चुनाव सुधार और राजनीतिक सुधार देश के लिए सख्त जरूरी
विपुल मुद्गल डायरेक्टर एंड चीफ एक्जीक्यूटिव, कॉमन कॉज हमारे देश-समाज के हर हिस्से में हर स्तर पर भ्रष्टाचार मौजूद है, इसलिए जाहिर है कि चुनाव में भी होगा, जिसकी परिणति के रूप में चुनाव प्रचारों में बेहिसाब पैसों का अंधाधुंध इस्तेमाल होता है. यहां हम दो तरह के भ्रष्टाचार देखते हैं- खुदरा भ्रष्टाचार और थोक […]
विपुल मुद्गल
डायरेक्टर एंड चीफ एक्जीक्यूटिव, कॉमन कॉज
हमारे देश-समाज के हर हिस्से में हर स्तर पर भ्रष्टाचार मौजूद है, इसलिए जाहिर है कि चुनाव में भी होगा, जिसकी परिणति के रूप में चुनाव प्रचारों में बेहिसाब पैसों का अंधाधुंध इस्तेमाल होता है. यहां हम दो तरह के भ्रष्टाचार देखते हैं- खुदरा भ्रष्टाचार और थोक भ्रष्टाचार. खुदरा भ्रष्टाचार वह है, जो आम लोग कुछ पैसों के लेन-देन (घूस आदि) से अपना काम निकालने की कोशिश करते हैं. वहीं थोक भ्रष्टाचार का मामला सीधे हमारी राजनीति से जुड़ा हुआ है. और इस थोक के भ्रष्टाचार में भी भ्रष्टाचार की मुख्य जड़ है चुनावी व्यवस्था, जिस पर हमारी राजनीति टिकी हुई है.
एक लोकतांत्रिक देश के लिए राजनीति का अर्थ है संसाधनों का समान वितरण. यानी जो कमजोर तबके हैं, उन तक हरसंभव संसाधनों को पहुंचाया जाये और समाज में आर्थिक असमानता को दूर कर लोकतंत्र को मजबूत किया जाये. लेकिन हमारी राजनीति ऐसा नहीं करती, जिससे कि थोक भ्रष्टाचार अपनी जड़ें जमाता जाता है.
दरअसल, प्राकृतिक संसाधनों के आवंटन में करोड़ों-अरबों रुपयों का लेनदेन होता है. हालांकि, इसमें कोई सीधे तौर पर पैसा नहीं लेता, बल्कि राजनीतिक पार्टियों वाली सरकारें नीतियां ही ऐसी बनाती हैं, जिनसे सीधे तौर पर कुछ बड़े लोगों को फायदा पहुंचता है और कमजोर तबके उन संसाधनों की पहुंच से वंचित ही रह जाते हैं.
मसलन, अगर सरकार कोई पेट्रो-केमिकल नीति बनाती है, उसके तहत वह देश के चार-पांच बड़े उद्योग घरानों को प्रोजेक्ट देती है. इस प्रोजेक्ट से सिर्फ उन्हीं चार-पांच उद्योग घरानों को ही अरबों रुपयों का फायदा मिलता है. इस फायदे का सीधा संबंध चुनाव से है. सरकार नीतियां बना कर उद्योग घरानों को फायदा पहुंचाती है और उद्योग घराने चुनाव में फंड देकर राजनीतिक पार्टियों को फायदा पहुंचाते हैं. कई सालों से चुनावी राजनीति में यही प्रक्रिया चल रही है, जो लोकतंत्र के लिए बहुत खतरनाक है.
जो लोग खुले तौर पर बेईमान हैं, उनकी तो बात ही क्या करना, लेकिन जो लोग अपेक्षाकृत ईमानदार नेता माने जाते हैं और जिनके बारे में यह कहा जाता है कि वे अपने घर-परिवार को भ्रष्टाचार से फायदा नहीं पहुंचाते (मसलन, नीतीश कुमार और ममता बनर्जी), उन नेताओं को भी चुनावों में एक-दो हजार करोड़ की जरूरत तो पड़ती ही है. अब इस पैसे की भरपाई कहीं न कहीं से तो करनी ही होगी! पार्टियों को फंडिंग चंदे से ही होती है.
दो तरह के चंदे हैं- एक है क्राउड फंडिंग और दूसरा है कॉरपोरेट फंडिंग. मान लीजिए चुनावी खर्च के लिए एक पार्टी ने क्राउड फंडिंग के तहत 50 लाख लोगों से सौ-सौ रुपये लिये, जिसका हिसाब-किताब तो नहीं के बराबर है और वे पचास लाख लोग पार्टी से हिसाब भी नहीं मांगेंगे.
लेकिन अगर एक पार्टी ने कॉरपोरेट फंडिंग के तहत 50 लोगों से सौ-सौ करोड़ या सौ-सौ करोड़ रुपये लिये, तो कॉरपोरेट के पास तो इसका हिसाब होगा ही और वह समय आने पर अपना हिसाब मांगेगा. अब ऐसा तो नहीं होगा कि कुछ दिन बाद कॉरपोरेट उधार मांगना शुरू कर दे कि आपने सौ करोड़ रुपये लिये थे, अब दीजिए. ऐसे में जाहिर है कि सरकार को अपनी नीतियों में लचीला रुख रखती हैं, जिससे छिपे तौर पर कॉरपोरेट घरानों को फायदा पहुंचता है. कॉरपोरेट और राजनीति का यह गंठजोड़ लोकतंत्र के लिए बहुत नुकसानदायक है. बड़ी बात यह है कि यह उन घरानों के लिए भी नुकसानदायक है, जो चुनावों में छिपे तौर पर खूब सारा पैसा दे रहे हैं. इन स्थितियों से न्याय व्यवस्था प्रभावित होती है. अगर न्याय व्यवस्था विकृत हो गयी, तो इससे कॉरपोरेट घरानों को भी नुकसान होगा.
