चुनावी भ्रष्टाचार : वोटों के बाजार में लोकतंत्र
राजनीतिक पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र और वित्तीय पारदर्शिता बेहद जरूरी जगदीप छोकर सह-संस्थापक, एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक िरफाॅर्म्स चुनाव आते ही राजनीतिक पार्टियों द्वारा मतदाताओं को लुभाने की कोशिशें तेज हो जाती हैं. कोई पैसे बांट कर लुभाता है, कोई शराब बांट कर लुभाता है, तो कोई उपहार बांट कर. करोड़ों रुपये पकड़े जाते हैं. हजारों […]
राजनीतिक पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र और वित्तीय पारदर्शिता बेहद जरूरी
जगदीप छोकर
सह-संस्थापक, एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक िरफाॅर्म्स
चुनाव आते ही राजनीतिक पार्टियों द्वारा मतदाताओं को लुभाने की कोशिशें तेज हो जाती हैं. कोई पैसे बांट कर लुभाता है, कोई शराब बांट कर लुभाता है, तो कोई उपहार बांट कर. करोड़ों रुपये पकड़े जाते हैं. हजारों बोतल शराब पकड़ी जाती है. जाहिर है, जिन पैसों से यह सब होता है, वह पैसा सही तो नहीं ही होगा. जो पैसा सही नहीं है, वह कालाधन की श्रेणी में अपने आप आ जाता है. ऐसे में चुनावों में कालाधन के बारे में बात करने से पहले हमें कुछ अहम बातों को समझ लेनी चाहिए कि आखिर इस काले धन के पीछे का सच क्या है. कालाधन और भ्रष्टाचार की जड़ कहां है.
दरअसल, सरकार का मतलब होता है राजनीतिक पार्टी, क्योंकि किसी भी लोकतांत्रिक देश में राजनीतिक पार्टियां ही सरकार बनाती हैं. केंद्र में एनडीए की सरकार है, जिसमें भारतीय जनता पार्टी मुख्य घटक दल है. देश के सभी राज्यों में किसी न किसी पार्टी की ही सरकार है.
यानी यह स्पष्ट है कि राजनीतिक पार्टियां ही सरकारें बनाती हैं. इस ऐतबार से जो फैसले सरकारें लेती हैं, एक हिसाब से वे फैसले राजनीतिक पार्टियां ही लेती हैं. ऐसे में यदि किसी सरकार ने कोई फैसला लिया या यूं कह लें कि राजनीतिक पार्टी ने कोई फैसला लिया कि देश में यह होना चाहिए, तो हमें यह समझना होगा कि ये फैसले देश के हित में लिये जाते हैं या उस कंपनी के हित में लिये जाते हैं, जिसे उन फैसलों के तहत प्रोजेक्ट पर काम मिलनेवाला होता है. यदि उस कंपनी के हित में फैसले लिये जाते हैं, तो क्या ये अच्छे फैसले हैं, या इसलिए लिये जाते हैं कि इससे कंपनी को फायदा होगा और फिर कंपनी से पार्टी को फायदा होगा.
इस पूरी प्रक्रिया को कहते हैं- कंफ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट यानी एक ऐसी स्थिति, जिसमें किसी सरकारी अधिकारी का निर्णय उसकी व्यक्तिगत रुचि से प्रभावित हो. अगर पार्टियां अपने फंड को लेकर पारदर्शी हो जायें, तो उससे यह पता लगाना आसान हो जायेगा कि उनकी सरकारों द्वारा लिये गये फैसलों में कहीं कोई कंफ्लिक्ट ऑफ इंटरेस्ट की बात तो नहीं है. जब तक पार्टियों में पारदर्शिता नहीं आयेगी, तब तक जनता का विश्वास सरकारों में और राजनीतिक पार्टियों में नहीं होगा. ऐसा इसलिए, क्योंकि पिछले दस-बीस सालों में देश में जो राजनीतिक वातावरण बना है, जनता को राजनीतिक पार्टियों और नेताओं पर यह विश्वास नहीं है कि वे देशहित और जनता के हित में काम कर रहे हैं.
