चीन : सांस्कृतिक राष्ट्रीयता की अधीरता

सरकारी से कहीं ज्यादा सौम्य व सार्थक है व्यक्तिगत अभियान रवि दत्त बाजपेयी सांस्कृतिक राष्ट्रीयता के प्रसार के लिए चीन ने अपने इतिहास का सहारा लिया, लेकिन इस अभियान के केंद्र-बिंदु में अपने पूर्व सम्राटों के महिमा-मंडन के स्थान पर अपने प्राचीन विचारकों, दार्शनिकों और मनीषियों को प्राथमिकता दी है. इस शृंखला की अंतिम कड़ी […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 19, 2016 7:00 AM
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सरकारी से कहीं ज्यादा सौम्य व सार्थक है व्यक्तिगत अभियान
रवि दत्त बाजपेयी
सांस्कृतिक राष्ट्रीयता के प्रसार के लिए चीन ने अपने इतिहास का सहारा लिया, लेकिन इस अभियान के केंद्र-बिंदु में अपने पूर्व सम्राटों के महिमा-मंडन के स्थान पर अपने प्राचीन विचारकों, दार्शनिकों और मनीषियों को प्राथमिकता दी है. इस शृंखला की अंतिम कड़ी में अाज पढ़ें चीन में किस तरह सांस्कृतिक राष्ट्रीयता का एक स्वाभाविक, अनौपचारिक और ऐच्छिक अभियान जारी है.
द्वितीय विश्व युद्ध में जापान की पराजय और भीषण गृह-युद्ध की त्रासदी के बाद जब 1949 में चीन गणराज्य की स्थापना हुई, तब चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने देश में राष्ट्रीयता की भावना के प्रसार का निर्णय लिया. एक आधुनिक राष्ट्र के रूप में चीन गणराज्य अपने देश में राष्ट्रीयता की कमी से बेहद भयभीत हो गया और लगभग समूचे चीनी समाज, राजनीति व प्रशासन ने प्रखर राष्ट्रवाद को अपना सर्वोपरि लक्ष्य मान लिया था.
चीन के बारे में मान्यता भी है कि जब भी इस देश के सर्वोच्च नेतृत्व को कठिन स्थितियों का सामना होता है, तो चीन में उग्र राष्ट्रवाद की सुनियोजित मुहिम चलायी जाती है. 2012 में चीन में नवनियुक्त राष्ट्रपति शी जिनपिंग को चीन प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार, पड़ोसी राष्ट्रों के साथ गहराते सीमा विवाद, बढ़ती आर्थिक व सामजिक विषमताओं, जापान-अमेरिका से बिगड़ते संबंधों जैसी गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ा.
चीनी प्रशासन ने इन चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों से निपटने के लिए सबसे पहले अपने देश के भीतर सांस्कृतिक राष्ट्रीयता के प्रसार का निर्णय लिया. सांस्कृतिक राष्ट्रीयता के प्रसार के लिए चीन ने अपने इतिहास का सहारा लिया, लेकिन इस अभियान के केंद्र-बिंदु में अपने पूर्व सम्राटों के महिमा-मंडन के स्थान पर चीन ने अपने प्राचीन विचारकों, दार्शनिकों और मनीषियों को प्राथमिकता दी है. चीन में सरकारी संरक्षण और प्रशासनिक नियंत्रण के अंतर्गत जारी राष्ट्रीयता के इस चमकीले अभियान के इतर सांस्कृतिक राष्ट्रीयता का एक स्वाभाविक, अनौपचारिक और ऐच्छिक अभियान भी जारी है.
बीजिंग में अपने संक्षिप्त प्रवास के दौरान यहां स्थित ग्रीष्मकालीन राजमहल, शाही महल जिसे निषिद्ध शहर या फोर्बिडन सिटी भी कहा जाता है और शियानामेन चौक जैसे महत्वपूर्ण स्थानों पर जाने का अवसर मिला.
इन सब स्थानों पर हमारे साथ स्थानीय विश्वविद्यालय का एक छात्र, अनुवादक, मार्गदर्शक और सलाहकार की भूमिका में था. विश्वविद्यालय का यह छात्र हम लोगों से इन विहंगम सांस्कृतिक धरोहरों के भ्रमण के दौरान लगातार यह जानना चाहता था की हमें एक देश के रूप में चीन कैसा लगा. यहां के लोग कैसे लगे व इन ऐतिहासिक स्थलों को देख चीन के इतिहास बारे में हमारी धारणा कैसी है. इन सारे ऐतिहासिक स्थलों पर चीन के घरेलू पर्यटकों की भारी भीड़ भी देखने को मिली.
