चीन-पाकिस्तान जुगलबंदी-3 : क्या चीन के लिए अपना शाश्वत मित्र, सबके शाश्वत सत्य से अधिक मूल्यवान है?
रवि दत्त बाजपेयी वर्ष 1950 में तिब्बत को पूरे नियंत्रण में लेने के बाद भी चेयरमैन माओ, तिब्बत में विदेशी शक्तियों के हस्तक्षेप को लेकर बेहद चिंतित थे. माओ के आकलन में चीन को तिब्बत में घेरने के लिए भारत और अमेरिका एक साथ मिल गये थे. पाकिस्तान तिब्बत को चीन के कब्जे से छुड़ाने […]
रवि दत्त बाजपेयी
वर्ष 1950 में तिब्बत को पूरे नियंत्रण में लेने के बाद भी चेयरमैन माओ, तिब्बत में विदेशी शक्तियों के हस्तक्षेप को लेकर बेहद चिंतित थे. माओ के आकलन में चीन को तिब्बत में घेरने के लिए भारत और अमेरिका एक साथ मिल गये थे. पाकिस्तान तिब्बत को चीन के कब्जे से छुड़ाने में बेहद समर्पित, सक्रिय भूमिका में था. पढ़िए तीसरी कड़ी.
अंतरराष्ट्रीय राजनीति में इतिहास की भूमिका बेहद अहम है और यह मान्यता भी है कि, इतिहास की विस्मृति से ही इतिहास की पुनरावृत्ति होती है. वैसे इतिहास को भूलने-दोहराने वाली यह उक्ति विभिन्न प्रारूपों में उल्लिखित है.
“ जो लोग अपने अतीत को याद नहीं रखते, वो इसे दोहराने के लिए शापित हैं” -अमेरिकी दार्शनिक जॉर्ज संतायना
“ जो लोग अपने इतिहास को नहीं जानते, वो इसे दोहराने के लिए नियत हैं”
– ब्रिटिश राजनीतिक विज्ञानी एडमंड बर्क
“जो लोग अपने इतिहास से नहीं सीखते, वो इसे दोहराने को अभिशप्त हैं.” -ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल
1962 के भारत-चीन युद्ध के बारे में सामान्यतः यह माना जाता है कि भारत चीन की चिंताओं, लक्ष्यों और ताकत को समझ नहीं पायी. कई विश्लेषकों के अनुसार इस युद्ध का मूल तिब्बत था. भारत ने चीन को उकसाने के लिए पहले तो तिब्बती मामलों में चीन की आशंकाओं का निवारण नहीं किया और दूसरे दलाई लामा को भारत में शरण दी.
इनके अनुसार भारत-चीन युद्ध के इतिहास का सबक यह है कि भारत, चीन के धैर्य और शौर्य की परीक्षा न ले.वर्ष 1950 में तिब्बत को पूरे नियंत्रण में लेने के बाद भी चेयरमैन माओ, तिब्बत में विदेशी शक्तियों के हस्तक्षेप को लेकर बेहद चिंतित थे. माओ के आकलन में चीन को तिब्बत में घेरने के लिए भारत और अमेरिका एक साथ मिल गये थे. वैसे यह एक सच्चाई है कि तिब्बत पर चीन के कब्जे के बाद अमेरिका ने स्थानीय तिब्बती लोगों को सशस्त्र संघर्ष के लिए तैयार करने के प्रयास आरंभ किये थे.
अमेरिका के इस अभियान के बारे में अमेरिकी गुप्तचर संस्था सीआइए के सार्वजनिक हुए दस्तावेजों और पूर्व अमेरिकी अधिकारियों द्वारा प्रकाशित जानकारी ने भी यह तथ्य स्वीकारा है. वर्ष 1957 में सीआइए ने छह तिब्बती युवकों को छापामार युद्ध का प्रशिक्षण देने तिब्बत से अमेरिका, फिर इन गुरिल्ला लड़ाकों को विमान द्वारा वापस तिब्बत पहुंचाया गया. इन लड़ाकों को अमेरिकी वायुसेना नहीं, बल्कि सीआइए के गुप्त जहाज से तिब्बत के ऊपर पैराशूट से उतारा गया था. इसके बाद सीआइए ने लगातार तिब्बती युवकों के कई जत्थे अमेरिका लाकर उन्हें छापामार युद्ध का प्रशिक्षण दिया और फिर उन्हें अमेरिकी वायुसेना के हवाई जहाजों से पैराशूट के माध्यम से तिब्बत में उतारा.
अमेरिकी विमानों से लड़ाकों के साथ-साथ हथियार, रेडियो व अन्य सामान भी गिराया. तिब्बत में चीन खिलाफ छापामार युद्ध की तैयारी साथ ही, अमेरिका ने हवा में बेहद ऊंचे उड़ने वाले यू-टू विमानों से सोवियत रूस और चीन की जासूसी भी शुरू कर दी.
