संसद बंधक : कांग्रेस की राजशाही!
लोकतंत्र की सबसे बड़ी पंचायत संसद का काम देश एवं जनहित के महत्वपूर्ण मुद्दों पर बहस करना, कानून बनाना और फैसले लेना है. लेकिन, कांग्रेस ने अपनी हठधर्मिता के साथ संसद को मानो बंधक बना लिया है. ‘नेशनल हेराल्ड’ मामले में अदालत द्वारा सोनिया और राहुल गांधी समेत कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेताओं को हाजिर […]
लोकतंत्र की सबसे बड़ी पंचायत संसद का काम देश एवं जनहित के महत्वपूर्ण मुद्दों पर बहस करना, कानून बनाना और फैसले लेना है. लेकिन, कांग्रेस ने अपनी हठधर्मिता के साथ संसद को मानो बंधक बना लिया है. ‘नेशनल हेराल्ड’ मामले में अदालत द्वारा सोनिया और राहुल गांधी समेत कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेताओं को हाजिर होने का आदेश दिये जाने के बाद से पार्टी सदन में हंगामा कर कामकाज बाधित कर रही है, जबकि इस मामले में कोई भी निर्णय अंततः अदालतों में होना है, संसद में नहीं.
ऐसे में कांग्रेस के पैंतरे से तो यही संकेत मिल रहे हैं कि पार्टी के लिए देशहित से अधिक जरूरी अपने नेताओं को बचाना है, जिसके लिए वह संसद के जरिये दबाव बनाना चाहती है. ऐसे तुच्छ राजनीतिक स्वार्थों के लिए संसद को न चलने देना अनुचित ही नहीं, आपराधिक कृत्य भी है.
देश की सामूहिक लोकतांत्रिक चेतना संसद को ठप करने की किसी भी पार्टी की कवायद को सही नहीं ठहरा सकती. संसद कांग्रेस की जागीर नहीं है. पार्टी जितनी जल्दी इस बात को समझ ले, उसका भला है. ‘नेशनल हेरॉल्ड ’ मामला और उसमें कांग्रेस की रणनीति के विभिन्न पहलुओं पर नजर डाल रहा है आज का समय…
संसद बाधित करने का तुक नहीं
कांग्रेस प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की तरह काम कर रही है
आकार पटेल
वरिष्ठ पत्रकार
एक दिन कांग्रेस मुख्यमंत्रियों और विदेश मंत्री के भ्रष्टाचार का मामला उठाती है और दूसरे दिन भूल जाती है. फिर वीके सिंह के बयान और असहिष्णुता और उसके अगले दिन व्यक्तिगत अदालती मामला और फिर भ्रष्टाचार का मुद्दा. यह हैरान करता है कि कुछ लोग ऐसी रणनीति बनाते हैं और दूसरे इसे मंजूरी दे देते हैं. यह भारतीयों का दुर्भाग्य है कि ऐसे समय में, जब सरकार के कामकाज पर गंभीर बहस होनी चाहिए, विपक्ष ऐसे फालतू काम कर रहा है.
भाजपा और कांग्रेस के बीच एक जरूरी फर्क है. भाजपा एक सार्वजनिक लिमिटेड कंपनी की तरह है, जिसके शेयर अनेकानेक लोगों के पास है. जबकि कांग्रेस एक निजी कंपनी की तरह है, जिसके शेयर एक परिवार के पास हैं.
यह कहा जा सकता है कि भाजपा भी एक सुसंगठित कंपनी है, क्योंकि यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ी है, जो कि एक परिवार की तरह है. लेकिन इसमें वंश की झलक नहीं दिखती है. यहां एक योग्य बाहरी व्यक्ति के लिए कंपनी का मुखिया बनने की संभावना है, जैसा कि प्रधानमंत्री मोदी ने दिखाया है. लेकिन, कांग्रेस में कोई चाहे कितना भी योग्य क्यों न हो, लेकिन शीर्ष के दो पद एक परिवार के अलावा किसी को नहीं मिलेंगे. उस परिवार का व्यक्ति प्रतिभा या दक्षता के मामले में चाहे जैसा भी हो, लेकिन चूंकि सारे शेयर उनके नाम हैं, इसलिए परिवार के प्रदर्शन और कार्य को साथ काम करनेवाले कभी चुनौती नहीं दे सकते हैं.इसी विशिष्टता के कारण कांग्रेस पार्टी के सदस्य अजीब व्यवहार करते हैं.
