मां, मुझे काशी अच्छा लगता था, तुम ब्रज की राह पकड़ा दी…
होली समाज के सभी भेद को एक झटके में मिटा देता है, तभी तो इसे उल्लास और प्रेम का उत्सव कहा गया है. होली उनलोगों को वापस अपने गांव-कस्बे में खींच लाता है, जो अपनी जड़ों से बार-बार जुड़ना चाहते हैं. पढ़िए, वरिष्ठ पत्रकार निराला की यह रचना, जिसमें उन्होंने मां को लिखे पत्र के […]
होली समाज के सभी भेद को एक झटके में मिटा देता है, तभी तो इसे उल्लास और प्रेम का उत्सव कहा गया है. होली उनलोगों को वापस अपने गांव-कस्बे में खींच लाता है, जो अपनी जड़ों से बार-बार जुड़ना चाहते हैं. पढ़िए, वरिष्ठ पत्रकार निराला की यह रचना, जिसमें उन्होंने मां को लिखे पत्र के बहाने होली के सामाजिक सरोकार को रेखांकित किया है.
निराला
वरिष्ठ पत्रकार
आदरणीया मां,
सादर प्रणाम
मो बाइल फोन के जमाने मंें कुशलोपरांत कुशलता की शुभकामना जैसे वाक्य लिखने का कोई मतलब नहीं. सीधे बात पर आते हैं. हर दिन तुम्हारा मिसकाॅल पर मिसकाॅल आ रहा है. एक लगातार. बार-बार. पलटकर फोन कर रहा हूं तो तुम्हारे पास कुछ दिनों से किसी बच्चे-सी एक ही जिद्दी धुन है,एक ही रट- होली में आवईत हे न! आव. आवे के चाहीं.
और फिर तर्क पर तर्क दे रही हो, तमाम तरह के वास्ते और आखिरी में सेंटी-सेंटी तीर चला रही हो. मेरे कनपट्टी के सारे बाल सफेद हो चुके हैं लेकिन तुम उसका खयाल नहीं कर रही. बच्चे जैसा समझाकर उलाहना दे रही हो कि मैं बदल गया हूं. घर-परिवार-समाज में मन नही ंलगता. हा-हा-हो, तेरी कसम, तेरा इस तरह होली में आने के लिए जिद करना मुझे मजा दे रहा है. मां-बेटे के बीच हिसाब-किताब बराबरी का होता हुआ दिख रहा है.
कल तुम मुझे बचपन के दिन याद दिला रही थी कि मैं दसवीं कक्षा में भी नहीं पहुंचा था, उसके पहले से ही कमर मंे ढोलक बांधकर दो-चार घंटे तक झूमटा में भाग लेता था.
तमाम तरह की होली गीतों को जबानी याद रखता था और फरमाइश पर गाता था. इतना गाता था कि होली आते-आते तक गला बैठ जाता था और फिर चूना लगाकर किसी तरह गले से जंग लड़ते हुए होली को पार करता था. ओह रे ओह, कितने सौंदर्य और अलंकरण के साथ इन बातों का बखान कर रही हो. मेरी जिंदगी की बातों को मुझसे ही ऐसे बता रही हो, जैसे उस समय यह सब करके मैं कोई खास या बेहतर काम करता था. नकबेसर कागा ले भागा, मोरा सइयां अभागा ना जागा से लेकर जवन मरद के एक नइखे पानी, जवानी कवना काम के रही… तक के गीत याद दिला रही हो.
और मंैं तुम्हें चिढ़ाने के लिए बस एक ही बात कह रहा हूं कि छोड़ो होली-फोली, रद्दी-कबाड़ा त्योहार है. होली को केंद्र में रखकर अपने बेटे में आये बदलाव को आंक और माप रही हो तो मुझे तेरी छटपटाहट में मजा आ रहा है. मुझे याद है मां कि कैसे होली में सुबह से नालियों में डुबो देते थे मुझे मेरे संगी साथी या मैं डुबो देता था उन्हें. यह भी याद आ रहा है कि कैसे दलित टोला के बच्चे आकर पंडितों के मोहल्ले में बिंदास अंदाज में होली गाते भी थे, खेलते भी थे. बड़े से बड़े पंडितजी की पंडितई का खयाल नहीं करते थे उस दिन, रंग-अबीर से लेकर कीचड़-कादो तक देह पर डालकर फुर्र हो जाते थे.
पंडितजी, बाबूसाहब या कि बड़े साहब के पद पर कार्यरत गांव का कोई आदमी, उस दिन कुछ नहीं बोल पाता था. उनके ही खेत में, उनके ही घरों में काम करनेवाला उन्हें सराबोर करता था, कीचड़ से, रंग से, अबीर से… यह तो मैं भी करता था, मैं भी तो उसमें शामिल होता था मां, लेकिन जरा याद करो तो जैसे-जैसे बड़ा होता गया किसने बदलाव लाये मुझमे? तुम्हें याद होगा कि घर में एक टेप रिकॉर्डर था. कई कैसेट खरीदे थे मैंने. मैं सबसे ज्यादा ‘खेले मसाने में होली दिगंबर…’ वाला गीत बजाता था. कहता था कि यह बनारस वाली होली सही है, साजन, गोरी, गोप, गोपी, रोक, टोक, बाधा जैसा कुछ नहीं है. इसमें स्वाभाविकता है, अल्हड़पन है तब तुम और घर के बड़े लोग क्या कहते थे कि मैं बिगड़ रहा हूं.
