इशरत जहां : कई सवाल, कई जवाब
गुजरात के अहमदाबाद में जून, 2004 में हुए कथित मुठभेड़ में पुलिस द्वारा मारे गये चार लोगों में 19 वर्षीया इशरत जहां भी थी़ उसके आतंकी होने या नहीं होने का सवाल एक बार िफर सुर्खियों में है. इस विवाद में राजनीति, सरकार, पुलिस, प्रशासन और न्यायपालिका शामिल हैं. बयानों, दावों और प्रतिक्रियाओं का लंबा […]
गुजरात के अहमदाबाद में जून, 2004 में हुए कथित मुठभेड़ में पुलिस द्वारा मारे गये चार लोगों में 19 वर्षीया इशरत जहां भी थी़ उसके आतंकी होने या नहीं होने का सवाल एक बार िफर सुर्खियों में है. इस विवाद में राजनीति, सरकार, पुलिस, प्रशासन और न्यायपालिका शामिल हैं.
बयानों, दावों और प्रतिक्रियाओं का लंबा सिलसिला चल पड़ा है. मौजूदा माहौल में सही और गलत का फैसला करना बहुत मुिश्कल है. मुठभेड़ के फर्जी होने का मसला पहले से ही अदालत के विचाराधीन है. इस मामले के विविध आयामों को समेटते हुए प्रस्तुत है आज का विशेष…
जून, 2004 में अहमदाबाद में गुजरात पुलिस ने कथित मुठभेड़ में चार संदिग्ध आतंकियों को मार दिया था. पुलिस का कहना था कि उसे खुफिया जानकारी मिली थी कि मारे गये लोग राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या के इरादे से शहर में घुसे थे.
लेकिन, इस मामले की शुरुआती जांच से ही कई तरह के सवाल खड़े होने लगे और कई लोग इस मुठभेड़ की सच्चाई को संदेह की नजर से देखने लगे. उच्च न्यायालय द्वारा गठित विशेष जांच दल (एसआइटी) और केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआइ) ने इस मुठभेड़ को फर्जी बताया और गुजरात पुलिस के अनेक अधिकारियों को दोषी माना. सीबीआइ ने आइबी के कुछ अधिकारियों की मिलीभगत को भी रेखांकित किया. फिलहाल यह मुकदमा अदालत में विचाराधीन है.
इसी बीच बयानबाजियों के नये सिलसिले ने इस प्रकरण को फिर से चर्चा में ला दिया है और इसके विभिन्न पहलुओं पर बहस तेज हो गयी है. लश्करे-तय्यबा के आतंकी डेविड हेडली ने बयान दिया है कि इशरत जहां लश्कर से संबद्ध थी. पूर्व गृह सचिव जीके पिल्लई ने कहा है कि तत्कालीन गृह मंत्री के आदेश से हलफनामे में बदलाव किया गया. एक अन्य पूर्व अधिकारी ने भी इसी तरह की बात कही और आरोप लगाया कि एसआइटी के एक अधिकारी ने उन्हें प्रताड़ित भी किया था. एसआइटी के पूर्व सदस्य सतीश वर्मा ने कहा गया है कि ये आरोप बेबुनियाद हैं और यह मुठभेड़ पूरी तरह से फर्जी थी.
मामला क्या है
19 वर्षीय इशरत जहां को जावेद शेख उर्फ प्रणेश पिल्लई तथा कथित पाकिस्तानी नागरिकों- अमजद अली राणा और जीशान जौहर के साथ 15 जून, 2004 को मार दिया गया था. इशरत के पास से बरामद एक पहचान पत्र के अनुसार वह मुंबई के गुरु नानक खालसा कॉलेज में विज्ञान की छात्रा थी.
गुजरात पुलिस ने दावा किया था कि उसे खुफिया जानकारी मिली थी कि जावेद नीले रंग की इंडिका कार, एमएच02 जेए 4786, में दो फिदायीन हमलावरों के संग अहमदाबाद आ रहा है और इनका इरादा मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की हत्या है.
अहमदाबाद के शहरी अपराध शाखा में दर्ज प्राथमिकी के अनुसार, 2004 में मई के आखिर और जून के शुरू में अहमदाबाद के पुलिस आयुक्त केआर कौशिक को यह जानकारी मिली थी. प्राथमिकी में अभियुक्तों के रूप में ‘दो पाकिस्तानी फिदायीन’ और पुणे निवासी ‘एक जावेद’ दर्ज हैं.
