नये साल के सियासी समीकरण : 2015 के जनादेश से गंठबंधन की राजनीति के लिए उभरे
उर्मिलेश वरिष्ठ पत्रकार भारतीय राजनीति में गंठबंधन का हस्तक्षेप वर्ष 1967 के चुनाव से शुरू हुआ, जब अनेक राज्यों में संयुक्त विधान दल की सरकारें बनी थीं. पिछले ढाई दशक में गंठबंधन की राजनीति कई रूपों में हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया का अहम हिस्सा बनी. लेकिन, 2014 के लोकसभा चुनाव में मिले जनादेश के बाद कहा […]
उर्मिलेश
वरिष्ठ पत्रकार
भारतीय राजनीति में गंठबंधन का हस्तक्षेप वर्ष 1967 के चुनाव से शुरू हुआ, जब अनेक राज्यों में संयुक्त विधान दल की सरकारें बनी थीं. पिछले ढाई दशक में गंठबंधन की राजनीति कई रूपों में हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया का अहम हिस्सा बनी. लेकिन, 2014 के लोकसभा चुनाव में मिले जनादेश के बाद कहा जाने लगा था कि गंठबंधन की राजनीति का दौर अब अपने ढलान पर है. इस लिहाज से देखें तो 2015 में राजनीति ने फिर से करवट ली और बिहार के महत्वपूर्ण चुनाव में मुख्य मुकाबला ही दो गंठबंधनों के बीच था. 2015 के विभिन्न जनादेश से गंठबंधन की राजनीति के लिए क्या सबक और संदेश निकले, इस पर नजर डाल रहा है आज का वर्षांत विशेष.
मुझे 2016 के फ्रेम में राष्ट्रीय राजनीति की जो बड़ी तसवीर उभरती नजर आ रही है, उसमें कांग्रेस, जद (यू)-राजद, टीएमसी और आम आदमी पार्टी की महत्वपूर्ण भूमिका संभावित है.
करीब तीन दशक बाद मई, 2014 में नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भाजपा ने लोकसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत हासिल कर राष्ट्रीय राजनीति में नया अध्याय जोड़ा था. केंद्र में अपने बल पर बहुमत हासिल करनेवाली कांग्रेस के बाद वह दूसरी ऐसी पार्टी बनी. मोदी राष्ट्रीय राजनीति में ऐसे चमके कि अतीत के उनके सारे धब्बे मानो धुल गये. उन्होंने और उनके समर्थकों ने अगले 15 सालों तक सत्ता में बने रहने के सपने का सार्वजनिक तौर पर ऐलान किया, तब किसी ने उन्हें चुनौती भी नहीं दी. विपक्ष मात ही नहीं खाया था, मलिन भी हो गया था. लेकिन, महज नौ-दस महीने बाद दिल्ली के एक नाटकीय राजनीतिक घटनाक्रम ने मोदी और भाजपा के उस सियासी गुब्बारे में मानो पिन चुभो दी.
दिल्ली का जनादेश
फरवरी, 2015 में राष्ट्रीय राजधानी के प्रांतीय चुनाव में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने भाजपा को रौंद डाला. 70 सदस्यीय विधानसभा में ‘आप’ को 67 और भाजपा को सिर्फ 3 सीटें मिलीं, कांग्रेस शून्य हो गयी. दिल्ली में भाजपा के चुनाव प्रचार अभियान का नेतृत्व स्वयं प्रधानमंत्री मोदी ने किया था. दिल्ली की हार के बाद भाजपा ने यह कहते हुए अपनी राजनीतिक झेंप मिटायी कि यह बेहद स्थानीय स्तर के चुनाव थे, लोगों ने बिजली-पानी के नाम पर वोट डाले, इसके नतीजे का कोई खास मतलब नहीं, राष्ट्रीय राजनीति में इसकी अहमियत नहीं!
