राजनीति में धन के इस्तेमाल का जनप्रतिनिधित्व पर प्रभाव, पार्टियों के लिए तय हो खर्च सीमा

विशेषज्ञ वर्षों से कह रहे हैं कि राजनीति और चुनावों में धन के बढ़ते इस्तेमाल से निर्वाचन प्रक्रिया में गरीबों के लिए अवसर कम होते जा रहे हैं और इससे निबटने के लिए चुनाव सुधार जरूरी हो गया है. अब यही चिंता देश के मुख्य चुनाव आयुक्त नसीम जैदी ने भी जतायी है. ‘राजनीति में […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 18, 2015 12:59 AM
an image
विशेषज्ञ वर्षों से कह रहे हैं कि राजनीति और चुनावों में धन के बढ़ते इस्तेमाल से निर्वाचन प्रक्रिया में गरीबों के लिए अवसर कम होते जा रहे हैं और इससे निबटने के लिए चुनाव सुधार जरूरी हो गया है. अब यही चिंता देश के मुख्य चुनाव आयुक्त नसीम जैदी ने भी जतायी है.
‘राजनीति में धन के इस्तेमाल का जनप्रतिनिधित्व पर प्रभाव’ विषय पर नयी दिल्ली में इस हफ्ते आयोजित दक्षिण एशियाई देशों के एक सम्मेलन में उन्होंने कहा, ‘राजनीतिक कोषों के नियमन के लिए नाकाफी कानूनों से ऐसे भयावह हालात पैदा हो सकते हैं, जिसमें संस्थाएं धन-बल के नियंत्रण में चली जाएं और निष्पक्ष चुनाव कराना मुश्किल हो जाये.’ तो राजनीति और निर्वाचन प्रक्रिया में धन-बल के बढ़ते प्रभाव से निबटने की क्या है राह, इसी की एक पड़ताल कर रहा है आज का विशेष…
अनिल वर्मा
प्रमुख, एडीआर
चुनाव सुधारों के मद्देनजर पार्टियों, प्रत्याशियों और नेताओं द्वारा चुनाव खर्च में अपारदर्शिता का मसला बहुत चिंतनीय है और लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए ठीक नहीं है. एक अरसे से इस बारे में सिर्फ बातें ही हुई हैं, कोई किसी ठोस उपाय की ओर नहीं पहुंच पाया है. दरअसल, संसदीय या विधानसभा चुनावों में एक प्रत्याशी को कितना खर्च करना है, इसकी सीमा तो है, लेकिन पार्टियों के खर्च की कोई सीमा नहीं है.
लोकसभा का चुनाव लड़ने के लिए एक प्रत्याशी अधिकतम 70 लाख रुपये खर्च कर सकता है, जबकि राज्य के विधानसभाओं चुनावों में यह खर्च अधिकतम 28 लाख रुपये है. लेकिन चुनावों के दौरान अकसर देखने में आया है कि पार्टियां करोड़ों रुपये खर्च करती हैं. उसका कहीं कोई हिसाब-किताब नहीं होता. प्रत्याशी भी अपना खर्च पूरा नहीं दिखाते, बल्कि अधिकतम सीमा से भी कम दिखाते हैं.
अब जाहिर है, जो करोड़ों खर्च करेगा, चुनाव जीतने के बाद उसकी भरपायी लोकतांत्रिक व्यवस्था को कहीं न कहीं आघात पहुंचा कर ही की जा सकती है. और यहीं से घपले-घोटालों की शुरुआत होती है, जो लगातार लोकतंत्र को कमजोर करते जा रहे हैं और आम जनता में राजनीति को लेकर एक हीन भावना का विस्तार हो रहा है.
अब सवाल है कि अगर यह समस्या इतनी गंभीर है, तो इसका समाधान ढूंढने की कोिशश क्यों नहीं की जा रही है? इसका जवाब यह है कि सरकारें और पार्टियां समाधान के लिए तैयार नहीं हैं, क्योंकि इससे उनको नुकसान दिखता है. वे जानती हैं कि समाधान की बात करना अपने ऊपर ही नकेल कसने के जैसा है, इसलिए वे कोई समाधान नहीं चाहतीं. एक जमाना था कि चुनावों में बाहुबल काम करता था, लेकिन वह अब लगभग खत्म हो चुका है, क्योंकि जनता का उससे साक्षात्कार होता था.
लेकिन अब दौर धनबल का है, जो बाहुबल की तरह भयभीत करनेवाला खुले तौर पर नहीं दिखता है. चुनावी सुरक्षा व्यवस्था में सुधार ने बाहुबल को खत्म करने में अच्छी भूमिका निभायी है, लेकिन अब धनबल ने उसकी जगह लेकर चुनाव प्रचार को बहुत खर्चीला बना दिया है, जो एक बड़े भ्रष्टाचार को जन्म देने के लिए काफी है.
