बिन पानी सब सून : देश के दस से ज्यादा राज्यों में हालात गंभीर
सूखे का संकट रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून। पानी गये न उबरे, मोती मानुष चून॥ हिमांशु ठक्कर वर्षों पूर्व रहीम की वाणी ने जिस संकट के प्रति आगाह किया था, वह आज फिर यथार्थ के रूप में हमारे सामने है. कुछ माह पहले तक सूखे का जो संकट मराठवाड़ा और बुंदेलखंड जैसे कुछ […]
सूखे का संकट
रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून। पानी गये न उबरे, मोती मानुष चून॥
हिमांशु ठक्कर
वर्षों पूर्व रहीम की वाणी ने जिस संकट के प्रति आगाह किया था, वह आज फिर यथार्थ के रूप में हमारे सामने है. कुछ माह पहले तक सूखे का जो संकट मराठवाड़ा और बुंदेलखंड जैसे कुछ इलाकों तक सीमित था, वह अब देश के दस से ज्यादा राज्यों में फैल चुका है.
सूखे और पानी की कमी के चलते लाखों किसानों की फसल बर्बाद हो चुकी है.
लेकिन, विडंबना यह है कि दुनिया की आर्थिक ताकत बनने का सपना संजो रहे देश की सरकारों के पास जल संरक्षण और सूखे के हालात से निपटने के लिए कोई ठोस नीति या योजना नहीं है. इस समय सूखे की गंभीर स्थिति के बावजूद ढीले रवैये के कारण सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों को फटकार लगायी है. कई राज्यों में पीने के पानी के लिए त्राहिमाम की स्थिति है और फसल के बुरी तरह प्रभावित होने की आशंका जतायी जा रही है. आखिर क्यों हुए ऐसे हालात और इससे निपटने के क्या हैं रास्ते, बता रहे हैं जाने-माने पर्यावरणविद्.
जल संरक्षण के लिए नहीं है कोई कारगर नीित
मौजूदा दौर में देश के कई राज्यों में सूखे की जो स्थिति है, वह आजादी के बाद की सबसे गंभीर स्थिति है. इसके कई कारण हैं. मुख्य कारण यह है कि पिछले दो साल से देश में बारिश सामान्य से कम हुई है. वहीं दूसरी ओर देश में औद्योगीकरण और शहरीकरण के विस्तार के चलते पानी की मांग लगातार बढ़ रही है. हम बारिश के पानी को सुरक्षित-संरक्षित नहीं कर पा रहे हैं, जिससे पानी की किल्लत दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है.
पहले के जमाने में जब अकाल और सूखे की स्थिति उत्पन्न होती थी, तब संरक्षित भूमिगत जल का उपयोग कर हम महीनों तक पानी की कमी को पूरा करते थे. लेकिन पिछले कई वर्षों से देश में भूमिगत जल का इतना ज्यादा दोहन हुआ है कि अब सूखे की स्थिति से निपटने के लिए यह मददगार साबित नहीं हो सकता. यह एक कड़वी सच्चाई है कि भूमिगत जल का दोहन करने के मामले में भारत दुनिया में पहले स्थान पर है. भूमिगत जल का दोहन करने के लिए देश में इस वक्त तीन करोड़ से ज्यादा ट्यूबवेल और बोरवेल हैं. यही वजह है कि जमीन के अंदर पानी गहरे तक सिमटता जा रहा है. हमारी सरकारों के पास कोई ऐसी ठोस नीति ही नहीं है, जिससे कि जल-संरक्षण को बड़ा आयाम देकर भविष्य में आनेवाले सूखे जैसी किसी भी संकट से निपटा जा सके.
भूजल के बेहिसाब दोहन से गहराया संकट
आज हमारे देश में वास्तव में पानी की जीवनरेखा बड़े बांध, कैनाल या नदियां नहीं हैं, बल्कि भूजल है. देश के तमाम सिंचित भूमि के दो-तिहाई से ज्यादा क्षेत्र को भूमिगत जल से पानी मिलता है. भारत के ग्रामीण इलाकों में पीने के पानी के रूप में 85 प्रतिशत भूजल का इस्तेमाल होता है. देश के शहरी क्षेत्रों में जो पीने का पानी इस्तेमाल होता है, उसमें भी भूजल की हिस्सेदारी 55 प्रतिशत है. देशभर में औद्योगिक घरानों और कंपनियों में जो बड़े पैमाने पर पानी का इस्तेमाल होता है, उसका भी 50 से 60 प्रतिशत पानी भूजल से ही आता है.