इसकी झलक पिछले कुछ दिनों से दिखाई दे रही है, जब यह तय हो गया कि संपत्ति के मामले में गांधी परिवार को कानून का सामना करना पड़ेगा. पहले कहा गया कि वे इस मामले से अदालत में निबटेगे, जो सही फैसला था. लेकिन बाद में पार्टी ने कहा कि यह राजनीतिक मामला है और इसके लिए सरकार दोषी है. कोई भी व्यक्ति, जो इस मामले पर गौर कर रहा है, उससे साफ जाहिर होता है कि गांधी परिवार ने जो किया है, अगर वह आपराधिक नहीं है, तो नैतिक भी कतई नहीं.
कांग्रेसी तर्क दे रहे हैं कि इससे परिवार को कोई वित्तीय फायदा नहीं हुआ और अगर उन्होंने किसी कानून का उल्लंघन किया भी है तब भी इससे किसी को वित्तीय लाभ नहीं हुआ है. हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि पार्टी ने ऐसा हल्का रवैया अपनाया. यह एक सच्चाई है कि जीवन यापन के लिए कभी काम न करने, नौकरी के लिए कभी मेहनत नहीं करने और हमेशा सरकारी आवास में ही रहने के बाद स्वाभाविक रूप से वे निजी संपत्ति और अन्य में कोई फर्क नहीं समझते हैं.
‘इंडियन एक्सप्रेस’ में खबर छपी कि सोनिया गांधी को पार्टी को रणनीति में बदलाव लाने यानी अदालती लड़ाई के बदले राजनीतिक लड़ाई लड़ने का सुझाव गुलाम नबी आजाद, अहमद पटेल, भूपिंदर सिंह हुड्डा, कपिल सिब्बल और अभिषेक मनु सिंघवी ने दिया. इस सूची में दूसरे नाम मोतीलाल वोरा, आॅस्कर फर्नांडीस और सैम पित्रोदा हैं. इन सभी लोगों में समानता यह है कि कोई भी लोकसभा का सदस्य नहीं है और किसी को भी चुनाव जीतने के लिए लोगों का सामना नहीं करना है. उनका सुझाव राजनीतिक नहीं, सिर्फ व्यक्तिगत है.
उनका एक मात्र मकसद परिवार को सुरक्षित करना है औरइससे पार्टी को होनेवाले नुकसान से उन्हें कोई मतलब नहीं है. कांग्रेस में किसी ने यह नहीं कहा कि पार्टी को इससे दूरी बनानी चाहिए और मामले को राजनीतिक तौर पर उठाने के बजाय परिवार को अदालत में इसका मुकाबला करना चाहिए. अगर कोई ऐसा सोचेगा और सुझाव देने की कोशिश करेगा, तो उसे तत्काल पार्टी से बाहर निकाल दिया जायेगा. यह भाजपा और कांग्रेस के बीच दूसरा बड़ा अंतर है.
यह नहीं सोचा जा सकता है कि अगर नरेंद्र मोदी ऐसे आरोपों का सामना करते तो उन्हें पार्टी में आंतरिक विद्रोह का सामना नहीं करना पड़ता. यहां तक कि बिहार चुनाव में काफी मेहनत के बावजूद हार के बाद उनके खिलाफ पार्टी में आवाज उठी. वित्तीय अनिमितता का आरोप लगने पर तो बचना मुश्किल था. भाजपा में असहिष्णुता के मुद्दे पर बहुत कुछ कहा जा सकता है, लेकिन यह सच है कि पार्टी भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कांग्रेस से कही अधिक असहिष्णु है.