इसमें यह भी लिखा है कि संयुक्त पुलिस आयुक्त पीपी पांडे को उनके ‘व्यक्तिगत सूत्रों’ से इस कार और उसमें सवार लोगों के बारे में जानकारी मिली थी.
इस प्राथमिकी में पूरे अभियान का वर्णन है और इसके अंतिम हिस्से में ‘चालक के साथवाली सीट पर बैठे एक महिला आतंकी’ का उल्लेख है, पर उसे नाम के साथ चिह्नित नहीं किया गया है. उस समय तक 2002 में हुए समीर खान पठान मुठभेड़ और 2003 के सादिक जमाल मेहतर मुठभेड़ को लेकर सवाल उठ चुके थे.
अगस्त, 2004 में इशरत जहां की मां शमीमा कौसर ने गुजरात उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर इस कथित फर्जी मुठभेड़ की जांच सीबीआइ से कराने की मांग की. वर्ष 2007 में, पुलिस अधिकारियों- डीजी वंजारा, राजकुमार पांडियन और दिनेश एमएन- को सोहराबुद्दीन शेख फर्जी मुठभेड़ मामले में गिरफ्तार कर लिया गया. वर्ष 2009 में मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट एसपी तमांग ने इशरत जहां मुठभेड़ मामले की जांच के बाद निर्णय दिया कि यह मुठभेड़ फर्जी थी और मारे जाने का जो समय पुलिस ने बताया है, उससे काफी पहले चारों लोगों की हत्या की जा चुकी थी.
सीबीआइ की जांच में क्या मिला?
गुजरात हाइकोर्ट द्वारा गठित एसआइटी की जांच के बाद इशरत जहां एनकाउंटर मामला वर्ष 2011 में सीबीआइ के पास आया. सीबीआइ ने अपनी जांच कहा कि एनकाउंटर आइबी और गुजरात पुलिस अधिकारी के बीच षड्यंत्र का नतीजा था. दो साल बाद सीबीआइ ने सात पुलिस अधिकारियों के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की, जिसमें से गुजरात कैडर के तीन आइपीएस ऑफिसर और चार आइबी के अधिकारी शामिल थे. इसमें से आइपीएस ऑफिसर पीपी पांडेय, डीजी वंजारा, गिरीश सिंघल, डीएसपी तरुन बरोत, रिटायर्ड डीएसपी जेजी परमार, इंस्पेक्टर भरत पटेल और बरोत के पूर्व सिक्योरिटी कमांडो अनाजु चौधरी की गिरफ्तारी हुई.
सीबीआइ द्वारा समय पर चार्जशीट फाइल नहीं कर पाने के कारण गिरीश सिंघल, तरुन बरोत और अनाजु चौधरी को जमानत मिल गयी.
सीबीआइ ने कुल मिला कर 11 आरोपियों के खिलाफ दो चार्जशीट दाखिल की. इनमें 12वें अभियुक्त का नाम कमांडो मोहन कलसावा था, जिसकी 2007 में ही मौत हो चुकी थी. भरत पटेल का नाम चार्जशीट में नहीं था. यह निष्कर्ष निकाला गया कि फर्जी एनकाउंटर गुजरात पुलिस और एसआइबी (सब्सिडरी इंटेलीजेंस ब्यूरो) का संयुक्त ऑपरेशन का परिणाम था.
यह भी पाया गया कि हथियार एसआइबी की ऑफिस से पहुंचाये गये थे. चार्जशीट के मुुताबिक, 14 जून, 2004 को डीजी वंजारा कि निर्देश पर जीएल सिंघल एसआइबी की ऑफिस गये और वहां से बस्ते में हथियार लेकर आये. यह बैग निजामुद्दीन बर्हानमियां के माध्यम से तरुन ए बरोत तक पहुंचाया गया. उस समय एसआइबी की कमान राजेंद्र कुमार के हाथ में थी.