लेकिन, भूजल का यह इस्तेमाल हमारे लिए स्थायी नहीं है, क्योंकि इसका लगातार भारी मात्रा में दोहन जारी है. यही वजह है कि भूजल की स्थिति लगातार बिगड़ती जा रही है और वह गहरे जमीन में सिमटता जा रहा है. इस सिमटाव के कारण ही कई क्षेत्रों में सूखे की स्थिति उत्पन्न हो गयी है. हैंडपंप आदि से पीने का पानी निकालनेवाले देश के ग्रामीण इलाकों में यह भूजल भी अब गरीबों की पहुंच से बाहर होता जा रहा है. और सबसे बड़ी बात यह कि भूजल की गुणवत्ता भी बिगड़ रही है.
भूजल कई स्रोतों से आता है. एक तो बारिश के पानी से आता है, लेकिन बारिश का पानी सीधे भूजल नहीं जाता है. छोटी-बड़ी नदियां, तालाब, पोखर, बावड़ियां, नहरें और दूसरे कई जलाशय मिल कर भूजल को रिचार्ज करते हैं. लेकिन पिछले कई वर्षों से हमारे देश में इन तमाम जलस्रोतों की अनदेखी की जा रही है, जिससे भूजल का रिचार्ज होना कम हो रहा है.
कई जगहों पर तो भूजल बिल्कुल भी नहीं है. यानी गौर करें, तो एक तरफ भूजल का स्तर कम हो रहा है, वहीं दूसरी तरफ भूजल का लगातार दोहन हो रहा है और तीसरी तरफ सरकारों के पास खूब पैसा होते हुए भी जल-संरक्षण के लिए कोई ठोस नीति नहीं है और लोग बिना सोचे-समझे अपनी मनमर्जी से पानी का बेजा इस्तेमाल करते जा रहे हैं. जाहिर है, यह प्रक्रिया सूखे की भयावह स्थिति उत्पन्न होने की दावत दे रही है. ऐसे में अगर हम नहीं चेते, तो जल-संकट की एक बड़ी विभीषिका हमारे सामने आ खड़ी होगी. इस मामले में हमारी सरकारों को गंभीरता से सोचना चाहिए.
जलवायु परिवर्तन से हुई सूखे की स्थिति
जलवायु परिवर्तन भी सूखे का एक कारण है. जलवायु परिवर्तन की वजह से ही देश में मॉनसून और बारिश होने का पैटर्न बदल रहा है. खेती के लिए जब बारिश चाहिए होती है तब बारिश नहीं होती, लेकिन जब किसी तरह फसल पकने ही वाली होती है, तभी बारिश आकर पूरी फसल बरबाद कर देती है. एक साथ एक ही जगह कभी ज्यादा बारिश होती है, तो कहीं कई महीनों तक बारिश की एक बूंद तक नहीं टपकती.
अमूमन सामान्य से 25 प्रतिशत बारिश होने पर सूखे की स्थिति बनती है. लेकिन देश में कई जगहों पर 10-12 प्रतिशत कम बारिश होने पर भी सूखे की स्थिति पैदा हो गयी है. इसका कारण है. दरअसल, हमारा उद्योग बहुत बढ़ गया है और इसे लगातार बढ़ना ही है, विकसित जो होना है.
भूजल के दोहन से उसका स्तर नीचे गहरे तक चला गया है. इसलिए अगर 10-12 प्रतिशत भी बारिश कम हुई, तो वह भूजल को रिचार्ज करने और उसके स्तर को बढ़ाने में नाकाम साबित होता है. इसलिए महज 10 प्रतिशत कम बारिश पर भी सूखे की स्थिति उत्पन्न हो रही है. बहुत से बांधों से पानी सीधे शहरों और उद्योगों के लिए जाता है, जिस कारण गांवों और खेती को पानी नहीं मिल पाता है. सरकारों को आर्थिक विकास का दावा करना है, इसलिए सिर्फ उद्योगों को ही पानी देना है, खेती के लिए पानी मिले या न मिले इसकी किसी को चिंता नहीं है. चिंता नहीं है, तो नीति भी नहीं है. बारिश के पानी का संरक्षण करने के लिए हमारे पास कोई ठोस नीति या दृष्टि नहीं है.
सरकार का पानी बनाम समाज का पानी!
