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रुकैया दिवस पर विशेष : क्या आप भागलपुर की रुकैया को जानते हैं
नासिरूद्दीन बात सवा सौ साल पहले की क्या आपको बिहार की किसी रुकैया के बारे में पता है? क्या आप भागलपुर की किसी रुकैया को जानते हैं? …और बंगाल की रुकैया के बारे में? तो आइए उनके बारे में कुछ जानते हैं. रात का अंधेरा. बड़ी-सी हवेली में सब लोग सो चुके हैं. तब ही […]
नासिरूद्दीन
बात सवा सौ साल पहले की
क्या आपको बिहार की किसी रुकैया के बारे में पता है? क्या आप भागलपुर की किसी रुकैया को जानते हैं? …और बंगाल की रुकैया के बारे में? तो आइए उनके बारे में कुछ जानते हैं.
रात का अंधेरा. बड़ी-सी हवेली में सब लोग सो चुके हैं. तब ही हवेली के एक कोने में हौले से मोमबत्ती रोशन होती है. एक भाई और एक बहन की आंखें चमकती हैं. भाई अपनी छोटी बहन को हौले-हौले कुछ बता रहा. बहन उसके होंठ को पढ़ने की कोशिश करती है और उसे दोहराती है. यह सिलसिला रोज देर रात तक चलता है. भाई, बहन को बांग्ला, उर्दू और अंगरेजी पढ़ाता है. यह बहन 20 साल बाद बांग्ला साहित्य में उभरती है और देखते ही देखते अपने विचार की रोशनी से सबको चकाचौंध कर देती है.बात सवा सौ साल पहले की है. तब पाकिस्तान था न बांग्लादेश नाम का अलग मुल्क. सिर्फ भारत था.
इसी भारत के बंगाल सूबे में रंगपूर जिले के पैराबंद इलाके के जमीदार थे जहीरूद्दीन मोहम्मद अबू अली साबेर. उस जमाने में अमीर मुसलमानों के घरों में लड़कियों को सिर्फ कुरान पढ़ाने का रिवाज था. ज्यादा से ज्यादा थोड़ा उर्दू भी. बांग्ला और अंगरेजी का तो सवाल ही नहीं उठता. इसी घर में 1880 में एक लड़की पैदा हुई. लड़की के दो बड़े भाई थे. ये कोलकाता के सेंट जेवियर्स कॉलेज में पढ़ाई कर रहे थे. प्यार से इसे रुकू कहा गया. नाम था- रुकैया बेगम.
जब मशहूर हुई तो दुनिया ने उसे मिसेज आरएस होसैन रुकैया सखावत हुसैन के नाम से जाना. रुकैया में भी पढ़ने की जबरदस्त ललक थी. उसकी इस ललक को बड़ी बहन और भाई ने समझा. भाई ने बहन को सबकी नजरों से छिपाकर पढ़ाया. सोलह साल की उम्र में रुकैया की शादी 1896 में उम्र में काफी बड़े पर एक जहीन, पढ़े-लिखे, तरक्कीपसंद और अंगरेज सरकार के अफसर सखावत हुसैन से हो गयी. सखावत हुसैन बिहार के भागलपुर के रहने वाले थे. 1909 में सखावत हुसैन की मौत तक रुकैया यहीं रहीं.
बिहार के भागलपुर में बिताये ये चौदह साल एक ऐसी नारीवादी विचारक के बनने के थे, जो महिलाओं और खासकर मुसलमान महिलाओं को बराबरी का हक दिलाने के लिए जमीन तैयार कर रही थी.
रुकैया इस मामले में पहली खातून हैं, जिसने शिद्दत के साथ महिलाओं के हक में न सिर्फ लिखा, बल्कि की सखावत हुसैन की मौत के बाद पहले भागलपुर और फिर कोलकाता में मुसलमान लड़कियों के लिए एक स्कूल की स्थापना की. वह स्कूल आज भी कोलकाता में चलता है. रुकैया की रचनाएं ज्यादातर बांग्ला में और कुछ अंगरेजी में.
रुकैया की रचनाएं बांग्ला की ढेरों पत्र-पत्रिकाओं में छपीं और उसने उस वक्त के समाज में खासी हलचल पैदा कर दी थी. कुछ लोगों का मानना है कि राजा राम मोहन राय और ईश्वरचंद विद्यासागर की ही तरह रुकैया ने मुसलमानों में जागरूकता पैदा की.
रुकैया का इंतकाल 9 दिसंबर 1932 को कोलकाता में हुआ. कुछ लोगों ने रुकैया का जन्म भी 9 दिसंबर माना है. बांग्लादेश में आज का दिन रुकैया दिवस के रूप में मनाया जाता है. वहां की वह राष्ट्रीय शख्सीयत हैं. उनके नाम पर विश्वविद्यालय भी है. क्या बिहार अपनी इस बहू या बेटी को याद करेगा.
