कहानी हेरॉल्ड की : पढें वरिष्ठ पत्रकारों के लेख
नेशनल हेरॉल्ड मामले में तमाम सियासी हंगामों के बीच कांग्रेस नेतृत्व अंततः अदालत के सामने पेश हुआ और कानूनी प्रक्रिया के तहत उसने जमानत ली. इससे जुड़े वाणिज्यिक लेन-देन में कथित अनियमितताओं के आरोपों पर सही-गलत का फैसला अदालत में होना है. लेकिन, इस पूरे प्रकरण ने ‘नेशनल हेरॉल्ड’ को फिर से सुर्खियों में ला […]
नेशनल हेरॉल्ड मामले में तमाम सियासी हंगामों के बीच कांग्रेस नेतृत्व अंततः अदालत के सामने पेश हुआ और कानूनी प्रक्रिया के तहत उसने जमानत ली. इससे जुड़े वाणिज्यिक लेन-देन में कथित अनियमितताओं के आरोपों पर सही-गलत का फैसला अदालत में होना है. लेकिन, इस पूरे प्रकरण ने ‘नेशनल हेरॉल्ड’ को फिर से सुर्खियों में ला दिया है.
उस अखबार को, जिसकी कहानी के बिना 20वीं सदी के भारत में प्रिंट मीडिया का इतिहास अधूरा ही रहेगा. हेरॉल्ड के उत्थान और पतन की कहानी में कोई चाहे तो वक्त के साथ कांग्रेस नेतृत्व के बदलते सोच को भी पढ़ सकता है. नेशनल हेरॉल्ड की पूरी कहानी पर नजर डाल रहा है आज का समय.
संरक्षकों की बेरुखी का शिकार
प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
नेशनल हेरॉल्ड के मास्टहेड के ठीक नीचे उद्देश्य वाक्य लिखा रहता था- ‘फ्रीडम इज इन पेरिल, डिफेंड इट विद ऑल योर माइट : जवाहर लाल नेहरू’ (आजादी खतरे में है, अपनी पूरी ताकत से इसकी रक्षा करो). यह वाक्य एक पोस्टर से उठाया गया था, जिसे 1939 में इंदिरा गांधी ने ब्रेंटफोर्ड, मिडिलसेक्स से नेहरू जी को भेजा था. यह ब्रिटिश सरकार का पोस्टर था. नेहरू को यह वाक्य इतना भा गया कि इसे उन्होंने अपने अखबार के माथे पर चिपका दिया. दुर्भाग्य है कि नेहरू के वारिस तमाम बातें करते रहे, पर वे इस अखबार और उसके संदेश की रक्षा करने में असफल रहे.
नेहरू के जीवनी लेखक बेंजामिन ज़कारिया ने लिखा है, ‘कांग्रेस की आंतरिक खींचतान में उलझने के कारण जब जवाहर लाल नेहरू को लगा कि मैं पर्याप्त रूप से देश और समाज पर असर नहीं डाल पा रहा हूं, तो उन्होंने पत्रकारिता की शरण में जाने का फैसला किया. 1936 में उनके मन में अपना अखबार निकालने का विचार आया और नौ सितंबर, 1938 को नेशनल हेरॉल्ड का पहला अंक लखनऊ से निकला.’ इसके पहले संपादक के रामाराव थे. ज़कारिया के अनुसार, यह अखबार लगातार आर्थिक संकटों का सामना करता रहा. पहले दो साल अखबार निकालने के लिए रुपयों और न्यूजप्रिंट की कमी पेश आती रहती थी.
वरिष्ठ पत्रकार दुर्गा दास ने लिखा है कि 40 के दशक के शुरुआती दिनों में नेहरू और देवदास गांधी के बीच अखबार के कारण कड़वाहट रहती थी. महात्मा गांधी के सबसे छोटे पुत्र देवदास गांधी तब हिंदुस्तान टाइम्स के संपादक थे. नेहरू न्यूजप्रिंट के लिए उनकी मदद मांगते थे, पर देवदास गांधी इसके लिए तैयार नहीं थे, बल्कि वे इस अखबार को अपना प्रतिद्वंद्वी मानते थे.
हालांकि 15 अगस्त, 1942 को जब अखबार का प्रकाशन पहली बार बंद हुआ, तो उसके कर्मचारियों को हिंदुस्तान टाइम्स में जगह दी गयी. उनमें एम चेलापति राव भी थे, जो बाद में इसके प्रधान संपादक बने. 1942 में अखबार के बंद होने के पीछे कई कारण थे. भारत छोड़ो आंदोलन के कारण कांग्रेस के नेता जेलों में थे, ब्रिटिश सरकार की नीतियों के कारण अखबार निकालना मुश्किल काम था. ऊपर से आर्थिक संकट था. इसके बाद 11 नवंबर, 1945 को इसमें फिर से प्राण डाले गये… और अंततः एक अप्रैल, 2008 को यह अख़बार अंतिम रूप से बंद हो गया. हालांकि, तब उस बंदी को अस्थायी कहा गया था.
