कर दिया था, क्योंकि उस समय सरकार ने भी किसी किस्म के समझौते से इनकार किया था.
फिर भी यह पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता कि पेरिस में हमले के तार ‘शार्ली आब्दो’ से जुड़े हैं. लेकिन पेरिस में हमले की घटना से यूरोप ‘रैडिकलाइज’ होगा, फिरकापरस्ती बढ़ेगी, इसकी संभावना बढ़ गयी है.
फ्रांस में राष्ट्रपति चुनाव 2017 में है. सरकोजी की पार्टी ‘यूएमपी’ ओलांद को उखाड़ फेंकने के वास्ते सालभर में दक्षिणपंथी ताकतों को मजबूत करेगी, यह भी संभव है. लेकिन इससे फ्रांस की आम जनता को क्या हासिल होना है? एक विभाजित समाज में डर कर जीने के सिवा!
इस आतंकी हमले का स्रोत सऊदी इसलाम
एस इरफान हबीब
इतिहासकार
पेरिस हमला निंदनीय है. किसी भी इंसान की हत्या को जस्टीफाई नहीं किया जा सकता है. लेकिन, पिछले तीन-चार दशकों से इसलाम को लेकर राजनीतिक रूप से जो भ्रांतियां फैलायी जा रही हैं, ऐसी घटनाएं उसी का नतीजा हैं. दशकों से पूरे यूरोप में लोगों के दिमाग में जो भरा जा रहा है, अब वह लोगों के सामने आ रहा है. आतंकवाद का यह मसला पूरे यूरोप के बीते दो सौ सालों के इतिहास से जुड़ा हुआ है.
शुरुआत 18वीं सदी में हुई, जब ब्रिटेन ने इसलामी वहाबी के साथ समझौते किये और उन्हें मजबूत होने का मौका दिया. इसका स्रोत सऊदी इसलाम है, जिसके साथ अमेरिका और यूरोप की राजनीति चल रही है. अब जिस मॉन्स्टर को यूरोप ने खड़ा किया है, वह उसे ही काटने को दौड़ रहा है. यूरोपीय सरकारों की नीतियां ऐसी रही हैं, जो आम मासूमों के खिलाफ मिली-जुली साजिश करनेवाली लगती हैं. कुल मिलाकर, इसलाम और आतंकवाद को लेकर यूरोप में लंबे अरसे से बहुत ही खराब तरह की राजनीति होती रही है, जिसका खामियाजा मासूम यूरोपीय लोगों को भुगतना पड़ता है.
पेरिस के जिस स्टेडियम में हमला हुआ, वहां फ्रांस के राष्ट्रपति मौजूद थे. लेकिन अब तक इस बात के संकेत नहीं मिले हैं कि यह हमला उन्हें मारने के लिए था. लेकिन पक्के तौर पर यह माना जा सकता है कि यह हमला सुरक्षा में चूक का मामला है.
एक साल भी नहीं हुए जब शार्ली हेब्दो के ऑफिस में इसी साल जनवरी में आतंकियों ने हमला किया था. ये आतंकी ऐसे निर्दोष लोगों को मार रहे हैं, जिनकी उनसे कोई दुश्मनी नहीं होती. आतंक की परिभाषा में तो यही है कि आतंकी ऐसे मासूमों को ही मारते हैं, जिनका उनके एजेंडे में कोई वजूद नहीं होता है. जाहिर है, इसके पीछे का जो कारण है, वह सरकारों की नीतियों और उनकी राजनीति से जुड़े है.
जब आतंकी इन नीति-निर्माताओं तक पहुंच नहीं पाते, तो आम नागरिकों को मारते हैं और डर का माहौल पैदा करते हैं. यह राजनीति जब तक खत्म नहीं होगी, तब तक इस आतंकवाद को खत्म नहीं किया जाता है. सिर्फ भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया के सभी मुल्कों को होशियार रहने की जरूरत है. लेकिन इससे भी कहीं ज्यादा जरूरत इस बात की है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किसी एक धर्म विशेष को लेकर, किसी समुदाय विशेष को लेकर उपेक्षा से भरी भ्रम फैलानेवाली वैमनस्य राजनीति
न की जाये.