सूखे की स्थिति से निपटने के लिए जल-संरक्षण बहुत जरूरी है. जल-संरक्षण के लिए सरकारी तौर पर ठोस नीतियों की जितनी जरूरत है, उतनी ही जरूरत इस बात की है कि लोग-समाज भी अपने स्तर पर जल-संरक्षण की पहल करे. पहले के जमाने में ऐसा होता था.
बिना किसी सरकारी सहायता के या उस पर निर्भरता के हमारा समाज अपने लिए गांव में कुएं, तालाब, पोखर आदि की खुद ही व्यवस्था करता था. लेकिन अब ऐसा नहीं है. दरअसल, पहले के जमाने में पानी पर किसी का अधिकार नहीं होता था, वह सबके लिए था, लेकिन आज हमारी सरकारों ने कहा है कि पानी को लेकर कोई भी पहल अब सरकारी काम है. यानी पहले पानी सबका था, अौर अब पानी सरकार का है. सरकार के इस आधिकारिक रवैये से हमारे समाज ने भी जल-संरक्षण को लेकर कोई काम करना बंद कर दिया.
पहले लोगों को लगता था कि पानी बचाना तो हमारी जिम्मेवारी है, लेकिन जबसे पानी सरकारी हुआ है, तबसे लोग यह सोचने लगे हैं कि पानी बचाने की जिम्मेवारी तो सरकार की है. इसके परिणामस्वरूप संकट हमारे सामने है. सरकारों को चाहिए कि इस नीति को बदलें और पानी को लेकर ऐसी योजनाएं, नीतियां बनाएं, जिससे लोगों को लगे कि पानी बचाना तो हम सबका काम है, हम सबकी जिम्मेवारी है. जलाशयों के रख-रखाव, भूजल-संरक्षण, प्रदूषण नियंत्रण, बारिश के पानी का संग्रहण आदि में जब तक सरकार के साथ-साथ लोगों की भागीदारी सुनिश्चित नहीं होगी, तब तक मुश्किल है कि हम कुछ कर पायें.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
पर्यावरणविद्
आइपीएल ज्यादा जरूरी है या पानी!
महाराष्ट्र में जहां एक तरफ किसान सूखे से जूझ रहे हैं, वहीं दूसरी ओर आइपीएल मैचों के लिए पिच तैयार करने पर करीब 60 लाख लीटर पानी इस्तेमाल होने का अनुमान है. ऐसे में एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए बॉम्बे हाइकोर्ट ने राज्य सरकार से सवाल किया है कि महाराष्ट्र में आइपीएल ज्यादा जरूरी है या पानी? हालांकि, कोर्ट ने आइपीएल मैचों पर फिलहाल रोक नहीं लगायी है.
एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए अदालत ने राज्य सरकार को फटकार लगायी और पूछा, ‘क्या सरकार राज्य के हालात देख रही है?’ ‘आप ऐसे पानी कैसे बरबाद कर सकते हैं. आपको हालात पता हैं?’ कोर्ट ने कहा कि मैच को राज्य से बाहर स्थानांतरित कर देना चाहिए. वैसे कोर्ट ने नौ अप्रैल को निर्धारित उद्घाटन मैच पर यह कहते हुए रोक लगाने से इनकार कर दिया कि याचिका दायर करने में काफी देरी हो गयी. अदालत ने महाराष्ट्र सरकार से 12 अप्रैल तक इस बारे में पूरी रिपोर्ट देने को कहा है.
बीसीसीआइ का रुख : बीसीसीआइ आइपीएल के मैच महाराष्ट्र से स्थानांतरित नहीं करना चाहता. आइपीएल की दो टीमों मुंबई इंडियंस और राइजिंग पुणे के आधे मैच उनके घरेलू मैदान मुंबई और पुणे में होंगे. किंग्स इलेवन पंजाब ने भी तीन मैचों के लिए नागपुर को अपना घरेलू मैदान बनाया है. दो प्ले ऑफ और फाइनल मुकाबला भी यहीं होना है. बीसीसीआइ ने कोर्ट में अपना बचाव करते हुए कहा कि मैदान के रखरखाव में जो पानी इस्तेमाल किया जाता है, वह पीने लायक नहीं होता.