क्या था एफिडेविट
गृह मंत्रालय में आंतरिक सुरक्षा मामलों के पूर्व अंडरसेक्रेटरी आरवीएस मणि ने इस मामले में वर्ष 2009 में गुजरात हाइकोर्ट में दो महीनों के अंतराल पर दो एफिडेविट फाइल किये थे.
पहले एफिडेविट में बताया गया कि इशरत जहां और उसके सहयोगी आतंकी थे, जबकि दूसरे में इस बात का जिक्र नहीं किया गया था. इस मामले में सीबीआइ ने मणि से 2013 पूछताछ की थी. मणि ने तथ्यों को बदलने में डाले गये दबाव की बात स्वीकार की है. फिलहाल, मणि ने इस बार तथ्यों को बदलने के लिए सतीश वर्मा द्वारा प्रताड़ित करने की बात कही है.
एसआइटी की जांच
गुजरात उच्च न्यायालय द्वारा नियुक्त एसआइटी ने 2004 में अपराध शाखा की महिला इकाई की एसीपी परीक्षिता राठौड़ की जांच में भारी गलतियां पायीं. एसआइटी के मुखिया केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल के सहायक महानिदेशक आरआर वर्मा थे और गुजरात कैडर के दो पुलिस अधिकारी- मोहन झा और सतीश वर्मा- इसके सदस्य थे. एसआइटी का कहना था कि राठौड़ ने हिरासत में पूछताछ या पहचान के बगैर अनुमंडल मजिस्ट्रेट को विभिन्न नाम दिये थे.
कथित मुठभेड़ में शामिल पुलिस अधिकारियों के हथियारों की न तो फोरेंसिक जांच की गयी और न ही पुलिस वाहनों के लॉग बुक परखे गये. एसआइटी ने बाद में पाया कि कथित रूप से प्रयुक्त वाहन वास्तव में मुठभेड़ में इस्तेमाल ही नहीं हुए थे. एसआइटी ने यह भी पाया कि अहमदाबाद के पुलिस आयुक्त को कथित तौर पर मिली खुफिया जानकारी का कोई दस्तावेजी सबूत नहीं था तथा प्राथमिकी और राठौड़ की रिपोर्ट में अंतर था. इस दौरान तैयार गोपनीय रिपोर्टों में संकेत मिले थे कि मृतकों में से दो मुठभेड़ से पहले ही पुलिस हिरासत में थे.
गृह मंत्रालय फिर से शुरू कर सकता है जांच
इशरत जहां प्रकरण में सामने आये विभिन्न बयानों के मद्देनजर गृह मंत्रालय 2004 में हुए मुठभेड़ मामले की जांच फिर से शुरू कर सकता है. रिपोर्टों के अनुसार, यह कदम पूर्व गृह सचिव जीके पिल्लई के बयान के बाद उठाया जा रहा है, जिसमें उन्होंने दावा किया है कि इशरत जहां मामले में गृह मंत्रालय द्वारा दिया गया दूसरा हलफनामा तत्कालीन गृह मंत्री पी चिदंबरम के द्वारा बदला गया था.
पिल्लई का कहना है कि ये बदलाव राजनीतिक कारणों से किये गये थे. चिदंबरम ने बदलाव को सही ठहराते हुए कहा है कि इस पर पिल्लई ने कोई ऐतराज नहीं जताया था और इस फैसले में वे भी शामिल थे. वहीं पिल्लई का कहना है कि गृह मंत्री के यहां से फाइल आने के कारण उन्होंने अपना विरोध दर्ज नहीं किया था.
बहरहाल, अदालत में केंद्रीय जांच ब्यूरो ने बहुत पहले इंटेलिजेंस ब्यूरो के कुछ अधिकारियों के विरुद्ध आरोप पत्र दाखिल कर दिया है, पर अभी तक आरोप तय नहीं हुए हैं. दो वर्ष पूर्व गृह मंत्रालय ने अधिकारियों के विरुद्ध मामला दर्ज करने की मंजूरी नहीं दी थी, क्योंकि उसकी नजर में सीबीआइ द्वारा जुटाये गये सबूत पर्याप्त नहीं थे.
