प्रतिरोध की यात्रा

डाॅ शिवनारायण कवि और समालोचक शब्दाें का ग्लाेबल गांव बदल रहा है. ग्लाेबल गांव के देवता इधर लगातार शब्दाें पर प्रहार कर रहे हैं, क्याेंकि ये शब्द ही हैं जिनका प्रस्फाेट इस ग्लाेबल गांव की चकमक से जनता काे सावधान करता है. शब्द का मूल स्वभाव है- करुणा, विचार और प्रतिराेध. संघर्षशील समाज में मनुष्य […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | April 15, 2016 7:54 AM
डाॅ शिवनारायण
कवि और समालोचक
शब्दाें का ग्लाेबल गांव बदल रहा है. ग्लाेबल गांव के देवता इधर लगातार शब्दाें पर प्रहार कर रहे हैं, क्याेंकि ये शब्द ही हैं जिनका प्रस्फाेट इस ग्लाेबल गांव की चकमक से जनता काे सावधान करता है. शब्द का मूल स्वभाव है- करुणा, विचार और प्रतिराेध.
संघर्षशील समाज में मनुष्य एक दूसरे के दर्द के प्रति संवेदित हाे ऐसे रचनात्मक विचाराें का निर्माण करता है, जाे उनमें समता, सद्‌भाव और हर प्रकार के विभेद से मुक्त समरसता की भावना का संचार करता है. आखिर जनसमूह काे समाज में बदलने की प्रक्रिया ऐसे ही उदास भावाें के बीच शुरू हाेती है. समरस समाज ही अपने शब्दाें की ताकत से किसी भी प्रकार के शाेषण का प्रतिराेध कर पाता है.
प्रतिराेध से श्रम का मूल्य बढ़ता है, जिस समाज में श्रम की प्रतिष्ठा नहीं हाेती, वहां संवेदना अथवा करुणा के फूल भी नहीं लहलहाते! श्रम सौंदर्य ही व्यक्ति काे व्यक्ति की पीड़ा से जाेड़ता है.
ग्लाेबल गांव के देवता श्रम की प्रतिष्ठा नहीं, उसके शाेषण और दाेहन से अपने साम्राज्य का विस्तार करना चाहते हैं. यही शब्द अपनी अभिव्यक्ति के लिए भी मुसलसल संघर्ष कर रहा है. अपनी आजादी के लिए वह कभी वाम ताे कभी दक्षिण दिशा की ओर निहारता है! इसी के लिए वह अभिशप्त दिखता है.
शब्द का समाज बदल रहा है. ग्लाेबल गांव की नयी सदी के विमर्श ने इस बदलाव पर अपना प्रभाव छाेड़ा है. क्या है यह विमर्श और कैसी है बदलाव की यह धारा? इन सबसे परिचित हाेकर ही अपने समय के साहित्य से सराेकार बनाया जा सकता है. बदलते समय और नित्य बदलती वैश्विक राजनीतिक-सांस्कृतिक परिस्थितियाें के बीच मनुष्य मन की मूल्यजनित आकांक्षाओं की संरक्षा का दायित्व शब्द पूरा करता है.
तमाम प्रकार के शाेषण, चाहे वह सत्ता का हाे या फिर औद्याेगिक प्रतिष्ठानाें का, शब्द उसके खिलाफ खड़ा हाेता है. देखा जाये ताे शब्द मनुष्य की ऊर्जा और उसकी प्रेरणा का स्राेत है. इसलिए ग्लाेबल गांव के देवता सबसे पहले शब्द की सत्ता के लिए एक से एक चुनाैतियां खड़ी करते हैं.
शब्द काे निष्प्राण करने के लिए समाज काे संवेदन-शून्य कर उसे भीड़ में बदलने की काेशिशें की जाती हैं, ताकि विचार और प्रतिराेध की तमाम संभावनाओं काे कुंद किया जा सके. बीते दिनाें देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर किये गये प्रहार काे इसके एक उदाहरण के रूप में देखा-समझा जा सकता है. सभ्यताओं के संघर्ष के इस दाैर में विचार विशेष अथवा विचारधाराओं के परस्पर टकराव के द्वारा बहुलता की संस्कृति काे विनष्ट करने की लगातार साजिशें रची जाती हैं.
आज शब्दाें की दुनिया में क्या कुछ रचा जा रहा है, उसकी पड़ताल जरूरी है, लेकिन उससे भी अधिक जरूरत इस बात की है कि उस तमाम रचना के मूल में काैन-सी दृष्टि काम कर रही है. रचना किसके पक्ष में खड़ी है, उनमें प्रतिराेध का स्वर है या नहीं, वह देश के बहुलतावादी समाज में प्रेम और समरसता का संचार कर पाती है या नहीं, आदि की पड़ताल की जाये! ये तमाम सवाल एेसे हैं, जिनसे मुठभेड़ करते हुए जनदृष्टिसंपन्न रचना की खाेज ही शब्द की प्रासंगिकता काे सिद्ध करेगी.
शब्दाें की दुनिया में आज जितने भी विमर्श चल रहे हैं, उनमें तात्कालिकता का भाव ही अधिक है. शब्द की सत्ता काे इस तात्कालिकता से बचाते हुए मनुष्य के सुख-दु:ख के साथ करना हाेगा, जाे उसका मूल उत्स है. तमाम प्रकार की विरूपताओं-असंगतियाें के विरुद्ध प्रेम, संवेदना, विचार और प्रतिराेध की यात्रा ही शब्द की यात्रा हाेगी? इस यात्रा में हमारे पाठक भी शामिल हाें, इसी सदिच्छा के साथ कुछ रचनाएं यहां प्रस्तुत की जा रही हैं.
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