बिहार का जनादेश
अक्तूबर-नवंबर में बिहार के अति-महत्वपूर्ण चुनाव में भाजपा फिर हारी. बिहार में भाजपा के प्रचार का नेतृत्व स्वयं प्रधानमंत्री मोदी ने इस भविष्यवाणी के साथ किया कि इस साल राज्य में दो बार दीवाली मनायी जायेगी- एक दीवाली के दिन और दूसरी भाजपा की जीत के दिन. लेकिन मतदाताओं ने दूसरी दीवाली मनाने का मौका जद (यू)-राजद-कांग्रेस गंठबंधन को दे दिया. 2015 के इन दो बड़े चुनावी नतीजों ने भाजपा और मोदी के विजय-रथ को ही नहीं रोका, भाजपा के विरोधियों को क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर नयी एकजुटता की ठोस पहल करने के लिए भी मजबूर किया. तो क्या 2016 में ऐसा कुछ होता नजर आयेगा?
नये साल का परिदृश्य
नये साल में राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य कैसा होगा? अगर हम 2015 से उभरी तस्वीर पर गौर करें तो नयी राजनीतिक ताकत सिर्फ आम आदमी पार्टी है. जद (यू), राजद और कांग्रेस, तीनों पुराने सियासी खिलाड़ी हैं. लेकिन, आप सिर्फ दिल्ली और पंजाब तक सीमित है. अन्य राज्यों में उसका अभी खास आधार नहीं है.
विचारधारा और एजेंडे के स्तर पर भी वह अभी मध्यवर्गीय-निम्न मध्यवर्गीय जनाधार की पार्टी है. दिल्ली में उसे शहरी गरीबों ने भी वोट किया, पर देश के ग्रामीण गरीबों, दलित-आदिवासियों-पिछड़ों-अल्पसंख्यकों में अब तक उसके लिए कोई खास आकर्षण नहीं दिखता. ऐसे में यह सवाल महत्वपूर्ण हो जाता है कि क्या बिहार में भाजपा के रथ को रोकने में समर्थ हुआ गंठबंधन या उसका विस्तार ही मोदी के खिलाफ वैकल्पिक शक्तियों की धुरी बनेगा? पटना में नीतीश सरकार के शपथग्रहण समारोह में उमड़ी क्षेत्रीय-राष्ट्रीय नेताओं की भीड़ से भी ऐसे कयास लगाये गये. उस दिन पटना में गैर-भाजपा खेमे के नेताओं का बड़ा जमघट दिखा. उसमें वाम-दक्षिण-मध्यमार्गी उदार, हर सियासी रंग के नेता शामिल थे. कांग्रेस को छोड़ कर इनमें सभी दलों और उनके नेताओं का जनाधार क्षेत्रीय है.
तो सवाल उठता है कि मोदी की भाजपा के खिलाफ वैकल्पिक राजनीति की मजबूत धुरी इनमें से कौन बनेगा?
भाजपा के अंदर भी मोदी की भाजपा का विरोध पिछले कुछ समय से कुलबुला रहा है, लेकिन उस अंदरूनी कुलबुलाहट में बुजुर्गों का हिस्सा ज्यादा है. उनके साथ न तो वक्त है और न ही संगठन. मोदी की भाजपा के खिलाफ खड़े होने के लिए उनके पास सिर्फ यही एक रास्ता हो सकता है कि वे अन्य दलों की संभावित गोलबंदी का हिस्सा बनें. शायद, सभी भगवा-बुजुर्ग ऐसा करने का दुस्साहस नहीं करेंगे. ऐसी स्थिति में नये साल की चुनावी राजनीति का सबसे बड़ा सवाल यही है- 2016 में गैर-भाजपा खेमे की सियासी तस्वीर क्या होगी?
