सामाजिक और राजनीतिक जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका
अशोक कुमार पांडेय
इंटरनेट और स्मार्ट फोनों की व्याप्ति के साथ सोशल मीडिया की लत भी लोगों को लगी है. आज सोशल मीडिया पर लिखी गयीं बातें धारणा बनाने के साथ विवाद भी पैदा करती हैं. आगे यह देखना दिलचस्प होगा कि इसकी लगातार बढ़ती उपस्थिति में कैसा होगा दुनिया का रंग. ‘अलविदा 2015’ की कड़ी में आज जानें इस बारे में.
सोशल मीडिया अब भारत के सामाजिक और राजनीतिक जीवन में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है. पिछला लोकसभा चुनाव इस अर्थ में अपने पहले के सभी चुनावों से अलग रहा कि इसमें सोशल मीडिया का खूब उपयोग किया गया. कई विशेषज्ञों का तो मानना है कि नरेंद्र मोदी की तत्कालीन लोकप्रियता और जीत का बड़ा कारण सोशल मीडिया का प्रभावी उपयोग ही रहा. बाद में दिल्ली और बिहार के चुनाव में भी जमीन के साथ-साथ एक जंग ट्विटर, फेसबुक और व्हाट्सएप्प पर चली. हालांकि, नतीजे लोकसभा चुनाव के उलट रहे, लेकिन सोशल मीडिया ने अपना काम तो किया ही.
चुनावों के अलावा भी देखें, तो देश में खासतौर पर कलबुर्गी और फिर अखलाक की हत्या के बाद चली सहिष्णुता-असहिष्णुता की बहस, आमिर खान, शाहरूख खान, दिल्ली विश्वविद्यालय के दर्शन विज्ञान के प्रोफेसर वोरा के उदयपुर के एक कॉलेज में दिये गये व्याख्यान और उसके बाद हुए विवाद सहित तमाम मामलों में महत्त्वपूर्ण लोगों के ट्वीट और आम लोगों के फेसबुक पर लिखे के अलावा व्हाट्सएप्प ग्रुपों के जरिये फैलायी गयी बातों ने न केवल धारणाएं बनाने का काम किया, बल्कि कभी आग में पानी डाला और अक्सर आग में घी डालने का काम किया.
इंटरनेट और स्मार्ट फोनों की व्याप्ति के साथ-साथ भारत में सोशल मीडिया की व्याप्ति भी हुई है. लगातार अकेले होते गये मध्यवर्ग को फेसबुक जैसे माध्यम एक समाज की उपस्थिति का आभास देते हैं. जिनके पास अपनी बात कहने की कोई जगह नहीं है, वे ‘आपके मन में क्या है’ के फेसबुक सवाल का जवाब देते हैं अपने तरीके से, लाइक करते हैं, कमेंट करते हैं, मित्र बनाते हैं, बातें करते हैं. अपनी रोजी-रोटी और जीवन की सुविधाएं जुटाने में भागते मध्यवर्ग के इस हिस्से के बड़े तबके के पास तथ्यों और तर्कों को समझने और पुष्ट करने का न तो समय है, न उसमें कोई रुचि.
कल तक अखबार में छपी हर बात को सच माननेवाला यह वर्ग अब सोशल मीडिया पर आयी हर बात पर आंख मूंद कर भरोसा करता है और उसे प्रसारित भी करता है.
पिछले दो दशकों में जिस तरह का एक धार्मिक उन्माद देश में फैलता गया है, उसका सबसे बड़ा संवाहक यह वर्ग ही रहा है. जाहिर है, उसके धार्मिक-राजनीतिक पूर्वाग्रहों को सहलानेवाली बातें उसके अहम को तुष्ट करती हैं और वह उनके प्रचार-प्रसार में शामिल होता है.
