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रघुराम राजन की टिप्पणी के बाद जीडीपी पर कोहराम

फिर छिड़ी बहस किसी भी देश के सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) का निर्धारण एक जटिल अर्थशास्त्रीय प्रक्रिया होती है. इसमें अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र के उपलब्ध आंकड़ों, मुद्रास्फीति तथा आधार वर्ष के आंकड़ों के समायोजन से कुल उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य तय किये जाते हैं. पिछले साल भारत सरकार ने जीडीपी के आकलन […]

फिर छिड़ी बहस
किसी भी देश के सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) का निर्धारण एक जटिल अर्थशास्त्रीय प्रक्रिया होती है. इसमें अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र के उपलब्ध आंकड़ों, मुद्रास्फीति तथा आधार वर्ष के आंकड़ों के समायोजन से कुल उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य तय किये जाते हैं.
पिछले साल भारत सरकार ने जीडीपी के आकलन की प्रक्रिया में बड़ा फेरबदल किया, जिसे लेकर उद्योग जगत, अर्थशास्त्रियों और नीति-निर्धारकों में चर्चा चल रही है. नयी गणना प्रक्रिया के कारण जीडीपी की वृद्धि दर में उछाल ने इस चर्चा को गति दी थी. अब रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन के बयान ने जीडीपी पर जारी बहस को और तेजी दे दी है. जीडीपी से जुड़ी इस चर्चा के विभिन्न पहलुओं पर नजर डाल रहा है आज का समय…
‘हमें वृद्धि की बात करते हुए सावधान रहने की जरूरत है’
जिस तरह से हम सकल घरेलू उत्पादन की गणना करते हैं, उसमें समस्याएं हैं, और इसी कारण हमें वृद्धि की बात करते हुए सावधान रहने की आवश्यकता है. इसे एक उदाहरण से समझते हैं- यदि एक मां दूसरे मां के बच्चे की देखभाल करने जाती है, और दूसरी मां पहली मां के बच्चे की देखभाल करने जाती है, तथा दोनों एक-दूसरे को बराबर मेहनताना देते हैं, तो दोनों वेतनों के जोड़ से सकल घरेलू उत्पादन बढ़ जायेगा. लेकिन, क्या इससे अर्थव्यवस्था में सुधार होगा? इससे आर्थिक स्थिति में विस्तार तो हुआ, क्योंकि दोनों ने एक-दूसरे को भुगतान किया, परंतु अर्थव्यवस्था पर इसके असर पर सवालिया निशान है.
यहां अगर यह मान लें कि बच्चे पड़ोसी की जगह अपनी मां की ही जरूरत महसूस करें, तो अर्थव्यवस्था कमजोर हो जायेगी. इसीलिए हमें ऐसे आकलन में सावधानी बरतने की जरूरत है. कभी-कभी हम वृद्धि इस कारण करते हैं क्योंकि लोग भिन्न क्षेत्रों में जा रहे हैं. यह बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि जब वे अलग-अलग क्षेत्रों में सक्रिय होते हैं, तो सही मायनों में वे कुछ ऐसा कर रहे होते हैं
जिससे मूल्य-संवर्द्धन होता है. निश्चित रूप से बहुत सारे लोगों ने सकल घरेलू उत्पादन के आकलन को बेहतर बनाने और प्रक्रिया को आगे ले जाने के बारे में विचार किया है. हमें इनके बारे में सोचना होगा.
– इंदिरा गांधी इंस्टीट्यूट ऑफ डेवेलपमेंट रिसर्च, मुंबई/28 जनवरी, 2016.
उपर्युक्त संबोधन के अगले दिन सीडी देशमुख स्मृति व्याख्यान में गवर्नर राजन ने सकल घरेलू उत्पादन पर उनकी राय से उठी चर्चा के बारे में स्पष्टीकरण देते हुए कहा- मेरा बयान सकल घरेलू उत्पादन के नये आंकड़ों या उनके संगणन की प्रक्रिया से बिल्कुल संबंधित नहीं था. मेरी राय में यह सामान्यतः सही है. आपको मेरा आशय समझने की जरूरत नहीं है. मैं जब भी बोलता हूं , तो स्पष्ट बोलता हूं.
