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वे चमकाते राजनीति भुगतता है देश

संवेदनशील मुद्दों पर भी बयानबाजी से परहेज नहीं 2004 में जिस इशरत जहां के मुठभेड़ में मारे जाने पर सवाल उठाये जा रहे थे, उसे एक पूर्व आतंकी हेडली ने लश्कर-ए-तैयबा का आतंकी बताया है. यह इस बात को समझने के लिए एक उदाहरण है कि वोट की खातिर राष्ट्रहित से जुड़े मुद्दों को उछाला […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | February 13, 2016 1:46 AM

संवेदनशील मुद्दों पर भी बयानबाजी से परहेज नहीं

2004 में जिस इशरत जहां के मुठभेड़ में मारे जाने पर सवाल उठाये जा रहे थे, उसे एक पूर्व आतंकी हेडली ने लश्कर-ए-तैयबा का आतंकी बताया है. यह इस बात को समझने के लिए एक उदाहरण है कि वोट की खातिर राष्ट्रहित से जुड़े मुद्दों को उछाला जाता है. पक्ष-विपक्ष एक-दूसरे को कटघरे में खड़ा करने का मौका ढूंढ़ता है.

जून, 2004 में गुजरात में पुलिस की मुठभेड़ में चार लोग मारे गये, जिसमें इशरत जहां भी शामिल थी. तब कांग्रेस के कई नेताओं ने इसकी सत्यता पर न केवल सवाल खड़ा किया था, बल्कि इसके पीछे भाजपा के बड़े नेताओं की साजिश भी बताया था. अब मुंबई हमले की साजिश में शामिल रहा एक आतंकी डेविड हेडली ने इशरत को लश्कर-ए-तैयबा की महिला विंग का मेंबर बताया है. हालांकि बयानबाजी अब भी खत्म नहीं हुई है. भाजपा के नेताओं ने कांग्रेस से माफी मांगने को कहा है, तो कांग्रेस कह रही है कि वह माफी क्यों मांगे, जांच होनी चाहिए.

किसी घटना, भले ही वह राष्ट्रहित से जुड़ी हो, को वोट के चश्मे से देखने का यह अकेला उदाहरण नहीं है. संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरु और मुंबई में हमले के दोषी कसाब की फांसी को लेकर भी राजनेता बयानों के तीर चलाते रहे हैं.

इशरत जहां अपने तीन अन्य साथियों के साथ 15 जून, 2004 को गुजरात में पुलिस मुठभेड़ में मारी गयी थी. इस मुठभेड़ पर सवाल उठे, तो पहले मजिस्ट्रेटी और फिर सीबीआइ जांच हुई. अब हेडली ने इशरत को आतंकी बताया है. 11 साल पीछे चलें, तो पायेंगे कि मुठभेड़ के बाद कांग्रेस समेत कई दलों ने एक दल विशेष को घेरने के लिए इस मुठभेड़ को मोहरा बनाया. कांग्रेस के नेता दिग्विजय सिंह ने सबसे पहले इस पर सवाल खड़ा किया और अपनी ही सरकार (केंद्र) से पूछा कि इशरत का सच क्या है. सुशील कुमार शिंदे (जुलाई, 2013) ने तो यहां तक कहा कि कथित फरजी मुठभेड़ को अंजाम देने के दोषियों को दंडित किया जाना चाहिए. तब तत्कालीन गृह मंत्री पी चिदंबरम ने खुल कर कहा कि यह मुठभेड़ फरजी नहीं है,तो पार्टी के कुछ नेता उनसे नाराज भी हुए थे.

तब केंद्रीय गृह मंत्रालय ने यह भी माना कि इशरत और जावेद आतंकी गतिविधियों में संलिप्त थे, इसके पुख्ता प्रमाण हैं. इस कांड से जुड़े तब के कुछ साक्ष्य यह भी कह रहे हैं कि अमित शाह और मोदी को फंसाने के लिए केंद्रीय गृह मंत्रालय ने एनआइए की न सिर्फ पूरी फाइल दबा दी, बल्कि मामले को देख रहे संयुक्त निदेशक लोकनाथ बेहरा को कुरसी से ही हटा दिया था.

हेडली ने बेहेरा को बताया था कि गुजरात मुठभेड़ में मारी गयी लड़की इशरत जहां आतंकवादी थी और लश्कर-ए-तैयबा के मुज़म्मिल मॉड्यूल की सदस्य थी. दिल्ली लौटकर ये रिपोर्ट बेहेरा ने तत्कालीन गृह मंत्री पी चिदंबरम को सौंपी थी. चिदंबरम ने रिपोर्ट के कुछ अंश मीडिया से साझा किये, लेकिन इशरत जहां के खुलासे पर वह चुप रहे.

