दहशतगर्दी और इसलाम

दुनिया के सबसे खूंखार आतंकी संगठन इसलामिक स्टेट (आइएसआइएस) से संबंध रखने के आरोप में हाल के दिनों में देश के विभिन्न हिस्सों से जिस तरह से कुछ मुसलिम युवाओं के पकड़े जाने की खबरें आयी हैं, उससे भारत के अमनपसंद मुसलिम समुदाय के दहशतगर्दी से रिश्तों पर सवाल पूछे जाने लगे हैं. हमारा मानना […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | January 29, 2016 6:46 AM
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दुनिया के सबसे खूंखार आतंकी संगठन इसलामिक स्टेट (आइएसआइएस) से संबंध रखने के आरोप में हाल के दिनों में देश के विभिन्न हिस्सों से जिस तरह से कुछ मुसलिम युवाओं के पकड़े जाने की खबरें आयी हैं, उससे भारत के अमनपसंद मुसलिम समुदाय के दहशतगर्दी से रिश्तों पर सवाल पूछे जाने लगे हैं.
हमारा मानना है कि किसी भी समुदाय के चंद युवाओं के भटक जाने के आधार पर पूरे समुदाय का आकलन नहीं किया जा सकता, फिर भी अपने युवाओं को सही राह दिखाना देश के साथ-साथ उस समुदाय के लिए भी बड़ी चिंता का सबब होना चाहिए. आखिर क्यों आइएसआइएस की ओर आकर्षित हो रहे हैं हमारे युवा, कितना खतरनाक है आइएसआइएस का मंसूबा और युवाओं को दिग्भ्रमित होने से कैसे रोका जा सकता है, ऐसे ही सवालों पर कुछ सारगर्भित विचार एवं तथ्य प्रस्तुत कर रहा है आज का विशेष…
सादिया देहलवी
स्तंभकार एवं समाज सेविका
चाहे इंडोनेशिया, पेरिस, पाकिस्तान, अमेरिका हो, अथवा अफ्रीका, इराक, भारत या कोई भी दूसरी जगह, जब भी दहशतगर्दी हमला करती है तो मुसलिमों को सदमे, अविश्वास, गुस्से और प्रतिक्रिया का डर जैसे कई किस्म के जज्बात का अहसास होता है.
मुसलिम दहशतगर्दों द्वारा की जा रही क्रूरता तथा कत्लेआम के बीच इस आम प्रतिक्रिया का इजहार कि ‘इसलाम अमन का मजहब है’, साफ तौर पर खोखला जैसा लगता है. यह दुख की बात है कि ये दहशतगर्द पूरी दुनिया में यह छवि बनाने में कामयाब हो चुके हैं कि इसलाम बुनियादी रूप से हिंसक है. उन्होंने जिहाद जैसे एक ऐसे खूबसूरत शब्द का अपहरण-सा कर लिया है, जिसके कई मतलबों में एक के मुताबिक यह रूह को आध्यात्मिक व्याधियों से शुद्ध करने हेतु स्वयं से किया जानेवाला संघर्ष है.
सौभाग्यवश, वैश्विक पैमाने से भारत के मुसलिम समुदाय में आइएसआइएस से हमदर्दी रखनेवाले लोगों की तादाद सबसे कम है. केवल कुछ अपवादों को छोड़ कर, इसका श्रेय भारतीय मुसलिमों और उनके धर्मगुरुओं को है कि वे न तो दहशतगर्दी की तारीफ या समर्थन करते हैं, न यहां के मदरसों में उसे पैदा करते और न ही मुसलिमों के बीच के विभिन्न संप्रदायों के बीच की खाई चौड़ी करने की कोशिश करते हैं.
इस तरह, उन्होंने भारत को वैसे सांप्रदायिक संघर्ष से बचा लिया है, जिसे ज्यादातर मुसलिम देश झेल रहे हैं.