हमला सिर्फ पेरिस पर नहीं, हम पर भी
प्रो (डॉ) लाल बहादुर वर्मा
इतिहासकार
पेरिस पर हमले को मैं संकीर्णता की अभिव्यक्ति के रूप में देख रहा हूं. इसकी जिम्मेवारी लेनेवाले आइएस को लगता है कि फ्रांस ने सीरिया की सबसे ज्यादा मदद की है. पेरिस की जनता ने शार्ली आब्दो के कार्यालय पर हमले का कड़ा प्रतिवाद भी किया था. वहां की जनता प्रबुद्ध है. यह सब आइएस की नजरों में खटक रहा था. आतंकी हमले पेरिस में हो या कहीं और, यह विश्वव्यापी परिघटना बन चुकी है. कमजोर कड़ी को चुन कर हमले हो रहे हैं. यह हमला सिर्फ पेरिस पर नहीं, हम सब पर है. इसे इसी रूप में लेने की जरूरत है.
फ्रांस विश्व में अलग तरह के मन-मिजाज वाला देश है. वहां निरंतर उथल-पुथल होता रहता है. दुनिया के इस पांचवें गणतंत्र में वाम व दक्षिण का विचित्र संयोग दिखता है. वहां एक राजा को शूली पर लटकाया जाता है और फिर दूसरे को राजा बनाया जाता है. क्रांति भी होती है. वाम के बाद दक्षिणपंथ भी सत्ता में आता है. फ्रांस की सामाजिक संरचना में हर तरह के लोग हैं.
इसलिए इस घटना को फ्रांस की उसकी विशिष्ट परिस्थितियों में भी देखने की जरूरत है. वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले के बाद यह दुनिया की सबसे बड़ी आतंकी घटना है. आश्चर्य इस बात का है कि इसी साल शार्ली आब्दो के दफ्तर पर हमले के बाद वहां सुरक्षा बढ़ायी गयी थी. पेरिस शांति से जीनेवाला शहर रहा है. इसके बावजूद एक साथ कई जगहों पर हमला हुआ. दुनिया के लिए चिंता की बात यह भी है कि वहां पर्यावरण पर बड़ी बैठक होनेवाली है.
आज आतंकवाद एक तरह से व्यवहार में समाहित हो चुका है. हर आदमी अपने फायदे के लिए दूसरे को आतंकित कर रहा है. आग तो पूरे समाज में लगी है. सवाल यह भी उठना चाहिए कि आखिर किन वजहों से आइएस सिर चढ़ कर बोल रहा है. वह किसका मानसपुत्र है?
यह सर्वविदित है कि अमेरिका ने उसे खड़ा किया. अमेरिका ने अपनी आततायी व्यवस्था को चलाने के लिए शुरू से एक दुश्मन को खड़ा किया है. अमेरिकी शासक जितने आततायी दूसरे देशों के लिए हैं, उतने ही अपनी जनता के लिए भी हैं. वह अपने देश के माफियाओं से तो नहीं लड़ सकता है, लेकिन उसने कई छद्म शत्रु खड़े कर दिये हैं, ताकि उसके शस्त्रागार का उद्योग खड़ा रहे.
यदि सभी शक्तिशाली देश चाह लें, तो आइएस को दबा देना कौन सी बड़ी बात है? लेकिन उसे बढ़ावा दिया जा रहा है, क्योंकि उसके आतंक के आगे अमेरिका का आतंक छोटा हो जाता है. चीजें ऐसी जगह पर पहुंच रही हैं, जहां से वापस लौटना मुश्किल दिख रहा है. एक ओसामा मारा गया तो फिर दूसरा खतरा पैदा हो गया. सऊदी अरब और इजरायल दोनों को पोसते रहेंगे, तो आतंकवाद से कैसे लड़ेंगे? जिस सऊदी अरब में मानवाधिकार का सबसे ज्यादा हनन होता है, उसे अमेरिका अपने फायदे के लिए मदद देता है.