– सीडी देशमुख स्मृति व्याख्यान, नयी दिल्ली/29 जनवरी, 2016.
अनिल रघुराज
संपादक, अर्थकाम डॉट कॉम
लगता नहीं कि भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन को उनका 4 सितंबर को खत्म हो रहा अपना तीन साल का कार्यकाल आगे बढ़वाने की कोई चाह है. न ही उनके अंदर कोई राजनीतिक लोमड़ या राजनयिक गिरगिट बैठा है, जो मौके व स्वार्थ को देख कर अपनी जुबान बदल दे. उनमें असुरक्षा का कोई भाव भी नहीं. इससे पहले वे भारत सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार थे और उससे भी पहले अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के मुख्य अर्थशास्त्री थे. अभी भी शिकागो यूनिवर्सिटी के ग्रेजुएट बिजनेस स्कूल में फाइनेंस के प्रोफेसर हैं और फिलहाल बिना वेतन की छुट्टी पर चल रहे हैं. इसलिए जो भी सच लगता है, बेबाक कह देते हैं.
मुंबई के एक शोध संस्थान में गुरुवार को उन्होंने कहा, ‘जिस तरह से हम जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) की गणना करते हैं, उसमें कुछ समस्याएं हैं. इसलिए हमें कभी-कभी महज विकास के बारे में बात करते हुए सावधान रहना चाहिए.’ इस पर सत्ता प्रतिष्ठान सकते में आ गया.
चर्चा चल पड़ी कि रिजर्व बैंक की सबसे बड़ी कुर्सी पर बैठा शख्स भारत सरकार के आंकड़ों पर संदेह जता रहा है. लेकिन, अगले ही दिन शुक्रवार को रघुराम राजन ने दिल्ली में एक व्याख्यानमाला में साफ कहा कि उन्होंने जो कहा था, ‘उसका जीडीपी के नये आंकड़ों या जीडीपी की गणना जिस तरह की जा रही है, उससे कोई लेना-देना नहीं था.’ उनका कहना था, ‘आपको मेरा इरादा नहीं तलाशना चाहिए. मैं जब बोलता हूं तो सीधा बोलता हूं.’
राजन ने अपनी सीधी बात एक उदाहरण देकर समझायी थी. मान लीजिए कि एक बच्चे की मां अपने बच्चे की देखभाल के लिए दूसरे बच्चे की मां को 500 रुपये देती है. दूसरे बच्चे की मां भी पहले बच्चे की मां को अपने बच्चे की देखभाल के लिए 500 रुपये देती है.
जीडीपी की गणना में इससे 1000 रुपये जुड़ जायेंगे. लेकिन, क्या सचमुच इससे अर्थव्यवस्था बेहतर हुई, क्योंकि दोनों का भुगतान तो आपस में कट कर शून्य हो गया! राजन ने जीडीपी की आम गणना में निहित इसी विसंगति को उठाया था.
असल में जीडीपी अर्थव्यवस्था को मापने का एक सैद्धांतिक तरीका है. इसमें माना जाता है कि लोग जितना खर्च करते हैं, उतना धन उन्हें उद्योग, व्यापार या सरकार से मिलता है. दोनों को सीधा-सीधा जोड़ कर अर्थव्यवस्था का आकार तय होता है. लोग अगर आय से जितना बचा कर कम खर्च करते हैं, अर्थव्यवस्था उतनी सिकुड़ जाती है. लेकिन लोगों की बचत निवेश में जाती है. इसी तरह सरकार जो टैक्स लगाती है, उससे लोगों की आय घटती है. लेकिन वह उस टैक्स में से इंफ्रास्ट्रक्चर या सार्वजनिक कामों पर जितना खर्च करती है, वह वापस अर्थव्यवस्था में आ जाता है. अगर बचत और टैक्स में निकले धन की मात्रा निवेश और सरकारी खर्च से कम है, तो अर्थव्यवस्था का आकार या जीडीपी घट जायेगा.
देश की अर्थव्यवस्था में एक और मद आयात व निर्यात का होता है. अगर किसी देश का निर्यात उसके आयात से ज्यादा हो, तो जीडीपी बढ़ता है और आयात निर्यात से ज्यादा हो, तो जीडीपी घट जाता है. इन गणनाओं के बाद मोटा-मोटी समीकरण यह बनता है कि जीडीपी= खपत+निवेश+सरकारी खर्च+(निर्यात-आयात).
