Loading election data...

साल की विदाई वेला में मोदी के मास्टरस्ट्रोक से खुलेंगे दोस्ती के नये आयाम

काबुल से दिल्ली लौटने के क्रम में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को जन्मदिन की बधाई देने के बहाने लाहौर जाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कूटनीति का ऐसा दावं चला है, जिसके भविष्य में दोनों पड़ोसी देशों के रिश्तों पर चाहे जो असर हों, तत्काल पूरी दुनिया में यह महत्वपूर्ण संदेश गया कि भारत बेहतर […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | December 27, 2015 5:00 AM
काबुल से दिल्ली लौटने के क्रम में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को जन्मदिन की बधाई देने के बहाने लाहौर जाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कूटनीति का ऐसा दावं चला है, जिसके भविष्य में दोनों पड़ोसी देशों के रिश्तों पर चाहे जो असर हों, तत्काल पूरी दुनिया में यह महत्वपूर्ण संदेश गया कि भारत बेहतर रिश्ते और बातचीत को लेकर संजीदा है. दुनिया भर के ज्यादातर प्रेक्षक इस यात्रा की अहमियत को इसी नजरिये से देख रहे हैं.
फिलहाल इतना तो माना ही जाना चाहिए कि साल 2015 की विदाई वेला में प्रधानमंत्री मोदी का यह मास्टरस्ट्रोक दोनों देशों के रिश्तों की तल्खियों को कुछ समय के लिए ही सही, कम जरूर कर गया है. इस संक्षिप्त, किंतु महत्वपूर्ण दौरे के साथ-साथ भारत-पाकिस्तान संबंधों की आगामी संभावनाओं पर केंद्रित है आज का समय…
कमर आगा
अंतरराष्ट्रीय राजनीति विशेषज्ञ
अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों में पिछले कुछ महीनों में काफी बदलाव आया है. इस बदलाव का एक दबाव भी बना है कुछ देशों पर कि वे आतंकवाद से लड़ने को लेकर तैयार हों. अब देखना यह है कि पाकिस्तानी सरकार और सेना पर भी यह दबाव कितना काम करता है…
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का रूस से सीधे अफगानिस्तान और फिर पाकिस्तान का दौरा एक उम्मीद जगानेवाला दौरा कहा जा सकता है. हालांकि, अभी यह उम्मीद कैसी और किस दिशा में होगी, यह कहना जल्दबाजी होगी, क्योंकि अभी तो रिश्तों को और विस्तार लेना है. फिर भी इस दौरे से देश को एक ब्रेकथ्रू की उम्मीद है, क्योंकि ऐसा लगता है कि बिना किसी सटीक योजना या आश्वासन के मोदी पाकिस्तान नहीं जाते.
यह आश्वासन क्या है, योजना क्या है, इसके बारे में मोदी या नवाज शरीफ दोनों में से किसी ने अभी जाहिर नहीं किया है और न ही इसकी कोई आधिकारिक घोषणा ही हुई है. हम सिर्फ दोनों नेताओं के गर्मजोशी से मिलने और उनके सकारात्मक रवैये से यही अंदाजा लगा सकते हैं कि भारत-पाक संबंधों में अब जरूर कोई नया आयाम देखने को मिलेगा, जिससे दोनों देशों के आपसी मसलों को हल करने में कुछ मदद मिलेगी.
पाकिस्तान के रुख का इंतजार
मौजूदा पाकिस्तान दो हिस्सों में बंटा हुआ है. एक हिस्से में उसकी आर्मी है, तो दूसरे हिस्से में वहां के कट्टर धार्मिक संस्थाएं हैं. ये दोनों अपने-अपने तरीके से काम करते हैं. इन दोनों के बीच में पाकिस्तान की जनता है, जो यह चाहती है कि भारत-पाक रिश्ते सुधर जायें और आतंकवाद पर लगाम लगे. लेकिन, पाक आर्मी और कट्टर धार्मिक संस्थाएं कभी यह नहीं चाहतीं कि भारत-पाक रिश्ते सुधरें. इसलिए एक बड़ा सवाल यहां उठता है कि मोदी जी की इस गर्मजोशी भरी पहल काे आगे आनेवाले दिनों में पाकिस्तानी सरकार, जनता और सेना का कितना सहयोग मिलेगा. दूसरी बात यह है कि अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों में पिछले कुछ महीनों में काफी बदलाव आया है.