क्यों हो रहा विरोध : सूखे और पानी की कमी के चलते महाराष्ट्र में लाखों किसानों की फसल बरबाद हो चुकी है. कई जलाशय पूरी तरह से सूख चुके हैं और जिन जलाशयों में थोड़ा बहुत पानी बचा है, उनकी निगरानी के लिए पुलिस लगानी पड़ी है. लातूर में तो धारा 144 लगानी पड़ी है. मराठवाड़ा के कई गांवों में पानी नहीं है. ठाणे और मुंबई से लगे इलाकों में भी पानी की समस्या गंभीर है.
कम हो रही है सूखे से निपटने की हमारी क्षमता
दुनू रॉय
निदेशक, हजार्ड सेंटर
किसी काम को करने में अगर पहले के मुकाबले हमारी क्षमता में कमी आ जाती है, तो हम उस काम को बड़ा ही मुश्किल मान लेते हैं. यही बात सूखे को लेकर भी लागू होती है. देश में जहां कहीं भी सूखे की स्थिति है, वह उतनी भयावह नहीं है, जितना कि हम मान रहे हैं. हालांकि, सूखे की स्थिति है और आगे आनेवाले दिनों के लिए यह गंभीर समस्या बन सकती है. लेकिन, यह स्थिति हमें अभी ही भयावह इसलिए लग रही है, क्योंकि सूखे से निपटने की हमारी क्षमता में लगातार कमी आ गयी है.
सूखे का मतलब यह भी नहीं है कि बारिश नहीं होती है. बारिश होती है, लेकिन वह सामान्य से कम होती है. या ऐसे वक्त पर बारिश होती है, जब इसका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है. फसल के हिसाब से जिस वक्त पानी चाहिए, अगर उस वक्त बारिश न हो, तो जाहिर है कि फसल खराब होगी ही, जिसे सूखे के कारण हुआ मान लिया जाता है. लेकिन, अगर हमारी जल-संरक्षण की नीतियां मजबूत होतीं, तो बारिश कम पड़े या ज्यादा, वक्त पर हो या बेवक्त पर, हर स्थिति में हम अपनी खेती को बचा लेते. महाराष्ट्र के जिन क्षेत्रों में वर्तमान में सूखे की स्थिति है, वर्ष 1970-71 में भी इन्हीं क्षेत्रों में सूखा पड़ा था. तब के सूखे और अब के सूखे में कोई खास अंतर नहीं है, लेकिन अंतर यह है कि तब हम उससे निपटने में सक्षम थे और आज हम अक्षम नजर आ रहे हैं. जाहिर है, अगर आप किसी आपदा के लिए तैयार नहीं हैं और अपनी क्षमता को विकसित नहीं रखते हैं, तो वह आपदा आपके लिए आसानी से काल बन सकती है.
सरकार की गलत नीतियों से बिगड़ रहे हालात
माना जाता है कि बारिश न होने से उत्पन्न हुए सूखे का सबसे ज्यादा असर खेती पर ही पड़ता है. लेकिन खेती-किसानी की हालत खस्ता होने के लिए मॉनसून या असमय बारिश उतनी जिम्मेवार नहीं है, जितनी कि हमारी सरकारों की पिछले बीस साल की नीतियां जिम्मेवार हैं. दरअसल, कृषि सब्सिडी, बीज की खरीद, रासायनिक खादों की खरीद, फसल बेचने की मंडी और उस मंडी में तय फसल की कीमत, आदि ये सारी चीजें हमारी खेती के अनुकूल नहीं हैं, इसलिए हमारी खेती की हालत बरबाद है. जाहिर है, यह सब सरकार की गलत नीतियों का ही परिणाम है. दूसरे शब्दों में कहें तो यह किसानी के लिए भले ही अनुकूल नहीं है, लेकिन व्यापारिक खेती (कमर्शियल फार्मिंग) के बहुत अनुकूल है, क्योंकि बीते बीस वर्षों से हमारी सरकारों का जोर कृषि विकास पर नहीं, बल्कि आर्थिक विकास पर ही रहा है. यही वजह है कि सूखा पड़ने पर सरकारों का रवैया असंवेदनशील रहता है, जिसके लिए उन्हें सुप्रीम कोर्ट की फटकार तक झेलनी पड़ती है.