चूंकि यह तय किया गया कि इस मुद्दे को राजनीतिक बनाना है, तो सदन को बाधित करने की कांग्रेस की सूची में अदालत का मामला भी शामिल हो गया है. कांग्रेस सदन को बाधित करने को हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर रही है, ताकि वह फिर खुद को प्रासंगिक कर सके. यह सही है कि अन्य पार्टियां भी इस तरीके का इस्तेमाल करती रही हैं और यह सफल भी होता रहा है. लेकिन क्या अपनी राह को दूसरे के रास्ते पर बदल देना तर्कसंगत है?
एक दिन कांग्रेस मुख्यमंत्रियों और विदेश मंत्री के भ्रष्टाचार का मामला उठाती है और दूसरे दिन भूल जाती है. फिर वीके सिंह के बयान और असहिष्णुता और उसके अगले दिन व्यक्तिगत अदालती मामला और फिर भ्रष्टाचार का मुद्दा. यह हैरान करता है कि कुछ लोग ऐसी रणनीति बनाते हैं और दूसरे इसे मंजूरी दे देते हैं. यह भारतीयों का दुर्भाग्य है कि ऐसे समय में, जब सरकार के कामकाज पर गंभीर बहस होनी चाहिए, विपक्ष ऐसे फालतू काम कर रहा है.
संसद में काम-काज
शीतकालीन सत्र, 2015
– सत्र के दूसरे सप्ताह सात से 11 दिसंबर तक राज्यसभा में निर्धारित समय का 42 फीसदी हिस्सा हंगामे की भेंट चढ़ गया, जबकि लोकसभा में 99 फीसदी काम हुआ. राज्यसभा में प्रश्नकाल 12 फीसदी ही चल पाया, लेकिन लोकसभा में 87 फीसदी समय का
उपयोग हुआ.
– पहले सप्ताह भी राज्यसभा में शोर-शराबे के कारण पूरा एक दिन काम नहीं हो सका था. इस सप्ताह में लोकसभा में 113 फीसदी और राज्यसभा में 76 फीसदी काम हुआ था.
मॉनसून सत्र, 2015
– लोकसभा में पूरे सत्र के दौरान 48 फीसदी काम हुआ, पर राज्यसभा में मात्र नौ फीसदी काम-काज ही हो सका. लोकसभा में प्रश्नकाल 52 फीसदी समय तक चला, लेकिन राज्यसभा में मात्र एक फीसदी अवधि तक ही चल सका.
बजट सत्र, 2015
– इस सत्र में लोकसभा में 123 फीसदी और राज्यसभा में 101 फीसदी काम हुआ था.
(स्रोतः पीआरएस लेजिस्लेटिव)
काबे किस मुंह से जाओगे गालिब!
कुमार प्रशांत
वरिष्ठ पत्रकार
किसने अौर क्यों कहा, यह तो पता नहीं, लेकिन हो यही रहा है कि कांग्रेस अपने मुंह पर खुद ही कालिख पोतने का अभियान चला रही है! संसद से सड़क तक बेतहाशा उठाये जा रहे शोर के बीच भी कोई सुने, तो कहीं कब्र से मियां गालिब की यह अावाज सुनाई देगी : ‘काबे किस मुंह से जाअोगे गालिब/ शर्म तुमको मगर नहीं अाती!’
पिछले दिनों देश का राजनीतिक अासमान कुछ बदलता नजर अाने लगा था. बहुत खामोशी से अौर दिनो-दिन परिपक्व होते नेता की तरह राहुल गांधी सामने अा रहे थे. उनमें धार बनती दिखाई दे रही थी. वे सबके साथ चलते हुए भी अपनी एक अलग उपस्थिति बनाते लग रहे थे. बिहार का नतीजा कांग्रेस की सूखती जड़ में पानी डालने जैसा था.
लगा था कि राहुल गांधी देश की हवा का रुख बदलने में किसी हद तक कामयाब हो रहे हैं अौर जिस हद तक भी हो, कांग्रेस के अच्छे दिन वापस अा रहे हैं. लेकिन नहीं, हवा बदलने का अहसास तो छोड़िए, यहां तो हवा निकल रही है. अौर सबसे अफसोस की बात यह है कि यह किसी दूसरे का नहीं, खुद अपना ही किया कराया है.