रघुराम राजन विकास या संवृद्धि के संदर्भ में जीडीपी की इस गणना की अंतर्निहित कमी की बात कर रहे हैं. लेकिन, कहावत है कि चोर की दाढ़ी में तिनका. अपने यहां हुआ यह है कि साल भर पहले जनवरी 2015 में नरेंद्र मोदी नीत एनडीए सरकार ने जीडीपी के अलग-अलग तत्वों की गणना का स्वरूप ऐसा बदला कि 2013-14 की जिस 4.7 प्रतिशत की विकास दर को चुनावी प्रचार सभाओं में धिक्कारा गया था, वही बढ़ कर 6.9 प्रतिशत हो गयी.
कैसे यह कमाल हुआ, इसकी जटिलता में उतरने का यहां मौका नहीं है. मोटी बात यह है कि गणना में ग्रॉस वैल्यू एडेड (जीवीए) की धारणा शामिल की गयी और गणना का आधार वर्ष 2004-05 से बदल कर 2011-12 कर दिया गया.
अब शुक्रवार को ही केंद्रीय सांख्यिकीय संगठन (सीएसओ) की तरफ से नया संशोधन आया है कि असल में 2013-14 की विकास दर 6.9 प्रतिशत के बजाय 6.6 प्रतिशत रही है और वित्त वर्ष 2014-15 में जीडीपी दरअसल 7.3 प्रतिशत नहीं, बल्कि 7.2 प्रतिशत बढ़ी है.
इसमें भी जीडीपी के दो तरह के आंकड़े होते हैं. एक नॉमिनल जीडीपी और दूसरा रीयल या वास्तविक जीडीपी. इसके भ्रम का नमूना देखिए. सीएसओ के ताजा आंकड़ों के अनुसार, भारत का नॉमिनल जीडीपी वित्त वर्ष 2012-13 में 13.6 प्रतिशत, 2013-14 में 12.7 प्रतिशत और 2014-15 में 10.5 प्रतिशत बढ़ी है. वहीं रीयल डीजीपी की वृद्धि दर इस दौरान क्रमशः 5.6 प्रतिशत, 6.6 प्रतिशत और 7.2 प्रतिशत रही है.
मालूम हो कि नॉमिनल जीडीपी में से जब थोक मुद्रास्फीति की दर को घटा दिया जाता है, तो रीयल जीडीपी की विकास दर निकलती है. इसका भी कमाल देखिए कि सितंबर 2015 की तिमाही में देश की नॉमिनल जीडीपी 6 प्रतिशत बढ़ी थी. चूंकि उस दौरान थोक मुद्रास्फीति की दर ऋणात्मक में 1.4 प्रतिशत थी. इसलिए इसे घटाने पर ऋण और ऋण मिल कर धन बन गया और रीयल जीडीपी की विकास दर 6 के बजाय 1.4 प्रतिशत जुड़ कर 7.4 प्रतिशत हो गयी.
लेकिन, बैंक ऑफ अमेरिका-मेरिल लिंच जैसी मशहूर वित्तीय संस्था का कहना है कि अगर जीडीपी की गणना का पिछला तरीका अपनाया जाये, तो जुलाई-सितंबर 2015 की विकास दर 7.4 प्रतिशत की जगह 5.2 प्रतिशत ही निकलेगी और अप्रैल-जून 2015 की अवधि में जीडीपी की विकास दर का आंकड़ा 7 प्रतिशत के बजाय 5 प्रतिशत का हो जायेगा.
आंकड़ों की इन खींचतान में सवा सौ करोड़ भारतीयों के ‘हीनयान’ की तरफ से हम अपने नीति-नियामकों से बस यही कह सकते हैं कि गिनती की इस होड़ का कोई मतलब नहीं है.