इसलाम के लिए आइएसआइएस द्वारा अपने झंडे पर पैगंबर मुहम्मद के मुहर की छवि के इस्तेमाल से बढ़ कर अप्रतिष्ठाजनक और कुछ भी नहीं हो सकता. यह उन व्यंग्यचित्रों अथवा लेखों से बदतर है, जो इसलाम के केंद्रीय मूल्यों पर हमले करते हैं.
मीडिया में धर्मद्रोही चित्रण के खिलाफ या फिर धार्मिक सम्मेलनों में लाखों लोग जुट जाते हैं, जैसा अभी हाल ही में ढाका के पास संपन्न ‘बिश्व इज्तेमा’ (विश्व सम्मेलन) के दौरान हुआ, जहां लगभग 150 देशों के मुसलिम इकठ्ठा हुए. यदि आइएसआइएस या बांग्लादेश में ब्लॉगरों को मौत के घाट उतारे जाने के खिलाफ भी वैसी ही तादाद में लोग नहीं जुटते, तो यही वक्त है कि मुख्यधारा की इसलामी व्याख्या की गंभीर समस्याएं पहचानी जानी चाहिए.
पारंपरिक इसलाम के उलट, अब तसव्वुफ (आध्यात्मिकता) से हट कर ज्यादा जोर फिकह (न्यायशास्त्र या शरियत) पर आ गया है. इसलाम को एक बेहतर स्वरूप की जरूरत है, जहां एक बार फिर आध्यात्मिकता से कानून का तालमेल हो और इंसाफ करुणा से आर्द्र हो, जो ईश्वर का प्रमुख गुण तथा इसलाम का सर्वोपरि सिद्धांत है. आज खुद का बयान करते हुए मुसलिम यह बताने के बजाय कि ‘हम क्या हैं,’ यह बताते हैं कि ‘हम क्या नहीं हैं.’ यदि हम यह एेलान करते हैं कि दहशतगर्द मुसलिम नहीं हैं, तो हम उनके ही रास्ते का अनुकरण करते हैं, क्योंकि जो मुसलिम उनके आदर्शों में यकीन नहीं करते, उन्हें वे गैर-मुसलिम बताते और मौत के घाट उतार देते हैं.
इजरायली यहूदियों द्वारा मुसलिमों के स्वांग करने जैसी आइएसआइएस से संबद्ध साजिशों की बातें भ्रांतिपूर्ण हैं. तथ्य यह बताते हैं कि दहशतगर्दों के समूहों को मुसलिम राज्यों तथा धनवान मुसलिमों से लगातार आर्थिक सहायता मिल रही है. यह कहना कि उनके कृत्यों का ‘इसलाम से कोई संबंध नहीं है,’ एक कमजोर बचाव है, क्योंकि दहशतगर्द कुरान के उद्धरण देते हुए उसके संपूर्ण सारतत्व की अनदेखी कर देते हैं, जो साफ तौर पर बुरे को भले से रोकने का आदेश देता है और उनसे नफरत करता है, और अमन का माहौल नष्ट करते हुए फितना (सामाजिक संघर्ष) फैलाते हैं.
आज विज्ञान, कला तथा लैंगिक इंसाफ के प्रति इसलाम के योगदान के बजाय, हम इसे हिजाब के द्वारा परिभाषित होने दे रहे हैं. हिजाब पहनने या न पहनने के अधिकार की मांग करतीं मुसलिम आवाजें क्यों उनसे ज्यादा मुखर हैं, जो महिलाओं के लिए इसका पहनना कानूनन अनिवार्य किये जाने के विरुद्ध हैं? इसलाम में इनके अनिवार्य नहीं होने के बावजूद, काला अबाया और हिजाब का बढ़ता इस्तेमाल तेल संपदा के धनी कुछ अरब राज्यों के धार्मिक तथा सांस्कृतिक दबदबे के सफल निर्यात के चिह्न हैं. पिछले लगभग 1,300 वर्षों से इसलाम एक पुरातनपंथी अपरिवर्तनशील अरब धर्म नहीं रहा है. आज दुनिया के डेढ़ अरब मुसलिमों में अरब मुसलिमों की तादाद सिर्फ 8 प्रतिशत है.