‘नेशनल हेरॉल्ड ’ नाम के अखबार की बाबत देश की नयी पीढ़ी तो कुछ जानती भी नहीं है. अाजादी की लड़ाई के सेनापतियों में एक पंडित जवाहरलाल नेहरू ने यह अखबार 9 सितंबर, 1938 को शुरू किया था. अाजाद ख्याल नेहरू को तब लगने लगा था कि कांग्रेस के मंच पर दकियानूसी ताकतों का ऐसा मेला है कि वे अपनी बात प्रभावी ढंग से कह नहीं पाते हैं अौर बाजारू अखबार उनकी बातों को ईमानदारी से जनता तक पहुंचाते नहीं हैं.
तो नेहरू ने अपनी बात, अपने देश की जनता को, अपनी तरह से बताने के लिए एक अखबार निकालना शुरू किया. यह स्वाभाविक ही था कि अखबार अंगरेजी में शुरू हुआ; अौर उतना ही स्वाभाविक था कि जल्दी ही अखबार हिंदी में ‘नवजीवन’ नाम से अौर उर्दू में ‘कौमी अावाज’ नाम से निकलने लगा. शुरू में जवाहरलाल नेहरू इसके संपादक भी थे.
फिर रमाराव, चेलापति राव अादि संपादक बने. देश की अाजादी में नेहरू की भूमिका को उजागर करता यह अखबार अपने तेवर के लिए जाना-पहचाना बनता गया, लेकिन कभी भी देश का अग्रणी अखबार नहीं बन सका. नेहरू इसे एक अच्छे अखबार की हैसियत तो दिलवा सके, लेकिन यह कांग्रेस का अाधिकारिक अखबार भी कभी नहीं माना गया. पंडित नेहरू ने इसके मास्टहेड के नीचे अंगरेज कार्टूनिस्ट गैब्रियल की लिखी एक पंक्ति डाली थी, जो कहती थी- ‘अाजादी खतरे में है, अपनी पूरी ताकत से इसकी रक्षा करें!’ उन्हें यह पंक्ति उनकी बेटी इंदिरा गांधी ने भेजी थी.
बाप-बेटी की जुगलबंदी अाजादी से पहले से चलती रही थी. लेकिन, कोई भी अखबार सिर्फ खबरें खाकर तो जिंदा रहता नहीं, उसका एक अार्थिक पक्ष भी होता है. नेशनल हेरॉल्ड का यह पक्ष शुरू से ही कमजोर रहा. अाजादी की लड़ाई में अापादमस्तक डूबे जवाहरलाल के अकेले दम पर चलनेवाले अखबार की अार्थिक मर्यादा हम अासानी से समझ सकते हैं. इसलिए 40 अौर 70 के दशक में इसका प्रकाशन बंद भी हुअा. यह किस्सा लंबा न करते हुए इतना जानना काफी है कि 2008 में अाकर यह अखबार अंतिम रूप से बंद हो गया.
अखबार बंद हुअा, लेकिन नेहरू-परिवार की किस्मत खुल गयी! आरोपों के मुताबिक, इसकी संचित संपत्ति का व्यापारिक इस्तेमाल ही नहीं किया गया, बल्कि इसका निजीकरण भी किया गया अौर नेशनल हेरॉल्ड की सारी चल-अचल संपत्ति नेहरू-परिवार की निजी जायदाद में बदल गयी.
अारोप-वीर सुब्रह्मण्यम स्वामी ने यह मामला निकाला अौर अदालत तक पहुंचाया. जब तक केंद्र में सरकार अपनी थी, किसी के माथे पर बल नहीं पड़ा. लेकिन केंद्र में सरकार बदली और पार्टी राज्यों में भी सत्ता से बेदखल होने लगी, तो नेहरू-परिवार भी कवचविहीन होने लगा. इस बीच मामला गंभीर बनता गया. अब अदालत ने नेहरू-परिवार अौर कांग्रेस पार्टी के कुछ अन्य दिग्गजों को कठघरे में बुला लिया है.