तब शक्ति स्रोत था हेरॉल्ड हाउस
लखनऊ के कैसरबाग का हेरॉल्ड हाउस 60 और 70 के दशक में भारतीय राजनीति और पत्रकारिता का शक्ति स्रोत था. हम ज्यादातर नेशनल हेरॉल्ड का जिक्र सुनते हैं, पर इसके हिंदी अख़बार नवजीवन और उर्दू अखबार क़ौमी आवाज़ को भी याद किया जाना चाहिए. इसके तीनों अखबार गुणवत्ता के लिहाज से श्रेष्ठ माने जाते थे. नवजीवन महात्मा गांधी के प्रसिद्ध पत्र के नाम पर 1947 में निकाला गया था, जिसके लिए गांधी जी से खास अनुमति ली गयी थी. उसके प्रकाशन के पीछे फिरोज गांधी और रफी अहमद किदवई का विशेष योगदान था.
हालांकि, मुझे हेरॉल्ड हाउस में काम करने का मौका नहीं मिला है, पर 70 के दशक के शुरुआती दिनों में वहां जाने का अवसर खूब मिला. पायनियर हाउस में काम करते हुए भी हमें हेरॉल्ड से खास स्नेह था, अक्सर ईर्ष्या भी. उस जमाने में चेलापति राव दिल्ली चले गये थे और लखनऊ में सीएन चितरंजन स्थानीय संपादक थे.
‘नवजीवन’ के संपादक तब कृष्ण कुमार मिश्र थे, जो दिल्ली के इंडियन एक्सप्रेस से वापस आये थे. नवजीवन के प्रसिद्ध संपादकों में लक्ष्मण नारायण गर्दे और भगवती चरण वर्मा जैसे नाम थे. ज्ञान चंद जैन भी वहां से जुड़े रहे. हमारे अनेक दोस्त वहां काम करते थे, जिनमें से कई साथियों के साथ बाद में हमने काम भी किया. क़ौमी आवाज़ जैसे उर्दू अख़बार का बंद होना देश का दुर्भाग्य है. इशरत अली सिद्दीकी जैसे संपादक इसके साथ जुड़े रहे. यह अख़बार जब बंद हुआ, तब भी घाटे में नहीं था. इसे उर्दू के सर्वश्रेष्ठ पत्रकारों की कर्तव्यनिष्ठ सेवा मिली.
सही नहीं थीं प्रबंधकीय नीतियां
हेरॉल्ड हाउस पर कांग्रेसी ठप्पा लगा होने के बावजूद इन अखबारों की प्रतिष्ठा कम नहीं थी. वे पाठक की आवाज थे. इस समूह की सबसे बड़ी परीक्षा इमर्जेंसी के दौरान हुई. हेरॉल्ड अकेला अख़बार था, जिसमें उस वक्त सरकार की आलोचना का साहस था. जहां दूसरे अखबार संजय गांधी की प्रशस्ति से भरे होते थे, हेरॉल्ड में उनकी खबर नहीं छपती थी. इतनी प्रतिष्ठा और पाठकों के जबरदस्त समर्थन के बावजूद 80 के दशक में इस अख़बार का लगातार पराभव होता चला गया.
यह अखबार पाठकों से तब विमुख हुआ, जब संरक्षकों ने इसकी उपेक्षा शुरू कर दी. अखबार प्रबंधकीय नीतियों का शिकार हो गया. वे इसकी आय बढ़ाने की जुगत में लगे रहे, बाकी बातें भूल गये. लखनऊ में इसकी पुरानी इमारत को गिरा कर कॉमर्शियल कॉम्प्लेक्स बनाया गया. देश के अलग-अलग राज्यों में कांग्रेस सरकारें होने का लाभ हेरॉल्ड को जमीन के रूप में जरूर मिला, पर अखबार को उससे कोई फायदा नहीं हुआ. न तो इसका नेटवर्क बेहतर हुआ, न ही तकनीक का आधुनिकीकरण किया गया. लखनऊ के अलावा दिल्ली, मुंबई, भोपाल और दूसरे शहरों में इस संस्थान के पास काफी संपत्ति जरूर जमा हो गयी.
मुझे लगता है कि दोष इसके संचालकों की समझ में था. उनकी निगाहें संपत्ति जमा करने तक सीमित रह गयी और अखबार का पतन होता गया. वे रीयल एस्टेट जोड़ने की जुगत में लगे रहे. उन्होंने कर्मचारियों की दिक्कतों से आंखें मूंद लीं. 1998 में अदालत के एक आदेश पर हेरॉल्ड की कुछ संपत्ति को नीलाम कर कर्मचारियों की देनदारी पूरी की गयी. लखनऊ में हेरॉल्ड की बंदी के कारण बेरोजगार हुए कुछ पत्रकारों ने कुछ समय तक ‘वर्कर्स हेरॉल्ड’ नाम से अखबार भी निकाला, पर वह सफल नहीं हुआ.
