राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों के लिए कई मायनों में अहम है 2016 का चुनावी संग्राम
आगामी चार अप्रैल से 16 मई के बीच पांच राज्यों- असम, केरल, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और पुडुचेरी- में होनेवाले विधानसभा चुनाव देश की मौजूदा राजनीति के लिए कई मायनों में बहुत अहम हैं. इन राज्यों के चुनावी अखाड़े में कांग्रेस, भाजपा और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्ववाले वाम मोरचे के साथ-साथ तृणमूल कांग्रेस, असम गण […]
आगामी चार अप्रैल से 16 मई के बीच पांच राज्यों- असम, केरल, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और पुडुचेरी- में होनेवाले विधानसभा चुनाव देश की मौजूदा राजनीति के लिए कई मायनों में बहुत अहम हैं. इन राज्यों के चुनावी अखाड़े में कांग्रेस, भाजपा और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्ववाले वाम मोरचे के साथ-साथ तृणमूल कांग्रेस, असम गण परिषद्, अन्ना द्रमुक, द्रमुक जैसे क्षेत्रीय दलों का भी शक्ति परीक्षण होगा.
इन सभी राज्यों में फिलहाल गैर-भाजपा दल सत्तारूढ़ हैं और मई, 2014 के लोकसभा चुनाव में भारी बहुमत से केंद्र की सत्ता पर काबिज होनेवाली भाजपा इनमें अपना जनाधार और राजनीतिक उपस्थिति बढ़ाने के लिए पूरा जोर लगा रही है. इस लिहाज से भी चुनावी रस्साकशी का महत्व बहुत बढ़ जाता है. पांच राज्यों के राजनीतिक परिदृश्य और चुनावी माहौल का एक आकलन आज के
संडे इश्यू में…
कृपाशंकर चौबे
कोलकाता.
पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव की तारीखों की घोषणा होने के ठीक बाद तृणमूल कांग्रेस ने अपने उम्मीदवारों की घोषणा कर यही जताने का प्रयास किया है कि वह माकपा और कांग्रेस के संभावित गठजोड़ से लेशमात्र भी घबराई नहीं है. यह तथ्य है कि बंगाल के तीनों प्रमुख विरोधी दल- माकपा, कांग्रेस व भाजपा- उम्मीदवारों के ऐलान और चुनाव तैयारियों में अभी तृणमूल कांग्रेस से पीछे चल रहे हैं. पांच साल से सत्ता से बाहर चल रही माकपा ने कांग्रेस की तरफ गठजोड़ का हाथ बढ़ा कर स्पष्ट कर दिया है कि तृणमूल को हराना उसके अकेले के दम पर संभव नहीं है.
पिछले पांच वर्षों में विपक्ष के पास ममता बनर्जी की अगुवाईवाली सरकार को घेरने के कई अवसर आये. सारधा घोटाला सबसे बड़ा अवसर था. उसके अलावा मालदह की हिंसा, बर्दवान के खगरागढ़ विस्फोट कांड, आमरी अस्पताल हादसा, जानलेवा शराब कांड, सरकारी अस्पतालों में शिशुओं की मौत, शिक्षा प्रतिष्ठानों में अंधेरगर्दी जैसे कई अवसर थे, जिसे विपक्ष ने शिद्दत से नहीं उठाया. दूसरी तरफ पिछले पांच वर्षों की उपलब्धियां गिना कर ममता बनर्जी की सरकार ने अपनी विफलताओं को ढकने की भरसक कोशिश की है.
पिछले विधानसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस ने अपार बहुमत के साथ बंगाल की सत्ता संभाली थी. वह परिवर्तन की सरकार थी, जो मां-माटी-मानुष का सांस्कृतिक नारा देकर प्रतिष्ठित हुई थी.
इस बार परिवर्तन की लहर नहीं है और कांग्रेस व माकपा में सीटों का तालमेल भी संभावित है, फिर भी यह दावा नहीं किया जा सकता कि बंगाल के लोग ममता बनर्जी में दोबारा भरोसा नहीं जताएंगे. इसकी पहली वजह यह है कि बंगाल की 27 प्रतिशत मुसलिम आबादी का समर्थन तृणमूल कांग्रेस को हासिल है. दूसरी वजह यह है कि प्रतिकूल आर्थिक हालात के बावजूद तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो ममता बनर्जी की अगुवाईवाली राज्य सरकार ने जंगलमहल और दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र में शांति लाने में सफलता हासिल की. विरोधी भी उनकी इस उपलब्धि को स्वीकार करते हैं.
वाम राज में जहां माओवाद प्रभावित जंगलमहल के तीन जिलों- पुरुलिया, मेदिनीपुर व बांकुड़ा- में प्रतिदिन रक्तपात होता था, वहीं ममता के राज में समूचा जंगलमहल शांत रहा है. माओवादी जिस तरह का विकास चाहते रहे हैं, वैसी ही परियोजनाएं ममता सरकार ने जंगलमहल में शुरू कीं.