सूखे से निपटने में हमारी क्षमता क्यों कम हो रही है, इसे ऐसे समझते हैं. ऐसा कहा जा रहा है कि आगामी 2030 तक देश की आधी आबादी शहरों में आ जायेगी. यह कोई ईश्वर का करिश्मा नहीं है, बल्कि हमारी सरकारी नीतयों का फल है. हमारी सरकारों का उद्देश्य भी यही है, क्योंकि उन्हें आर्थिक विकास के आंकड़ों के अलावा कुछ सूझता ही नहीं है. इसीलिए वे कहती हैं कि देश की आधी आबादी अगर शहरों में आ जायेगी तो इससे उत्पादन बढ़ेगा और जीडीपी विकास दर में तेजी आयेगी. इससे देश में रोजगार बढ़ेंगे, खुशहाली आयेगी और हम विकसित शहरों की श्रेणी में आ जायेंगे. लेकिन क्या ऐसा नहीं है कि हमें इसकी कीमत भी चुकानी पड़ेगी. शहरों में ज्यादा आबादी यानी ज्यादा उद्योग, ज्यादा उद्योग यानी ज्यादा जल का दोहन, जल का ज्यादा दोहन यानी देश में पानी का संकट का सूत्रपात, और पानी का संकट यानी जल-संरक्षण नीतियों की कमी. इस प्रक्रिया के चलते ही सूखे से निपटने की क्षमता में लगातार कमी आती गयी है.
जल संरक्षण को मनरेगा से जोड़ना चाहिए
इस तरह देखें, तो सूखे के पीछे मौसम बहुत बड़ा कारण नहीं है. आगे भी सूखा पड़नेवाला है, लेकिन उससे निपटने को लेकर हमारी कोई तैयारी नजर नहीं आती है. साल 1971 में महाराष्ट्र में सूखा पड़ा था. आपको आश्चर्य होगा कि उस सूखे के दौरान महाराष्ट्र सरकार ने लोगों के लिए राहत कार्य शुरू किया था, जिसके तहत ग्रामीणों को पत्थर तोड़ने का काम दिया गया था. तकरीबन एक साल तक मराठवाड़ा के पांच जिलों में ग्रामीणों ने भूखे-नंगे रह कर भारी मात्रा में पत्थर तोड़ा. बुद्धिजीवी लोगों ने इसका विरोध किया कि सूखे के समय इस तरह का काम लेना अमानवीय है.
बुद्धिजीवियों ने कहा कि सूखे की हालत में ग्रामीणों को ऐसा काम देना चाहिए, जिससे कि भविष्य में पड़नेवाले सूखे से निपटा जा सके. रोजगार ऐसा होना चाहिए, जो ग्रामीणों की क्षमता के मुताबिक हो और उस रोजगार की उत्पादकता ऐसी हो, जो भविष्य में भी काम आ सके. पत्थर तोड़ने से उन्हें मजदूरी तो मिल जायेगी, लेकिन सूखे का समाधान नहीं होगा. यानी पत्थर तोड़ने के बजाय ग्रामीणों को जलाशयों के काम में लगाया जाये, तो उसका लाभ कई पीढ़ियों तक पहुंचेगा. इन्हीं सबके चलते महाराष्ट्र में 1974 में एक महाराष्ट्र ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना शुरू की थी. वह योजना कुछ-कुछ आज के महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम यानी मनरेगा योजना जैसी ही थी. या यूं कह लें कि आज की मनरेगा योजना 1971 की उस रोजगार गारंटी योजना जैसी है. इस ऐतबार से देखें, तो मनरेगा के तहत अगर हम ऐसी नीतियां बना लें, जिससे कि जल का भारी मात्रा में संरक्षण हो सके, तो हम सूखे जैसी स्थिति से आसानी से निपट सकते हैं.
मौजूदा परिस्थिति में मनरेगा के तहत ऐसी नीति बनायी जा सकती है, जो आगे आनेवाले सूखे के हालात से लड़ने के लिए काम आ सकेगी.
साल 1990 के बाद से ही देश में नीतियों के नाम पर देश के साथ धोखाधड़ी होती रही है. किसी भी आपदा में उचित राहत कार्य की जगह हमारी सरकारें मुआवजा बांट कर अपनी जिम्मेवारियों से पल्ला झाड़ लेती हैं. किसी भी आपदा का समाधान मुआवजे में नहीं है, बल्कि उसे घटित न होने देने में है और अगर घटना ऐसी हो जिसे रोका न जा सके, तो कम-से-कम उचित राहत-कार्य की व्यवस्था करने में ही उसका उचित समाधान है. लेकिन अब तो ऐसा लगता है कि हमारी सरकारों के पास किसी उपाय के बजाय मुआवजे की नीति ही शेष बची
हुई है. (वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)