एक शानदार संस्था की धीमी मौत
1978 में पायनियर हाउस में हम मिड शिफ्ट में काम कर रहे थे कि टेलीप्रिंटर पर खबर आयी- ‘हेरॉल्ड में तालाबंदी हो गयी.’ यह खबर केवल हेरॉल्ड के ही नहीं, कांग्रेस के पराभव की कहानी भी लिख गयी. बेशक, उसके बाद 1980 और 1984 में कांग्रेस पार्टी चुनाव जीत कर आयी, पर उसके पीछे नकारात्मक कारण थे. 1980 में जनता प्रयोग की विफलता के कारण और 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या की सहानुभूति में उसे सफलता मिली. कांग्रेस सत्ता की दौड़ में तो शामिल रही, पर एक शानदार संस्था की धीमी मौत के प्रति उदासीन बनी रही.
यह हेरॉल्ड का दुर्भाग्य था कि समय रहते उसका तकनीकी आधुनिकीकरण नहीं किया गया. 70 के दशक में उसका एक विदेश संस्करण भी निकाला गया, जो महीन न्यूजप्रिंट पर साप्ताहिक के रूप में छपता था. एक तरफ उसे देश के कई केंद्रों से निकालने की योजना थी, दूसरी ओर, जब वह 2008 में बंद किया गया, तब उसके संपादकीय विभाग के पास कंप्यूटर भी नहीं था, जबकि देश के ज्यादातर अखबार 90 के दशक से कंप्यूटर का इस्तेमाल कर रहे थे. उसकी कंपोजिंग के लिए प्रेस के पास पांच या छह कंप्यूटर थे. ऐसा संस्थान किस तरह अपना अस्तित्व बचाता?
नेशनल हेरॉल्ड की परिसंपत्तियां
नेशनल हेरॉल्ड, नवजीवन और कौमी आवाज की मिल्कियत वाले एसोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड की परिसंपत्तियों की कीमत एक हजार से पांच हजार करोड़ तक आंकी जा रही है. इस कंपनी के पास दिल्ली, मुंबई, लखनऊ, पटना, इंदौर, भोपाल और पंचकूला में जमीनें और भवन हैं. ये सभी संपत्तियां इन शहरों के मुख्य इलाकों में स्थित हैं.
दिल्ली के बहादुरशाह जफर मार्ग पर मूल्य और आकार के अनुसार सबसे बड़ी संपत्ति है, जहां एक लाख वर्ग फुट में पांच-मंजिला भवन बना है. इस संपत्ति की कम-से-कम कीमत 300-400 करोड़ रुपये है. इसकी दो मंजिलें विदेश मंत्रालय और दो मंजिलें टीसीएस ने किराये पर लिया है, जिनमें पासपोर्ट संबंधी काम होते हैं. ऊपरी मंजिल खाली है, जिसे यंग इंडियन कंपनी ने अपने जिम्मे ले रखा है. इस भवन से हर साल सात करोड़ रुपये की आमदनी होती है. इसी भवन से 1968 में नेशनल हेरॉल्ड का दिल्ली संस्करण शुरू हुआ था.
लखनऊ के ऐतिहासिक कैसरबाग में स्थित भवन से तीन भाषाओं में अखबार छपते थे. इस दो एकड़ जमीन पर 35 हजार वर्ग फुट में दो भवन हैं. अभी एक हिस्से में राजीव गांधी चैरिटेबल ट्रस्ट द्वारा इंदिरा गांधी नेत्र चिकित्सालय एवं शोध संस्थान संचालित किया जाता है. यहां से निकलनेवाले संस्करण 1999 में बंद हो गये. कुछ ऐसी संपत्तियां हैं, जिनका कभी मुख्य उद्देश्य के लिए उपयोग नहीं हुआ.
मुंबई में अखबार को 3,478 वर्ग फुट जमीन बांद्रा में 1983 में दी गयी थी. यह जमीन अखबार निकालने और नेहरू पुस्तकालय एवं शोध संस्थान बनाने के लिए दी गयी थी. 2014 में इस जमीन पर 11-मंजिला वाणिज्यिक भवन बनाया गया है.
नियमतः आवंटन के तीन वर्षों के अंदर भवन बन जाना चाहिए था, जिसका उपयोग सिर्फ मूल उद्देश्य के लिए किया जा सकता था. इसमें 14 कार्यालय और 135 कार पार्किंग हैं. एक लाख वर्ग फुट से अधिक के कार्यालय क्षेत्र के इस संपत्ति की कीमत करीब 300 करोड़ रुपये है.
पटना के अदालतगंज में दी गयी जमीन खाली पड़ी है और फिलहाल उस पर झुग्गियां बनी हुई हैं. पटना में अखबार के काम एक्जीबिशन रोड पर किराये के कार्यालय में निष्पादित होते थे. इस प्लॉट की कीमत करीब सौ करोड़ है. इस पर कुछ दुकानें बनाकर बेची भी गयी हैं.
पंचकूला में 3,360 वर्ग फुट जमीन अखबार को 2005 में हरियाणा सरकार ने दी थी. इस पर अभी एक चार-मंजिला भवन है जो अभी हाल में ही बन कर तैयार हुआ है. इस संपत्ति की कीमत 100 करोड़ आंकी जाती है. इंदौर की संपत्ति इस लिहाज से खास है कि यहां से अब भी नेशनल हेरॉल्ड एक फ्रेंचाइजी के जरिये प्रकाशित होता है.