आइएसआइएस जैसे समूह किसी काल्पनिक आदर्श इसलामी राज्य की फिर से प्राप्ति के सपने दिखाते हुए मुसलिमों को यह संदेश देते हैं कि इसलामी इतिहास विफल रहा है और वे इसे सही करने आये हैं. इसलामी सभ्यता मुख्यतः गैर-अरब मुसलिम समुदायों की सांस्कृतिक विविधता के बल पर एक स्वर्णिम इतिहास की गवाह रही है. इसने साहित्यिक, वैज्ञानिक, स्थापत्य संबंधी, दार्शनिक तथा सांस्कृतिक उपलब्धियां हासिल कीं, जिसने पुनर्जागरण की गति तेज करते हुए इसकी रोशनी यूरोप तक फैलायी.
दहशतगर्द आधुनिकता को तो खारिज करते हैं, पर अपने अस्वस्थ आदर्शों के प्रसार के लिए आधुनिक हथियारों और इंटरनेट जैसी इसकी उपलब्धियों का इस्तेमाल करते हैं. यदि इनसे होशियार न रहा जाये, तो आइएसआइएस, अल-कायदा, बोको हराम, तालिबान और उन जैसे अन्यान्य समूह मुसलिमों को उन अंधयुगों तक पहुंचा देंगे, जब इसलाम के विपरीत, ईसाइयत को विज्ञान तथा तार्किकता से तालमेल बिठाने में समस्याएं पेश आयीं.
आधुनिकता पर बहस बहुत जटिल है, क्योंकि पहली सदी वाले इसलाम की ओर जाने के दावे के साथ दहशतगर्द अपने कृत्यों को सही ठहराने के लिए वस्तुतः सलाफी वहाबी इसलामी ग्रंथों का इस्तेमाल करते हैं.
सलाफी अनुयायी इसलामी दर्शन तथा शिक्षाओं की उन सदियों पुरानी परंपराओं को नकारते हैं, जो कुरान को एक राजनीतिक दस्तावेज के बजाय एक आध्यात्मिक ग्रंथ के तौर पर लेती रही हैं. शुष्क और गैरलचीली वहाबी व्याख्याएं, स्वदेशी मुसलिम समुदायों की समृद्ध तथा समावेशी विरासत और उनकी स्थानीय परंपराएं विनष्ट करते हुए समर्पण की सृजनात्मक अभिव्यक्ति तक के लिए कोई अवकाश नहीं देतीं.
शेख गूगल और फतवा डॉटकॉम तो स्वयं समस्याओं के हिस्से हैं. कट्टरपंथी इमामों के साथ सैकड़ों युवा मुसलिम इसलाम के प्रचार-प्रसार तथा जिन्हें वे बिगड़े हुए मुसलिम मानते हैं, उनके रास्ते सही करने में लगे हैं.
मगर हालिया अध्ययन यह बताते हैं कि ज्यादातर मुसलिमों ने पर्चे बांटने या यूट्यूब अथवा टेलीविजन कार्यक्रमों के द्वारा रातोंरात इसलाम नहीं अपनाया. अधिकतर धर्मांतरण मुसलिमों के साथ सालोंसाल के संवादों तथा उनकी भलमनसाहत, उदारता, उनके मूल्यों और अल्लाह के प्रति उनकी अडिग आस्था के असर से होते हैं.
व्हाट्सएप्प, फेसबुक, ट्विटर ने साथी मुसलिमों के द्वारा शिर्क (परगमन), बिदाह (धार्मिक नवाचार) और हराम जैसे शब्दों के शोर से खुद को बचा पाना असंभव बना दिया है. नैतिक उत्कृष्टता की पुकार के बदले तुच्छ चीजों के आधार पर वर्जनात्मक फतवों तथा दोषारोपण की उंगलियां उठाते इसलाम का प्रचार अज्ञानता, दंभ एवं मूर्खता के सिवा और कुछ नहीं है.
