अध्यात्म आनंद : जीवन को रंगों से भर देती है होली
बल्देव भाई शर्मा भा रत उत्सवों-पर्वों का देश है. शायद ही कोई महीना ऐसा बीतता है जो पर्वों-त्योहारों के उल्लास से भरा न हो. भारत की उत्सवधर्मिता जहां जीने की प्रेरणा देती है, जीवन का उत्साह जगाती है, वहीं बुराइयों पर अद्धाहयों की, असत्य पर सत्य की ओर अधर्म पर धर्म की विजय की संदेश […]
बल्देव भाई शर्मा
भा रत उत्सवों-पर्वों का देश है. शायद ही कोई महीना ऐसा बीतता है जो पर्वों-त्योहारों के उल्लास से भरा न हो. भारत की उत्सवधर्मिता जहां जीने की प्रेरणा देती है, जीवन का उत्साह जगाती है, वहीं बुराइयों पर अद्धाहयों की, असत्य पर सत्य की ओर अधर्म पर धर्म की विजय की संदेश देती है. साथ ही इससे जाति-पंथ से उपर उठ कर सामाजिक समरसता की भावना बलवती होती है. होलिकात्सव भी ऐसा ही त्योहार है जो समाज जीवन को उमंगों से भर देता है. होली के रंगों में सराबोर जन सारे भेद-भाव भूल कर प्रेम रंग में रंग जाते हैं.
जीवन का सारा कलुष, ईष्या-द्वेष, शत्रु-भाव भस्म हो जाता है होली की अग्नि में. उस आग में से निकलता है. कंचन की तरह दमकता और भक्ति, प्रेम सेवा के रस में पगा जीवन. न जाने कब से साल-दर-साल यही क्रम चल रहा है और होली भारतीय संस्कृति का रंग-विरंगा मोहक परिधान बती हुई है.
होली के रंगों में भीगे कृष्ण और राधा सहित गोपियां के आख्यान हों या ईसुरी के फाग, सब मन को विभोर कर जाते हैं. ये सारे प्रसंग पुराने होकर भी हर साल नित्य नवीन जैसे लगते हैं. आदमी होली की मस्ती में डूब कर सब कुछ भूल जाता है और फिजाओं में गूंज उठते हैं ये स्वर-
‘होली आई रे कन्हाई रंग बरौ सुना दे जरा बांसुरी
श्रीमद्भभागवत महापुराण के सप्तम स्कंध में प्र्रथम से दसवें सर्ग तक भक्त प्रह्लाद की कथा का वर्णन है. इसमें पिता हिरण्यकश्यपु की लाख प्रताड़नाओं यहां तक कि कई बार मार डालने की कोशिशों के बावजूद बालक प्रह्लाद की विष्णु के प्रति भक्ति अडिग रहती है. राक्षस कुल में जन्मे प्रह्लाद की भगवद-भक्ति हिरण्यकश्यपु के ‘मैं ही विष्णु हूं’ जैसे अहंकार को चूर-चूर कर देती है. वह जितना जोर देकर अपने पुत्र को डराता है कि ‘विष्णु का नहीं मेरा नाम जपो’, प्रह्लाद की भक्ति उतनी ही दृढ़ होती जाती है. वह न डरता है और न विचलित होता है.
पिता के आदेश दर पर प्रह्लाद को पहाड़ की ऊंचाइयों से फेंका गया, उबलते तेल के कड़ाह में डाला गया, किंतु ये यातनाएं भी उसकी भक्ति को कमजोर नहीं कर सकी. प्रह्लाद की कथा से जुड़े ये सारे आख्यान और उसकी अविचल भक्ति आज भी बुराइयों से लड़ने की प्रेरणा देती है.
कोई भी डर, कोई भी प्रताड़ना या कोई भी प्रलोभन हमें अपने ईमान से, मनुष्यता के भाव से डिगा न सके तो यह धरती ही स्वर्ग बन जाये. शक्ति के मन में कुल बुलाती बुराइयां, उसके अंतस में मचलता स्वार्थ-लोभ-लालच कब उसे इतना नीचे गिरा देता है कि वह इनसान से हैवान बन जाता है, यह वह समझ ही नहीं पाता. इन दुष्वृत्तियों के कारण मानो सारे रिश्ते बेमानी हो जाते हैं. आदमी इन रिश्तों का, इनसानियत का खून करने से भी नहीं हिचकता.