एबी रोड पर 22 हजार वर्ग फुट के इस प्लॉट की कीमत करीब 25 करोड़ है. भोपाल के एमपी नगर में हेरॉल्ड की जमीन को एक कांग्रेसी नेता ने फर्जी तरीके से एक बिल्डर को बेच दिया था, जिसने उस पर निर्माण कर उन्हें भी बेच दिया था. इसकी कीमत तकरीबन 150 करोड़ आंकी जाती है. स्त्रोत : मीिडया िरपोर्ट्स
आजादी की आवाज था नेशनल हेरॉल्ड
के विक्रम राव
वरिष्ठ पत्रकार
अंगरेज नेशनल हेरॉल्ड को बंद कराना चाहते थे, कांग्रेसियों ने उसे नीलामी पर चढ़ा दिया. लखनऊ में मिशन स्कूलवाली इमारत पर (1938 में) तिरंगा फहरा कर जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्रीय कांग्रेस के इस दैनिक को शुरू किया था.
लेकिन, उनके नवासे की पत्नी के रहते नेहरू परिवार की इस संपत्ति की सरेआम बोली तहसीलदार सदर ने लगवा दी, ताकि चार सौ कार्मियों के 22 माह के बकाया वेतन के चार करोड़ वसूले जा सकें. यूपी प्रेस क्लब में संवाददाताओं के पूछने पर अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था, ‘जो हेरॉल्ड नहीं चला पाये, वे भला देश क्या चला पाएंगे?’ टिप्पणी सटीक थी. देश की जंगे-आजादी को भूगोल का आकार देनेवाला हेरॉल्ड खुद इतिहास में चला गया.
हेरॉल्ड की एक परंपरा शुरू से रही और आजादी के बाद भी बनी रही. वह थी समाचार प्रकाशन में निष्पक्षता बरतना तथा तनिक भी राग-द्वेष न रखना. लेखक टॉमस कार्लाइल ने इस अखबार को इतिहास का अर्क बताया था. अर्क के साथ हेरॉल्ड एक ऊर्जा भी था. अब दोनों नहीं बचे. जब इसके संस्थापक-संपादक श्री के रामाराव ने सितंबर 1938 में प्रथम अंक निकाला था, तभी स्पष्ट कर दिया था कि लंगर उठाया है तूफान का असर देखने के लिए. बाद में तूफान बहुतेरे उठे, पर हेरॉल्ड की कश्ती लंबा सफर तय करती रही. जब डूबी भी, तो किनारे से टकरा कर. उसके प्रबंधक बस तमाशाई बने रहे.
इच्छाशक्ति का अभाव ही है वह वजह, जिससे पुनर्जीवित कांग्रेस के काल में हेरॉल्ड का अस्तित्व मिट गया, जबकि इसकी हस्ती उस ब्रिटिश राज के वक्त भी बनी रही थी, भले ही दौरे जमाना उसका दुश्मन था? 1941 के नवंबर में अमीनाबाद के व्यापारी भोलानाथ ने अखबार छापने के लिए कागज देने से मना कर दिया था, क्योंकि उधार काफी हो गया था. नेहरू ने तब एक रुक्के पर दस्तखत कर हेरॉल्ड को बचाया था. पिता की भांति पुत्री ने भी हेरॉल्ड को बचाने के लिए गायिका एमएस सुब्बालक्ष्मी का कार्यक्रम रचा था, ताकि धनराशि जमा हो सके. इंदिरा गांधी तब कांग्रेस अध्यक्ष थीं.
रफी अहमद किदवई और चंद्रभानु गुप्त ने आपसी दुश्मनी के बावजूद हेरॉल्ड राहत के कूपन बेच कर आर्थिक मदद की थी. मगर नेहरू, इंदिरा और राजीव के नाम पर निधि तथा न्यास के संचालकों ने उनकी असली स्मृति हेरॉल्ड को संजोना अपनी प्राथमिकता की सूची में आज तक शामिल नहीं किया.
श्रमिक सहयोग का नायाब उदाहरण हेरॉल्ड में एक परिपाटी के तहत सर्जित हुआ था. दौर था द्वितीय विश्वयुद्ध का. छपाई के खर्चे और कागज के दाम बढ़ गये थे. हेरॉल्ड तीन साल के अंदर ही (1941) बंदी के कगार पर था. तब एक अंगरेज परस्त दैनिक इस आस में था कि उसका एकछत्र राज कायम हो जायेगा. खर्चा कम करना था, तो पत्रकारों और अन्य कार्मियों ने स्वेच्छा से अपना वेतन आधा करवा लिया था. तीन महीने तो बिना वेतन के ही काम किया. कई अविवाहित कर्मचारी हेरॉल्ड परिसर में ही सोते थे. काॅमन किचन भी चलता था, जहां चंदे से खाना पकता था. हम आठ भाई-बहन लोग तब नजरबाग के तीन मंजिला मकान में माता-पिता के साथ रहते थे.