अधिकारियों से परामर्श कर बदला गया था एफिडेविट : पी चिदंबरम
इशरत जहां मामले में 2009 में फाइल किये गये दूसरे एफिडेविट के लिए पूर्व गृहमंत्री पी चिदंबरम ने तत्कालीन गृह सचिव जीके पिल्लई को बराबर का जवाबदेह बताया है. इसकी जिम्मेवारी लेते हुए चिंदबरम ने इस एफिडेविट को बिल्कुल सही बताया. पूर्व गृह सचिव पिल्लई के अनुसार कि केंद्र के संशोधित एफिडेविट में चिदंबरम के निर्देश पर ही इशरत जहां के लश्कर-ए-तैयबा के सदस्य होने के दावे को हटा दिया गया था. चिदंबरम के मुताबिक मामला संज्ञान में आने के बाद उन्हें पता चला कि पहले एफिडेविट में काफी अस्पष्टता थी और यह उनकी मंजूरी के बिना ही फाइल कर दिया गया था.
चिदंबरम के अनुसार, एक मंत्री के तौर पर उनकी यह जिम्मेवारी थी कि पहले एफिटडेविट में जरूरी सुधार किया जाये, इसलिए गृह सचिव, आइबी के डायरेक्टर और अन्य अधिकारियों से परामर्श करके पूरक शपथपत्र दाखिल किया गया. उनके अनुसार, असली मकसद दूसरे एफिडेविट में स्पष्ट कर दिया गया था. एआइसीसी मीडिया ब्रीफिंग में 2009 को एफिडेविट को पढ़ते हुए चिदंबरम ने पूछा था कि दूसरा एफिडेविट में कौन सा हिस्सा गलत है? उन्होंने एफिडेविट की पूरी जिम्मेवारी लेते हुए कहा था कि यह दुर्भाग्य पूर्ण है कि इसमें बराबर के जवाबदेह पूर्व गृह सचिव आज इस मामले में दूरी बना रहे हैं.
संसद हमले के दोषी अफजल गुरु को 2013 में फांसी देने के मामले पर चिदंबरम ने कहा था कि शायद निर्णय सही तरीके से नहीं किया गया. लेकिन सरकार में रहते हुए आप यह नहीं कह सकते कि कोर्ट ने सही फैसला नहीं किया. क्योंकि सजा देने का काम सरकार का ही था, लेकिन एक स्वतंत्र व्यक्ति के तौर पर आप अपना भिन्न मत रख सकते हैं.
दबाव में बदला हलफनामा : आरवीएस मणि
सुप्रीम कोर्ट में दायर पहले हलफनामे में इशरत जहां को आतंकी बताया गया था, जबकि दूसरे हलफनामे में उसके आतंकी होने की बात से इनकार किया गया था. आरवीएस मणि उस समय गृह मंत्रालय के आंतरिक सुरक्षा विभाग में अंडर सेक्रेटरी थे. एक टीवी चैनल को दिये गये इंटरव्यू में मणि ने कहा, ‘इशरत और उसके साथियों को आतंकी नहीं बताने का दबाव डाला गया था.
सुप्रीम कोर्ट में दाखिल किये गये हलफनामे को बदलने के लिए मुझसे कहा गया. मुझे रबर स्टांप बनाने की कोशिश की गयी और इस मामले में सबूतों को गढ़ने को कहा गया. एसआइटी के मुखिया सतीश वर्मा ने मुझे बहुत टॉर्चर किया. वर्मा ने मुझे सिगरेट से भी दागा.
सीबीआइ के अधिकारी अक्सर मेरा पीछा करते रहते थे. मैं अक्सर दिल्ली में एक खास दक्षिण भारतीय मंदिर में जाता था. वहां भी सीबीआइ की एक महिला अधिकारी मेरा पीछा करती थीं. मुझे इतना परेशान किया गया कि पूरा परिवार दहशत में आ गया. मेरी मां बीमार थीं. मुझे परेशान देख कर उनकी सेहत और खराब हो गयी और इसी कारण से जनवरी, 2014 में उनकी मौत हो गयी.’ मणि के हवाले से ‘यूनीवार्ता’ की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि पहला हलफनामा उन्होंने ही तैयार किया था और इसे गृह मंत्रालय और विधि सचिव ने मंजूरी दी थी. दूसरा हलफनामा दाखिल करने के पीछे क्या वजह थी, इसके बारे में उन्हें कोई जानकारी नहीं है.