कांग्रेस के इन अारोपों को हम बेबुनियाद नहीं कह सकते कि मोदी-सरकार राजनीतिक बदले की भावना से काम कर रही है, या प्रधानमंत्री कार्यालय का इस मामले से सीधा जुड़ाव है.
लेकिन, इसमें अस्वाभाविक क्या है? कल तक अाप सब भी तो बताते थे कि ‘इसे ही राजनीति कहते हैं!’ इसमें भी शक नहीं है कि कांग्रेस के लौटते प्रभाव से केंद्र की सत्ता पर काबिज भाजपा शंकित है. उसे पता है कि राहुल गांधी अौर कांग्रेस कभी भी मोदी विरोधी ताकतों के केंद्रबिंदु बन सकते हैं. बिहार का चुनाव परिणाम मोदी-चौकड़ी की रातों की नींद उड़ा रहा है.
प्रधानमंत्री का अस्त होता प्रभामंडल अौर सरकार की गिरती साख उसे दिखाई भी दे रही है अौर समझ में भी अा रही है. वह परेशान है कि उत्तर प्रदेश, पंजाब, बंगाल जैसे राज्यों के चुनाव सिर पर हैं अौर उसके पास सिर ही कम पड़ते जा रहे हैं. इस परेशानी के बीच वह इस कोशिश में है कि राजनीतिक अखाड़े में बहस का केंद्र वह या उसकी सरकार नहीं, बल्कि कांग्रेस का भ्रष्टाचार, राहुल-सोनिया की बदनीयती, पाकिस्तान से संबंध बेहतर बनाने की उसकी बिना सिर-पैर की कोशिश अादि हो.
लेकिन, राहुल बताएं कि सोनिया गांधी और कांग्रेस पार्टी के खिलाफ चल रहे इस मामले का संसद से क्या लेना-देना है? यह बात तो समझ में अाती है कि सरकार की बदनीयती का मुकाबला सड़कों पर किया जाये अौर अदालत में उनके अारोपों की धज्जियांउड़ा दी जायें, लेकिन यह बात कैसे समझी जाये कि संसद को मछली बाजार बना दिया जाये, उसे चलने ही न दिया जाये?
क्या कांग्रेस के कानूनी दिग्गज यह समझते या समझाते नहीं हैं कि इस मामले का फैसला संसद कर ही नहीं सकती है.
सरकार अगर चाहे कि वह नेशनल हेरॉल्ड का मामला खत्म करा दे, तो उसके लिए भी उसे अदालत के पास ही जाना पड़ेगा. तो फिर संसद को चलने से रोक कर राहुल हमें क्या बताना चाहते हैं?
कि उनकी कितनी ताकत है? कांग्रेस की ताकत तो तब दिखती, जब वह संसद में अपनी प्रभावी उपस्थिति बनाये रखती, सरकार से हर मुद्दे पर जूझती नजर अाती, जहां उसे लगता कि सरकार से सहयोग करना चाहिए (जैसे जीएसटी बिल तथा दूसरे बिल अादि) वहां सहयोग करती भी नजर अाती अौर सड़कों पर अौर अदालत में सरकार की बदनीयती का भंडाफोड़ करती दिखाई देती! अाज वह जो कर रही है, वह तो एक कायराना दांव भर है, ताकि सरकार से सौदा किया जा सके. क्या यह भी समझाने की बात है कि संसद की गरिमा गिरा कर, पर्दे के पीछे सौदे करके अाप न तो सरकार चला सकते हैं अौर न पार्टी? यह अकारण नहीं है कि अाज हमारे देश में चल कुछ भी नहीं रहा है- सिवा जीभ के!
नेशनल हेरॉल्ड मामला
– पंडित जवाहरलाल नेहरू ने आजादी से पहले 1938 में नेशनल हेरॉल्ड अखबार की स्थापना की थी. वर्ष 2008 में इसका प्रकाशन बंद हो गया.
– इस अखबार का स्वामित्व एसोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड (एजेएल) के पास था, जिसे कांग्रेस से आर्थिक कोष मिलता था.