होंगे पांच राज्यों में चुनाव
नये साल में जिन राज्यों में चुनाव होने हैं, उनके राजनीतिक समीकरण एक जैसे नहीं हैं. कहीं भाजपा के खिलाफ मजबूत चुनौती कांग्रेस दे रही है, तो कहीं टीएमसी. शेष राज्यों में भाजपा चुनौती बनने लायक स्थिति में नहीं है. 2016 में जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, वे हैं- असम, बंगाल, केरल, तमिलनाडु और पुडुचेरी. सिर्फ असम ही एक ऐसा राज्य है, जहां भाजपा बड़ी ताकत बन कर उभर रही है. वहां उसका मुकाबला सत्तारूढ़ कांग्रेस से होगा. बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और वाम मोर्चे के बीच ही निर्णायक लड़ाई संभावित है.
संभव है कि कांग्रेस इस लड़ाई में तृणमूल के साथ जाये. स्थानीय निकाय चुनाव के नतीजों के आइने में बंगाल में भाजपा के लिए बड़ी संभावना नजर नहीं आती. दक्षिण के तीनों राज्यों में भाजपा अपनी राजनीतिक मौजूदगी दर्ज कराने के लिए संघर्ष में उतरेगी. इन राज्यों में सत्ता पर काबिज होने की महत्वाकांक्षा पालने लायक स्थितियां अभी भाजपा के लिए नहीं बनी हैं.
वैकल्पिक राजनीति की तसवीर
फिर वैकल्पिक राजनीति की क्या तसवीर हो सकती है? अगर बिहार के चुनाव में शानदार कामयाबी के बाद सत्तारूढ़ हुआ गंठबंधन अगले साल के मध्य तक राज्य में अपने बेहतर गवर्नेंस से लोगों को प्रभावित करता है, तो उसका सकारात्मक संदेश देश के अन्य राज्यों में भी जायेगा. ऐसी स्थिति में नीतीश कुमार की अगुवाई वाले मौजूदा गंठबंधन के प्रति राष्ट्रीय आकर्षण का बढ़ना लाजिमी होगा.
हिंदी पट्टी के राज्यों, खासकर उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और झारखंड में इससे कांग्रेस को भी फायदा होगा. लेकिन, बिहार में सत्तारूढ़ गठबंधन यदि अपने गवर्नेंस मॉडल से औरों के लिए कोई आकर्षण नहीं पैदा कर सका, तो भाजपा के खिलाफ नयी मोर्चेबंदी की संभावना कमजोर होगी. तब ले-देकर ‘कांग्रेस-वापसी’ का नारा ही मोदी की भाजपा के खिलाफ वैकल्पिकता का आधार बनने की स्थिति में होगा.
कांग्रेस के रणनीतिकार यही मान कर चल रहे हैं. उनका मानना है कि भाजपा और मोदी मानें-न-मानें, राहुल गांधी को देश गंभीरतापूर्वक ले रहा है. लेकिन भाजपा किसी भी कीमत पर राहुल गांधी को राजनीतिक तौर पर विश्वसनीय नहीं बनने देना चाहती. पार्टी को नेशनल हेराल्ड मामले के कानूनी पेंच के फैसले का बेसब्री से इंतजार है, जो निचली अदालत से 2016 में आ सकता है. रावर्ट बाड्रा के कथित जमीन घोटालों में राहुल को घसीटने की कोशिश जारी है.
उधर, मध्य या दक्षिण भारत में आज कोई ऐसा नेता नहीं दिखता जो राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा-विरोधी गोलबंदी की अगुवाई कर सके. शरद पवार ले-देकर राष्ट्रपति पद के अगले चुनाव में अपने नाम पर आम सहमति बनाने की कोशिश कर सकते हैं. हाल ही में उन्होंने विज्ञान भवन में आयोजित अपने जन्मदिन समारोह में सभी दलों के शीर्ष नेताओं को एक मंच पर उतारा था.