किराया था 30 रुपये हर माह. तभी अचानक एक दिन पिताजी हम सबको दयानिधान पार्क (लालबाग) के सामनेवाली गोपाल कृष्ण लेन के छोटे से मकान में ले गये. किराया था 17 रुपये. दूध में कटौती हो गयी. रोटी ही बनती थी, क्योंकि गेहूं सस्ता था, चावल बहुत महंगा. दक्षिण भारतीयों की पसंद चावल है, फिर भी लोभ संवरण कर हमें गेहूं खाना पड़ा. यह सारी बचत, कटौती, कमी बस इसलिए कि हेरॉल्ड छपता रहे. यही परिपाटी हेरॉल्ड के कामगारों को अंत तक उत्प्रेरित करती रही, हर उत्सर्ग के लिए. ऐसा ही 1978 में हुआ, जब जनता पार्टी शासन में हेरॉल्ड की दुर्दशा हुई थी.
इसी का प्रमाण फिर 1998 मिला, जब 22 महीनों का वेतन न मिलने पर भी सारे कार्मिक हेरॉल्ड, नवजीवन और कौमी आवाज छापने में सतत यत्नरत रहे. श्रम का अभाव नहीं था. काम तब रुका जब नाकारा प्रबंधन कागज, स्याही, बिजली आदि साधन भी मुहैय्या न करा पाया.
यह सब सिलसिलेवार होता रहा वर्षों से, जबकि 45 साल तक हेरॉल्ड के स्वामी प्रधानमंत्री और सत्तासीन पार्टी के नेता रहे. प्रबंध में घुसपैठियों का आलम यह था कि राज्यसत्ता का पूरा लाभ निजी तौर पर उठाया गया. श्रमिकों का शोषण अनवरत था. 1979 से 1986 तक इंदिरा गांधी के अत्यंत विश्वस्त सहायक यशपाल कपूर प्रबंध निदेशक रहे. साढ़े सात वर्ष तक यशपाल कपूर हेरॉल्ड पर छाये रहे.
उस दौर में पटना, मुंबई, इंदौर, भोपाल आदि नगरों में कांग्रेसी सरकारों की अनुकंपा से महंगी जमीन प्रेस के लिए कौड़ियों के भाव खरीदी गयी. फिर वही हुआ, जो स्कूली बच्चे टिफिन खा लेने के बाद अंत में चिल्ला कर कहते हैं, ‘खेल खतम, पैसा हजम.’ जितना पैसा कांग्रेस शासित राज्यों और प्रधानमंत्रियों के कार्यालयों से आता था, सब खत्म, बल्कि हजम होता रहा. श्रमिक भुगतते रहे. लूट की पराकाष्ठा से स्थिति नीलामी तक पहुंच गयी.
‘नेशनल हेरॉल्ड’ के मलबे में दबी कांग्रेस
– वीरेंद्र नाथ भट्ट
वरिष्ठ पत्रकार
ने शनल हेरॉल्ड को लेकर कांग्रेस लोकसभा में जितनी आक्रामक है, उसका थोड़ा भी प्रयास अगर इस अखबार समूह को बचाने में किया होता, तो आज हजारों पत्रकार और कर्मचारी सड़कों पर नहीं होते. कांग्रेस ने तो ‘फोर्थ एस्टेट’ के इस औजार को अंततः ‘रीयल एस्टेट’ में बदल दिया. इस अखबार की संपत्ति आज लखनऊ में फल -फूल रही है, लेकिन अखबार के बहुत से कर्मचारी बदहाली का जीवन गुजार रहे हैं.
मई, 1991 में लोकसभा का मध्यावधि चुनाव चल रहा था. नेशनल हेरॉल्ड के कर्मचारियों को चार माह से वेतन नहीं मिला था. एसोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड एंप्लाइज यूनियन यानी तीनों अखबारों के कर्मचारी कैसरबाग कार्यालय के बाहर भूख हड़ताल पर बैठे थे. इसी दौरान राजीव गांधी अपने संसदीय क्षेत्र अमेठी के मुंशीगंज में चुनाव प्रचार के लिए पहुंचे.
नेशनल हेरॉल्ड के कर्मचारी भी उनसे मिलने वहां पहुंच गये. कर्मचारियों ने अपनी समस्याएं रखीं. राजीव गांधी ने कहा-‘वेतन तो मिल नहीं रहा, वैसे ही भूखे मर रहे हो, फिर भूख हड़ताल से क्या होगा, हड़ताल खत्म कर दो. चुनाव हो जाने दो, मैं जल्दी की ठोस कार्यवाही करूंगा. नेशनल हेरॉल्ड, नवजीवन और कौमी आवाज तीनों देश के नंबर एक के अखबार होंगे.’ कुछ ही दिन बाद श्री पेरांबदुर में 21 मई को उनकी ह्त्या हो गयी.