आतंकवाद से लड़ाई में तात्कालिकता और संकीर्णता दो ऐसे शब्द हैं, जो आज मुझे दुश्मन नजर आते हैं. पूरी दुनिया इससे बाहर नहीं निकल रही है कि चलो आज का खतरा टल गया. दूसरा, संकीर्ण विचारों से ऊपर उठने को हम तैयार नहीं हैं. ऐसे में आतंकवाद के खिलाफ कैसे लड़ाई होगी. भारत को लेकर मेरी चिंता इस बात की है कि यहां राजनीतिक नेतृत्व में आतंकवाद को लेकर चिंता नहीं दिखती है.
आतंकवाद को लेकर कोई जनमत न विश्व में दिखता है, न भारत में, जो यह कहे कि ये क्या हो रहा है. जो लोग आतंकवाद का विश्वव्यापी हल निकलने की प्रतीक्षा कर रहे हैं, वे असल सवाल से मुंह चुरा रहे हैं. इतिहास में कभी ऐसा नहीं होता कि किसी समस्या का विश्वव्यापी हल निकल जाये. छोटे-छोटे प्रयासों से हल निकलता है. मतभेद से ऊपर उठ कर संवेदनशील लोग कम से कम एक साथ बैठें तो सही. आज हर संवेदनशील आदमी की सोच यह होनी चाहिए कि हम किसी तरह बच गये. हमला हम पर भी हो सकता था.
(रजनीश उपाध्याय से बातचीत पर आधारित)
पश्चिमी देशों की गलत नीतियों का खामियाजा
कमर आगा
अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार
पेरिस में 30 नवंबर से क्लाइमेट चेंज पर वैश्विक कॉन्फ्रेंस होना है. इसी बीच इतना बड़ा हमला हो गया, तो यह सुरक्षा में चूक का मामला तो है ही. यह इसलिए भी बहुत गंभीर है, क्योंकि वहां की सुरक्षा एवं खुफिया एजेंसी का कहना है कि इस बारे में उन्हें भनक तक नहीं लगी थी. ऐसे हमलों के लिए फ्रांस की नीतियां भी जिम्मेवार हैं. वॉर एंड टेरर के तहत फ्रांस या यूरोपीय देश उन देशों का समर्थन करते हैं, जो आतंकी समूहों का समर्थन करते हैं.
मसलन, अपना उग्र प्रभाव बढ़ाने में लगे पाकिस्तान या कुछ गल्फ देशों के संगठनों का यूरोप और अमेरिका इस्तेमाल करते रहे हैं. यूरोप या अमेरिका ऐसे देशों या लोगों का समर्थन नहीं करते, जो इन उग्रवादी संगठनों से लड़ते हैं. मसलन जनरल गद्दाफी एक तानाशाह था, उसका समर्थन नहीं किया जा सकता, लेकिन वह इन आतंकवादियों से जम कर मुकाबला कर रहा था. लेकिन गलत नीतियों के तहत गद्दाफी की हुकूमत को खत्म कर दिया गया. इसलिए पश्चिमी देशों को चाहिए कि आतंक को लेकर खुद अपनी नीतियों की खामियों को दूर करें और फिर इससे मुकाबला करें. जब तक पाकिस्तान या इसके जैसे बाकी देश, जो आतंकवाद का समर्थन करते हैं, अगर उन पर सख्ती नहीं होगी, तो ऐसी घटनाएं होती रहेंगी.