एक प्रत्याशी का चुनावी खर्च जब हम देखते हैं, तो बड़ा चौंकानेवाला होता है. प्रत्याशी दिखाता है कि उसका ट्रांसपोर्ट पर कोई खर्च नहीं हुआ, कार्यकर्ताओं पर कोई खर्च नहीं हुआ वगैरह. क्या यह माना जा सकता है कि ऐसा नहीं हुआ होगा? इस तरह की अपारदर्शिता है पार्टियों में. इसीलिए यह बहुत जरूरी है कि राजनीतिक पार्टियां आरटीआइ के दायरे में आयें. लेकिन, इस बात का तकरीबन हर पार्टी ने विरोध किया. इन्हीं सब अपारदर्शिताओं के चलते हमने सुप्रीम कोर्ट में पीआइएल डाला है कि पार्टियों पर भी खर्च की सीमा होनी चाहिए.
हमने उस पीआइएल में यह कहा है कि पहले तो पार्टियों पर खर्च की सीमा निर्धारित होनी चाहिए. दूसरी बात हमने यह कही है कि जब चुनाव की तारीख आती है और आचार संहिता लागू हो जाती है, उसके बाद से पार्टियां और प्रत्याशी चुनाव प्रचार खर्च का हिसाब-किताब देते हैं. जबकि, चुनाव प्रचार का काम वे महीनों पहले से शुरू कर देते हैं और उसमें लाखों-करोड़ों खर्च कर देते हैं, जिसका कोई हिसाब नहीं देते. मिसाल के तौर पर बीते लोकसभा चुनाव को ही लेते हैं.
आम चुनावों की तारीख तय होने से पहले और आचार संहिता लागू होने से बहुत पहले ही जैसे भारतीय जनता पार्टी ने यह घोषणा की कि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे, वैसे ही मोदी देशभर में रैलियां करने लगे और बड़े पैमाने पर चुनाव प्रचार शुरू हो गया. यह बात सितंबर 2013 की है, तभी से उनकी रैलियां शुरू हो गयी थीं. पार्टी ने आचार संहिता के पहले रैलियों-सभाओं पर जितना भी खर्च किया, उसका हिसाब देने के लिए वह बाध्य नहीं रही, इसलिए उसका हिसाब किसी के पास नहीं है.
जाहिर सी बात है, जब तक चुनाव की घोषणा नहीं होगी, तब तक आचार संहिता लागू नहीं होगी. ऐसे में अगर पार्टियां छह महीने पहले या साल भर पहले से चुनाव प्रचार शुरू कर देती हैं, तो उनके खर्च का हिसाब-किताब होना चाहिए, क्योंकि इसी दौरान कॉरपोरेट फंडिंग भी होती और दूसरे स्रोतों से भी खूब धन इकट्ठा होता है. हमने इसी के लिए पीआइएल दाखिल किया है कि छह महीने-साल भर पहले तक के खर्चे का हिसाब भी पार्टियां चुनाव आयोग को दें. जाहिर है, यह आंकड़ा करोड़ों में होगा.
चुनावों में धनबल पर लगाम कसने के लिए चुनाव आयोग ने कई कोशिशें की हैं, लेकिन फिर भी बिहार चुनाव में करोड़ों रुपये जब्त किये गये. हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए यह बहुत ही घातक है. पार्टियों और चुनाव आयोग के बीच एक तरह से यह चूहे-बिल्ली के खेल की तरह होता है और कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि यह कभी खत्म नहीं होगा. क्योंकि इसको लेकर भी कई तरह के विचार सामने आते हैं.
कुछ लोग इस बात की भी वकालत करते हैं कि चुनावों में खर्च तो होता ही है और खर्च होना भी चाहिए. लेकिन हमारा मानना है कि खर्च तो होना चाहिए, लेकिन करोड़ों खर्च नहीं होना चाहिए.
एक अच्छे लोकतंत्र के लिए यह अच्छा नहीं है. बड़े-बड़े पोस्टर और होर्डिंग की कोई जरूरत मुझे समझ में नहीं आती. इससे तो नेता पोस्टर लगा कर अपने घर बैठे रह जाते हैं और जनता से संवाद स्थापित नहीं कर पाते. बड़ी-बड़ी रैलियों में बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, लेकिन जनता की आम समस्याएं उनसे कोसों दूर रहती हैं.