इसका परिणाम यह हुआ है कि सोशल मीडिया अफवाहों को फैलाने का सबसे तेज माध्यम बन गया है. लोकसभा चुनावों के समय हमने देखा कि किस तरह फोटोशॉप के माध्यम से, तो कभी गलत सूचना के आधार पर नयी-पुरानी तसवीरों का प्रयोग कर, झूठी और उत्तेजक बातों के पोस्टर बना कर और दीगर तरीके से ऐसी अफवाहें बहुत सुनियोजित तरीके से फैलायी गयीं, जिनसे देश के गांधी और नेहरू जैसे व्यक्तित्वों की छवि धूमिल की जा सके, अल्पसंख्यकों के लिए नफरत पैदा की जाये और धर्मनिरपेक्ष विचारों को बदनाम किया जा सके.
किसी आॅस्ट्रेलियाई राजदूत की पत्नी का सिगरेट जलाते नेहरू की कर्टसी को अय्याशी में तब्दील कर दिया गया, स्त्रियों के बीच खड़े गांधी की तसवीर को एक घटिया टैगलाइन के साथ साझा किया जाता है, पाकिस्तान की किसी घटना को मुजफ्फरपुर की बता कर दंगे करा दिये जाते हैं और ऐसा ही कितना कुछ. हाल में सामने आये एक वीडियो में मेरठ में इसलामिक स्टेट का मुकाबला करने की हसरत में हिंदू सेना बना रहे लोगों में से एक महिला ने कैमरे पर अपने एक व्हाट्सएप्प ग्रुप के बारे में बताया, जिससे एक संदेश कुछ क्षणों में लाखों लोगों तक पहुंच जाता है. हम जानते हैं कि चुनावों के समय बाकायदा सोशल मीडिया सेल बनाया गया था, जिसमें घृणा का प्रचार करने के लिए भाड़े पर लोग रखे गये थे. अब भी अनेक फर्में राजनीतिक पार्टियों और नेताओं को ऐसी सेवाएं दे रही हैं. किसी तरह की सामाजिक जिम्मेवारी से मुक्त ये फर्में अपने धन-प्रदाता की हर मांग को पूरी करने के लिए किसी हद तक जा सकते हैं. ऐसे में चाम्सकी की मैन्युफैक्चरिंग कंसेंट की याद आना सहज है.
एक ऐसे समाज में जहां लोकतंत्र चुनावी विधि से आगे बढ़ कर किसी सामाजिक मूल्य में अनुदित हो ही न सका हो, कानून लचर हों और वे तभी प्रयोग में लाये जाते हों, जब विरोधियों की अभिव्यक्ति के अधिकार को कुचलना हो, सोशल मीडिया जैसे सर्वसुलभ माध्यम पर, जहां बस एक मोबाइल और टाइप करना आना किसी की पर्याप्त योग्यता हो, स्वतंत्रता को अराजकता में बदलते देर नहीं लगती. पिछले साल कई मुद्दों पर जिस तरह घृणा अभियान चलाया गया, वह बताता है कि तकनीक अपने आप में कोई प्रगतिशील चीज नहीं हो सकती.
लेकिन इस उन्मादी जमात के बरक्स रोशनदिमाग लोगों ने इस मंच का बखूबी इस्तेमाल भी किया है. सहिष्णुता की बहस के दौरान सोशल मीडिया पर एकदम आम लोगों और हिंदी के लेखकों, बुद्धिजीवियों तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं ने लगातार तार्किक तरीके से इस दुष्प्रचार का जवाब दिया है. अपनी सीमित पहुंच के बावजूद ऐसे लोगों ने बहस को आम लोगों के बीच ले जाने और सत्ता के विरोध के लिए तार्किक आधार तैयार करने के साथ-साथ जनविरोधी आर्थिक नीतियों और लोकतांत्रिक मूल्यों पर लगातार हो रहे हमलों का ही जवाब नहीं दिया, बल्कि सोशल मीडिया के माध्यम से संघर्ष को जमीन पर ले जाने का काम भी किया है. और यह भी एक वजह है कि लोकसभा चुनाव में चला जादू दिल्ली और बिहार में उलट गया. अब देखना होगा कि सोशल मीडिया की लगातार बढ़ती उपस्थिति में आभासी संसार की यह जंग आगामी वर्ष में कितना जमीनी असर डालेगी.