बड़ी प्राकृतिक आपदा के संकेत : विदा हो रहे साल 2015 की कुछ घटनाओं ने दिये हैं
दुनू रॉय निदेशक, हैजर्ड्स सेंटर देश-दुनिया के वैज्ञानिकों को आशंका है कि अगले 10 या 20 सालों में हिमालयी क्षेत्र में एक भीषण भूकंप आयेगा. इससे हिमालय के अंदर की विशाल ऊर्जा के एक बार बाहर निकलने के बाद हिमालय फिर अगले 100-150 सालों के लिए शांत हो जायेगा. हाल के दशकों में आर्थिक विकास […]
दुनू रॉय
निदेशक, हैजर्ड्स सेंटर
देश-दुनिया के वैज्ञानिकों को आशंका है कि अगले 10 या 20 सालों में हिमालयी क्षेत्र में एक भीषण भूकंप आयेगा. इससे हिमालय के अंदर की विशाल ऊर्जा के एक बार बाहर निकलने के बाद हिमालय फिर अगले 100-150 सालों के लिए शांत हो जायेगा.
हाल के दशकों में आर्थिक विकास की रफ्तार बढ़ाने की कोशिशों के बीच जिस तरह से प्रकृति को भी अपने सांचे में ढालने की कोशिशें तेज हुई हैं, उसके नकारात्मक नतीजे अब सामने आने लगे हैं. बीत रहा साल 2015 ऐसी कई घटनाओं का गवाह बना, जिसमें प्रकृति के बढ़ते प्रकोप की आहट साफ पढ़ी जा सकती है.
हिमालयी क्षेत्र सहित पूरे उत्तर भारत में धरती का कई बार डोलना, खेती के लिए मौसम और मॉनसून का लगातार अनिश्चित होता जाना, देश में कहीं भीषण बाढ़ तो कहीं भीषण सूखे की आशंका बताते हैं कि प्रकृति से छेड़छाड़ की बजाय हमें अपनी विकास नीतियों को इसके अनुरूप बनाने की जरूरत है. प्राकृतिक घटनाओं के मद्देनजर 2015 से उभरे सबक और संकेत पर नजर डाल रहा है आज का वर्षांत विशेष.
प्राकृतिक घटनाओं के लिहाज से 2015 लोगों में समझ बढ़ाने में कुछ हद तक कामयाब रहा है. पेरिस में इसी माह आयोजित जलवायु परिवर्तन सम्मलेन से यह साबित होता है कि धीरे-धीरे इसके प्रति जागरूकता बढ़ रही है. तमिलनाडु में हालिया बारिश से हुई तबाही से लोगों ने सबक लिया है.
खासकर जो लोग इससे प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित हुए हैं, उनमें इस समस्या के प्रति जागरूकता ज्यादा बढ़ी है. अधिकारियों और सत्तारूढ़ वर्ग में भी इसकी समझ बढ़ रही है, लेकिन इस जागरूकता के बीच नीहित स्वार्थों और बाहरी दबावों की वजह से इस संबंध में कोई स्पष्ट कार्यक्रम नहीं बन पा रहा है, ताकि भविष्य में इस तरह की घटनाओं से बचा जा सके. इसमें मौजूद नीहित स्वार्थों में से ज्यादातर अर्थ (धन) से जुड़े हैं. लोग जान तो रहे हैं कि क्या होना चाहिए, लेकिन आर्थिक कारणों से लोगों को इसमें ज्यादा कुछ होता नजर नहीं आता.
सबसे गर्म वर्ष
संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक, 2015 अब तक का सबसे गर्म वर्ष रहा है. इसका प्रमुख कारण अलनीनो और ग्लोबल वॉर्मिंग बताया गया है. अलनीनो स्पष्ट रूप से हमारे यहां होनेवाली बारिश से जुड़ा है. भारत में मॉनसून की बारिश मूल रूप से इसी पर टिकी होती है. ग्लोबल वॉर्मिंग का असर अलनीनो पर पड़ रहा है और इससे हमारे देश में मॉनूसन की बारिश प्रभावित हो रही है.