तुमलोगांे ने राधेकृष्ण और ब्रज की होली के गीत सुनाने शुरू कर दिये थे. मां, तुझे अब भी याद होगा कि मैं उस समय भी कहता था कि मुझे, ऐसे गीत पसंद नहीं, जिसमें यशोदा कृष्ण को बरजती है कि ‘होरी खेलन मत जाहूं मोरे लल्ला, कोई रंग डारी दिहे…’ लेकिन तुमलोगांे ने ऐसे ही गीतों की घुट्टी पिलानी शुरू कर दी थी, जिसमें मस्ती तो हो, राग-रंग तो हो, अल्हड़पन-चुहलपन भी हो लेकिन बचाव का रास्ता हो और वर्जनाओं का पहाड़. मां, मैं आउंगा अबकी होली में लेकिन तुम्हें भी याद कराउंगा कि कैसे होली को लेकर तेरे और घर के सभी बड़ों के मन में खाम-खां गलत विचार बने थे तब. 90 के दशक के आरंभ की ही तो बात है, तुमलोग मुझे समझाने लगे थे कि देखो यह जो होली है न, यह बहुत बिगड़ा हुआ त्योहार है.
सभ्यों का त्योहार नहीं रह गया है. इसमें लोग पीते हैं, गंदे-भद्दे गीत गाते हैं, मैं तब भी कहता था कि यह एक पक्ष है मां लेकिन इन एक-दो बातों को लेकर होली को इतना बुरा त्योहार नहीं बनाओ. होली को दोषी बनाने की करोगी तो इसे लोग दबोच लेंगे, इस पर बहुतों की कुदृष्टि है. बहुतेरे हैं, जो चाहते हैं कि खत्म हो होली का तामझाम.
यह गंदा त्योहार है. मैं तब इतना बड़ा नहीं था, इतनी समझदारी नहीं थी लेकिन फिर भी कहता था तुमसे कि मां, यह सबसे अच्छा त्यौहार है, इसे दिन रात गालियां नहीं बका करो. इसकी तरह खूबसूरत त्योहार नहीं है कोई.इसके सिर्फ श्याम पक्ष को देखकर बात नहीं किया करो, इसके शुक्ल पक्ष की बात करो. यही एक त्योहार है मां, जो गरीबों और अमीरों के बीच एक समान मस्ती का भाव लेकर आता है.
लाखपति हो या कि खाकपति, सब उसी रंग से, उसी अबीर से, उसी कीचड़ से होली खेलते हैं. मैं तब भी कहता था मां कि तुम कर्मकांडी नहीं हो लेकिन धार्मिक हो न, तो उस नजरिये से भी इस त्योहार की कद्र करो क्यांेकि यही एक त्योहार है, जिसमें पंडित, पूजा-पाठ का झंझट नहीं रहता. सब अपने-अपने घरों में कुलदेवता पर, गांव के डिहवार से लेकर देवी मंदिर तक में खुद से रंग अबीर चढ़ाकर पूजा कर लेते हैं.
गाय बैल से लेकर दूसरे तमाम पालतू पशु-पक्षियों को रंग से सराबोर कर पूजा कर लेते हैं. जिस त्योहार में पंडितों का या तंत्र-मंत्र का तामझाम रहेगा, वह सामूहिकता का विकास नहीं होने देगा. तुम्हें याद होगा मां कि तब भी मैं यही सब तर्क देकर तुम्हें समझाता था कि मुझे अच्छे से खेलने दो होली, मैं नहीं बिगड़ुंगा होली.
होली से अगर समाज को बिगड़ना होता, होली अगर समाज को बिगाड़ने वाला त्योहार होती तो पीढ़ियों से, वर्षाें से समाज नैतिकता और आदर्श के मामले में रसातल के आखिरी तल में होता. लेकिन होली ने समाज की नैतिकता को रसातल में नहीं भेजा रसातल में. पिछले 30 सालों में तुमने तमाम तरह के उत्सवों, आयोजनों के जरिये जिस तरह से समाज को रसातल में जाते देखा है, क्या उससे भी बुरी थी तब होली. मैं आउंगा. आने का मन तो रहता ही है.
बचपन में होली से इतना करीब का रिश्ता रहा है कि समूह में रहना ही अच्छा लगता है. समूह काटने नहीं दौड़ता. समूह से एलर्जी नहीं है. लेकिन आउंगा तो पूछूंगा तुमसे कि अब बताओ, तुमने तो उम्र के छह दशक पार कर लिये, अब बताओ कि क्या होली वाकई तुम्हें पसंद नहीं.