रुकैया की रचनाओं की झलक…
रुकैया 1903-4 के एक लंबा लेख लिखा ‘स्त्री जातिर अबोनिति’. इस लेख में वे लिखती हैं-
– ‘पाठिकागण! क्या आपने कभी अपनी खराब हालत के बारे में सोचा है? बीसवीं शताब्दी के इस तहज़ीब व तमद्दुन वाले समाज में हमारी क्या हैसियत है? दासी यानी गुलाम! हम सुनते हैं कि धरती से गुलामी का निजाम खत्म हो गया है, लेकिन क्या हमारी गुलामी खत्म हो गयी है? न. हम दासी क्यों हैं?’…
– ‘…पुरुषों के बराबर आने के लिए हमें जो करना होगा, वह सभी काम करेंगे. अगर अपने पैरों पर खड़े होने के लिए, आजाद होने के लिए हमें अलग से जीविका अर्जन करना पड़े, तो यह भी करेंगे. अगर जरूरी हुआ तो हम लेडी किरानी से लेकर लेडी मजिस्ट्रेट, लेडी बैरिस्टर, लेडी जज- सब बनेंगे….‘
– ‘… एक बात तो तय है, हमारी सृष्टि बेकार पड़ी गुड़िया की तरह जिंदगी जीने के लिए नहीं हुई है.‘
– ‘… एक बात कहती हूं, हम समाज के आधा हिस्सा हैं. हमारे गिरे रहने पर समाज किस तरह से उठ पायेगा? किसी शख्स का एक पाव बांध कर रखा जाये तो वह लंगड़ाते-लंगड़ाते कितनी दूर चलेगा? मर्दों का स्वार्थ और हमारा स्वार्थ अलग नहीं- एक ही है. उनकी जिंदगी का मकसद या मंजिल जहां है, हमारी मंजिल भी वही है. बच्चों को पिता-माता दोनों की बराबर जरूरत है. क्या आध्यात्मिक जगत, क्या सांसारिक जीवन का रास्ता- सभी जगह हम उनके साथ साथ चल पाएं, हममें ऐसे गुणों की जरूरत है.‘
रुकैया की एक मशहूर व्यंग्य रचना है, ‘अबरोध बासिनी’. इसमें कई छोटी-छोटी घटनाओं का जिक्र है. इसकी भूमिका वे लिखती है-
– ‘…मैं जब कार्सियांग और मधुपुर घूमने गयी, तो वहां से खूबसूरत पत्थर इकट्ठे (जमा) कर लायी, जब ओड़िशा (तब उड़ीसा) और मद्रास (तब चेन्नई)के सागर तट पर घूमने गयी, तो अलग-अलग रंग और आकार के शंख-सीप इकट्ठे (जमा) कर ले आयी. … और अब जिंदगी के 25 साल समाजी खिदमत में लगाते हुए कठमुल्लाओं की गालियां और लानत-मलामत इकट्ठा (जमा) कर रही हूं.
हजरत राबिया बसरी ने कहा है, ‘या अल्लाह! अगर मैं दोज़ख़ के डर से इबादत करती हूं, तो मुझे दोजख में ही डाल देना. और अगर बहिश्त यानी जन्नत की उम्मीद में इबादत करूं, तो मेरे लिए बहिश्त हराम हो.’ अल्लाह के फजल से अपनी समाजी ख़िदमत के बारे में मैं भी यहां यही बात कहने की हिम्मत कर रही हूं…’’
अबरोध बासिनी की एक कथा….
‘करीब 21-22 साल पुराना वा़कया है. मेरी दूर की एक रिश्तेदार ममिया सास भागलपुर से पटना जा रही थीं. उनके साथ सिर्फ एक नौकरानी थी. किऊल स्टेशन पर ट्रेन बदलना था. दूसरी ट्रेन पर चढ़ते वक्त ममानी साहिबा का लंबा-चौड़ा बुर्का उलझ गया और वह ट्रेन और प्लेटफॉर्म के बीच फंस गयीं उस वक्त स्टेशन पर ममानी की नौकरानी को छोड़ कोई और महिला नहीं थी. उन्हें खींचने के लिए कुली दौड़े. कुलियों को आगे बढ़ते देख नौकरानी ने चिल्लाते हुए मना किया, “खबरदार! कोई भी बीबी साहिबा के बदन को हाथ नहीं लगायेगा.” वह अकेले कोशिश करती रही लेकिन उन्हें खींच नहीं पायी. लगभग आधा घंटा इंतजार करने के बाद ट्रेन चल दी!
ट्रेन की रगड़ से ममानी साहिबा पीस कर बुरी तरह जख्मी हो गयीं-कहां उनका ‘बुर्का’और कहां वह! स्टेशन पर मर्दों की भीड़ ने आंख फाड़े इस खौफनाक मंजर को देखा- लेकिन किसी को उनकी मदद करने की इजाजत नहीं मिली. इसके बाद लगभग चूर हो चुके उनके जिस्म को एक गोदाम में रखा गया. उनकी नौकरानी जान बचाने की गुहार लगाते हुए ज़ारो-कतार रोये जा रही थी और उन्हें पंखा झलती जा रही थी. इसी हालत में 11 घंटे बाद आखिरकार उनका इंतकाल हो गया. कैसी खौफनाक मौत मिली!’’
(नासिरूद्दीन वरिष्ठ पत्रकार हैं. रुकैया की रचनाओं पर काम कर हैं और इन्हें मूल बांग्ला से हिंदी में लाने की कोशिश में जुटे हैं.)
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