इस पूरे परिदृश्य का असर हमारी खेती पर पड़ता है, जिससे जीडीपी प्रभावित होती है. जब अभी यह स्थिति है, तो भविष्य में बारिश का चक्र और बिगड़ने से समाज खुद को किस प्रकार समायोजित कर पायेगा, यह बड़ी चुनौती होगी.
अनियमित बारिश बनी चुनौती
देश में इस वर्ष बारिश का अनियमित चक्र देखा गया. मसलन मार्च में उत्तर-मध्य भारत में भारी बारिश, मॉनसून में अपेक्षाकृत कम बारिश, नवंबर-दिसंबर में दक्षिण में भारी बारिश आदि. ग्लोबल वॉर्मिंग के साथ इसके कारण को आसानी से जोड़ दिया जाता है, लेकिन यह सही नहीं है. हमें समझना होगा कि मॉनूसन कोई मशीन नहीं है, जो हर साल समय पर आयेगा और निर्धारित बारिश करके ही जायेगा.
हर साल इसमें घट-बढ़ हो सकती है और कृषि चक्र की तैयारी हमें उसी हिसाब से करनी चाहिए. प्राचीन काल में होनेवाली नैसर्गिक खेती में इन चीजों का ध्यान रखा जाता था. तब मौसम में बदलाव के हिसाब से खेती में भी बदलाव किया जाता था. लेकिन केमिकल खेती के दौर में इन चीजों पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है.
ऐसे में बारिश वक्त पर नहीं होने से खेती का पूरा चक्र बिगड़ने लगा है. मॉनसून सिस्टम में अभी और घट-बढ़ होगी. ग्लोबल वॉर्मिंग इस घट-बढ़ को और बढ़येगा. हमारे लिए बड़ी चुनौती होगी कि इस घट-बढ़ को कैसे समझें और उसके मुताबिक खेती के तरीके में किस तरह से बदलाव लायें.
खेती सिस्टम बदलना होगा
‘क्लाइमेट चेंज’ से भारत के कई इलाकों में भविष्य में सूखे की आशंका जतायी जा रही है. भारत में सूखे का पिछले 100-200 सालों का रिकॉर्ड देखने से पता चलता है कि करीब-करीब सभी दशक में सूखा पड़ा है. प्राचीन खेती के नैसर्गिक तरीकों में इसे सामान्य मान कर चला जाता था और उस हिसाब से तैयारी रहती थी. लेकिन 18वीं और 19वीं शताब्दी में परिदृश्य बदला.
अकाल के दौरान भरपूर तादाद में खाद्यान्न होने के बावजूद ब्रिटिश सरकार द्वारा अनाज न बांटने के कारण त्रासदी बढ़ी. इस मायने में हमने अब तक कोई खास उपलब्धि नहीं हासिल की है. गोदामों में रखे अनाज का इस्तेमाल सरकार निर्यात के लिए करना चाहती है, न कि भूखों का पेट भरने के लिए.
भयावह भूकंप के संकेत
हिमालयी क्षेत्र में इस वर्ष आये भयावह भूकंप किसी बड़ी आपदा के संकेत प्रतीत हो रहे हैं. वैज्ञानिक रूप से यह माना जाता है कि हिमालय में भीतरी प्लेटों के आपस में टकराने से लगातार पैदा होनेवाली ऊर्जा हिमालयी क्षेत्र में प्रत्येक 100-150 साल में व्यापक रूप से बाहर निकलती है. पिछले 30-40 सालों में हिमालय क्षेत्र में आये तीन या चार बड़े भूकंप रिक्टर स्केल पर सात-आठ के आसपास रहे हैं. इसका मतलब है कि अभी छोटे स्तर पर ही यह ऊर्जा बाहर निकल रही है.
चूंकि इन भूकंपों का स्तर नौ तक नहीं पहुंचा है, इसलिए यह आशंका जतायी जा रही है कि पूरी ऊर्जा अभी नहीं निकली है. देश-दुनिया के वैज्ञानिकों को आशंका है कि अगले 10 या 20 सालों में वह ऊर्जा एकसाथ बाहर निकलेगी और हो सकता है कि एक भीषण भूकंप आयेगा. इस विशाल ऊर्जा के एक बार बाहर निकलने के बाद हिमालय अगले 100-150 सालों के लिए शांत हो जायेगा.