अगर चुनाव लड़ने के लिए एक हजार करोड़ से ज्यादा की जरूरत नहीं पड़ती, तो हमारी पूरी राजनीतिक व्यवस्था और नीति-निर्धारक संकाय मौजूदा परिदृश्य से बिल्कुल अलग तरह का होता. इसीलिए राजनीतिक फंडिंग के पारदर्शी होने की बात कही जाती है, ताकि राजनीतिक पार्टियों के लिए जवाबदेही हो सके. जिस िदन राजनीतिक पार्टियों की जवाबदेही तय होने लगेगी, उस िदन वोटरों को आकर्षित करने के लिए पार्टियां द्वारा शराब, पैसा, गिफ्ट आदि बांटने में थोड़ी मुश्किल होने लगेगी.
चुनाव की मौजूदा व्यवस्था में सुधार के मद्देनजर हमें यह सोचना होगा कि क्या किसी भी तरह से स्टेट फंडिंग की व्यवस्था हो सकती है क्या? दूसरी बात यह है कि ऐसे भी सुझाव दिये गये हैं कि अगर देश भर में एक साथ चुनाव हों, तो पार्टियों और चुनाव आयोग दोनों के खर्चों में कमी आ जायेगी. मैं पार्लियामेंट से पंचायत के चुनावों को एक साथ करने की बात नहीं मान रहा हूं, लेकिन मेरे ख्याल में स्टेट और सेंटर के चुनाव एक साथ कराये जा सकते हैं. तीसरी बात यह है कि नीति के नजरिये से चुनावों में कल्पनाशीलता लाने की भी जरूरत है और इसके लिए दुनिया के बाकी अच्छी चुनावी व्यवस्था वाले देशों से कुछ सीख ले सकते हैं. स्वच्छ चुनाव के लिए अगर हम कुछ बेहतर नहीं सोच पा रहेे हैं, तो धीरे-धीरे हम अपने लोकतंत्र को खोखला कर रहे हैं. इसलिए चुनाव सुधार के साथ ही राजनीतिक सुधार और न्याय व्यवस्था का सुधार भी हो, तभी हम अपने लोकतंत्र को बचा पायेंगे.
सिर्फ आर्थिक सुधार से देश का भला नहीं होनेवाला है. मसलन, आर्थिक रूप से बेहद संपन्न दुनिया के कई ऐसे देशों की मिसालें दी जाती थीं कि उनकी अर्थव्यवस्था सबसे तेज चल रही है, वे ‘टाइगर इकोनॉमी’ वाले देश हैं. आर्थिक सुधार के चलते उन देशों में विकास तेजी से बढ़ा, लेकिन इन्होंने राजनीतिक या चुनाव सुधार करना जरूरी नहीं समझा, जिसकी भारी कीमत उन्हें चुकानी पड़ी. वे अर्थव्यवस्थाएं भयानक रूप से भ्रष्टाचार की शिकार हो गयीं. हमें इन देशों से सबक लेते हुए चुनाव सुधार के साथ-साथ राजनीतिक सुधार करना ही होगा, नहीं तो एक दिन इस देश को इसकी बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
नोट के बदले वोट की परिपाटी
केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष सुधीर चंद्रा ने अपने कार्यकाल के दौरान चुनाव में काले धन के इस्तेमाल के कुछ उदाहरण गिनाये हैं. ये घटनाएं इंगित करती हैं कि हमारी चुनावी प्रक्रिया में धन का हस्तक्षेप किस हद तक बढ़ चुका है.
– वर्ष 2010 के बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान एक सांसद को पटना हवाई अड्डे पर 25 लाख की नकदी के साथ पकड़ा गया. उनका बचाव यह था कि यह पार्टी का पैसा है. इस घटना के बाद निर्वाचन आयोग ने पार्टियों और नेताओं को नकदी लेकर उन राज्यों में नहीं जाने का निर्देश दिया जहां चुनाव चल रहे हों.
– तमिलनाडु विधानसभा के पिछले चुनाव में एक बस की छत से पांच करोड़ रुपये मिले जिसका कोई वारिस न था. अधिकारियों की इस कार्रवाई का जनता ने तो स्वागत किया, पर कुछ नेताओं ने यह भी कहा कि ऐसी कड़ाई से चुनाव का उत्सव मातम में बदल गया है.
– पिछले असम चुनाव के दौरान एक नेता अपने निजी जहाज से 57 लाख रुपये ले जाते हुए दिल्ली हवाई अड्डे पर पकड़े गये. उनका दावा था कि यह पैसा वे जमीन खरीदने के लिए ले जा रहे थे. इस धन को उन्हें वापस अपनी कंपनी के खाते में जमा करना पड़ा.
– वर्ष 2012 में झारखंड में राज्यसभा चुनाव के दौरान मतदान के दिन एक उद्योगपति के कार से 2.5 करोड़ पकड़े गये थे. इस घटना के बाद निर्वाचन आयोग ने चुनाव रद्द कर दिया था. यह इतिहास की अपने तरह की पहली घटना थी.
(स्रोतः द इकोनॉमिक टाइम्स)