मणि का कहना है कि उन्होंने इस पर दस्तखत इसलिए किये, क्योंकि नियमानुसार यदि कोई लिखित आदेश आता है, तो उस पर उन्हें अमल करना ही होगा. किसी मसले पर वे तब तक ही अपने विचार रख सकते हैं, जब तक उस मामले में कोई अधिकृत व्यक्ति अथवा वरिष्ठ अधिकारी आदेश जारी नहीं करता है. मणि ने कहा कि उनके मोबाइल तक को छीन लिया गया था और उसे कहीं अलग जगह पर रख दिया गया था.
फर्जी थी मुठभेड़ : सतीश वर्मा
गुजरात कैडर के आइपीएस ऑफिसर और इशरत जहां मामले की जांच के लिए बनी एसआइटी के पूर्व प्रमुख सतीश चंद्र वर्मा ने एक टीवी चैनल को दिये गये साक्षात्कार में कहा, ‘19 वर्षीय इशरत जहां उस समय कॉलेज की छात्रा थी. इशरत समेत जिन चार लोगों को जून, 2005 में अहमदाबाद में गुजरात पुलिस ने मारा, वह एक तरह से ‘कोल्ड ब्लड’ था.
सीबीआइ की चार्जशीट में भी यही बात कही गयी है कि यह आइबी का एक कंट्रोल्ड ऑपरेशन था, लेकिन यह एनकाउंटर फर्जी था. आइबी इस पूरे मामले में भीतर तक शामिल थी. आइबी के अधिकारियों ने इन लोगों को गैर-कानूनी तरीके से अपनी कस्टडी में रखा था और उसके बाद पूर्व नियोजित तरीके
से इनका मर्डर किया गया. वर्मा कहना है कि इस एनकाउंटर को सही दिखाने के लिए मणि ने ही पूरा विवरण तैयार किया था. उन्होंने यह भी कहा कि डेविड हेडली और लश्कर के इशरत जहां को शहीद बताने के दावे के बावजूद एसआइटी की जांच में उसके आतंकियों से जुड़े होने के कोई सबूत नहीं मिले. वर्मा ने कहा कि गृह मंत्रालय के अंडर सेक्रेटरी आरवीएस मणि का सीबीआइ पर टॉर्चर करने का आरोप बेबुनियाद है. सीबीआइ की जांच के दौरान किसी के साथ इस तरह का बरताव नहीं किया जाता है.
सीबीआइ अधिकारी जानते हैं कि ऐसा करने से उन पर भी कार्रवाई हो सकती है. सतीश वर्मा फिलहाल शिलॉन्ग में ‘एनइइपीओ’ के चीफ विजिलेंस ऑफिसर के पद पर तैनात आइजी रैंक के अधिकारी हैं. वर्मा के हवाले से ‘इंडिया टुडे’ की रिपोर्ट में कहा गया है कि सुरक्षा और राष्ट्रवाद के नाम पर जो कुछ भी हो रहा है, वह इस अपराध में शामिल लोगों को बचाने के लिए हो रहा है.
बदलाव पर सवाल : आरके सिंह
पूर्व केंद्रीय गृह सचिव और भाजपा के सांसद आरके सिंह ने कहा कि विवादित इशरत जहां मामले पर हलफनामे में राजनीतिक कारणों से बदलाव किया गया था. एक टीवी चैनल को दिये साक्षात्कार में उन्होंने कहा, ‘बड़ा सवाल यह है कि किसने बदलाव करने के लिए कहा और यह किस कारण से किया गया. निश्चित रूप से इसमें राजनीति की गयी थी.
मूल हलफनामे में इशरत और उस एनकाउंटर में मारे गये उसके अन्य साथियों
को लश्कर-ए-तैयबा का आतंकवादी करार दिया गया था. खुफिया ब्यूरो ने कह दिया था कि इशरत के तार लश्कर-ए-तैयबा के आतंकवादियों से जुड़े थे. इशरत अपने साथी जावेद शेख को जानती थी और जावेद के आतंकवादियों से रिश्ते थे. जावेद के साथ वह दो जगहों पर गयी थी. वह इस बात को अच्छी तरह जानती थी कि जावेद के साथ क्या कर रही है.