जोखू प्रसाद तिवारी, जो उस समय एसोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड एंप्लाइज यूनियन के महासचिव थे, कहते हैं कि राजीव गांधी की हत्या के साथ ही हमारा भाग्य फूट गया. जोखू तिवारी का मानना है कि नेशनल हेरॉल्ड, नवजीवन और कौमी आवाज़ विज्ञापन छाप कर पैसा कमाने के औज़ार नहीं थे. तीनों अखबार आजादी के संग्राम के योद्धा थे. ये जवाहर लाल नेहरू की तीन औलादें थीं, जिन्हें सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने नष्ट कर दिया. हम सभी चाहते थे कि अखबार चले, लेकिन इस ऐतिहासिक अखबार का विनाश नेहरू के वंशजों के ही हाथों हुआ. शायद सोनिया और राहुल का इस अखबार के साथ वह भावनात्मक लगाव महसूस नहीं करते थे, जो इंदिरा गांधी और राजीव गांधी करते थे.
जोखू तिवारी ने कहा कि हमें इतना संतोष जरूर है कि 1999 में अखबार बंद करने के पूर्व सभी कर्मचारियों के पूरे बकाये पैसे का भुगतान कर दिया गया. करीब चार सौ कर्मचारियों के एक-एक पैसे का भुगतान किया गया. इलाहाबाद हाइकोर्ट के आदेश के तहत कर्मचारी यूनियन और मैनेजमेंट के बीच समझौता हुआ. लेकिन, जब कभी भी नेहरू भवन के पास से गुजरना होता है तो मन में गहरी टीस तो उठती है.
क्या दिन थे, जब चेलापति राव जैसे भी संपादक थे, जिन्होंने आपातकाल के दौर में संजय गांधी, युवा हृदय सम्राट के लखनऊ आगमन पर स्वागत के विज्ञापन को छापने से इनकार कर दिया था.
आज लखनऊ के कम लोगों को पता है कि नेहरू भवन के पीछे का जो चार मंजिला खंडहर भवन है, कभी मिशन स्कूल बिल्डिंग के नाम से जाना जाता था. यहीं से तीनों अखबार छपते थे.
मौजूदा नेहरू भवन तो कागज का गोदाम था. यही खंडहर कभी उत्तर प्रदेश ही नहीं, बल्कि देश की सत्ता का केंद्र हुआ करता था. कभी इस भवन के गलियारों में पंडित जवाहर लाल नेहरू चहलकदमी किया करते थे और चेलापति राव के साथ लंबी मीटिंग हुआ करती थी. राव के दोस्त और नेहरू मंत्रिमंडल में रक्षा मंत्री वीके कृष्णा मेनन भी यहां अक्सर दिख जाया करते थे. वह बड़े नामी-गिरामी मीडिया हाउस का दौर नहीं था.
पंडित गोविंद बल्लभ पंत, रफ़ी अहमद किदवई और लाल बहादुर शास्त्री के लिए भी नेशनल हेरॉल्ड की अहमियत दिल्ली और मद्रास से छपनेवाले किसी भी अन्य अखबार से कम नहीं थी.
अपनी पैनी और धारदार कलम के लिए प्रसिद्ध चेलापति राव, जो एमसी के नाम से मशहूर थे, सबके लिए सामान रूप से कठोर थे. उनके लिखे सरकार की आलोचना का नेहरू गंभीरता से संज्ञान लेते थे. अपने तीखे संपादकीय के कारण नेशनल हेरॉल्ड देश के राजनीतिक पटल पर एक अलग पहचान रखता था. यह एक विश्वनीय अखबार था.
अच्छे दिन बहुत समय तक नहीं रहते. देश की राजनीति में इंदिरा गांधी के उदय के साथ ही नेशनल हेरॉल्ड के बुरे दिन शुरू हो गये. पहला निशाना था हेरॉल्ड के संपादकीय विभाग पर नियंत्रण और कैसे चेलापति राव को किनारे किया जाये. नेहरू-गांधी परिवार के दरबारी उमाशंकर दीक्षित को कंपनी का प्रबंध निदेशक बनाया गया. दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित इनकी बहू हैं.
उमाशंकर 1975 में घोषित आपातकाल के दौरान देश के गृहमंत्री थे. दीक्षित के बाद नेशनल हेरॉल्ड का नियंत्रण इंदिरा गांधी के विश्वस्त और यशपाल कपूर के हाथ में आ गया. यशपाल कपूर चेलापति राव को फूटी आखों पसंद नहीं करते थे. करते भी क्यों, आपातकाल के दौरान नेशनल हेरॉल्ड में चेलापति राव इंदिरा गांधी और संजय गांधी की प्रशंसा के खबरें रद्दी की टोकरी में फेंक दिया करते थे.
आपातकाल के समय इंदिरा और संजय के विरुद्ध जाने से यशपाल कपूर से चेलापति राव का टकराव बढ़ता ही गया. उन्हें अपमानजनक हालात में जाना पड़ा. यशपाल कपूर के इशारे पर उनके कमरे में ताला जड़ दिया गया था.
यशपाल की दिलचस्पी अखबार में कम, नेशनल हेरॉल्ड की संपत्ति में ज्यादा थी. हेरॉल्ड के एक पुराने पत्रकार ने कहा कि यशपाल कपूर की रुचि फोर्थ एस्टेट में कम, रीयल एस्टेट में ज्यादा थी.