इनमें से अधिकतर घरेलू पर्यटक किसी मार्गदर्शक के संरक्षण में भ्रमण करने आये थे. इन मार्गदर्शकों के हाथों में एक लंबी डंडी में बंधा एक रंग बिरंगा ध्वज भी था. लोगों की भीड़ और आपाधापी में भटके चीनी पर्यटक इस ध्वज को देख कर आसानी से अपने समूह तक पहुंच सकते थे. भारत में आयोजित होने वाले कुम्भ मेले में आये विभिन्न अखाड़ों की पताकाओं की तरह ही चीनी पर्यटकों के मार्गदर्शक अपने ध्वजों और समूहों के साथ चारों ओर घूम रहे थे.
जापान की तरह ही चीन में भी इन ऐतिहासिक स्थलों पर विदेशी सैलानियों से कहीं अधिक संख्या में स्थानीय चीनी लोग आये हुए थे. नौजवानों और स्कूली विद्यार्थियों के झुंड भी अपनी टोलियों में यहां बड़ी संख्या में पहुंचे थे.
सैलानियों के इस विशाल समूह में बहुत सारे वृद्ध भी थे. कुछ वृद्ध लोगों की आयु इतनी अधिक और शरीर इतना दुर्बल था कि वे व्हील चेयर या अपने बच्चों या पौत्र-पौत्रियों का सहारा लेकर यहां तक पहुंचे थे. यह अत्यंत हैरानी की बात थी कि जहां भारत में वृद्ध लोगों से तीर्थ यात्रा या भगवत-भजन की अपेक्षा या उनके परिवार द्वारा उपेक्षा की जाती है, वहीं चीन में ये वयोवृद्ध लोग भी अपने परिवार के सहारे इन ऐतिहासिक स्मारकों को देखने आये हुए थे.
सांस्कृतिक राष्ट्रीयता का अधीर स्वरूप चीन में दूर-दराज के इलाकों से आये इन वृद्ध लोगों में दिखायी पड़ता है.
चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के कठोर नियंत्रण के तहत दूर-दराज के इलाकों और ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों का राजधानी पीकिंग/ बीजिंग आना असंभव था. गांव या कस्बे से किसी विशेष काम के निमित्त और केवल कुछ दिनों के लिए भी शहर आने के लिए चीनी नागरिकों को विशेष अनुमति लेना आवश्यक था. चीन के आम लोगों की आय भी इतनी अधिक नहीं थी कि वे पर्यटन के लिए जरूरी समय व संसाधन जुटा सकें. चीन के ग्रामीण-कस्बाई इलाकों में रहनेवाली एक बड़ी जनसंख्या ने अपनी गौरवपूर्ण सांस्कृतिक विरासत के बारे में सिर्फ सुना भर था, लेकिन इन सांस्कृतिक धरोहरों को प्रत्यक्ष देख पाना उनकी कल्पना से बाहर था. चीन में आये आर्थिक-सामाजिक सुधारों के बाद इन ग्रामीण-कस्बाई इलाकों में रहनेवाले लोगों को अपने बच्चों के सहयोग से इन सांस्कृतिक धरोहरों तक पहुंच पाना संभव हो पाया है.
उम्र के इस पड़ाव पर भी चीन के इन वरिष्ठ नागरिकों में अपनी सांस्कृतिक विरासत को एक बार देख पाने की ललक कम नहीं हुई है. चीन के इन वृद्ध लोगों का अपनी संस्कृति व राष्ट्र के प्रति अनुराग, चीन की कम्युनिस्ट पार्टी या सरकार के आधिकारिक सांस्कृतिक राष्ट्रीयता या राष्ट्रवादी अभियान से कतई संबंधित नहीं है. इन सांस्कृतिक धरोहरों तक पहुंचना, चीन के आतुर वरिष्ठ नागरिकों के जीवन भर की प्रतीक्षा का उपसंहार था, यह सांस्कृतिक राष्ट्रीयता का एक सहज, स्वतः स्फूर्त और स्वैच्छिक स्वरूप है.
सांस्कृतिक राष्ट्रीयता का अधीर स्वरूप हमारे साथ आये स्थानीय विश्वविद्यालय के नौजवान छात्र में भी दिखायी देता था.अपने देश को महाशक्ति रूप में देखने तो आतुर इस युवा विद्यार्थी को विदेशी पर्यटकों को अपनी सांस्कृतिक विरासत दिखाने, बताने-समझाने की ललक तो थी, लेकिन इस चीनी युवा के लिए सबसे अहम था कि विदेशी पर्यटकों पर चीन की इस विरासत का अच्छा प्रभाव पड़े. उस नौजवान विद्यार्थी और अन्य वृद्ध लोगों को देख कर लगा कि चीन में सांस्कृतिक राष्ट्रीयता का व्यक्तिगत अभियान, किसी सरकारी अभियान से कहीं अधिक सौम्य, सार्थक और समर्थ है.
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