(कन्हैया झा से बातचीत पर आधारित)
चेन्नई की बाढ़ से सबक लेना जरूरी
इस साल चेन्नई की बाढ़ ने शहरीकरण की हमारी मौजूदा प्रणाली पर कई सवाल खड़े किये हैं. इससे हमें सबक सीखना होगा. हमारे शहर पहले से ही पानी के विशाल स्रोतों के आसपास मसलन समुद्र तट या नदी के किनारे बसाये गये हैं, क्योंकि पानी से बड़ी शहरी आबादी की जलापूर्ति की जरूरत पूरी होने के साथ यातायात की सुविधा भी इसके माध्यम से मुहैया करायी जाती थी.
इन शहरों की बस्तियों में पानी के बहाव का भी ध्यान रखा जाता था. बहाव का रास्ता केवल सामान्य मौसम के लिए ही नहीं तय होता था, बल्कि बारिश में व्यापक पानी का बहाव किस ओर होगा, इसके इंतजाम भी किये जाते थे. इसके लिए खास रास्ता निर्धारित किया जाता था. पिछले दो-तीन दशकों में इन रास्तों पर इमारतें खड़ी कर दी गयीं या अन्य निर्माणकार्यों से इन्हें अतिक्रमित कर दिया गया. पानी के निकास के रास्ते को प्राथमिकता से बाहर कर दिया गया.
चेन्नई में अडयार नदी के बहाव वाले इलाके पर एयरपोर्ट बना दिया गया. नदी पर पुल बना कर हवाई पट्टी बनायी गयी और नदी के दोनों ओर एयरपोर्ट का विस्तार किया गया. हम प्रकृति को अपनी सहुलियत के हिसाब से चलाने की कोशिश कर रहे हैं, जबकि हमें समझना होगा कि प्रकृति हमारे हिसाब से नहीं चल सकती, हमें प्रकृति के नियमों के अनुसार चलना पड़ेगा.
प्रकृति का प्रकोप
देश में कहीं सूखा तो कहीं बारिश से तबाही
इस वर्ष जहां देश के अनेक जिले सूखे की चपेट में रहे, वहीं अनेक इलाकों में भारी बारिश ने खेती समेत उद्योग जगत को नुकसान पहुंचाया. इस साल मार्च महीने में हुई बेमौसमी बारिश ने उत्तर और मध्य भारत के कई इलाकों में रबी की फसल को तबाह कर दिया था.
विशेषज्ञों ने इसे वैश्विक स्तर पर होने वाले मौसम परिवर्तन का नतीजा बताया. बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश समेत देश के कई अन्य इलाकों में मॉनसून सीजन के दौरान औसत से कम बारिश हुई, जिससे खरीफ की फसल प्रभावित हुई. वहीं दूसरी ओर राजस्थान और गुजरात समेत पंजाब के अनेक इलाकों में भारी बारिश से जान-माल का नुकसान हुआ.
चेन्नई में बरपा बारिश का कहर
इस वर्ष नवंबर और दिसंबर में लगातार कई दिनों तक मूसलाधार बारिश होने के कारण भयावह बाढ़ ने चेन्नई समेत तमिलनाडु के कई इलाकों को अपनी चपेट में ले लिया. मौसम विभाग के मुताबिक, इस वर्ष नवंबर में चेन्नई में 1197 मिमी बारिश हुई, जबकि इससे पहले वर्ष 1918 में सर्वाधिक 1088 मिमी बारिश हुई थी. इस आपदा की विकरालता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि समूचा चेन्नई एयरपोर्ट जलमग्न हो गया था. चेन्नई में आयी इस आपदा में करीब 350 लोग मारे गये.