दुर्भाग्यवश, इंटरनेट बुरी तरह गुमराह कर रहा है. ज्यादातर मामलों में परिवार के बड़े-बुजुर्गों द्वारा इन्हें देखनेवालों पर किसी किस्म की निगरानी नहीं हो पाती है, जिसकी वजह से युवा सोहबत (सत्संग) के माध्यम से मिलनेवाले पारंपरिक ज्ञान से वंचित रह जाते हैं.
यह मुसलिमों के लिए चुनौतीपूर्ण वक्त है और जब तक गुस्से, बदले, साजिशों, धर्मद्रोह तथा ‘दूसरों’ की निंदा से मुक्ति नहीं पायी जाती, तब तक जिहाद की तरह इसलाम शब्द का इस्तेमाल भी सम्मानरहित ढंग से किये जाने के खतरे बरकरार हैं.
(टाइम्स ऑफ इंिडया से साभार)
(अनुवाद : विजय नंदन)
दहशत और वहशत में शामिल नहीं हैं देश के मुसलमान
प्रोफेसर अख्तरुल वासे
वरिष्ठ विचारक
हाल के दिनों में जिस तरह से देश के कुछ हिस्सों से आतंकी संगठन आइएसआइएस से संपर्क साधने के आरोप में मुसलिम युवाओं के पकड़े जाने की खबरें आयी हैं, इससे मुसलमानों के बारे में एक गलत संदेश तो जाता है, लेकिन हमें इस सिलसिले में कोई भ्रम नहीं पालना चाहिए. देश के 14-15 करोड़ मुसलमानों में से अगर पांच-दस मुसलिम युवा भटक गये हों और उनकी गिरफ्तारी हुई हो, तो इसका अर्थ यह कतई नहीं कि देश का मुसलिम समुदाय आइएसआइएस का समर्थन करता है.
हालांकि, हमारे लिए यह एक चिंता का विषय है और होना ही चाहिए, लेकिन इसके आधार पर पूरे मुसलिम समुदाय पर कोई आरोप नहीं लगाया जा सकता, क्योंकि देश का कोई भी समुदाय ऐसे भटके हुए तत्वों से खाली नहीं है. आप गौर करें, तो देश में मौजूद मुसलिम समुदाय की तमाम धार्मिक संस्थाओं और उनके बौद्धिक नेतृत्व ने आइएसआइएस और दूसरे आतंकी समूहों की निंदा की है और आतंकवाद को गलत करार दिया है. मैं यह बात पूरी तरह से स्पष्ट कहना चाहता हूं कि भारतीय मुसलमान किसी भी तरह की दहशत और वहशत के कारोबार से न तो सहमत है, न ही उसमें शामिल है. हमारे लिए यह फख्र की बात है कि भारतीय मुसलमानों का हित उसी बात में है, जिसमें देश का हित शामिल है.
आइएसआइएस तो कल की पैदाईश है, भारत में किसी-न-किसी प्रकार के आतंकवाद के नाम पर मुसलिम युवाओं की गिरफ्तारियां अरसे से होती रही हैं.
ऐसे तमाम उदाहरण हैं, जिनमें दसियों साल जेल में रहने के बाद वही मुसलिम युवा निर्दोष साबित होकर बरी हुए हैं. अदालतों ने उन्हें बेकसूर कहते हुए जेल से रिहा किया. यह कितनी तकलीफदेह बात है कि जिन लोगों ने उन बेकसूर मुसलिम युवाओं को गिरफ्तार किया और देश के मुसलमानों के खिलाफ एक नकारात्मक वातावरण तैयार किया, उनके खिलाफ हमारी सरकारों ने कभी कोई कार्रवाई नहीं की.