लिहाजा नियंत्रण संभलाने के बाद पहला काम उन्होंने मिशन स्कूल वाले भवन को ध्वस्त कर बहुमंजिला इमारत बनाने का मंसूबा बनाया. यशपाल कपूर का तर्क था कि बहुमंजिला इमारत की आय से नेशनल हेरॉल्ड को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाया जा सकेगा. हुआ इसका उलटा. रीयल एस्टेट तो फला-फूला, पर फोर्थ एस्टेट का दम घुटने लगा.
आज राहुल गांधी श्रम कानून को लेकर नरेंद्र मोदी पर हमलावर हैं, लेकिन उनके ही पूर्वज नेहरू के शुरू किए अखबार में मजदूरों का शोषण होना आम बात हो गयी थी. छह-छह माह वेतन में देरी आम बात थी. वेतन पर खर्च कम करने के लिए कर्मचारियों की छंटनी की गयी. स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति योजना भी लागू की गयी.
जोखू तिवारी बताते हैं कि बहुमंजिला इमारत में एक दुकान कई लोगों को बेच दी गयी. जिन्हें बेची गयी, उनके नाम रजिस्ट्री आज तक नहीं की गयी. अब एसोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड का मैनेजमेंट उस संपत्ति का कब्जा वापस लेना चाहता है. जोखू तिवारी कहते हैं, ‘यह अजब संयोग है कि नेशनल हेरॉल्ड और कांग्रेस का पराभव एक साथ हुआ है. सोनिया और राहुल ने कभी जनता की शक्तिशाली आवाज रहे नेशनल हेरॉल्ड को रीयल एस्टेट में तब्दील कर दिया. नेहरू परिवार, जो कभी कांग्रेस की गौरवशाली परंपरा का पहरुवा था, आज उसी हेरॉल्ड हाउस को लेकर मुकदमेबाजी में उलझा है, जिसकी बुनियाद में नेशनल हेरॉल्ड कामलबा है.’
राहुल के आरोप में कितनी हकीकत, कितना फसाना
करण थापर
वरिष्ठ पत्रकार
क्या राहुल गांधी का यह आरोप सही है कि नेशनल हेरॉल्ड मामला ‘प्रधानमंत्री कार्यालय की शह पर की जा रही राजनीतिक बदले की कार्रवाई’ है, या वे तथ्यात्मक रूप से गलत हैं और प्रथम दृष्ट्या न्यायपालिका की सत्यता एवं साख पर अवांछित आरोप लगाने के दोषी हैं? मुझे इस प्रश्न का उत्तर पता है, लेकिन निष्कर्ष पर सिलसिलेवार ढंग से पहुंचने की कोशिश करते हैं.
सबसे पहले तथ्य. यह मामला सुब्रह्मण्यम स्वामी द्वारा जनवरी, 2013 में दर्ज कराया गया था, यानी भाजपा के सत्ता में आने से 16 महीने पहले. तो इसमें न तो नरेंद्र मोदी शामिल हो सकते थे, और न ही प्रधानमंत्री कार्यालय. मामले को दर्ज कराते समय स्वामी भाजपा के सदस्य भी नहीं थे. वे सात महीने बाद अगस्त, 2013 में पार्टी में शामिल हुए. राहुल गांधी के पास किसी ऐसी जानकारी के बगैर जो कि हमें नहीं मालूम है, इस मामले को मोदी, प्रधानमंत्री कार्यालय या भाजपा से जोड़ पाना बहुत मुश्किल है.
स्वामी की शिकायत पर निचली अदालत के एक जज ने पाया कि इसमें कई सवाल हैं और उसने इस संबंध में सम्मन भेज दिया. गांधी परिवार ने इसे स्थगित करने और मामले को रफा-दफा करने की अपील की, पर हाइकोर्ट ने उनकी याचिका को निरस्त कर दिया. सात दिसंबर के अपने आदेश में न्यायाधीश सुनील गौड़ ने ‘कांग्रेस द्वारा एसोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड (एजेएल) को ब्याज-मुक्त कर्ज देने और 90 करोड़ के कर्ज को यंग इंडियन को देने’ पर सवाल खड़ा किया, जिसका आधार यह था कि कांग्रेस के पास धन सामान्यतः चंदे के द्वारा आता है और उस कर्ज को एजेएल की परिसंपत्तियों के द्वारा चुकाया जा सकता था. न्यायाधीश ने कहा कि ‘इसमें अपराध की बू है, धोखाधड़ी की गंध है’, और इसलिए ‘इसकी पूरी पड़ताल जरूरी है’. अब, जब दो भिन्न जज अपने न्यायिक दिमाग के प्रयोग के द्वारा इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं, तो आप इसे राजनीतिक बदला कैसे कह सकते हैं?