‘सेंटर फाॅर साइंस एंड एनवायर्नमेंट’ का कहना है कि आधुनिक विकास के क्रम में प्राकृतिक जलाशयों और जल निकाली वाले नालों का रास्ता रोक देने से यह स्थिति पैदा हुई है. सीएसइ की मुखिया सुनीता नारायण का कहना है कि दिल्ली, कोलकाता, मुंबई समेत देश के अन्य बड़े नगरों में निर्माण कार्य के समय बारिश के पानी के बहाव और प्राकृतिक जलाशयों पर समुचित ध्यान नहीं दिया जाता है. इस साल हुई इस घटना से शहरीकरण के लिए एक बड़ा सबक मिला है.
हिमालयी क्षेत्र में आ रहे भूकंप से तबाही के संकेत!
इस वर्ष अप्रैल माह में नेपाल में आये 7.9 की तीव्रता वाले भूकंप से समूचा उत्तर भारत हिल गया. खास तौर पर नेपाल से सटे राज्यों- बिहार, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश- में काफी तेज झटका महसूस किया गया. हालांकि, भारत में इसने कम तबाही मचायी और मृतकों की संख्या दहाई अंकों तक सीमित रही, लेकिन नेपाल में इससे करीब 10,000 लोग मारे गये. भारत में सबसे ज्यादा लोगों की मौत बिहार में हुई. इस भूकंप का केंद्र काठमांडू के निकट था और उस इलाके में ज्यादा जान-माल का नुकसान हुआ.
इस बड़े झटके के बाद अगले एक माह तक भूकंप के कई झटके आये, जिनमें से ज्यादातर का असर राजधानी दिल्ली समेत अनेक उत्तर भारतीय राज्यों तक देखा गया. पर्यावरण वैज्ञानिक इसे भविष्य की बड़ी बड़ी तबाही के संकेत मान रहे हैं. उधर, ‘नासा’ के वैज्ञानिकों का कहना है कि हिमालय की प्लेट के अपने स्थान पर प्रत्येक वर्ष कुछ उपर उठने के कारण ये भूकंप आ रहे हैं.
इसके अलावा, इसी माह झारखंड में आये भूकंप से भी प्रकृति विज्ञानी चिंतित हैं. हालांकि, इस भूकंप से कोई अनहोनी घटना नहीं घटी, लेकिन कहा जा रहा है कि भूकंप का केंद्र देवघर में होना ऐतिहासिक घटना है. इस वर्ष अक्तूबर में भी उत्तराखंड समेत दिल्ली में भूकंप के कई झटके महसूस किये गये.
भारत से जुड़ा है प्रमुख कारण
नेपाल में आये भूकंप का कारण भारत के टेक्टोनिक प्लेट से भी जुड़ा हुआ है, जो प्रत्येक वर्ष पांच सेंटीमीटर की दर से उत्तर यानी मध्य एशिया की ओर खिसक रहा है. इसका असर हिमालय पर्वत शृंखला तक हो रहा है. वर्ष 1905 में कांगड़ा इलाके में 7.5 तीव्रता, 1934 में बिहार में आये 8.2 तीव्रतावाले और कश्मीर में 2005 में आये 7.6 तीव्रतावाले भूकंप कारण भी यही था. अमेरिकी जियोलॉजिकल सर्वे की रिपोर्ट के मुताबिक, दुनियाभर में प्रत्येक वर्ष 13 लाख से ज्यादा बार भूकंप आते हैं, लेकिन उनमें से लगभग 15 ही महज ऐसे होते हैं, जिनकी तीव्रता 7.0 से ज्यादा होती है.
राजधानी की हवा जहरीली
दिल्ली की हवा दिन-ब-दिन प्रदूषित होती जा रही है. इस साल एक अध्ययन में यह साबित हुआ कि यहां सांस लेना दिनभर में 30 सिगरेट पीने के समान है. धुंध में लिपटी यहां की हवा इस साल और भी जहरीली हो चुकी है.
दिल्ली हाइकोर्ट ने इस पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि प्रदूषण का स्तर इमरजेंसी लेवल तक जा पहुंचा है. दिल्ली के वातावरण में नाइट्रोजन आक्साइड, ओजोन, बेंजीन, कार्बन मोनोआॅक्साइड और सल्फर डाइआॅसाइड के जहरीले काॅकटेल के अलावा आसानी से फेफडों में पहुंचने वाले पार्टिकुलेट मैटर का घना बादल अकसर छाया रहता है. प्रदूषण को रोकने के लिए इस वर्ष हाइकोर्ट में अनेक मामलों पर सुनवाई की गयी.