भक्त प्रह्लाद की कथा बुराइयों से लड़कर मनुष्यता को बचाने का आख्यान है. यह कथा याद दिलाती है कि जब व्यक्ति का अहंकार उसे भगवान से भी ऊंचा मानने लगता है तो उसका पतन निश्चित है. इसीलिए हमारे शास्त्रकारों ने ज्ञान का, विद्या का पहला लक्षण बताया. विनम्रता-‘विद्या ददाति विनयं, विनयात याति सुपरत्रता’ इस विनय से ही व्यक्ति सुपात्र बनता है.
विनय साधुता का लक्षण और अहंकार दुष्टता का. प्रह्लाद ने पिता की दुष्टता का, हिंसा का विरोध नहीं किया, उसने अपनी सारी शक्ति अपनी भक्ति को अडिग रखने में लगायी, यह दृढ़ विश्वास ही उसकी विजय का मूल बना. प्रह्लाद की भक्ति और विश्वास के सामने हिरण्यकश्यपु के सभी अत्याचारी उपक्रम निष्फल और असहाय साबित हो रहे थे. उसका राक्षसी अहंकार यह स्वीकार करने को कतई तैयार नहीं था कि एक छोटा सा बालक, वह भी उसका पुत्र राजाज्ञा का उल्लंघन कर विष्णु-विष्णु जपता रहे.
इस बेचैनी में पैर पटकते हिरण्यकश्यपु की मदद के लिए सामने आती है उसकी बहन होलिका. उसे यह वरदान प्राप्त था कि अग्नि उसे जला नहीं सकती. तय हुआ कि होलिका बालक प्रह्लाद को गोद में लेकर बैठेगी और चारों ओर लकड़ियों का बड़ा ढेर लगा कर अग्नि प्रज्जवलित की जायेगी. उस दहकती आग में प्रह्लाद जल कर भस्म हो जायेगा ओर होलिका सही सलामत अग्नि-शिखाओं के बीच से बाहर निकल आयेगी. राक्षसी मन प्रसन्न था कि उसका यह प्रयोग व्यर्थ नहीं जायेगा.
लेकिन हो गया उलटा. … आगे शक्ति हार गयी. उस विकराल अग्नि ने होलिका को लील लिया, होलिका दहन हो गया और प्रह्लाद मुस्कुराता हुआ बाहर निकल आया. सभी भौंचक देखते रह गये कि किस तरह होलिका नामक बुराई जल कर भस्म हो गयी और प्रह्लाद की भक्ति व विश्वास रूपी अच्छाई को रंच मात्र भी आंच न आयी. ब्रज में आज भी इस कथानक को फाग के रूप में गाया जाता है-‘होलिका ने ऐसा जुल्म गुजारा प्रह्लाद गोद बैठारा.’
हमारे शास्त्रों में ऐसे अनगिनत आख्यान भरे पड़े हैं जो यह सीख देते हैं कि सत्य को प्रताड़ति किया जा सकता है, पर पराजित नहीं. इसीलिए ‘सत्यमेव जयते’ भारत की सनातन संस्कृति का मूल पाठ है और सत्य-न्याय-अर्थ भारत की सांस्कृतिक चेतना की संजीवनी हैं. ये प्रवृतियां ही मनुष्यता का सृजन करती है और भारतवर्ष इसके फलने-फूलने की प्रयोग भूमि रहा है. इसलिए देवता भी लालायित रहते हैं इस पुण्य धरा पर जन्म लेने के लिए. विष्णु पुराण में उल्लेख है-
गायंति देवा: किल गीतकानि धन्यास्तु ते भारत भूमि भागे स्वगीयवगीस्पद हेतु भता: भवंति भूय: पुरषा: सुरत्वात अर्थात भारत भूमि का यश देवता भी गाते हैं कि वे लोग धन्य हैं जिन्होंने इसकी गोद में जन्म लिया. क्योंकि यह धरती लौकिक सुख देने वाली तो है ही, स्वर्ग और मोक्ष की भी राह दिखाती है. काश हम अपने देवत्व से मुक्त होकर मनुष्य रूप में वहां जन्म ले जाते.