– वर्ष 2011 में यंग इंडियन लिमिटेड कंपनी स्थापित की गयी, जिसका कथित लक्ष्य एजेएल की देनदारियों का जिम्मा लेना था.
– भाजपा नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी द्वारा दायर याचिका में कहा गया है कि यंग इंडियन लिमिटेड ने मात्र 50 लाख रुपये देकर एजेएल पर बकाया 90.25 करोड़ की वसूली के अधिकार को ले लिया, जो कि उसने कांग्रेस से उधार लिया था.
– नेशनल हेरॉल्ड की वर्तमान परिसंपत्तियों का अनुमानित मूल्य 1,600 से 5,000 करोड़ के बीच हो सकता है.
– यंग इंडियन लि में सोनिया और राहुल गांधी की हिस्सेदारी प्रति व्यक्ति 38 फीसदी है.
– इस वर्ष अगस्त में ऐसी खबरें आयी थीं कि प्रवर्तन निदेशालय (इडी) सबूतों के अभाव में इस मामले को बंद कर सकता है. इसके तुरंत बाद इडी के निदेशक राजन एस कटोच को सेवा से हटा दिया गया था.
– सितंबर में इडी ने सोनिया गांधी और राहुल गांधी के खिलाफ मामले की फिर से जांच करने का निर्णय लिया.
– निचली अदालत में सोनिया गांधी, राहुल गांधी समेत कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेताओं के हाजिर होने के आदेश पर हाइकोर्ट द्वारा रोक लगाने से मना कर देने के बाद संसद में कांग्रेस इसे राजनीतिक बदले की कार्रवाई कह कर विरोध कर रही है.
– अदालत ने कांग्रेसी नेतृत्व को 19 दिसंबर को सुनवाई में हाजिर होने का आदेश दिया है, और कांग्रेस पार्टी ने स्पष्ट किया है कि इस निर्देश को माना जायेगा.
शेयरधारक हैं नाराज
-‘नेशनल हेराल्ड’ के स्वामित्ववाली कंपनी एसोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड (एजेएल) के शेयरों को शेयरधारकों से बिना पूछे यंग इंडियन लिमिटेड को हस्तांतरित करने के विरोध में अनेक शेयरधारक सामने आने लगे हैं.
– प्रसिद्ध न्यायविद और पूर्व केंद्रीय मंत्री शांति भूषण ने कहा है कि उनके पिता ने 1938 में एजेएल के 300 से अधिक शेयर खरीदे थे, जो अब उनके पास हैं. यंग इंडियन लिमिटेड को शेयर दिये जाने के निर्णय को पूरी तरह अवैध बताते हुए उन्होंने इसे अदालत में चुनौती देने की घोषणा की है.
– सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू ने कहा है कि दोनों कंपनियों के बीच हुए समझौते के बारे में उन्हें कोई जानकारी नहीं है. काटजू के दादा कैलाशनाथ काटजू के नाम पर एजेएल के 131 शेयर हैं.
– पूर्व कांग्रेसी सांसद विश्व बंधु गुप्त, अभिम इन्वेस्टमेंट, मोहन मीकिंग, रतनदीप ट्रस्ट और ज्योत्सना सूरी जैसे शेयरधारकों ने भी शेयर हस्तांतरित होने के बारे में कोई जानकारी न होने या सहमति नहीं लिये जाने की बात कही है. जाहिर है, अगर ये शेयरधारक अदालत का दरवाजा खटखटाते हैं, तो इससे गांधी परिवार और कांग्रेस पार्टी की मुश्किलें बढ़ सकती हैं.
आरोप
बचाव
कांग्रेस का रवैया तानाशाही : जेटली
पिछले कुछ दिनों से कांग्रेस ने संसद के दोनों सदनों को बाधित कर रखा है. इनका दुष्प्रचार यह है कि पार्टी का नेतृत्व एक राजनीतिक प्रतिशोध का शिकार है. तो तथ्य क्या है?