इस बदलाव का एक दबाव भी बना है कुछ देशों पर कि वे आतंकवाद से लड़ने को लेकर तैयार हों. अब देखना यह है कि पाकिस्तान की सरकार और सेना पर यह दबाव कितना काम करता है. वह बातचीत को कहां तक लेकर जाता है. अमेरिका ने मोदी के इस बोल्ड स्टेप का स्वागत किया है. ऐसे में यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि पाकिस्तान पर अघोषित रूप से यह दबाव काम करे.
अब आगे के बारे में ही सोचें
मोदी के इस दौरे के बाद बहुत कुछ शुरू हो चुका है. मसलन, बहुत जल्द भारत-पाक के बीच सचिव स्तर की वार्ता हो सकती है. सचिव स्तर की वार्ता के बाद दोनों देशों के विदेश मंत्रियों की मुलाकात होगी, बैठक होगी. उसके बाद सार्क सम्मेलन में दोनों देशों के प्रधानमंत्री मिलेंगे और पारस्परिक संबंधों को बहाल करने को लेकर दोनों के बीच सार्थक बातचीत की उम्मीद है.
नरेंद्र मोदी शुरू से ही दक्षिण एशिया पर काफी जोर देते रहे हैं. उनका मानना है कि इकोनॉमिक इंटीग्रेशन के लिए यह बहुत जरूरी है दक्षिण एशिया से हमारे काफी अच्छे संबंध हों. इस संबंध को बहाल करने के लिए पाकिस्तान बहुत महत्वपूर्ण है हमारे लिए. दरअसल, ईरान और मध्य एशिया से भारत के जुड़ाव को पाकिस्तान ने ही रोक रखा है.
अब अंतरराष्ट्रीय दबाव के बाद हो सकता है कि पाक सेना और सरकार कोई ठोस निर्णय ले, जिससे दक्षिण एशिया से हमारी नजदीकियां निकट भविष्य में दूरगामी परिणाम लेकर आयें. कुल मिला कर भारत और पाकिस्तान दोनों देशों के लिए यह एक अच्छा मौका है कि पुरानी चीजों पर बहस करने के बजाय आगे बढ़ने के बारे में सोचें.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
मोदी के कार्यकाल में भारत-पाक संबंध
पिछले वर्ष मई में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा सत्ता की बागडोर संभालने के बाद से अनेक कोशिशों के बावजूद दोनों देशों के संबंध सामान्य नहीं हो सके हैं. तब से अब तक के महत्वपूर्ण घटनाक्रमों पर एक नजरः
– मई, 2014 : पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ प्रधानमंत्री मोदी के शपथ-ग्रहण समारोह में शामिल हुए और दोनों नेताओं के बीच शिखर बैठक भी हुई. शरीफ ने सद्भावना प्रदर्शित करते हुए पाकिस्तान में कैद 151 भारतीय मछुआरों को रिहा किया.
– अगस्त, 2014 : एक वरिष्ठ पाकिस्तानी राजनयिक की कश्मीरी अलगाववादियों से मुलाकात के बाद इसलामाबाद में तय विदेश मंत्रियों की बैठक रद्द कर दी गयी.
– नवंबर, 2014 : सार्क सम्मेलन के दौरान दोनों प्रधानमंत्रियों की काठमांडू में मुलाकात, लेकिन कोई द्विपक्षीय शिखर वार्ता नहीं हुई.
– मई, 2015 : मोदी सरकार के एक साल के कार्यकाल में युद्धविराम उल्लंघन के 500 से अधिक मामले दर्ज हुए. डेढ़ दशक में सबसे ज्यादा.
– जून, 2015 : बांग्लादेश के दौरे में प्रधानमंत्री मोदी के बयान से पाकिस्तान में नाराजगी.
– जुलाई, 2015 : दोनों देशों के प्रधानमंत्री रूस के ऊफा शहर में मिले और घंटे भर से अधिक समय तक बातचीत की. इस दौरान सीमा सुरक्षा और इंटेलिजेंस सूचनाओं के आदान-प्रदान पर चर्चा हुई.
– दिसंबर, 2015 : पेरिस में दोनों नेताओं की संक्षिप्त बातचीत के कुछ दिन बाद मोदी लाहौर पहुंचे और शरीफ से मुलाकात की. वर्ष 2004 में वाजपेयी की यात्रा के बाद यह भारत के प्रधानमंत्री की पहली पाकिस्तान यात्रा थी.