मौजूदा राजनीतिक घटनाक्रम, प्रधानमंत्री के तेवर और सरकार के कामकाज की दशा-दिशा से उभरते संकेत साफ हैं कि 2016 में मोदी और उनकी भाजपा की चुनौतियां कुछ कम नहीं होंगी. महंगाई, भ्रष्टाचार, कॉरपोरेट-समर्थक सरकारी नीतियों और संघ परिवार के उग्र सांप्रदायिक एजेंडे के चलते मोदी सरकार लगातार सवालों के घेरे में बनी रहेगी. अब तो उसके कुछ वरिष्ठ मंत्री भ्रष्टाचार के आरोपों के घेरे में भी आ चुके हैं.
तो ऐसा लगता है कि अच्छी सरकार-बेहतर शासन देने के बजाय संघ-संरक्षित मोदी की भाजपा का पूरा जोर भारतीय राष्ट्र-राज्य की मूल संकल्पना बदलने पर है. ऐसे में सामाजिक-राजनीतिक उथल-पुथल, असहिष्णुता और टकराव का माहौल और बढ़ेगा.
आर्थिक नीतियों, खास कर नवउदारवादी सोच के स्तर पर भाजपा के समतुल्य होने के बावजूद कांग्रेस सामाजिक-सामुदायिक स्तर पर उससे अलग सोच की पार्टी है. ऐसे में अनेक राज्यों में भाजपा से हताश और नाराज समुदायों का झुकाव उसकी तरफ होना लाजिमी होगा.
मुझे 2016 के फ्रेम में राष्ट्रीय राजनीति की जो बड़ी तस्वीर उभरती नजर आ रही है, उसमें कांग्रेस, जद (यू)-राजद, टीएमसी और आम आदमी पार्टी की महत्वपूर्ण भूमिका संभावित है.
चूंकि केंद्र की मौजूदा सरकार का ध्यान सुशासन से ज्यादा संघी-एजेंडे को लागू करने पर है, इसलिए मोदी की भाजपा आगे भी राजनीतिक गलतियां करते रहने के लिए अभिशप्त होगी. अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग राजनीतिक दल उसके खिलाफ खड़े होकर अवाम के असंतोष और असहमति को आवाज देंगे. कोई भी एक दल अपने बूते मोदी की भाजपा के खिलाफ वैकल्पिक मंच नहीं बन पायेगा. ऐसी स्थिति में ठोस एजेंडा-आधारित मोर्चेबंदी ही एकमात्र विकल्प है.
कामयाब नहीं हुआ वामपंथी गंठबंधन
बिहार विधानसभा के लिए 2010 में हुए चुनाव में तीन मुख्य वामपंथी दलों के बीच आपसी गंठबंधन नहीं था. तब उन्हें महज एक सीट से संतोष करना पड़ा था, जो भाकपा के खाते में गयी थी. 2015 के चुनाव में माकपा, भाकपा और माले ने संयुक्त रूप से चुनाव लड़ा और माले के तीन प्रत्याशी निर्वाचित हुए.
क्षेत्रीय दलों और कांग्रेस से दूरी बना कर वाम मोर्चा अपनी खोई हुई राजनीतिक जमीन वापस पाने की कोशिश में थी, पर उसे बड़ी कामयाबी हासिल नहीं हो सकी, क्योंकि उनके पास मजबूत संगठन नहीं था और चुनाव मुख्य रूप से महागंठबंधन और एनडीए के बीच का मुकाबला बन गया था.
बहरहाल, इस गंठबंधन को 3.5 फीसदी वोट मिले, जिनमें माले की 1.5, भाकपा की 1.4 और माकपा की 0.6 फीसदी हिस्सेदारी रही. निश्चित रूप से यह कवायद चुनावी से अधिक राजनीतिक था और वामपंथी पार्टियों, खास कर माकपा और भाकपा, के सामने साख बचाने की चुनौती थी. पिछले तीस सालों में मतों में इनकी हिस्सेदारी 10 फीसदी से गिर कर दो से 2.5 फीसदी रह गयी थी तथा इनके पारंपरिक क्षेत्रों में अन्य दलों से सेंध लगा दी थी.