26 नवंबर, 2011 को मुंबई हमले के दोषी कसाब को 21 नवंबर, 2012 को फांसी दी गयी. फांसी के पहले खूब राजनीति हुई और वोट बैंक को सुरक्षित रखने के ख्याल से बयान दिये गये, यह समझे बगैर कि न्यायिक प्रक्रिया को पूरा होने में समय लगता है. तब शिव सेना प्रमुख बाल ठाकरे (अब स्वर्गीय) ने यह कहते हुए माहौल को गरम कर दिया था कि अब तो लगता है कि कसाब और अफजल गुरु क्रिकेट मैच का टिकट भी मांगेंगे वो भी बिरियानी के साथ. दरअसल कसाब को बिरयानी खिलाने के मामले की भी अपनी कहानी है, जिसका सच उसकी फांसी के बाद सामने आया. मुंबई हमले का केस देख रहे सरकारी वकील उज्जवल निकम ने 20 मार्च, 2015 को यह खुलासा किया था कि कसाब ने न कभी बिरयानी मांगी, न ही उसे परोसी गयी. इसे आतंकी के पक्ष में बनायी जा रही ‘भावनात्मक लहर’ को रोकने के लिए ‘गढ़ा’ गया था. इसके पहले भाजपा ने बिरयानी को मुद्दा बना कर सरकार पर निशाना साधा था.

2011 में संसद पर हमले के दोषी अफजल को नौ फरवरी, 2013 को तिहाड़ जेल में फांसी दी गयी. लेकिन, इस पर अब तक बयानबाजी और राजनीति चल रही है. जेएनयू का माहौल गरम है.

अफजल गुरु को जब तक फांसी नहीं दी गयी, तब तक भाजपा व शिव सेना के नेता तत्कालीन यूपीए सरकार पर तरह-तरह के आरोप मढ़ते रहे. जब फांसी हुई, तो भाजपा के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी ने जो बयान दिया, उसका लब्बोलुआब यह था कि सुशील कुमार शिंदे (कांग्रेस नेता व तत्कालीन केंद्रीय मंत्री) के हिंदू आतंकवाद के बयान से उत्पन्न हालात से निबटने के लिए अफजल को फांसी दी गयी. शिंदे ने कुछ दिन पहले ही कहा था कि आरएसएस के प्रशिक्षण शिविरों में आतंवाद की ट्रेनिंग दी जाती है.

हालांकि कांग्रेस ने उनके बयान से किनारा कर लिया था. इस पर कांग्रेस के नेता मनीष तिवारी ने एनडीए सरकार के कार्यकाल के दौरान आतंकी घटनाओं की फेहरिश्त गिना दी. वह बोले, उन लोगों को जरूर अपने गिरेबान में झांकने की जरूरत है, जो आतंकवादियों का साथ देकर उन्हें कंधार में छोड़कर आते हैं. जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अबदुल्ला ने अपनी राजनीति सुविधा के लिहाज से बहुत बाद में यह भी कहा कि उसे राजनीतिक कारणों से फांसी दी गयी.

19 सितंबर, 2008 को दिल्ली के बटाला हाउस में आतंकियों से मुठभेड़ में दो आतंकी मारे गये और इंस्पेक्टर मोहन चंद शर्मा शहीद हुए थे. इस पर भी जो बयान आये, उससे पूरा देश भौंचक था.

तब दिग्विजय सिंह ने कहा था कि बटाला हाउस मुठभेड़ फरजी है. मामले की न्यायिक जांच होनी चाहिए. लेकिन, कांग्रेस की सरकार के ही मंत्री पी चिदंबरम ने कहा कि यह मामला दोबारा खोलने की जरूरत नहीं है.कोर्ट ने माना कि इंडियन मुजाहिद्दीन का आतंकवादी सदस्य शहजाद अहमद एमसी शर्मा की हत्या का दोषी है.

दरअसल, वोट की खातिर ऐसे बयान, फिर इन बयानों पर पलटवार अपनी-अपनी राजनीति की सुविधा की खातिर दिये जाते रहे हैं. इसकी चिंता किये बगैर कि इससे देश, राजनीति या समाज का क्या नुकसान होगा. साहबानो प्रकरण का मामला भी देश देख चुका है.

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