जल-जंगल-जमीन पर स्थानीय आदिवासी समूहों के स्वामित्व को औपचारिक स्वीकृति देते हुए राज्य सरकार ने स्थायी व टिकाऊ विकास की परियोजनाएं प्रारंभ कीं. ममता सरकार ने जंगलमहल के हजारों नौजवानों को जूनियर पुलिस में भर्ती कर, आदिवासी परिवारों को बीपीएल कार्ड देकर, भूमिहीनों को जमीन का पट्टा देकर, माध्यमिक व उच्चतर माध्यमिक की सैकड़ों छात्राओं को साइकिल देकर अपने पक्ष में एक वातावरण बनाया.
जंगलमहल के आधे से अधिक हाइस्कूलों को हायर सेकेंडरी में बदलने, जंगलमहल में नये कालेज खोलने, हर ब्लाक में छात्रावास बनाने और हर मौजे को सड़क से जोड़ने का काम शुरू किये जाने से जंगलजीवियों में ममता सरकार के प्रति एक भरोसा जन्मा. ममता ने जल-जंगल-जमीन पर अरण्यजीवियों के अधिकार को सुनिश्चित करने का आह्वान कर उस भरोसे को बढ़ाया. जनजातियों को लगता है कि इन सबसे उनके जीवन संसाधन की सुरक्षा सुनिश्चित होगी. कहने की जरूरत नहीं कि ममता सरकार ने विकास के रास्ते ही जंगलमहल में शांति लाने में सफलता पाई. जनजातिबहुल क्षेत्रों में विकास कार्य में तेजी आने के साथ ही जंगलमहल में माओवादी अलग-थलग पड़ते गये. आसन्न विधानसभा चुनाव में इसका लाभ तृणमूल कांग्रेस को मिल सकता है.
जंगलमहल की तरह अशांत पहाड़ (दार्जिलिंग पर्वतीय क्षेत्र) में भी शांति लौटाने में ममता सरकार सफल रही. बीच-बीच में ममता सरकार से जीटीए के मनमुटाव की खबरें आती रही हैं, किंतु तृणमूल कांग्रेस की सरकार ने पहले गोरखालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन (जीटीए) का तितरफा समझौता कराया, फिर उसका चुनाव कराया और अब बाकायदा जीटीए प्रशासन विमल गुरुंग के नेतृत्व में काम कर रहा है. ममता सरकार ने छोटी-छोटी सांस्कृतिक अस्मिताओं को मान्यता देकर उन्हें भी अपने पक्ष में कर लिया है. लेपचा स्वायत्त परिषद बनाने के अलावा ममता सरकार ने हिंदी, उड़िया, संथाली, उर्दू और नेपाली को पश्चिम बंगाल की दूसरी राजभाषा के रूप में मंजूरी दे दी है. इसका कुछ लाभ भी तृणमूल कांग्रेस को मिल सकता है.
पिछले पांच वर्षों के अपने शासनकाल में ममता ने उत्तर बंगाल में भी कई विकास परियोजनाएं शुरू कीं और मुख्यमंत्री ने बार-बार उत्तर बंगाल की यात्रा की. इसका लाभ भी उनके दल को मिल सकता है. दूसरी ओर विपक्ष के पास नेतृत्व का संकट है. उनके पास ममता के कद का कोई नेता नहीं है, जो उनकी तरह जनता व जमीन से भी गहराई से जुड़ा हो. (लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं.)
ममता के किले को भेदना विपक्ष के लिए बड़ी चुनौती
पश्चिम बंगाल
कुल सीटें- 294
वर्तमान विधानसभा
तृणमूल कांग्रेस 184
वाम मोर्चा 62
कांग्रेस 42
कुल मतदाता- साढ़े छह करोड़ (2016)
चुनाव कब
चार अप्रैल और 11 अप्रैल- 49 सीटें
17 अप्रैल- 56 सीटें
21 अप्रैल- 62 सीटें
25 अप्रैल- 49 सीटें
30 अप्रैल- 53 सीटें
पांच मई- 25 सीटें
प्रभावी कारक
– शासन, सांप्रदायिक तनाव, चिट फंड घोटाला, हिंसक घटनाएं
– विपक्ष का कमजोर होना तृणमूल कांग्रेस के पक्ष में जा सकता है, क्योंकि मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की छवि और लोकप्रियता ठोस है.
– सरकार विरोधी असंतोष, घोटाले, निराशाजनक विकास और हिंसा की बढ़ती घटनाओं का लाभ विपक्ष को मिल सकता है.
– वाम मोरचे और कांग्रेस की संभावित एकजुटता ममता बनर्जी के लिए बड़ी चुनौती बन सकती है.
– हालांकि भाजपा सत्ता की दावेदार बनने की स्थिति में नहीं है, पर उसकी पुरजोर कोशिश प्रमुख प्रतिद्वंद्वी खेमों के समीकरण बिगाड़ सकती है.
परिणाम का महत्व
– अगर ममता दुबारा सरकार बनाने में सफल हो जाती हैं, तो उनकी पार्टी, जद (यू) और कांग्रेस के साथ मोदी सरकार के लिए बड़ी चुनौती बन सकती है.
– यदि वाम मोरचे और कांग्रेस की जीत होती है, तो इससे राहुल गांधी की छवि मजबूत हो सकती है.
– भाजपा की बढ़त 2019 के आम चुनाव तक उसकी गति को बरकरार रख सकती है और संभवतः वह राज्यसभा में एक सीट बढ़ाने में भी कामयाब हो सकती है.