आइएसआइएस वालों को सीरिया और इराक में रूस और अमेरिका ने अच्छी तरह से पिटाई की है, जिससे वे बौखलाए हुए हैं. इराक और सीरिया को जोड़नेवाली सड़क कट गयी है, और वहां से तेल की सप्लाई बंद हो गयी है, जिससे वे और भी भड़क गये है. आइएसआइएस के केंद्र के आसपास का कोई भी देश सुरक्षित नहीं है, ये हर जगह अपना दबाव बनाने के लिए और भी हमले कर सकते हैं.
पूरे पश्चिमी यूरोप पर गड़ी हैं आइएस की नजरें
सुशांत सरीन
रक्षा मामलों के विशेषज्ञ
पेरिस की आतंकी घटना पर यदि हम पश्चिम यूरोप के इतिहास के संदर्भ में गौर करेंगे, तो इसमें अनेक परतें खुलेंगी और यह ‘नेवर एंडिंग स्टोरी’ होगी. हर व्यक्ति के लिए इतिहास की शुरुआत वहीं से होती है, जहां से उसे इसकी समझ हो. इसलिए इसे पूरी तरह से इतिहास से जोड़ कर देखना सही नहीं होगा. आज दुनियाभर में आतंकवाद की लहर है. आइएसआइएस के पास काफी धन और सियासत है. उसके खिलाफ लड़ी जा रही जंग से आज करीब 80 देश जुड़ चुके हैं और फ्रांस की भी इसमें अहम भूमिका है.
फ्रांस में आठ से नौ फीसदी आबादी (50-55 लाख) मुसलिमों की है, जो 1950-60 के दशक में अल्जीरिया व अन्य उत्तरी अफ्रीकी देशों से वहां आकर बसे हैं. प्रवासियों द्वारा उनके बसनेवाले देश की संस्कृति व रहन-सहन को अपनाना सामान्य माना जाता है. अफ्रीका से फ्रांस आये मुसलिमों ने भी वहां की संस्कृति और तौर-तरीकों को अपना लिया. पहली पीढ़ी फ्रांस के निर्धारित रिवाजों के मुताबिक ढल गयी. दूसरी या तीसरी पीढ़ी के मुसलिम युवा दूसरे देशों से भी जुड़े और शायद उन्हें फ्रांस में कुछ सामुदायिक भिन्नता महसूस हुई होगी, जिस कारण पहली पीढ़ी के मुकाबले वे खुद को उस तरह जोड़ने में असमर्थ रहे. इस बीच आइएस का प्रभाव क्षेत्र बढ़ता गया और फ्रांस के मुसलिम समुदाय के युवकों की पहुंच वहां तक कायम हुई.
फ्रांस में भी आइएस का नेटवर्क फैलता गया. अमेरिका के नेतृत्व में आइएस के खिलाफ जंग में फ्रांस की भी अहम भूमिका है. उसी का नतीजा है कि पूरे पश्चिम यूरोप में आइएस की नजरें गड़ी हैं. समय रहते समुचित कदम नहीं उठाये गये, तो आनेवाले दिनों में अन्य पश्चिम यूरोपीय देशों में भी ऐसी घटनाएं हो सकती हैं. ऐसे हमलों को रोकने के लिए जो नियम-कानून बनाये जायेंगे, उसमें यह भी देखना होगा कि ये पश्चिमी देश अपनी लिबरलिज्म को सिक्योरिटी से कैसे जोड़ पायेंगे. नये नियम-कानून से लोगों की आजादी किस हद तक प्रभावित होगी!
जरूरत इस बात की है कि सबसे पहले आतंकवाद के इस स्वरूप की भावना को समझना होगा. ऐसा न हो कि कुछ आतंकियों को खत्म करें, लेकिन रक्तबीज (प्राचीन ग्रंथों में उल्लिखित ऐसा राक्षस, जिसे मारने पर उसके रक्त की बूंदों से और राक्षस पैदा होते थे) की भांति और ज्यादा आतंकी पैदा हो जायें.
(बातचीत पर आधारित)