महत्वपूर्ण यह है कि अब बात हो रही है
अब्बास नासिर – पाकिस्तानी अखबार डाॅन के पूर्व संपादक
लो गों को शक-ओ-सुबहा का अधिकार है, पर नरेंद्र मोदी की पाकिस्तान यात्रा सकारात्मक दिशा में एक कदम है. हालत यह थी कि दोनों देशों ने महीनों से एक-दूसरे से बातचीत नहीं की थी.
फिर अचानक पेरिस में मुलाकात हुई, कुछ दिन बाद बैंकॉक में वार्ता हुई. फिर भारतीय विदेश मंत्री इसलामाबाद पहुंचीं. इसलिए, मोदी की यात्रा का निश्चित रूप से सांकेतिक मूल्य है. इससे कुछ ठोस पहल सामने नहीं आयेगी, लेकिन यह महत्वपूर्ण है और दोनों प्रधानमंत्रियों का एक-दूसरे का हाथ पकड़े चलते और मुस्कुराते देखना सुखद है. अगले महीने विदेश सचिवों की बैठक कोई आश्चर्य की बात नहीं है.
इस प्रकरण में दिलचस्प यह है कि कूटनीतिज्ञ आगे बढ़ रहे हैं और बातचीत आतंकवाद से जुड़ी चिंताओं से अधिक विदेश नीति से संबंधित मुद्दों पर केंद्रित होगी. यह बहुत महत्वपूर्ण है. दोनों देशों के बीच बड़ी लंबी सीमा है और ये तीन युद्ध लड़ चुके हैं, इसलिए यह बहुत ठोस बात है कि इनके बीच बातचीत हो रही है.
बातचीत के एजेंडे में कश्मीर एक मुख्य मुद्दा रहा है. कश्मीर को पीछे रखने का आग्रह भारत की ओर से आया है, पर पाकिस्तान ने इसे प्रमुख मसला बनाने का फैसला किया है.
पाकिस्तान सरकार व्यापार के विकास जैसे मामलों पर बात करना पसंद करेगी, परंतु किसी भी वार्ता में राष्ट्रीय सुरक्षा प्रतिष्ठानों की भूमिका को कमतर नहीं आंका जाना चाहिए. वे किसी भी सरकार को कश्मीर को पीछे रख कर बातचीत आगे नहीं बढ़ाने देंगे.
(अलजजीरा से)
उन्मादी और नकारात्मक तत्व धूल चाटते नजर आये
महबूब मोहसिन – द नेशन, पाकिस्तान
‘पा किस्तान के दिल’ लाहौर में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 150 मिनट की यात्रा ने सभी को आश्चर्य में डाल दिया है. पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को उनके 66वें जन्मदिन की बधाई देने आये प्रधानमंत्री मोदी के दौरे से सीमा के दोनों तरफ के उन्मादी और नकारात्मक तत्व धूल चाटते नजर आये.
पेरिस में दोनों नेताओं की मुलाकात, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की बैठक और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का हालिया इसलामाबाद दौरा जैसी पहलों के बाद कोई भी कह सकता है कि परस्पर संबंध सही दिशा में बढ़ रहे हैं. पर, मोदी की इस अचानक जन्मदिन कूटनीति ने इसे तेज गति दी है. हालांकि, हर बात में दोष ढूंढ़नेवाले दोनों तरफ के तत्वों ने इस दौरे को ‘बेमतलब’ कहा. बहरहाल, अगर हम थोड़ा ठहर कर सोचें, तो इससे किसी नयी पहल की उम्मीद नहीं थी, पर उस दिशा में बढ़े किसी भी कदम का स्वागत किया जाना चाहिए.
सीमा के दोनों तरफ चिल्लाती आवाजों से यही साबित होता है कि अगर आप मीडिया के हाथ में खेलेंगे, तो वे खेल खराब कर देंगे. इस यात्रा की उपलब्धि उसका आखिरी मिनट में तय होना है.