एक महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि देश के कई ऐसे मुसलिम माता-पिताओं ने अपने बहके हुए बच्चों के खिलाफ पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करायी है कि उनका बच्चा रास्ता भटक रहा है. अपने बच्चों की गुमराही पर शर्मिंदा होने के साथ कई मुसलिम माता-पिताओं ने एक सच्चा देशवासी होने का सबूत दिया है. लेकिन, विडंबना यह है कि हमारा मीडिया ऐसी खबरों पर कम ही तवज्जो दे पाता है. महज पांच-दस युवाओं के भटक जाने पर देशभर में शोर मचाया जाता है कि देश के मुसलिम युवा आतंकी समूहों का समर्थन कर रहे हैं. हमारे लिए यह बहुत दुख की बात है.
आज के सोशल मीडिया के दौर में और इंटरनेटी युग ने कुछ बातों का जिस तरह से दुष्प्रचार किया है, वह बेहद चिंताजनक है. धार्मिक किताबों और वास्तविक धर्मगुरुओं द्वारा जो बात प्रमाणित नहीं है, वैसी बातों को ही सोशल मीडिया पर तेजी से फैलाया जा रहा है, जिसका हमारे समाज में बहुत ही बुरा संदेश जा रहा है. हमारी सरकारों को चाहिए कि इंटरनेट पर ऐसी चीजों के प्रचार-प्रसार को रोकने के उपाय करे.
हमारी सरकारों को यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि जो विघटनकारी शक्तियां हैं, उनकी तरफ हमारे देश के बच्चे न जाने पायें. अगर हमारी सरकारें ऐसा करने की ठान लें, तो देश और देश के मुसलिम परिवारों, दोनों का भविष्य दांव पर लगने से बच जायेगा और हम एक बेहतर और अहिंसक समाज का निर्माण कर सकेंगे.
जहां तक आतंक के मसले के समाधान का सवाल है, तो मैं समझता हूं कि इसका हल अहिंसात्मक तरीके से ही मुमकिन है. तमाम मुसलिम धर्मगुरु और मुसलिम बौद्धिक आतंकवाद की निंदा कर सकते हैं, अखबारों में लेख लिख सकते हैं, टीवी पर बहसों में सच्चाई को रख सकते हैं और मेरा ख्याल है कि देशभर में वे ऐसा कर भी रहे हैं और उन्हें आगे भी ऐसा करते रहना चाहिए. मैं खुद आतंक की किसी भी बात से इत्तेफाक नहीं रखता और न ही आतंकियों द्वारा की गयी इसलाम की गलत व्याख्या का समर्थन करता हूं.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधािरत)
मुसलिम युवाओं की समृद्ध है चेतना
ढाई दशकों के राजनीतिक और आर्थिक बदलावों का व्यापक असर देश के सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन पर भी पड़ा है तथा इन प्रभावों पर गंभीर अध्ययन भी हुए हैं. लेकिन, यह एक विडंबना ही है कि देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय से संबंधित सामाजिक, आर्थिक और मानविकीय अध्ययनों का बड़ा अभाव है. यह स्थिति तब है, जबकि सांप्रदायिकता, आतंकवाद, भेदभाव और पिछड़ेपन जैसे प्रश्नों के संदर्भ में यह समुदाय निरंतर चर्चा और सुर्खियों का विषय बनता रहता है. ऐसी स्थिति में तब्बसुम रुही खान की किताब ‘बियोंड हाइब्रिडिटी एंड फंडामेंटलिज्म : इमर्जिंग मुसलिम आइडेंटिटी इन ग्लोबलाइज्ड इंडिया’ एक महत्वपूर्ण और आवश्यक हस्तक्षेप है.