मतलब इससे है कि हमसे सीधे या टेढ़े जो टैक्स लिया जा रहा है, उसका बड़ा हिस्सा वेतन-भत्तों, ब्याज अदायगी, मंत्रियों-सांसदों के रख-रखाव व सैर-सपाटों और सुरक्षा बलों जैसे गैर-आयोजना व्यय के बजाय सड़क, बिजली व पानी जैसे भौतिक इंफ्रास्ट्रक्चर और स्वास्थ्य व शिक्षा जैसे सामाजिक इंफ्रास्ट्रक्चर पर खर्च किया जाये. इस सरकारी खर्च से देश की जीडीपी भी बढ़ेगी और हमारे लिए भी रोजी-रोजगार का जुड़ाव थोड़ा आसान हो जायेगा.
जीडीपी के नये आंकड़ों पर यूं ही नहीं उठ रहे सवाल
अभिजीत मुखोपाध्याय
अर्थशास्त्री
एक दिन पहले ही रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन ने यह कह कर, कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की गणना प्रक्रिया को लेकर सावधान रहने की जरूरत है, न केवल सुर्खियां बटोरी थीं, बल्कि जीडीपी के नये आंकड़ों और उसे मापने की प्रक्रिया पर सवाल भी उठने लगे थे. हालांकि अगले ही दिन उन्होंने स्पष्ट किया कि उनका बयान जीडीपी मापने की प्रक्रिया के संबंध में एक सामान्य बयान था, जीडीपी के नये आंकड़ों को लेकर कुछ करने की जरूरत नहीं है. उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि उनकी राय में नये आंकड़े मोटे तौर पर सही हैं. अपने इस स्पष्टीकरण के साथ राजन ने भले ही यह जताने की कोशिश की हो कि सबकुछ सही चल रहा है, लेकिन इसने जीडीपी के आंकड़ों को फिर से चर्चा में ला दिया है.
इस संबंध में कई प्रमुख अर्थशास्त्री पिछले कुछ महीनों से जो कुछ भी कह रहे थे, नितांत निजी राय के रूप में भी, वे सब अब सार्वजनिक चर्चा का विषय बन रहे हैं. ऐसा इसलिए भी है, क्योंकि हाल में जीडीपी के आंकड़े, खासकर मैन्युफैक्चरिंग से जुड़े आंकड़े, उद्योगों और अर्थशास्त्रियों के संकेतकों से इतर दिख रहे थे. ऐसे में इस मुद्दे पर एक सतर्क और विस्तृत नजरिये की जरूरत तो है.
साख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय, जो जीडीपी के नये आंकड़ों की गणना प्रक्रिया का जिम्मा संभालता है, ने अपनी वेबसाइट पर 2011-12 को आधार वर्ष मानते हुए शुरू की गयी जीडीपी को मापने की प्रक्रिया के बारे में कुछ स्पष्टीकरण जारी किये हैं. पहला, ट्रांस-अटलांटिक क्षेत्र में 2008 की आर्थिक मंदी के चलते आधार वर्ष का चयन एक मुश्किल काम था.
सामान्य तौर पर किसी दशक का कोई शुरुआती वर्ष इसके लिए चुना जाता है, जो उतार-चढ़ाव से उदासीन रहा हो. इससे पहले के आंकड़ों में 2004-05 को आधार वर्ष बनाया गया था. हालांकि मंदी ने साख्यिकीय उदासीनता को प्रभावित किया, जिससे विकल्प सीमित हो गये. नतीजे के रूप में भले ही भारतीय अर्थव्यवस्था में 2011 के बाद से गिरावट के संकेतक दिख रहे हों, फिर भी 2011-12 को ही आधार वर्ष माना जा रहा है, क्योंकि इसके बाद के वर्षों के आधार पर अर्थव्यवस्था के आंकड़ों में और अधिक गिरावट दिखेगी.
अब एक नजर डालते हैं जीडीपी मापने के नये तरीकों पर. इससे पहले की मापन प्रक्रिया में उत्पादन के कारक लागत का उपयोग किया जाता था, लेकिन अब इसे मूल्य-वर्धित विधि (वैल्यू एडेड मेथड) में परिवर्तित कर दिया गया है. मूल्य-वर्धित विधि में केवल किसी खास उत्पादन प्रक्रिया में लगे मूल्य की गणना की जाती है. इसे एक उदाहरण से समझते हैं.