अगर मीडिया और शांति-विरोधी गुटों को इसकी भनक पहले लग जाती, तो वे अपने देशभक्ति के घोड़े दौड़ा कर इसे बेअसर कर देते. और तब पाकिस्तान के विदेश सचिव एजाज अहमद चौधरी का यह बयान भी शायद नहीं आता कि दोनों नेताओं ने बातचीत की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने का फैसला लिया है और अगले महीने इस्लामाबाद में विदेश सचिवों की बैठक पर सहमति बनी है. गुपचुप कूटनीति के पैरोकार सही कहते हैं कि निजी मेहमानखाने सम्मेलनों के लिए सबसे बेहतर जगह होते हैं. हम उम्मीद कर सकते हैं कि यह निकटता यहीं तक सीमित नहीं होगी और अर्थपूर्ण बातचीत आगे भी जारी रहेंगे.
(द नेशन से)
भारत-पाक संबंध जो आपको जानना चाहिए
– 1947 : ब्रिटेन ने भारतीय उप-महाद्वीप को दो भागों में बांटते हुए उन्हें क्रमश: 14 अगस्त (पाकिस्तान) और 15 अगस्त (भारत) को आजाद मुल्क घोषित किया. इस विभाजन से एक बड़ी शरणार्थी समस्या पैदा होने के साथ दोनों देशों में दंगे और हिंसा की व्यापक घटनाएं हुईं.
– 1947-48 : पाकिस्तान के उत्तरी पश्चिमी सीमांत प्रांत से हथियारबंद आदिवासियों के वेष में पाकिस्तान सेना के कश्मीर में घुसपैठ से भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध ठन गया. अक्तूबर, 1947 में पाकिस्तान की ओर से हमला होने पर कश्मीर के महाराजा ने भारत से मदद मांगी और रक्षा, संचार समेत विदेश मामलों को उन्होंने भारत सरकार को सौंप दिया. संयुक्त राष्ट्र के हस्तक्षेप के बाद एक जनवरी, 1949 को आधिकारिक रूप से इस युद्ध को बंद करने की घोषणा की गयी. जम्मू-कश्मीर के करीब एक-तिहाई हिस्से पर पाकिस्तान का कब्जा हो गया.
– 1957 : जम्मू-कश्मीर विधानसभा ने संविधान को मंजूरी दी. जम्मू-कश्मीर को भारत का अभिन्न हिस्सा करार दिया गया.
– 1963 : भारत और पाकिस्तान के विदेश मंत्रियों (स्वर्ण सिंह व जुल्फिकार अली भुट्टो) ने ब्रिटिश और अमेरिकी देख-रेख में कश्मीर विवाद को निबटाने पर सहमति जतायी. हालांकि, इन बैठकों से कोई नतीजा नहीं निकला और और मामला जस का तस रहा.
– 1964 : वर्ष 1963 में हुई बातचीत के विफल होने के कारण पाकिस्तान कश्मीर मामले को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में लेकर गया.
– 1965 : भारत और पाकिस्तान के बीच दूसरी बार युद्ध छिड़ गया. गुजरात में कच्छ के रण इलाके में अप्रैल में पेट्रोलिंग दस्तों से शुरू हुई लड़ाई कश्मीर तक पहुंच गयी. अगस्त में पाकिस्तान की सेना द्वारा कश्मीर के चिह्नित इलाकों में युद्धविराम का उल्लंघन करने पर भारतीय सेना ने मोरचा संभाला. अंतरराष्ट्रीय सीमा को पार कर भारतीय सेना सितंबर में लाहौर तक पहुंच गयी. संयुक्त राष्ट्र के हस्तक्षेप से 22 सितंबर को दोनों देशों के बीच एक बार फिर युद्धविराम का समझौता हुआ.
– 1966 : भारतीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री और पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान ने ताशकंद में समझौते पर हस्ताक्षर किये. इसमें दोनों देशों के सेनाओं की तैनाती अगस्त से पहले की तरह कायम रखे जाने पर सहमति बनी. साथ ही आर्थिक और रणनीतिक संबंधों की बहाली पर भी जोर दिया गया.
– 1971 : पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) के मसले पर दोनों देशों के बीच युद्ध हुआ. भारत पूर्वी पाकिस्तान के समर्थन में आगे आया और पाकिस्तान की सेना को मुंह की खानी पड़ी. भारत ने पाकिस्तान के 90,000 से ज्यादा सैनिकों को हथियार डालने के लिए मजबूर कर युद्धबंदी बना लिया और आधुनिक इतिहास का सबसे कम दिनों का समझे जानेवाला यह युद्ध 13 दिनों में खत्म हो गया. नतीजन छह दिसंबर को बांग्लादेश का स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में उदय हुआ.