अखबार ‘नेशनल हेराल्ड’ शुरू करने के उद्देश्य से एक कंपनी बनायी गयी. कंपनी को देश के कई हिस्सों में बहुमूल्य जमीन का आवंटन मिला. जमीन अखबार के कारोबार में इस्तेमाल के लिए था. आज समाचार-पत्र नहीं है. केवल जमीन और उसके ऊपर निर्मित संरचनाएं हैं, जिनका व्यावसायिक रूप से दोहन किया जा रहा है. एक राजनीतिक पार्टी अपनी राजनीतिक गतिविधियों के लिए धन इकट्ठा करने के लिए अधिकृत है. इस प्रयोजन के लिए, इसे आय कर के भुगतान से छूट मिलती है. कांग्रेस द्वारा एकत्रित कोष में से 90 करोड़ रुपये की राशि समाचार-पत्र वाली कंपनी को दे दिया जाता है.
प्रथम दृष्टया, यह उतना ही आयकर अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन है, जितना एक छूट मुक्त आय को गैर शुल्क-मुक्त प्रयोजन के लिए उपयोग किया जाना होता है. 90 करोड़ रुपये के कर्ज को फिर 50 लाख रुपये की मामूली रकम के लिए एक सेक्शन 25 कंपनी को अभिहस्तांतरित कर दिया गया. कर मुक्त राशि प्रभावी ढंग से एक रियल एस्टेट कंपनी को हस्तांतरित हो जाती है.
यह रियल एस्टेट कंपनी अब पुरानी समाचार-पत्र वाली कंपनी का 99 प्रतिशत शेयर्स अधिगृहीत करती है. प्रभावी रूप से, काफी हद तक कांग्रेस के नेताओं द्वारा नियंत्रित सेक्शन 25 कंपनी अब एक अखबार के प्रकाशन के लिए अधिग्रहीत की गयी सभी संपत्तियों की मालिक है, और वास्तव में बिना किसी विचार के, वह सेक्शन 25 कंपनी इन सभी संपत्तियों का मालिकाना हक रखती है. इसके हाथों, यह लाभ बहुत बड़ा कर योग्य आय हो जायेगा.
2012 के बाद, एक नागरिक के कर्तव्य के रूप में, डॉ सुब्रमण्यम स्वामी ने भरोसे के उल्लंघन का आरोप लगाया. एक निचली अदालत, डॉ स्वामी की शिकायत पर समन जारी करती है.
कांग्रेस के आरोपी नेता इसे खारिज करने के लिए दिल्ली हाइकोर्ट जाते हैं, जो उन्हें अंतरिम संरक्षण प्रदान करता है. आखिरकार, हाइकोर्ट आरोपियों की याचिका खारिज करता है. अब आरोपियों के पास दो विकल्प हैं. वे इस आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे सकते हैं, या निचली अदालत के समक्ष पेश होते हैं और तथ्यों के आधार पर लड़ सकते हैं.
तथ्य स्पष्ट हैं. वित्तीय लेन-देन की एक शृंखला के द्वारा, कांग्रेस के नेताओं ने खुद के लिए ‘चक्रव्यूह’ बनाया. ‘चक्रव्यूह’ से बाहर निकलने का रास्ता उन्हें स्वयं खोजना होगा. बिना किसी खर्च के ही उन्होंने एक विशाल राशि की संपत्ति का अधिग्रहण कर लिया. उन्होंने कर से छूट वाली आय का एक गैर कर मुक्त आय के लिए उपयोग किया है.
उन्होंने एक राजनीतिक पार्टी की आय को एक रियल एस्टेट कंपनी में हस्तांतरित कर दिया है. उन्होंने रियल एस्टेट कंपनी के पक्ष में विशाल कर योग्य आय बनायी है. सरकार ने अब तक कोई भी दंडात्मक कार्रवाई नहीं की है. प्रवर्तन निदेशालय ने उन्हें कोई नोटिस जारी नहीं किया है. आयकर अधिकारी अपनी स्वयं की प्रक्रिया का पालन करेंगे. इस बीच, आपराधिक न्यायालय ने अपराध का संज्ञान ले लिया है. हाइकोर्ट, निचली अदालत से सहमत हो गया है.