हाल ही में हाइकोर्ट के एक जज ने इस पर टिप्पणी करते हुए कहा, ‘लग रहा है कि दिल्ली गैस चेंबर में तब्दील हो चुकी है.’ हालांकि, इस समस्या से निबटने के लिए समग्रता से योजना नहीं बन रही. जहां एक ओर डीजल से चलनेवाली गाडियों पर रोक लगाने की कवायद की जा रही है, वहीं दूसरी ओर अगले वर्ष के पहले दिन से कारों के लिए राजधानी की सड़कों पर सम-विषम का फार्मूला अपनाने की चर्चा है.
पेरिस में जलवायु परिवर्तन सम्मेलन
फ्रांस की राजधानी पेरिस में इसी माह आयोजित जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में धरती पर होने वाले कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने की प्रतिबद्धता जतायी गयी. इस शिखर सम्मेलन में 195 देशों के राष्ट्रप्रमुखों, राष्ट्राध्यक्षों, प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया और इस संबंध में किये गये करार पर हस्ताक्षर किया.
इस साल पर्यावरण शिखर सम्मेलन का लक्ष्य ग्लोबल वॉर्मिंग में वृद्धि की दर को औद्योगिक क्रांति के पहले के स्तर से 2 डिग्री सेल्सियस तक रोकना है. इस सीमा से आगे बढ़ने पर बाढ़, तूफान और बढ़ते समुद्री जल स्तर का सामना कर रही धरती पर जीवन के लिए मुश्किलें पैदा होने लगेंगी. क्योटो प्रोटोकॉल में भरी गयी हामी के मुताबिक वैश्विक तापमान पर पेरिस सम्मेलन में देशों के बीच कानूनी समझौते की कोशिश है.
हाल के दशकों का सबसे गर्म साल रहा 2015
दुनियाभर के देशों ने भीषण गर्मी का प्रकोप बढ़ रहा है. भारत भी इससे अछूता नहीं है. इस वर्ष देश के महज दो राज्यों में गरमी से 2,187 लोगों की मौत हुई. देशभर में यह आंकड़ा जून माह के दौरान ही 2,300 को पार कर गया था. सबसे ज्यादा मौतें आंध्र प्रदेश (1,636) और तेलंगाना (541) में हुईं. वैज्ञानिकों ने कहा है कि अल नीनो का असर बढ़ने से यह वर्ष अब तक का सबसे गर्म वर्ष साबित हो सकता है. कई अध्ययनों में इस बात की तसदीक की गयी है.
वर्ष 1906 से 2005 के बीच के रिकॉर्ड के आधार पर इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आइपीसीसी) की वर्ष 2014 की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि वैश्विक तापमान में 0.74 डिग्री वृद्धि हुई. 20वीं सदी में तापमान 0.9 डिग्री तक बढ़ गया है. आइआइटी बंबई के एक शोध दल ने भी आइपीसीसी की रिपोर्ट की पुष्टि की है. ‘रिजनल एनवायर्नमेंटल चेंज’ पत्रिका में छपी इस शोध रिपोर्ट में कहा गया है कि तापमान इसी तरह बढ़ता रहा, तो मानव जीवन के साथ-साथ पारिस्थितिकी तंत्र का अस्तित्व भी खतरे में पड़ जायेगा.
पहले से ही पेयजल, बिजली और प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव झेल रहे भारत जैसे देश के लिए यह किसी अभिशाप से कम नहीं होगा. अमेरिकी मौसम विभाग ने भी कहा है कि ‘अल नीनो’ का प्रभाव बढ़ रहा है. प्रशांत क्षेत्र के साथ-साथ दुनिया के अन्य हिस्सों में भी इसका असर दिखेगा. इसके असर से वर्ष 2015 अब तक का सबसे गर्म वर्ष साबित हो सकता है.