इस चुनाव में माले और सीपीआइ ने 98-98 सीटों और माकपा ने 38 सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किये थे. अन्य सीटों पर फॉरवर्ड ब्लॉक, सोशलिस्ट यूनिटी सेंटर और रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी ने चुनाव लड़ा था. हालांकि, यह गंठबंधन चुनाव में या अब सरकार या भाजपा के लिए बड़ी चुनौती नहीं है, पर इससे यह उम्मीद तो की ही जा सकती है कि वाम मोर्चा अपनी विचारधारा और राजनीतिक सिद्धांतों के आधार पर आम जनता के बुनियादी मुद्दों को विधानसभा के अंदर और बाहर पूरी ताकत से उठायेगा.
बिहार के जनादेश में गठबंधन का गणित
– आंकड़ों और तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि जातीय ध्रुवीकरण नहीं, बल्कि खराब प्रचार रणनीति और आपसी तालमेल का अभाव एनडीए के लिए नुकसानदेह साबित हुआ.
बिहार चुनाव के परिणामों के विश्लेषण में विभिन्न गठबंधनों के प्रदर्शन के गणित को समझना आवश्यक है. इस चुनाव में तीन गठबंधन मैदान में थे- जनता दल (यूनाइटेड), राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और कांग्रेस का महागठबंधन; भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (हम), लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) और राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) का राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) तथा भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा), मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी-मार्क्सवादी-लेनिनवादी (माले) का वामपंथी गठबंधन. मुख्य मुकाबला महागठबंधन और एनडीए के बीच था, जिन्हें कुल मिलाकर 75.8 फीसदी मत मिले हैं.
वर्ष 2014 के आम चुनाव में एनडीए ने राज्य के 234 विधानसभा क्षेत्रों में से 172 में बढ़त प्राप्त की थी और उसे औसतन 39.4 फीसदी मत मिले थे. विधानसभा चुनाव में उसे हम के रूप में नया सहयोगी मिला, पर उसे महज 58 क्षेत्रों में ही जीत हासिल हुई. उसका औसत मत प्रतिशत 34 रहा. इस तरह 18 महीनों के अंतराल में उसे पांच फीसदी वोटों का नुकसान हुआ.
पिछले साल के लोकसभा चुनाव में राजद, कांग्रेस और नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) तथा जद (यू) ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था. तब इन सभी पार्टियों की कुल मतों में हिस्सेदारी 46 फीसदी रही थी. लेकिन, विधानसभा चुनाव में यह हिस्सेदारी कम होकर 41.8 फीसदी रह गयी थी. महागठबंधन में एनसीपी शामिल नहीं थी.
इस गणित से साफ है कि अगर एनडीए ने लोकसभा चुनाव के अपने मत प्रतिशत को बरकरार रखा होता, तो बिहार विधानसभा चुनाव में उसे जीत हासिल हो सकती थी. वर्ष 2010 के चुनाव में जद (यू)-भाजपा गठबंधन ने 243 सीटों में से 206 पर जीत दर्ज की थी, पर वोटों में उनकी हिस्सेदारी 39.1 थी.
यह विश्लेषण बताता है कि मतों के जोड़-घटाव ने नहीं, बल्कि खराब प्रचार अभियान के कारण एनडीए को हार का मुंह देखना पड़ा. इस बात को समझने के लिए भाजपानीत गठबंधन के आंतरिक हिसाब को देखते हैं.