कांग्रेस का कहना है कि बदले की कार्रवाई का उसका आरोप अदालतों पर टिप्पणी नहीं है, बल्कि इस तथ्य पर है कि मोदी ने प्रवर्तन निदेशालय के प्रमुख को हटा दिया था, क्योंकि उन्होंने नेशनल हेरॉल्ड की फाइल बंद कर दी थी, जिसे उनके बाद बने प्रमुख ने फिर से खोल दिया. एक बार फिर तथ्य इस दावे की पुष्टि नहीं करते हैं. वित्त मंत्री अरुण जेटली, जिनके तहत प्रवर्तन निदेशालय काम करता है, ने कहा है कि निदेशालय द्वारा इस मामले में न तो कोई निर्णय लिया गया है, न कोई नोटिस दिया गया है और न ही कोई फाइल खोली गयी है. मुझे इसमें संदेह है कि वे झूठ बोलेंगे, क्योंकि इसका पता आसानी से लगाया जा सकता है.
जहां तक निदेशालय के प्रमुख को हटाने की बात है, सच यह है कि राजन कटोच को भारी उद्योग विभाग के सचिव पद पर प्रोन्नत करने के बाद तीसरा कार्यकाल विस्तार मिला हुआ था. एक साल तक वे दो पदों पर कार्यरत थे. अगर इस स्थिति में सरकार निर्णय ले कि एक नये निदेशालय प्रमुख की जरूरत है और कटोच को भारी उद्योग विभाग में अपनी जिम्मेवारी पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, तो क्या आप इसे ‘पद से हटाना’ कहेंगे?
इसमें महत्वपूर्ण बिंदु यह भी है कि यह सब अगस्त महीने में हुआ था. तब गांधी ने बदले का आरोप नहीं लगाया. लेकिन, दिल्ली हाइकोर्ट के आदेश के 24 घंटे बाद उन्होंने यह आरोप लगाना शुरू कर दिया. क्या इससे यह संकेत नहीं मिलता है कि उनके दिमाग में न्यायिक निर्णय रहा होगा, निदेशालय द्वारा कथित रूप से फाइल को फिर से खोलना या उसके प्रमुख का तबादला नहीं? मुझे लगता है कि प्रवर्तन निदेशालय और कटोच बहानेबाजी के लिए ही इस मामले में घसीटे गये हैं, ताकि गांधी के निराधार और नाकाबिले-माफी आरोपों की ढाल बन सकें.
यह बिल्कुल ही हो सकता है कि निचली और उच्च अदालतें इस मामले में जवाबदेही के अपने फैसले में गलत हों. साथ ही, न्यायाधीश गौर के आदेश में ऐसी बातें हो सकती हैं जो सबूतों या कानून पर आधारित न हों.
लेकिन, यह राजनीतिक बदले की कार्रवाई नहीं है. यह न्यायिक गलती या बुरा फैसला भले हो सकता है. एक दिन देश का प्रधानमंत्री बनने की उम्मीद रखनेवाले राहुल गांधी जैसे व्यक्ति को इस अंतर को समझने की जरूरत है.
(द इंडियन एक्सप्रेस से साभार)
क्या है केस
– पंडित जवाहरलाल नेहरू ने आजादी से पहले 1938 में नेशनल हेरॉल्ड अखबार की स्थापना की थी. वर्ष 2008 में इसका प्रकाशन बंद हो गया.
– इस अखबार का स्वामित्व एसोसिएटेड जर्नल्स लिमिटेड (एजेएल) के पास था, जिसे कांग्रेस से आर्थिक कोष मिलता था.
– वर्ष 2011 में यंग इंडियन लिमिटेड कंपनी स्थापित की गयी, जिसका कथित लक्ष्य एजेएल की देनदारियों का जिम्मा लेना था.
– भाजपा नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी द्वारा दायर याचिका में कहा गया है कि यंग इंडियन लिमिटेड ने मात्र 50 लाख रुपये देकर एजेएल पर बकाया 90.25 करोड़ की वसूली के अधिकार को ले लिया, जो कि उसने कांग्रेस से उधार लिया था.
– यंग इंडियन लि में सोनिया और राहुल गांधी की हिस्सेदारी प्रति व्यक्ति 38 फीसदी है.
– इस वर्ष अगस्त में ऐसी खबरें आयी थीं कि प्रवर्तन निदेशालय (इडी) सबूतों के अभाव में इस मामले को बंद कर सकता है. इसके तुरंत बाद इडी के निदेशक राजन एस कटोच को सेवा से हटा दिया गया था.
– सितंबर में इडी ने सोनिया गांधी और राहुल गांधी के खिलाफ मामले की फिर से जांच करने का निर्णय लिया.
– निचली अदालत में सोनिया गांधी, राहुल गांधी समेत कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेताओं के हाजिर होने के आदेश पर हाइकोर्ट द्वारा रोक लगाने से मना कर देने के बाद संसद में कांग्रेस इसे राजनीतिक बदले की कार्रवाई कह कर विरोध कर रही है.
– अदालत ने कांग्रेसी नेतृत्व को 19 दिसंबर को सुनवाई में हाजिर होने का आदेश दिया़
– 19 दिसंबर को अदालत ने आरोिपतो को निजी मुचलके पर जमानत दे दी़