कोई लौह अयस्क उत्पादक यदि 500 रुपये का लोहा उत्पादित करता है, तो उसका मूल्य-वर्धन 500 रुपये हुआ. अब कोई स्टील उत्पादक इस पांच सौ रुपये के लोहे से 1200 रुपये का स्टील तैयार करता है, तो उसके द्वारा मूल्य-वर्धन 700 रुपये (1200-500) का हुआ. अब यदि कार के पुर्जे बनाने वाली कोई कंपनी यदि इस स्टील से 2500 रुपये के पुर्जे तैयार करता है, तो उसके द्वारा मूल्य-वर्धन 1300 रुपये (2500-1200) का हुआ. इस तरह यह प्रक्रिया आगे बढ़ती है.
यहां, मूल्य-वर्धन विधि के आधार पर मापने पर कुल उत्पादन 2500 रुपये (500+700+1300) का हुआ. जबकि इससे पहले की विधि में हर स्तर की उत्पादन लागत को जोड़ कर कुल उत्पादन का आकलन किया जाता था.
इस तरह जीडीपी को मापने की प्रक्रिया में एक बड़ा बदलाव हुआ. मंत्रालय का मानना है कि इस नये सांख्यिकीय आधार पर जीडीपी का आकार बड़ा हो गया. इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं.
जैसे- फैक्टर कॉस्ट मेथड में सामान्य उत्पादन का मूल्य-वर्धन कम होगा, यदि हम उत्पाद के ब्रांड वैल्यू पर भी विचार करें. मसलन, किसी ब्रांडेड जूते का मूल्य काफी अधिक होगा, यदि हम सिर्फ इनपुट कॉस्ट से तुलना करें. अब जीडीपी की नयी गणना प्रणाली में ब्रांड वैल्यू जैसी चीजों को भी शामिल कर लिया गया है.
सबसे बड़ा बदलाव मैन्युफैक्चरिंग जीडीपी की गणना प्रणाली में हुआ है. पुरानी सीरीज में, एक साल पहले के आइआइपी (इंडेक्स ऑफ इंडस्ट्रियल प्रोडक्शन) ग्रोथ के आधार पर आंकड़ों का अनुमान लगाया जाता था. फिर एएसआइ (एनुअल सर्वे ऑफ इंडस्ट्रीज) के आंकड़े उपलब्ध होने पर उनके आधार पर इन अनुमानों को संशोधित किया जाता था. आइआइपी और एएसआइ के आंकड़े स्थापना आधारित (इस्टेबलिशमेंट बेस्ड) होते थे यानी जिसमें उत्पादक इकाइ के उत्पादन और मूल्य-वर्धन (एएसआइ के मामले में) पर विचार किया जाता था.
मंत्रालय के अनुसार, बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज के आंकड़ों और रिजर्व बैंक के मौजूदा अध्ययनों के साथ एमसीए-21 कार्यक्रम के कार्यान्यवयन ने कॉरपोरेट जगत के वित्तीय आंकड़े उपलब्ध कराया है, जिसे नयी प्रक्रिया में मूल्य संवर्द्धन के साथ मैनुफैक्चरिंग का आकलन किया जाता है. उत्पादन इकाई से उद्यम के स्तर के आंकड़ों के इस बदलाव का मूल्य संवर्द्धन और वद्धि के लिए बहुत महत्व है. छोटी इकाई के लिए आम तौर पर उत्पादन और मूल्य संवर्द्धित उद्यम के बीच बहुत अंतर नहीं होता है, पर बड़ी इकाइयों में यह काफी बढ़ जाता है, क्योंकि उसमें उत्पादन के बाद के खर्च, जैसे- विपणन और अन्य सेवाएं भी मूल्य संवर्द्धन में योगदान देती हैं. मूल्य संवर्द्धन का यह हिस्सा जीडीपी में पहले नहीं जोड़ा जाता था.
इस बदलाव से नये आंकड़े बहुत प्रभावित हुए हैं. इसके अलावा, सेवा क्षेत्र के कुछ भागों में प्रक्रिया में परिवर्तन किया गया है. कृषि में भी अब ऊपज के साथ बागवानी, पशुपालन, मत्स्य पालन और जंगल को भी जोड़ा गया है. इसके परिणामस्वरूप, कृषि ऊपज में पिछले दो सालों में गिरावट के बावजूद 2014-15 में कृषि में सकारात्मक वृद्धि दर्ज की गयी है.