अमेरिका के कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (रिवरसाइड) में अध्यापिका तब्बसुम दिल्ली के जामिया मिलिया इसलामिया में पढ़ चुकी हैं तथा इस विश्वविद्यालय और इससे सटे मुसलिम-बहुल इलाके को ही उन्होंने अपनी किताब का विषय बनाया है. लेखिका ने जामिया बस्ती की स्थानीय सच्चाइयों तथा वैश्विक स्तर पर रची-गढ़ी जा रहीं कल्पनाओं, विचारधाराओं, जीवन-शैली, आत्म-पहचान जैसे बिंबों के बीच मुसलिम युवाओं की अपेक्षाओं की निर्मिति को रेखांकित करने का प्रयास किया है.
इस प्रयास में वह बताती हैं कि भारत के भविष्य में मुसलिम समाज का निवेश है और इस कारण समान नागरिक के तौर पर उनके अधिकारों का दावा भी पुष्ट होता है. यह इस शोध की बड़ी उपलब्धि है, क्योंकि मुसलिम समाज के पिछड़ेपन और वंचना को अभिव्यक्त करनेवाले अध्ययन और रिपोर्ट ऐसा कर पाने में असफल रहे हैं. राजनीतिक और सामाजिक परिदृश्य में होनेवाली अभिव्यक्तियां भी उन रिपोर्टों पर आधारित होने के कारण मुसलिम समाज के दावों की वैधता को इस त्वरा के साथ प्रस्तुत नहीं कर सकी हैं.
हालांकि यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि इतनी बड़ी आबादी, जो वर्गीय, जातीय और क्षेत्रीय विविधता से भी पूर्ण है, के बारे में एक इलाके के अध्ययन के तौर पर विमर्श तैयार नहीं किया जा सकता है.
लेकिन, इस किताब के विषय-वस्तु के रूप में जामिया का अध्ययन हमें समुदाय, विशेषरूप से उसकी युवा आबादी के मानस, उसकी आकांक्षाओं तथा चिंताओं से निश्चित रूप से अवगत कराता है. मुसलिम समाज से जुड़ी सभी समस्याओं- घनी आबादी के रूप में निवास (घेटो), युवाओं की बेचैनी, पहचान का संकट, बहुसंख्यक राजनीति और सोच का दबाव और भय, आर्थिक परेशानियां- से जामिया का इलाका ग्रस्त है.
आतंकवादी और कट्टरपंथी सोच के प्रचार-प्रसार से प्रभावित क्षेत्र के रूप में भी इस इलाके को बताने और जताने की कोशिशें हुई हैं. तब्बसुम खान बताती हैं कि मुसलिम युवा सैटेलाइट टीवी, डॉ जाकिर नायक जैसे प्रचारकों, बाजारवाद और उपभोक्तावाद तथा जामिया मिलिया इसलामिया जैसे शिक्षा संस्थान के परिवेश में स्वयं को अपनी पारंपरिक पहचान तथा आधुनिक कारकों से प्रभावित होकर अभिव्यक्त कर रहे हैं.
यह भी उल्लेखनीय है कि किताब का एक विस्तृत अध्याय मुसलिम महिलाओं के बारे में है जो लेखिका के शब्दों में ‘आधुनिकता से अच्छी तरह से वाकिफ होकर और उसे एक हद तक स्वीकार कर उसके कुछ बुनियादी बिंदुओं की आलोचना कर सकने की चेतना से सक्षम हैं’.
किताब का एकनिष्कर्ष यह है कि मुसलिम युवा, जिसे आधुनिकता का भान है और उसके साथ तालमेल के लिए वह इच्छुक भी है, अपने अलग-थलग होने की मौजूदा स्थिति को अपनी शर्तों पर बदलना चाहता है. इस प्रयास के लिए उसमें हिचक तो है, पर उसकी चेतना समृद्ध है.
मुसलिम समाज और उसकी साझेदारी के महत्व को समझने की प्रक्रिया को इस किताब से निश्चित तौर पर मदद मिलेगी, परंतु देश के अलग-अलग हिस्सों में ऐसे अध्ययनों की आवश्यकता है, क्योंकि देश के वैविध्य की तरह मुसलिम समाज की पहचान भी विविधतासे भरी है.
-प्रकाश कुमार रे
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