कुंभों का साल है 2016
मकरसंक्रांति के मौके पर हरिद्वार में अर्ध कुंभ की शुरुआत हो गयी है. हर छह साल पर आयोजित होनेवाला यह अर्ध कुंभ इस साल अप्रैल महीने तक चलेगा. 8 फरवरी को इस अर्ध कुंभ के अगले स्नान पर बड़े पैमाने पर श्रद्धालु हरिद्वार पहुंचेंगे. हरिद्वार में इस कुंभ को लेकर अच्छी तैयारी की गयी है. […]
मकरसंक्रांति के मौके पर हरिद्वार में अर्ध कुंभ की शुरुआत हो गयी है. हर छह साल पर आयोजित होनेवाला यह अर्ध कुंभ इस साल अप्रैल महीने तक चलेगा. 8 फरवरी को इस अर्ध कुंभ के अगले स्नान पर बड़े पैमाने पर श्रद्धालु हरिद्वार पहुंचेंगे. हरिद्वार में इस कुंभ को लेकर अच्छी तैयारी की गयी है. 22 अप्रैल को जब यह कुंभ मेला खत्म होगा, उसी दिन उज्जैन में सिंहस्थ कुंभ शुरू होे जायेगा. वहां भी कुंभ को लेकर अच्छी-खासी तैयारियां चल रही हैं. उज्जैन में शिप्रा नदी के किनारे आयोजित होनेवाला कुंभ मेला 21 मई तक चलेगा.
2016 को कुंभों का साल माना जाता है. क्योंकि इस साल हरिद्वार में अर्ध कुम्भ और उज्जैन में सिंहस्थ कुम्भ का आयोजन हो रहा है. कुंभ मेला हिन्दू धर्म का एक महत्त्वपूर्ण पर्व है, जिसमें करोड़ों श्रद्धालु कुम्भ पर्व स्थल- हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में स्नान करते हैं. इनमें से प्रत्येक स्थान पर प्रति बारहवें वर्ष में इस पर्व का आयोजन होता है. मेला प्रत्येक तीन वर्षो के बाद नासिक, इलाहाबाद, उज्जैन और हरिद्वार में बारी-बारी से मनाया जाता है. इलाहाबाद में संगम के तट पर होने वाला आयोजन सबसे भव्य और पवित्र माना जाता है. इस मेले में करोड़ों की संख्या में श्रद्धालु सम्मिलित होते है. ऐसी मान्यता है कि संगम के पवित्र जल में स्नान करने से आत्मा शुद्ध हो जाती है. हरिद्वार और प्रयाग में दो कुंभ पर्वों के बीच छह वर्ष के अंतराल में अर्द्धकुंभ होता है. अर्द्ध या आधा कुम्भ, हर छह वर्षो में संगम के तट पर आयोजित किया जाता है. पवित्रता के लिए अर्द्ध कुम्भ भी पूरी दुनिया में लाखों श्रद्धालुओं को आकर्षित करती है. माघ मेला संगम पर आयोजित एक वार्षिक समारोह है.
कुम्भ पर्व एक अमृत स्नान और अमृतपान की बेला है. इसी समय गंगा की पावन धारा में अमृत का सतत प्रवाह होता है. इसी समय कुम्भ स्नान का संयोग बनता है. प्राचीन संस्कृत वाङ्मय के अध्ययन से ऐसा नहीं प्रतीत होता कि प्रयाग, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन, इन चारों स्थानों पर कुम्भ मेलों का सूत्रपात किसी एक केन्द्रीय निर्णय के अन्तर्गत, किसी एक समय पर, एक साथ किया गया होगा. कुम्भ की परम्परा का क्रमश: विकास हुआ लगता है. किन्तु जिसने भी किया, जब भी किया, उसके पीछे भारत की सांस्कृतिक चेतना और एकता को जाग्रत व सुदृढ़ करने की दृष्टि अवश्य विद्यमान थी. प्रचलित धारणा के अनुसार चार स्थानों पर कुम्भ परम्परा प्रारंभ करने का श्रेय भी आदि शंकराचार्य को ही दिया जाता है.