अब सवाल यह उठता है- क्या इसका मतलब यह है कि मंदी को लेकर व्यापक चिंता सही नहीं है? मंत्रालय इसका नकारात्मक उत्तर देता है और बताता है कि नयी संख्याएं मूल्य शृंखला को बेहतर तरीके से समाहित करती है और संभवतः मूल्य संवर्द्धन में अब अधिक उद्यम शामिल हैं, लेकिन अगर अर्थव्यवस्था के किसी हिस्से में मंदी है, तो उसका समाधान मापन के सांख्यिक प्रक्रिया द्वारा नहीं किया जा सकता है.
और यहीं नये आंकड़ों के बारे में भ्रम की स्थिति पैदा होती है. सरकार का दावा है कि अर्थव्यवस्था में सुधार हो रहा है, लेकिन वृद्धि के अन्य सूचक इस दावे की पुष्टि नहीं करते हैं. उदाहरण के लिए, दूसरी और तीसरी तिमाही के आकलन बताते हैं कि जीडीपी की वृद्धि दर 7.4 फीसदी है जो कि दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के संदर्भ में सर्वाधिक है.
लेकिन अगर उद्योगों को दिये बैंक ऋण को देखें (यह औद्योगिक वृद्धि का स्तरीय सूचक है), तो मौजूदा वित्त वर्ष में मार्च से अक्तूबर के बीच इसमें 0.3 फीसदी की ऋणात्मक वृद्धि है. इसी तरह से इस वर्ष के अधिकांश समय में निक्की मार्किट इंडिया जैसी इकाइयों द्वारा आकलित खरीद प्रबंधक सूचकांक (पीएमआइ, जो कि औद्योगिक वृद्धि का सूचक है), या मोटरसाइकिल बिक्री में बढ़ोतरी, जो कि ग्रामीण मांग में वृद्धि का सूचक है, जैसे सूचक या तो लगातार मंदी में हैं या फिर ऋणात्मक वृद्धि दिखा रहे हैं.
प्रशिक्षित अर्थशास्त्री भी अब सवाल उठाने लगे हैं- वैश्विक और घरेलू मांग में कमी और अर्थव्यवस्था के लगभग हर क्षेत्र में निराशा के बावजूद जीडीपी वृद्धि दर इतनी अधिक कैसे हैं? अभी इसका जवाब मिलना बाकी है.
सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) के गणित को समझिए
पिछले वर्ष जनवरी में केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय ने सकल घरेलू उत्पादन के निर्धारण की नयी प्रक्रिया घोषित की थी, जिसके अनुसार वर्ष 2013-14 में भारत की वास्तविक जीडीपी या मुद्रास्फीति के संयोजन के बाद जीडीपी की वृद्धि दर पूर्ववर्ती 4.7 फीसदी की जगह 6.9 फीसदी हो गयी. फरवरी में 2014-15 की अनुमानित दर 7.4 फीसदी आंकी गयी थी.
एक वित्तीय वर्ष में देश की सीमा के भीतर उत्पादित सभी वस्तुओं और सेवाओं के कुल मूल्य को सकल घरेलू उत्पादन कहा जाता है. यह पूरी तरह से आर्थिक गणना है और यह जीवन-स्तर जैसे गुणवत्ता से जुड़े पहलुओं को इंगित नहीं करता है. जीडीपी के बढ़ने का एक अर्थ यह भी हो सकता है कि आय में वृद्धि का अधिकांश हिस्सा धनिकों के पास जा रहा है. सांकेतिक जीडीपी को वर्तमान मूल्यों के आधार पर निर्धारित किया जाता है और इसमें मुद्रास्फीति को संज्ञान में नहीं लिया जाता है.
जीडीपी में वृद्धि के आकलन के लिए अंतर-वार्षिक तुलना करना आवश्यक होता है, जिसके लिए एक आधार वर्ष का निर्धारण किया जाता है. भारत में इसे हर पांच साल में बदल दिया जाता है. नयी प्रक्रिया में 2011-12 को आधार वर्ष माना गया है. इससे पहले 2004-05 आधार वर्ष था.