भक्ति और शक्ति का समन्वय है भारत के जीवन दर्शन में जो इन पौराणिक व औपनिषदिक कथाओं में व्याख्याथित है. भक्ति सुमति देती और शक्ति जगत का कल्याण करती है.
भारत के इस विचार को दुष्ट बुद्धि से नहीं, सुमति से ही समझा जा सकता है कि इसमें से ही जीवन के वे शाश्वत और सनातन मूल्य प्रकट हुए जो समस्त मानवता के लिए आश्वास्तिकारक हैं. ये मूल्य ही जाति-मजहब और रंगभेद से ऊपर शांति-सदभाव-बंधुता और परस्पर सौहार्द से युक्त वैश्विक जीवन का विश्वास जगाते हैं. इसीलिए स्वामी विवेकानंद ने हिंदू धर्म को मानव धर्म कहा और बताया कि यह धर्म ही भारत का प्राण है.
लौ का आनंद
(पं. श्रीभुवनेश्वरनाथ जी माधव, एमए)
ज्यों तिरिया पीहर बसै, सुरति रहे पिय माहिं.
ऐसे जन जग में रहैं, हरिको भूलत नाहिं..
विवाहिता स्त्री मायके में रहते हुए जिस प्रकार मन, चित्त और प्राण से अपने पति का ही स्मरण करती रहती है, उसी प्रकार इस संसार में रहते हुए भी हम अपने प्राणाराम जीवनधन हरिका ही स्मरण करते रहें-यही सभी संतों और समस्त धर्मग्रंथों के उपदेश का सारतत्व है.
जीव की यही साधना है. मनुष्य का यही परम कर्तव्य, सर्वोत्तम धर्म है. मन को हरि में डाल कर मस्त हो जाना ही आनंद की चरम अवस्था है. जप, तप, पूजा, पाठ, तीर्थ, व्रत, सेवा, दान सत्संग, सदाचार-सभी प्रकार के सत्कर्मों का फल है श्रीवासुदेव का अखंड स्मरण. यह स्मरण ही भगवान के चरणों में सच्ची प्रणति है यह स्मरण ही सर्वात्मसमर्पण की सच्ची अभिव्यक्ति है. घनीभूत अखंड स्मरण की हंसती हुई ज्योति का नाम है लौ. साधना का प्राण है स्मरण और ‘लौ’ है स्मरण की आत्मा.’लौ’ का साधारण अर्थ है दीपक का जलता हुआ प्रकाश.
दीये में तेल भर दिया जाता है, बत्ती डाल दी जाती है और सलाई से उसे एक बार जला देते हैं. फिर जब तक तेल दीये में है, बत्ती बनी हुई और बाहर के आंधी-तूफान से वह सुरक्षित है, तब तक वहां प्रकाश बना रहेगा, लौ जलती रहेगी. ध्यान इस बात का रखना होगा कि तेल समाप्त न होने पाये, बत्ती बुझने न पाये और जहां अखंड दीप की बात है, वहां से सतत सावधान रहना ही पड़ेगा. एक क्षण की विस्मृति में दीपक के बुझ जाने और घोर अंधकार के घिर आने की आशंका है. ठीक यही बात अंतर की ‘लौ’ के संबंध में है.
वहां भी सतत सावधान रहना पड़ता है. एक पल के लिए भी वृत्ति बहिमुर्ख हुई नहीं कि सब कुछ मिटा. मन, प्राण, चित्त, बुद्धि, आत्मा-सभी श्रीहरिके चरणों से झरते हुए मकरंद का पान करते रहें. वहीं, उस परम दिव्य स्पर्ष की पावन अनुभूति में बेसुध बने रहें. बाहर आने का ध्यान भी न रहे.
गति नहीं, सद्गुण का िवस्तार जरूरी
चंद्रमा की दो संतानें थीं. एक पुत्र – पवन और दूसरी पुत्री – आंधी. एक दिन एक छोटी सी घटना पर पुत्री आंधी को यह लगा कि मेरे पिताजी सांसारिक पिताओं की तरह पुत्र व पुत्री में भेद करते हैं.