– 1972 : भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो के बीच शिमला समझौते के दौरान दोनों देशों के बीच शांतिपूर्ण तरीकों से आपसी संबंधों को बढ़ावा देने पर बल दिया गया.
– 1988 : दोनों देशों ने परमाणु कार्यक्रमों से संबंधित सूचनाओं के आदान-प्रदान पर सहमति जतायी और ऐसे इलाकों पर हमला नहीं करने की संधि पर हस्ताक्षर किये.
– 1989 : पाकिस्तान की ओर से कश्मीर घाटी में विद्रोहियों को हथियार मुहैया कराने और अलगाववाद को प्रोत्साहित करने के आरोप में भारत ने कश्मीर घाटी में सेना की संख्या में वृद्धि की.
– 1992 : दोनों देशों के बीच रासायनिक हथियारों के इस्तेमाल की पाबंदी पर नयी दिल्ली में करार पर हस्ताक्षर किये गये.
– 1996 : नियंत्रण रेखा पर बढ़ते तनावों के बीच दोनों देशों के सैन्य अधिकारियों के बीच बैठक.
– 1998 : भारत ने पोकरण में परमाणु परीक्षण किया. पाकिस्तान की ओर से भी ऐसे परीक्षण का दावा किया गया. दोनों देशों ने लंबी दूरी की मिसाइलों का परीक्षण किया.
– 1999 : भारत के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और पाक के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के बीच लाहौर में आपसी विश्वास बहाली पर समझौता हुआ. दोनों देशों के परमाणु क्षमता हासिल करने के बाद पहली बार करगिल में युद्ध हुआ. अक्तूबर में पाकिस्तान सेना के प्रमुख जनरल परवेज मुशर्रफ ने नवाज शरीफ को अपदस्थ करते हुए सत्ता पर कब्जा जमाया.
– 2001 : अटल बिहारी वाजपेयी और जनरल परवेज मुशर्रफ के बीच आगरा में वार्ता, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला.
– 2004 : इसलामाबाद में आयोजित सार्क सम्मेलन के दौरान वाजपेयी और मुशर्रफ के बीच सीधी वार्ता. दोनों देशों के बीच विदेश सचिवों की वार्ता के बाद से नियमित बातचीत पर सहमति बनी.
– 2006 : हालात में सुधार को देखते हुए भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर से 5,000 सेना वापस बुला लिये, लेकिन सियाचिन ग्लेशियर पर दोनों देशों की सेना मुस्तैद रही.
– 2008 : मुंबई में ताज होटल पर आतंकी हमला. बड़ी संख्या में लोगों की मौत हुई. जिंदा पकड़े गये एकमात्र आतंकवादी अजमल आमिर कसाब के लश्कर-ए-तैयबा का आतंकवादी होने की बात सामने आयी. इसके बाद दोनों देशों के संबंधों में फिर से खटास आ गयी.
– 2009 : मिस्र के शर्म अल-शेख में एक सम्मेलन के दौरान प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी के बीच वार्ता. मुंबई हमलों के संबंध में पाकिस्तान को दस्तावेज दिये गये.
– 2010 : नियंत्रण रेखा पर दोनों ओर से गोलीबारी से एक बार फिर तनाव. अजमल कसाब को फांसी की सजा सुनायी गयी.
– 2012 : कसाब को फांसी.
– 2013 : करीब पूरे वर्ष सीमा पर जारी गोलीबारी के दौरान कई भारतीय सैनिक शहीद. सितंबर में न्यू यॉर्क में दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों के बीच मुलाकात.
– 2014 : पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल राहील शरीफ ने कश्मीर को पाकिस्तान का हिस्सा बताते हुए संयुक्त राष्ट्र की निगरानी में इस मसले को सुलझाने की कवायद की.