एनडीए द्वारा जीती गयीं 58 में से 53 सीटें भाजपा को मिलीं हैं और शेष पांच अन्य तीन सहयोगी पार्टियों के खाते में गयी हैं. विधानसभा चुनाव में एनडीए की सफलता दर 23.9 फीसदी रही. भाजपा की दर जहां 33.8 फीसदी रही है, वहीं बाकी तीन दलों का आंकड़ा मात्र 5.8 फीसदी ही रहा था. भाजपा ने जिन 157 सीटों पर चुनाव लड़ा था, वहां 2014 में एनडीए की हिस्सेदारी 40.6 फीसदी थी, जबकि विपक्ष को 44.9 फीसदी मत मिले थे.
एनडीए के अन्य घटक दलों द्वारा लड़ी गयी 86 सीटों पर 2014 का औसत प्रतिशत 37.3 था, जबकि विपक्षी गठबंधन को 47.9 फीसदी वोट मिले थे. इससे साफ है कि एनडीए के गैर-भाजपा दल ऐसी सीटों पर लड़ रहे थे, जहां मुश्किलें बहुत बड़ी थीं. ऐसे में एनडीए की हार के लिए सीधे तौर पर उन्हें जिम्मेवार ठहराना पूरी तरह से सही नहीं होगा. इस तथ्य को अन्य आंकड़ों से भी बल मिलता है.
विधानसभा चुनाव में भाजपा की सीटों पर एनडीए का औसत 37.2 फीसदी है, जबकि अन्य घटक दलों की सीटों पर यह मात्र 28 फीसदी है. इससे यही संकेत मिलता है कि कई जगहों पर भाजपा समर्थकों ने घटक दलों के पक्ष में मतदान नहीं किया. बिहार की हार में भाजपा का अपने सहयोगी दलों से समस्याग्रस्त संबंध ने एनडीए की हार में बड़ी भूमिका निभायी. इन तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि जातीय ध्रुवीकरण नहीं, बल्कि खराब प्रचार रणनीति और आपसी तालमेल का अभाव एनडीए के लिए नुकसानदेह साबित हुआ. (विभिन्न विश्लेषणों पर आधारित)
कई दलों पर भारी पड़ा नोटा
निर्वाचन आयोग द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार, बिहार के 2.5 फीसदी मतदाताओं ने न सिर्फ गंठबंधनों को नकारा, बल्कि किसी अन्य दल या निर्दलीय उम्मीदवारों पर भी भरोसा नहीं जताया. वर्ष 2013 के विधानसभा चुनावों में देश में पहली बार नोटा के विकल्प को लागू किया गया था. तब पांच राज्यों के चुनावों में 1.5 फीसदी से कम मतदाताओं ने सभी उम्मीदवारों को खारिज किया था. इस लिहाज से बिहार के आंकड़े बहुत अधिक हैं और इनका महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है कि इस बार चुनाव में दो गठबंधनों के बीच मतों का पुख्ता ध्रुवीकरण हुआ था. बहरहाल, नोटा के वोट कुछ दलों को मिले मतों से कहीं अधिक हैं.
हम : एनडीए में शामिल पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी की पार्टी हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (सेकुलर) यानी हम को इस चुनाव में करीब 2.3 फीसदी मत मिले हैं. उसे तीन सीटें मिली हैं.
समाजवादी पार्टी : सीटों के बंटवारे से नाराज होकर महागठबंधन से अलग होनेवाली समाजवादी पार्टी को सिर्फ 1.1 फीसदी वोट मिले और एक भी सीट हाथ में नहीं आयी.
एआइएमआइएम : मीडिया में खूब हलचल मचा कर बिहार के चुनावी भंवर में कूदी असद्दुदीन ओवैसी की पार्टी को मात्र 0.6 फीसदी वोट मिले. हालांकि यह पार्टी मात्र छह सीटों पर ही चुनाव लड़ी थी.
भाकपा और माकपा : वाम मोर्चे की इन दो बड़ी पार्टियों को क्रमशः 1.5 और 0.6 फीसदी मत मिले. भाकपा ने 98 और माकपा ने 38 सीटों पर चुनाव लड़ा था. इन पार्टियों को कोई सीट नहीं मिल सकी.