अमेरिकी राष्ट्रपति को सीआइए के तिब्बत अभियान बारे में विस्तृत जानकारी थी, वैसे तो चीन को भी इस अमेरिकी अभियान की काफी जानकारी थी.
अमेरिकी विमानों से तिब्बत में पैराशूट से गिराये गये हथियार व साजो-सामान का कुछ हिस्सा चीनी सेना के हाथ लग गया था और चीन ने कुछ ऐसे तिब्बती लोगों को हिरासत में लिया, जो अमेरिकी अभियान का हिस्सा थे. वर्ष 1958 में चीन ने भारत के पास आधिकारिक तौर पर विरोध दर्ज किया; चीन के अनुसार “अमेरिका, भगोड़े प्रतिक्रियावादियों के साथ मिलकर तिब्बत में अशांति और अस्थिरता फैला रहा है.” भारत से विरोध दर्ज करने का सीधा मतलब था कि चीन की नजरों में अमेरिका के तिब्बत अभियान में भारत भी शामिल था. संयोगवश, वर्ष 1961 के दौरान अमेरिका से तिब्बत जाने वाले गुरिल्ला लड़ाकों की संख्या और सैन्य सामान में बहुत अधिक वृद्धि देखी गयी थी.
अमेरिकी अभियान में भारत पर चीन के शक का कारण केवल सैद्धांतिक राजनीतिक मतभेद नहीं, बल्कि भारत की भौगोलिक स्थिति भी थी. तिब्बत से युवकों को अमेरिका ले जाने और प्रशिक्षण के बाद गुरिल्ला लड़ाकों, सैन्य सामान को तिब्बत में पैराशूट से गिराने के लिए अमेरिका को चीन के किसी पड़ोसी का समर्थन आवश्यक था. अमेरिका को चीन के किसी पड़ोसी देश में एक सैन्य अड्डा चाहिए था, जहां से उसके यू-टू विमानों और तिब्बत का आवागमन निरापद हो.
तिब्बत अभियान में तैनात अमेरिकी विमानों को एक मित्र राष्ट्र की ओर से दक्षिण एशिया में ही कुर्मीटोला नामक एक सैन्य अड्डा मिल गया. कुर्मीटोला, उस समय के पूर्वी पाकिस्तान, अब बांग्लादेश में ढाका के पास स्थित है, यहां से अमेरिका को चीन पर नजर रखने और तिब्बत अभियान के आवागमन के लिए एक सुरक्षित स्थान मिल गया.
उस समय के पश्चिमी पाकिस्तान के पेशावर सैन्य अड्डे से अमेरिकी यू-टू विमानों द्वारा सोवियत रूस और चीन पर खुफिया नजर रखी जाती थी. इसका अर्थ यह हुआ कि पाकिस्तान अपनी दोनों पूर्वी व पश्चिमी भुजाओं से तिब्बत को चीन के कब्जे से छुड़ाने में बेहद समर्पित और सक्रिय भूमिका में था.
वर्ष 1949 में साम्यवादी चीन और राष्ट्रवादी चीन (ताइवान) की स्थापना के बाद, ताइवान को संयुक्त राष्ट्र संघ में मान्यता मिल गयी.
इसके बाद संयुक्त राष्ट्र संघ में ताइवान के स्थान पर चीन को सदस्यता देने और उसे सुरक्षा परिषद स्थायी सदस्य बनाने की मांग करने वाले प्रस्ताव आते रहे. अमेरिका और पाकिस्तान ने हमेशा इन प्रस्तावों का विरोध किया, चीन के पक्ष में पाकिस्तान ने पहली बार वर्ष 1961 में मतदान किया. भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू हमेशा से चीन को मान्यता देने, सुरक्षा परिषद स्थायी सदस्य बनाने की मांग के पैरोकार रहे थे.
पाकिस्तान और चीन दोनों ही अपनी दोस्ती को अनेक उपमाओं से संबोधित करते हैं; समुद्र से कहीं अधिक गहरी, पर्वतों से कहीं अधिक ऊंची, शहद से कहीं अधिक मीठी, फौलाद से कहीं अधिक मजबूत. पाकिस्तान-चीन एक-दूसरे को ‘शाश्वत मित्र’,‘हर मौसम का दोस्त’ जैसे संबोधन भी देते रहे हैं.
इतिहास की विस्मृति से ही इतिहास की पुनरावृत्ति होती है, यह केवल अंतरराष्ट्रीय राजनीति में ही नहीं, बल्कि जीवन के हर पक्ष का शाश्वत सत्य है. क्या चीन के लिए अपना शाश्वत मित्र, सबके शाश्वत सत्य से कहीं अधिक मूल्यवान है?