नया साल भरेगा भारत-पाक दोस्ती में एक नया रंग
प्रभात कुमार रॉय
पूर्व सदस्य, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार परिषद
नरेंद्र मोदी वस्तुतः राजीव गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह के समय की कूटनीतिक परंपरा को ही और तेजी से आगे बढ़ाना चाहते हैं, जिसका एकमात्र मकसद दोनों देशों के बीच तल्खी को कम करके आपसी रिश्तों को दुश्मनी से दोस्ती की तरफ ले जाना है. यह कूटनीतिक काम मुश्किल अवश्य है, किंतु नामुमकिन बिल्कुल नहीं. आज के दौर में तो क्यूबा और अमेरिका जैसे कट्टर दुश्मन रहे देश दोस्त बन रहे हैं. फिर भारत और पाकिस्तान तो एक ही परिवार के देश हैं.
नरेंद्र मोदी ने गजब की पहल करके नवाज शरीफ के जन्मदिन के जश्न को विस्मयकारी तरीके से एक कूटनीतिक अवसर में तब्दील कर दिया. काबुल से दिल्ली लौटते हुए लाहौर में शरीफ के निवास पर मोदी ने भारतीय प्रतिनिधिमंडल के 11 सदस्यों के साथ अपना मनपसंद भोज खाया. बिना किसी पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के इस तरह अचानक लाहौर पहुंच कर नरेंद्र मोदी ने पूरी दुनिया को अचंभित कर दिया. लाहौर के अल्लामा इकबाल हवाई अड्डे पर खुद उपस्थित होकर जिस गर्मजोशी के साथ नवाज शरीफ ने नरेंद्र मोदी का खैर-मकदम किया, उसके संकेत तो यही हैं कि दोनों शख्सीयतों के मध्य दोस्ताना रिश्ते बन चुके हैं.
अब यह तो आनेवाला वक्त ही बतायेगा कि नवाज शरीफ और नरेंद्र मोदी के मध्य कायम हो चुका दोस्ती का यह नाता भारत और पाकिस्तान के बेहद बिगड़े हुए रिश्तों को कितना दुरुस्त कर पाता है. इससे पहले ऊफा में किये गये एलान ने भी दोनों देशों के रिश्तों में निकटता की उम्मीद जगा दी थी. हालांकि, वह फलीभूत नहीं हो सका. अब साल 2015 जाते-जाते एक नयी उम्मीद जगा कर जा रहा है कि शायद आनेवाला वर्ष 2016 भारत और पाकिस्तान के रिश्तों कोई नया रंग भरेगा.
मनमोहन ने किये थे गंभीर प्रयास
मनमोहन सिंह ने पूरी सदाशयता के साथ भारत और पाकिस्तान के रिश्तों को सुधारने की पहल अंजाम दी थी. सिंह ने पहले 2005 और फिर 2011 में पाकिस्तान के साथ भारत के तल्ख रिश्तों को दोस्ताना बनाने का गंभीर प्रयास किया था. 2007 में मनमोहन सिंह ने फरमाया था कि वह ‘नाश्ता अमृतसर में, लंच लाहौर में और डिनर काबुल में करना चाहेंगे!’ दुर्भाग्यवश मनमोहन सिंह अपने 10 वर्ष के कार्यकाल में पाकिस्तान नहीं जा सके. वह पाकिस्तान में अपने पैतृक गांव जाने की हसरत भी पूरी नहीं कर सके.
अब तक की कवायद नाकाम
अब सवाल यह है कि दिसंबर, 2015 में पेरिस में जलवायु सम्मेलन के दौरान नवाज शरीफ और नरेंद्र मोदी की केवल 160 सेंकेंड की मुलाकात के बाद लाहौर में नवाज शरीफ के निवास पर दो घंटों की निजी मुलाकात मुस्तकबिल में क्या नया इतिहास रच सकेंगे? इतिहास पर गौर करें, तो अटल बिहारी वाजपेयी और नवाज शरीफ के बीच भी तकरीबन इसी तरह के गर्मजोशी भरे निजी संबंध कायम हो चुके थे.
लेकिन, तब पाकिस्तान की राजसत्ता की अंदरूनी पांतों में एक स्वयंभू राजसत्ता के तौर पर स्थापित पाकिस्तानी फौज की साजिशों ने नवाज शरीफ की हुकूमत का तख्तापलट कर अटल बिहारी वाजपेयी एवं नवाज शरीफ की कूटनीतिक पहल पर पानी फेर दिया. हालांकि, समस्त नाकामी के बावजूद अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी कोशिश जारी रखी और करगिल आक्रमण के रचनाकार तथा नवाज शरीफ का तख्ता पलट अंजाम देनेवाले जनरल मुशर्रफ को आगरा समिट के लिए न्योता दिया था. हालांकि, भारत द्वारा पाकिस्तान के साथ संबंध सुधारने की अब तक की कूटनीतिक कवायद को कामयाबी के दीदार नहीं हो सके हैं.