लड़ाई को कानूनी तौर पर लड़ा जाना है, लेकिन कानूनी लड़ाई के परिणाम हमेशा अनिश्चित रहे हैं. कांग्रेस इसीलिए जोर-जोर से चिल्ला रही है और इसे राजनीतिक बदले की भावना बता रही है. क्या यह न्यायालयों के खिलाफ एक आरोप है?
भारत ने कभी ऐसे तानाशाही रवैये को स्वीकार नहीं किया है कि कोई रानी कानून के प्रति जवाबदेह नहीं है.
क्यों कांग्रेस पार्टी और इसके नेताओं को न्यायालय में नोटिस के ऊपर बहस नहीं करना चाहिए? न तो सरकार और न ही संसद इस मामले में उन्हें मदद कर सकती है. तब क्यों संसद को बाधित किया जाता है और विधायी गतिविधियों को जारी रखने के बजाय रोका जाता है? ‘चक्रव्यूह’ में घिरे कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व को जवाब यह है कि आप अपनी लड़ाई कानूनी तौर पर लड़ें और संसद को बाधित न करें. लोकतंत्र को बाधित करके कांग्रेसी नेताओं के बनाये गये वित्तीय जाल को पूर्ववत नहीं किया जा सकता है.
हमें परेशान किया जा रहा है : सिब्बल
जवाहरलाल नेहरू ने एक बार कहा था कि वे आनंद भवन को बेच देंगे, पर ‘नेशनल हेराल्ड’ को बंद नहीं होने देंगे. इस अखबार और कांग्रेस के बीच इस तरह का घनिष्ठ संबंध था. वक्त के साथ एसोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड (एजेएल) भारी वित्तीय संकट में पहुंच गयी थी, जो वर्षों के निरंतर घाटे का परिणाम था.
कर्मचारियों को वेतन देने और भविष्य निधि में निवेश के लिए धन नहीं था. ऐसे में इसे बचाने की जरूरत थी. इसी उद्देश्य से यंग इंडियन लिमिटेड की स्थापना हुई. यह कंपनी एक्ट के सेक्शन 25 के तहत बनी है, जिसमें उसके शेयरधारकों को किसी तरह का लाभ नहीं मिलता है और वे किसी तरह की आमदनी के अधिकारी नहीं है. सुब्रह्मण्यम स्वामी ने भी यह आरोप नहीं लगाया है कि सोनिया गांधी, राहुल गांधी या अन्य किसी शेयरधारक ने एक भी पैसा पाया है.
एजेएल के पास सिर्फ लखनऊ में संपत्ति का स्वामित्व है. अन्य परिसंपत्तियां लीज पर ली गयी हैं, जिनका स्वामित्व एजेएल के पास नहीं है. स्वामित्व के हस्तांतरण के समय उसके पास करीब 10 लाख रुपये थे और पटना, पंचकूला तथा मुंबई में लीज की हुई जमीनें खाली थीं. सरकारी एजेंसियों ने नोटिस भी दिया था कि इन जमीनों पर निर्माण क्यों नहीं हो रहा है. उन्हें न तो एजेएल बेच सकता था और न ही 10 लाख रुपये से नेशनल हेरॉल्ड अपने पैरों पर खड़ा हो सकता था.
इस पूरे मामले में कांग्रेसी नेताओं को फंसाया जा रहा है. अगर आरोप आपराधिक है, तो बताया जाना चाहिए कि हमने किसके साथ धोखाधड़ी की है या किन कानूनी प्रावधानों के अंतर्गत हमारे ऊपर मुकदमे चलाये जा रहे हैं?
हमने किसके विश्वास को तोड़ा है? कंपनी में फेर-बदल के समय हर शेयरधारक को सूचना दी गयी थी, लेकिन बहुत-से लोगों ने एक तबाह हो चुकी कंपनी के मामले में दिलचस्पी नहीं दिखाई. अब सरकार और सुब्रह्मण्यम स्वामी मिलीभगत कर कांग्रेस को परेशान कर रहे हैं और हमारे नेताओं को निशाना बना रहे हैं.