नयी प्रणाली के लागू होने से पहले मैनुफैक्चरिंग और व्यापारिक गतिविधियों के मापन के लिए औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आइआइपी) को प्रमुख बिंदु माना जाता था. इसमें उत्पादित इकाइयों की गणना होती थी, न कि उनके मूल्य में अंतर को संज्ञान में लिया जाता था. इसका मतलब यह हुआ कि उत्पादन के स्तर पर स्थिरता हो, पर उसके मूल्य में बहुत संवर्द्धन संभव है.
लेकिन यह अंतर जीडीपी में नहीं दिखता था. उद्योगों के वार्षिक सर्वेक्षण के आधार पर दो साल में सूचकांक का नवीनीकरण होता था तथा इसमें मूल्य का आकलन उत्पादक इकाई में वस्तु के मूल्य पर किया जाता था. लेकिन नयी प्रणाली में कॉरपोरेट मामलों के मंत्रालय के पास करीब पांच लाख कंपनियों के लेखा-जोखा के आधार पर उत्पादन का आकलन होता है. इसमें विपणन जैसी गतिविधियों के मूल्य भी जोड़े जाते हैं.
इस बदलाव के बाद 2013-14 में मैनुफैक्चरिंग में 5.3 फीसदी की वृद्धि उल्लिखित की गयी, जो पहले मात्र 0.7 फीसदी ही थी. नये मानक के आलोचकों का मानना है कि सैद्धांतिक रूप से यह बदलाव ठीक है, पर वास्तविक आंकड़े के साथ इनका मिलान करना मुश्किल है, क्योंकि बड़ी संख्या में ऐसी कंपनियां हैं जिनके उत्पादन को ठीक से आकलित नहीं किया जा सकता है.
इसी प्रकार पहले श्रम की सभी श्रेणियां समान थीं, पर अब ‘प्रभावी श्रम इनपुट’ के जरिये श्रम का श्रेणीकरण कर दिया गया है. अब खेती के उत्पादों के साथ पशुओं से जुड़े उत्पादन को भी जोड़ा जाता है. इस बदलाव की एक महत्वपूर्ण बात यह है कि पहले प्रयुक्त राष्ट्रीय सैंपल सर्वे के 1999 के आंकड़ों की जगह 2011-12 के आंकड़े इस्तेमाल में लाये जाते हैं.
इसी तरह से अब वित्तीय क्षेत्र की लगभग हर गतिविधि के मूल्य को जोड़ा जाता है, जबकि पहले रिजर्व बैंक में पंजीकृत बड़ी निजी गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों का ही हिसाब जोड़ा जाता था. जीडीपी की गणना में पहले सात स्वायत्त संस्थानों और चार राज्यों- दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, मेघालय और उत्तर प्रदेश- के स्थानीय निकायों की सूचना जोड़ी जाती थी, पर नयी व्यवस्था में इनकी संख्या काफी बढ़ी है और अनुदान तथा वित्तीय सहायता पाने वाले ऐसे 60 फीसदी संस्थानों के आंकड़े जोड़े जाते हैं.यह ध्यान में रखना चाहिए कि जीडीपी में बढ़ोतरी रोजगारविहीन वृद्धि है या इससे रोजगार के अवसर बढ़ रहे हैं
सुनील कुमार सिन्हा, इंडिया रेटिंग्स एंड रिसर्च
मेरी राय में रिजर्व बैंक के गवर्नर ने केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा निर्धारित सकल घरेलू उत्पादन को तय करने की नयी प्रक्रिया पर सवाल नहीं उठाया है. उनके कहने का मतलब यह है कि जीडीपी को व्यापक संदर्भों में समझा जाना चाहिए, खासकर यह ध्यान में रखना चाहिए कि जीडीपी में बढ़ोतरी रोजगारविहीन वृद्धि है या इससे रोजगार के अवसर बढ़ रहे हैं.
जहां तक जीडीपी के निर्धारण के नये तरीके का सवाल है, तो मेरा मानना है कि यह पूर्ववर्ती प्रक्रिया से बेहतर है तथा यह वैश्विक स्तर पर प्रयुक्त तरीकों के निकट भी है. इसके परिणामस्वरूप अब भारत के जीडीपी की वृद्धि की तुलना अन्य देशों की दरों से की जा सकती है. पहले ऐसा संभव नहीं था.
(बिजनेस टुडे)

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