यह व्यवस्था एक हद तक अच्छी लगती है कि किसी को चुनाव लड़ने के लिए सरकार पैसा दे, यानी स्टेट फंडिंग हो. पूर्व चुनाव आयुक्त डॉ एसवाइ कुरैशी भी यही कहते हैं कि एक प्रत्याशी को मिले वोट के हिसाब से उसे सरकार द्वारा खर्च वहन करने की व्यवस्था होनी चाहिए. डॉ कुरैशी ने अपनी किताब में इस बात को लिखा है और इस पर कई राजनीतिक विचारकों का मानना है कि यह पहल अच्छी हो सकती है. इसके अलावा कई और सुझाव भी आये हैं.
मार्च, 2015 में आयी लॉ कमीशन की रिपोर्ट में भी स्टेट फंडिंग के बारे में विस्तार से बताया गया है. इस रिपोर्ट में पॉलिटिकल पार्टी फिनांस और स्टेट फंडिंग के बारे में ही सबसे ज्यादा फोकस किया गया है. इसमें यह भी कहा गया है कि पार्टियों को पैसा ‘कैश’ में नहीं, बल्कि ‘काइंड’ में मिलेगा. काइंड का अर्थ है कि जैसे दूरदर्शन पर पार्टी को प्रचार करने के लिए मुफ्त में कुछ टाइम स्लॉट मिल जायेगा. रेडियो पर इतना समय मिलेगा वगैरह.
चुनाव सुधार के मद्देनजर चुनावी खर्च की समस्या बहुत जटिल है. राजनीतिक पार्टियां और सरकारें इस समस्या के लिए कुछ नहीं करना चाहतीं, क्योंकि इससे उन्हें डर है कि उनका ही नुकसान होगा.
लेकिन वे यह नहीं समझतीं कि इससे लोकतंत्र को कितना नुकसान हो रहा है या अगर समझती भी हैं, तो भी उन्हें सिर्फ अपना ही फायदा नजर आता है. अपने फायदे के लिए सभी पार्टियां एकजुट हो जाती हैं, जैसे आरटीआइ के दायरे में न आने को लेकर एकजुट हो गयी थीं. तब न तो कोई पक्ष होता है, और न ही कोई विपक्ष, सब एक हो जाती हैं और एक ही भाषा बोलने लगती हैं. चुनाव सुधार का मसला बहुत बड़ा मसला है.
इसे लेकर एक बड़ी बहस की जरूरत है. लेकिन मेरे ख्याल में एक काम किया जाये, तो कुछ सुधार हो सकता है. जिस तरह से आम आदमी के लिए हर तरह का कानून है, उसी तरह से पार्टियों का व्यक्तिकरण करके उन पर भी कानून लागू किया जाये. इन पार्टियों ने आम आदमी को नियंत्रित करने के लिए बेशुमार कानून बनाये हैं, लेकिन खुद के लिए कोई कानून नहीं बनाये. इसलिए नहीं बनाये, क्योंकि वे किसी भी तरह से अपना नुकसान नहीं चाहतीं.
एक दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि पार्टियाें जो इंटरनल डेमोक्रेसी की बात होती है, वह एक छलावा मात्र है. सबने अपने-अपने संविधान बनाये हुए हैं, लेकिन उन संविधानों का पालन कोई नहीं करता. आज तक किसी पार्टी के भीतर किसी पद के लिए कोई इंटरनल इलेक्शन हुए क्या?
सारी पार्टियां एक आदमी के नाम पर चल रही हैं. भाजपा के मोदी हैं, सपा के मुलायम हैं, बसपा की मायावती हैं, जदयू के नीतीश हैं, राकांपा के शरद पवार हैं, कांग्रेस की सोनिया गांधी हैं, राजद के लालू हैं, एआइएडीएमके की जयललिता हैं वगैरह-वगैरह. इन पािर्टयों में इंटरनल डेमोक्रेसी नाम की कोई चीज नहीं है. ये सारी पािर्टयां प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की तरह चल रही हैं. लाखों-करोड़ों लेकर टिकट तक बांटती हैं और कहती हैं कि पार्टी में इंटरनल डेमोक्रेसी है.
यह भी होना चाहिए कि पार्टी में किसको टिकट मिलेगा, उसका भी पार्टी के भीतर चुनाव हो, पैसे लेकर टिकट न बांटे जायें, तब यह सिद्ध होगा कि पार्टी में इंटरनल डेमोक्रेसी है. ऐसे में ये पार्टियां क्यों अपना नुकसान चाहेंगी? इसलिए चुनाव सुधारों के लिए जरूरी है कि पहले इन पार्टियों पर कानूनी नियंत्रण हो. उनके खर्च पर नियंत्रण हो.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधािरत)
राजनीितक फंिडंग के िनयमन के िबना निष्पक्ष चुनाव कराना मुश्किल हो सकता है
हमारे देश में चुनाव लड़नेवाले उम्मीदवार अपने खर्च का पूरा विवरण नहीं देते हैं. राजनीतिक फंडिंग के नियमन के कानूनों के अभाव में एक ऐसी भयावह स्थिति पैदा हो सकती है जब संस्थाएं धन से नियंत्रित होने लगेंगी और निष्पक्ष चुनाव करा पाना मुश्किल हो जायेगा.