कहा जाता है कि उन्होंने ही भारत की सन्त-शक्ति को गिरी, पुरी, भारती, तीर्थ, वन, अरण्य, पर्वत, आश्रम, सागर तथा सरस्वती नामक दस वर्णों में गठित किया और भारतीय समाज के प्रत्येक वर्ग में धर्म-चेतना जगाने का दायित्व उन्हें सौंपा. आज भी इसी वजह से इन जगहों पर कुंभ के मौके पर लाखों की भीड़ उमड़ती है. इन दिनों इस मौके को सामाजिक मसलों पर संदेश देने के लिए उपयोग किया जा रहा है.
माघ पूर्णिमा में स्नान का महत्व
भारतीय संवत्सर का ग्यारहवां चंद्रमास और दसवां सौरमास माघ कहलाता है. मघा नक्षत्र से युक्त होने के कारण इस महीने का नाम का माघ नाम पड़ा. ऐसी मान्यता है कि इस मास में शीतल जल में डुबकी लगानेवाले पापमुक्त होकर स्वर्ग लोक जाते हैं. शास्त्रों में कहा गया है कि माघी पूर्णिमा पर स्वंय भगवान विष्णु गंगाजल में निवास करतें है अत: इस पावन समय गंगाजल का स्पर्शमात्र भी स्वर्ग की प्राप्ति देता है.
इसके सन्दर्भ में यह भी कहा जाता है कि इस तिथि में भगवान नारायण क्षीर सागर में विराजते हैं तथा गंगा जी क्षीर सागर का ही रूप है. प्रयाग में प्रतिवर्ष माघ मेला लगता है. हजारों भक्त गंगा-यमुना के संगम स्थल पर माघ मास में पूरे तीस दिनों तक (पौष पूर्णिमा से माघी पूर्णिमा तक) कल्पवास करते है.
कार्तिक स्नान का महत्व भी कुंभ जैसा
का र्तिक स्नान को पुराणों में व्रत व तप की दृष्टि से मोक्ष प्रदान करने वाला बताया गया है. ‘स्कंदपुराण’ के अनुसार कार्तिक मास में किया गया स्नान व व्रत भगवान विष्णु की पूजा के समान कहा गया है. कार्तिक मास में शुक्ल पक्ष की एकादशी को तुलसी विवाह और पूर्णिमा को गंगा स्नान किया जाता है.
कार्तिक मास में स्नान किस प्रकार किया जाए, इसका वर्णन शास्त्रों में इस प्रकार लिखा है- कार्तिक व्रती को सर्वप्रथम गंगा, विष्णु, शिव तथा सूर्य का स्मरण कर नदी, तालाब या पोखर के जल में प्रवेश करना चाहिए. उसके बाद नाभिपर्यन्त जल में खड़े होकर विधिपूर्वक स्नान करना चाहिए. गृहस्थ व्यक्ति को काला तिल तथा आंवले का चूर्ण लगा कर स्नान करना चाहिए, परंतु विधवा तथा संन्यासियों को तुलसी के पौधे की जड़ में लगी मृत्तिका (मिट्टी) को लगा कर स्नान करना चाहिए. सप्तमी, अमावस्या, नवमी, द्वितीया, दशमी व त्रयोदशी को तिल एवं आंवले का प्रयोग वर्जित है. इसके बाद व्रती को जल से निकल कर शुद्ध वस्त्र धारण कर विधि-विधानपूर्वक भगवान विष्णु का पूजन करना चाहिए.
कार्तिक माह में किये स्नान का फल, एक सहस्र बार किए गंगा स्नान के समान, सौ बार माघ स्नान के समान है. जो फल कुम्भ में प्रयाग में स्नान करने पर मिलता है, वही फल कार्तिक माह में किसी पवित्र नदी के तट पर स्नान करने से मिलता है.