नया परिवेश, नयी संभावनाएं
आज के बदले हुए वैश्विक परिवेश में भारत की कूटनीतिक पहल के परवान चढ़ने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता. पाकिस्तान अपने द्वारा परिपोषित जिहादी आतंकवाद का स्वयं ही निर्मम शिकार बन चुका है. जिहादी आतंकवाद को पनाह और परवरिश प्रदान करनेवाली उसकी फौज देश के उत्तर-पश्चिमी प्रांतों में जिहादी आतंकवाद से खूनी जंग में जूझ रही है.
पेरिस आक्रमण के पश्चात िजहादी आतंकवाद के विरुद्ध विश्व शक्तियों की प्रबल एकजुटता ने पाकिस्तान की फौज के कश्मीर में जिहादपरस्त रवैये को जबरदस्त आघात पहुंचाया है. ऐसे में पाकिस्तान में जनतांत्रिक नागरिक सत्ता के निर्णायक तौर पर सर्वोच्च शक्ति होकर उभरने की पूरी संभावना बन रही है. इससे भारत और पाकिस्तान के संबध को बिगाड़नेवाले मुद्दे यानी कश्मीर समस्या के शांतिपूर्ण निदान की संभावना भी प्रबल हो उठी है.
कश्मीर समस्या ही वस्तुतः भारत और पाकिस्तान के बीच परस्पर संबधों में तल्खी का सबसे बड़ा कारण है. वह पाकिस्तान की फौज ही है, जिसने कश्मीर में जिहादी आतंकवाद को जिंदा बनाये रखा है. पाकिस्तानी फौज कदापि नहीं चाहती कि भारत और पाकिस्तान के परस्पर ताल्लुकात दोस्ताना बनें, क्योंकि जिस दिन ऐसा हो जायेगा, पाकिस्तान में फौज का दबदबा खत्म होने लगेगा!
दोस्ती मुश्किल, पर नामुमकिन नहीं
पाकिस्तान के मामले में भारत सदैव ही एक कुनबे के बड़े भाई की तरह से व्यवहार करता आया है. कोई भी पार्टी अथवा कोई भी राजनीतिक फ्रंट भारत में सत्तानशीन रहा हो, पाकिस्तान की खताओं को माफ करके आगे बढ़ने का रवैया ही अपनाया है.
नरेंद्र मोदी वस्तुतः राजीव गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिंह के समय की कूटनीतिक परंपरा को ही और तेजी के साथ आगे बढ़ाना चाहते हैं, जिसका एकमात्र मकसद दोनों देशों की तल्खी को कम करके आपसी रिश्तों को दुश्मनी से दोस्ती की तरफ ले जाना है. यह कूटनीतिक काम मुश्किल अवश्य है, किंतु नामुमकिन बिल्कुल नहीं. आज के दौर में तो क्यूबा और अमेरिका जैसे कट्टर दुश्मन रहे देश दोस्त बन रहे हैं, फिर भारत और पाकिस्तान तो एक ही परिवार के देश हैं.
कांग्रेस की आलोचना बेमतलब
पाकिस्तान के साथ रिश्ते सुधारने की दिशा में नरेंद्र मोदी की प्रत्येक कूटनीतिक पहल का विरोध करनेवाली कांग्रेस पार्टी आखिर क्यों भूल जाती है कि पाकिस्तान के साथ बिगड़े हुए संबधों को सुधारने की दिशा में सबसे अधिक प्रयास राजीव गांधी ने किया था. इस दुरूह काम को अंजाम देने की खातिर राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री के रूप में अपने पांच वर्ष के कार्यकाल के दौरान तीन बार पाकिस्तान का कूटनीतिक दौरा िकया. अब नरेंद्र मोदी की कूटनीतिक कोशिशों की बेबुनियाद आलोचना करके कांग्रेस आखिर क्या जताना चाहती है कि पूर्व के कांग्रेसी नेताओं द्वारा पाकिस्तान के साथ रिश्तों को सुधारने की पहल बेमतलब और बेमानी थी!

Next Article

Exit mobile version