पसंद नहीं तो क्यों बुला रही हो. अकेले में तुम्हें मुझसे मिलना होता, मन की ढेर सारी बातें करनी होती तो भी तुम किसी आन दिन बुला लेती. तेरे एक बार कहने पर तो चला ही आता दौड़कर.
फिर होली में ही आने का रट क्यों लगा रही हो. तुम डर रही हो कि होली से कटता जा रहा तेरा बेटा कहीं व्यक्तिवादी प्रवृत्ति का तो नहीं होता जा रहा न! तुम होली के बहाने मेने में शेष या अवशेष की तरह बचे सामूहिकता के भाव को जांचना चाहती हो. सच्ची बताना.
– तेरा बेटा
कविता
भरके पिचकारी में रंगीन रंग
» सआदत यार खां ‘रंगीन’
भरके पिचकारियों में रंगीन रंग
नाजनीं को खिलायी होली संग
बादल आये हैं घिर गुलाल के लाल
कुछ किसी का नहीं किसी को ख्याल
चलती है दो तरफ से पिचकारी
मह बरसता है रंग का भारी
हर खड़ी है कोई भर के पिचकारी
और किसी ने किसी को जा मारी
भर के पिचकारी वो जो है चालाक
मारती है किसी को दूर से ताक
किसने भर के रंग का तसला
हाथ से है किसी का मुंह मसला
और मुट्ठी में अपने भरके गुलाल
डालकर रंग मुंह किया है लाल
जिसके बालों में पड़ गया है अबीर
बड़बड़ाती है वो हो दिलगीर
जिसने डाला है हौज में जिसको
वो यह कहती है कोस कर उसको
ये हंसी तेरी भाड़ में जाये
तुझको होली न दूसरी आये.
बहारें होली की » नजीर अकबराबादी
जब फागुन रंग झमकते हों, तब देख बहारें होली की.
और दफ के शोर खड़कते हों, तब देख बहारें होली की.
परियों के रंग दमकते हों, तब देख बहारें होली की.
खम शीश-ए-जाम छलकते हों, तब देख बहारें होली की.
महबूब नशे में छकते हों, तब देख बहारें होली की.
हो नाच रंगीली परियों का, बैठे हों गुलरू रंग भरे.
कुछ भीगी तानें होली की, कुछ नाज-ओ-अदा के ढंग भरे.
दिल भूले देख बहारों को, और कानों में आहंग भरे.
कुछ तबले खड़कें रंग भरे, कुछ ऐश के दम मुंह चंग भरे.
कुछ घुंघरू ताल झनकते हों, तब देख बहारें होली की.
गुलजार खिलें हों परियों के, और मजलिस की तैयारी हो.
कपड़ों पर रंग के छीटों से, खुश रंग अजब गुलकारी हो.
मुंह लाल, गुलाबी आँखें हों, और हाथों में पिचकारी हो.
उस रंग भरी पिचकारी को, अंगिया पर तक कर मारी हो.
सीनों से रंग ढलकते हों, तब देख बहारें होली की.
और एक तरफ दिल लेने को, महबूब भवौयों के लड़के.
हर आन घड़ी गत भिरते हों, कुछ घट-घट के, कुछ बढ़-बढ़ के.
कुछ नाज जतावें लड़-लड़ के, कुछ होली गावें अड़-अड़ के.
कुछ लचकें शोख कमर पतली, कुछ हाथ चले, कुछ तन फड़के.
कुछ काफिर नैन मटकते हों, तब देख बहारें होली की
होली » हरिवंश राय बच्चन
यह मिट्टी की चतुराई है,
रूप अलग औ’ रंग अलग,
भाव, विचार, तरंग अलग हैं,
ढाल अलग है ढंग अलग,
आजादी है जिसको चाहो आज उसे वर लो.
होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर को!
निकट हुए तो बनो निकटतर
और निकटतम भी जाओ,
रूढ़ि-रीति के और नीति के
शासन से मत घबराओ,
आज नहीं बरजेगा कोई, मनचाही कर लो.
होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो!
प्रेम चिरंतन मूल जगत का,
वैर-घृणा भूलें क्षण की,
भूल-चूक लेनी-देनी में
सदा सफलता जीवन की,
जो हो गया बिराना उसको फिर अपना कर लो.
होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो!
होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर लो,
होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो,
भूल शूल से भरे वर्ष के वैर-विरोधों को,
होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो!
इन ढलानों पर वसंत आयेगा » मंगलेश डबराल
इन ढलानों पर वसंत आयेगा
हमारी स्मृति में
ठंड से मरी हुई इच्छाओं को
फिर से जीवित करता
धीमे-धीमे धुंधुवाता खाली कोटरों में
घाटी की घास फैलती रहेगी रात को
ढलानों से मुसाफिर की तरह
गुजरता रहेगा अंधकार
चारों ओर पत्थरों में दबा हुआ मुख
फिर से उभरेगा झांकेगा कभी
किसी दरार से अचानक
पिघल जायेगा जैसे बीते साल की बर्फ
शिखरों से टूटते आयेंगे फूल
अंतहीन आलिंगनों के बीच एक आवाज
छटपटाती रहेगी
चिड़िया की तरह लहूलुहान