टाइमलाईन
15 जून, 2004 : गुजरात पुलिस के साथ मुठभेड़ में चार लोग- इशरत जहां, जावेद गुलाम शेख, अमजद अली राना और जीशान जौहर- मारे गये. इस कार्रवाई के प्रमुख थे डीआइजी डीजी वंजारा. यह मुठभेड़ अहमदाबाद के नरोडा कोतरपुर वोटर वर्क्स के पास हुई थी.
2004 से 2009 तक यह मामला अहमदाबाद अपराध शाखा के अधीन था, पर तहकीकात आगे नहीं बढ़ सकी.
7 सितंबर, 2009 : मुठभेड़ की सच्चाई पर विवाद खड़ा हो जाने के बाद इसकी जांच की जिम्मेवारी मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट एसपी तमांग को दी गयी, जिन्होंने 243 पन्नों की रिपोर्ट में इस मुठभेड़ को फर्जी बताया और पुलिस को साजिशन हत्या का दोषी ठहराया.
9 सितंबर, 2009 : गुजरात उच्च न्यायालय ने तमांग की रिपोर्ट को स्थगित कर पूरे मामले की जांच के लिए एक विशेष जांच दल (एसआइटी) गठित किया. न्यायालय ने यह भी आदेश दिया कि यह जांच उसकी निगरानी में ही होगी.
सितंबर, 2010 : एसआइटी प्रमुख आरके राघवन ने इस मामले की जांच में असमर्थता व्यक्त करते हुए आगे जांच करने से इनकार कर दिया. न्यायालय द्वारा नयी एसआइटी का गठन.
नवंबर, 2010 : सर्वोच्च न्यायालय ने गुजरात सरकार की अर्जी खारिज कर दी, जिसमें नयी एसआइटी के गठन पर रोक की मांग की गयी थी.
29 जुलाई, 2011 : राजीव रंजन वर्मा एसआइटी के नये मुखिया बने.
नवंबर, 2011 : एसआइटी की रिपोर्ट के आधार पर हाइकोर्ट ने मुठभेड़ में शामिल लोगों के विरुद्ध नयी प्राथमिकी दर्ज करने का आदेश दिया. आरोपियों पर धारा 302 के तहत मामला दर्ज किया गया.
दिसंबर, 2011 : गुजरात उच्च न्यायालय ने इशरत जहां मुठभेड़ की जांच की जिम्मेवारी सीबीआइ को सौंपी.
2012 : सीबीआइ मजिस्ट्रेट के सामने पुलिस अधिकारी डीएच गोस्वामी और केएम वाघेला ने बताया की इशरत को मारने की मंजूरी ‘सफेद और काली दाढ़ी’ से मिल चुकी थी. सहायक सब इंस्पेक्टर निजाम सैयद ने बताया कि इशरत की हत्या के बाद चरमपंथी साबित करने के मकसद से उनसे मिले हथियार आइबी के संयुक्त निदेशक राजेंद्र कुमार के कार्यालय से आये थे.
14 फरवरी, 2013 : सीबीआइ द्वारा पुलिस अधिकारी जीएल सिंघल की गिरफ्तारी.
23 फरवरी, 2013 : दो पुलिस अधिकारियों- जेजी परमार और तरुण बारोत- की गिरफ्तारी.
4 जून, 2013 : मुठभेड़ के प्रमुख डीआइजी डीजी वंजारा को सीबीआइ ने गिरफ्तार किया. कुल मिला कर आठ पुलिस अधिकारी गिरफ्तार किये गये. सीबीआइ के अनुसार, एसीपी एनके अमीन मुठभेड़ करनेवाली अपराध शाखा की टीम का नेतृत्व कर रहे थे और एडीजीपी पीपी पांडे ने इस मुठभेड़ की साजिश रची थी.
13 जून, 2013 : जांच को लेकर इंटेलिजेंस ब्यूरो के साथ खींचतान के माहौल में सीबीआइ ने पुलिस अधिकारी सतीश वर्मा को जांच टीम से हटा दिया.
मई, 2014 : सीबीआइ ने भाजपा नेता अमित शाह को मुठभेड़ मामले में क्लीन चिट दे दी.
फरवरी, 2015 : सीबीआइ अदालत ने पांच फरवरी को डीजी वंजारा को जमानत दे दी.