राजनीतिक दलों को मिलनेवाले चंदे और धन से संबंधित कानून उतने सशक्त नहीं हैं कि वे काले धन और वोटरों को रिझाने के लिए गलत तरीकों पर लगाम कस सकें. इससे देश की चुनाव प्रक्रिया में बराबरी पर नकारात्मक असर पड़ता है. समय के साथ चुनाव खर्चीले होते जा रहे हैं.
विशिष्ट व्यक्तिगत रिकॉर्ड और लोक सेवा के अनुभव के बावजूद आम नागरिक चुनाव लड़ने की बात सपने में भी नहीं सोच सकता है. उपलब्ध संसाधनों पर कुछ पार्टियों और उनके प्रत्याशियों का कब्जा हो चुका है. यह स्थिति पार्टियों को धन की ताकत पर निर्भर बना रही है जिसके समाज और राजनीति पर गंभीर परिणाम हो रहे हैं. लोकतंत्र में राजनीतिक और सार्वजनिक नैतिकता के मसले पर लोगों का भरोसा तेजी से टूट रहा है.
पार्टियों के निजी धन संग्रह
पर प्रतिबंध लगाना जरूरी
चुनावी खर्चों में अपारदर्शिता हमारे लोकतंत्र के लिए कत्तई अच्छा नहीं है. यह सिर्फ धनबल को बढ़ावा देता है, जिससे एक आम आदमी कभी कोई चुनाव ही नहीं लड़ सकता. इस धनबल को राेकने के लिए स्टेट फंडिंग की बात हो रही है, लेकिन इसमें भी एक समस्या है. मान लीजिए एमपी का चुनाव लड़ने के खर्च सीमा 70 लाख है, अगर प्रत्याशी को यह राशि स्टेट दे देता है, तो भी प्रत्याशी दो-चार-दस करोड़ कालेधन का भी इस्तेमाल करेगा ही करेगा, तो फिर स्टेट फंडिंग का तो कोई मतलब ही नहीं बनता. ऐसे में स्टेट द्वारा चुनाव को फंड करने का सवाल ही नहीं पैदा होता.
इस समस्या का हल इस तरह हो सकता है कि पार्टियों को चुनावों में जहां से धन मिलता है, वे स्रोत बंद हों, उस पर कोई ठोस नियंत्रण हो. यह काम तभी हो सकता है, जब पार्टी पर भी प्रत्याशी की तरह खर्च सीमा निर्धारित कर दिया जाये.लेकिन अभी यह संभव नहीं लग रहा है.
मेरा मानना है कि पार्टियों द्वारा किये जानेवाले पैसे के निजी संग्रहण (प्राइवेट कलेक्शन आॅफ मनी) पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए. अब सवाल यह उठता है कि चुनाव लड़ने के लिए पैसे तो चाहिए ही. तो मेरा सुझाव है कि एक वोट पर एक उचित राशि (मान लीजिए सौ रुपये) निर्धारित कर दिया जाये कि एक प्रत्याशी को प्रत्येक वोट पाने के बदले सौ रुपये मिलेंगे.
यानी अगर एक प्रत्याशी एक लाख वोट पाता है, तो उसे एक करोड़ दिया जायेगा. इससे प्रत्याशी को प्राइवेट कंपनियों के आगे, अपराधियों के आगे हाथ नहीं फैलाना पड़ेगा. दरअसल, एक एमपी या एमएलए जब चुन के आता है, तो अपने दफ्तर के पहले ही दिन अपने मातहत अधिकारियों से कहता है कि चुनाव में इतने करोड़ खर्च हुए हैं, अब उसकी भरपायी शुरू कर दो.
अब जाहिर है, अधिकारी भी कुछ रखेगा, उसको फायदा दिखेगा, तो वह घूस लेने का आदी हो जायेगा. जब एक जनप्रतिनिधि और अधिकारियों का गंठजोड़ हो जाये, तो समझिए कि इसे तोड़ना असंभव हो जाता है. यहीं से भ्रष्टाचार धीरे-धीरे अपने चरम पर पहुंचता है. एक अरसे से हमारे देश में ऐसा ही होता आ रहा है, जिससे कि भ्रष्टाचार को खत्म करने में मुश्किलें आ रही हैं.
Exit mobile version