चंद्रमा अपनी पुत्री की व्यथा को ताड़ गये. उन्होंने पुत्री केा अात्मनिरीक्षण का एक अवसर देने का निश्चय किया. चंद्रमा ने आंधी और पवन, दोनों को अपने पास बुला कर कहा- ”तुम दोनों स्वर्गलोक में पारिजात वृक्ष की सात परिक्रमा करके आओ”. पिता की आज्ञा शिरोधार्य करके दोनों चल दिये. आंधी सिर पर पैर रख कर दौड़ी. वह धूल, पत्ते व कूड़ा-करकट उड़ाती हुई स्वर्गलोक जा पहुंची और पारिजात नामक देववृक्ष की परिक्रमा करके वापस लौट पड़ी. आंधी समझ रही थी कि मैं पिता की आज्ञा का पालन करके जल्दी लौटी हूं, अत: वे मुझे अवश्य ही पुरस्कृत करेंगे.
आंधी के लौटने के थोड़ी देर बाद पवन लौटा, पर उसके आगमन पर सारा वातावरण सुगंध से महक उठा. पिता चंद्रमा ने आंधी को समझाते हुए कहा – ‘पुत्री निश्चित रूप से तुम्हारी गति तीव्र है, पर प्रश्न मात्र गति की तीव्रता का नहीं, सद्गुणों के विस्तार का भी है. गति की तीव्रता में तुम पारिजात के निकट भी गयी, परंतु उसकी सुगंध साथ ना ला पायी और खाली हाथ लौट आयी. इसलिए जीवन में विकास का आधार मात्र तीव्रता को नहीं, वरन सुगंध भरे संतुलन को मानना.’ (साभार – कल्याण)
याद रखो
तुमसे कोई बुरा बर्ताव करे तो उसके साथ भी अच्छा बर्ताव करो और ऐसा करके अभिमान न करो. दूसरे की भलाई में तुम जितना ही अपने अहंकार और जागतक स्वार्थकों भूलोगे, उतना ही अधिक तुम्हारा वास्तविक हित होगा.
सबके साथ सहानुभूति और नम्रतासे युक्त मित्रता का बर्ताव करो. संसार में अधिक मनुष्य ऐसे ही मिलेंगे. जिनकी कठिनाइयां, जिनके कष्ट तुम्हारी कल्पना से कहीं अधिक हैं.
तुम इस बात को समझ लो और किसी के साथ भी अनादर और द्वेष का व्यवहार न करके विशेष प्रेम का व्यवहार करो. यह बात याद रखने की है कि भगवान के राज्य में भलाई का फल बुराई कभी हो नहीं सकता. इसी तरह बुराई का फल भलाई नहीं होता. तुम्हारे साथ यदि कोई बुरा बर्ताव करता है और तुम भी यदि उसके साथ वैसा ही बर्ताव करोगे तो इससे यही सिद्ध होगा कि तुम्हारे अंदर कोई ऐसा दोष भरा है, जो यह चाहता है कि लोग तुमसे द्वेष करें और तुमको सतायें.
अच्छा बरताव
निश्छल प्रेम का व्यवहार करके सबमें भलाई का प्रेम का वितरण करो. यही सच्ची सहायता और सच्चा आश्वासन है. आप जैसा व्यवहार करेंगे, वैसा ही जगत को देंगे और वैसा ही आप पायेंगे भी. सभी को प्रेमभरी मधुरता और सहानुभूतिभरी आंखों से देखें. सुखी जीवन के लिए प्रेम ही असली खुराक है. संसार इसी की भूख से मर रहा है. अतएव प्रेम वितरण करो- अपने हृदय के प्रेम को हृदय में ही मत छिपा रखो. उसे उदारता के साथ बांटो. इससे जगत का बहुत सा दु:ख दूर हो जायेगा
याद रखो
जिसके बर्ताव में प्रेमयुक्त सहानुभूति नहीं है, वह मनुष्य जगत में भाररूप है और जिसके हृदय में स्वार्थ युक्त द्वेष है वह तो जगत के लिए अभिशापरूप है. हृदय में विशुद्ध प्रेम को जगाओ, उसे बढ़ाओ और सब ओर उसका प्रवाह बहा दो. तुमको अलौकिक सुख शांति मिलेगी और तुम्हारे निमित्त से जगत में भी सुख-शांति मिलेगी और तुम्हारे निमित्त से जगत में सुख शांति का प्रवाह बहने लगेगा. वस्तुत प्रेम ईश्वर का स्वरूप है.
जलाबिंदुनिपातेन क्रमश: पूर्यते घट:.
स हेतु: सर्वविद्यानां धर्मस्य च धनस्य च..