राजनीतिक पार्टियों को पैसा कहां से मिलता है, इसकी पारदर्शिता के अभाव के चलते विभिन्न प्रकार के राजनीतिक भ्रष्टाचार पनपते हैं. इसी के मद्देनजर, 23 मार्च, 2016 को दिल्ली हाइकोर्ट ने एक फैसला लिया था, जिसका पहला वाक्य था- ‘आज से 40 साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राजनीति में और चुनाव में बहुत ज्यादा पैसे का इस्तेमाल हो रहा है, जिससे चुनाव प्रक्रिया खराब हो रही है.’ ऐसे में मेरा यह मानना है कि अगर 40 साल से देश की जनता को यह नहीं बताया जा रहा है कि राजनीतिक पार्टियों को पैसा कहां से किस रूप में आता है, तो यह स्वाभाविक है कि लोगों को शक होता है.
क्योंकि अगर सब कुछ ठीक है, तो पार्टियों को यह बताने में क्या दिक्कत है कि उन्हें पैसा कहां से आता है? पार्टियों के इस धन को कालाधन कहें कि न कहें, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है, लेकिन यह बेहिसाब-किताब वाला धन (अनएकाउंटेड मनी) तो जरूर है. शायद यही वजह है कि पिछले 40 साल से देश की सभी राजनीतिक पार्टियां अपने चंदों के हिसाब-किताब छुपाती आ रही हैं. इस छुपाने की प्रक्रिया से ही भ्रष्टाचार की शुरुआत होती है. चुनावों में पैसे, शराब, उपहार आदि बांटने का काम इसी भ्रष्टाचार का हिस्सा है.
मैंने कुछ साल पहले एक लेख लिखा था- ‘देश में राजनीतिक और चुनावी गतिविधियां भ्रष्टाचार की जड़ हैं.’ चूंकि राजनीतिक गतिविधियों में भ्रष्टाचार है, इसलिए राजनीतिक पार्टियों का नैतिक आधार ही खत्म हो जाता है कि वे दूसरों को भ्रष्टाचार करने से रोकें या कहीं भी भ्रष्टाचार होने से रोकें.
जब तक राजनीतिक और चुनावी गतिविधियाें में होनेवाला भ्रष्टाचार नहीं खत्म होगा, तब तक देश से भ्रष्टाचार कभी नहीं खत्म हो सकता. ऐसे कहना कि लोकपाल बना दो तो भ्रष्टाचार खत्म हो जायेगा, पुलिस सुधार कर दो तो भ्रष्टाचार खत्म हो जायेगा, चुनाव सुधार कर दो तो भ्रष्टाचार खत्म हो जायेगा, तो मेरे ख्याल में ये सब राजनीतिक छलावा मात्र हैं. इसे ऐसे समझते हैं. हजारों करोड़ का लोन लेकर विजय माल्या देश से भाग गये, लेकिन जिन्होंने लोन दिया था, वे तो यहीं मौजूद हैं. अगर लोन देनेवालों से यह पूछा जाये कि उन्होंने माल्या को क्यों लोन दिया और बड़ी गंभीरता से यह कहते हुए पूछा जाये कि अगर नहीं बताये, तो जेल में डाल दिया जायेगा, तभी वे असलियत बतायेंगे. वह असलियत यह होगी कि फलाने नेता ने फोन किया था कि उसको लोन दे दिया जाये. जब नेता का नाम उजागर होगा, तो नेता भी पकड़ा जायेगा.
नेता यह बिल्कुल नहीं चाहेगा कि उसका नाम सामने आये, इसीलिए तो सारे नेता पार्टियों के आरटीआइ के दायरे में आने का विरोध करते हैं. ऐसी परिस्थिति में अगर राजनीतिक नेताआें को अपना नैतिक अधिकार फिर से पाना है और जनता में भरोसा बढ़ाना है, तो उन्हें पार्टी की आमदनी में पारदर्शिता अपनानी ही होगी और आरटीआइ के दायरे में आना ही होगा. यह सिर्फ देश के हित में ही नहीं है, बल्कि राजनीतिक पार्टियों के हित में भी है, लेकिन यह बात अभी उन्हें समझ में नहीं आ रही है.
राजनीतिक पार्टियों में चंदे को लेकर अगर पारदर्शिता होती, तो चुनावों में पैसे, शराब, गिफ्ट आदि बांटने की गतिविधियां जोर नहीं पकड़तीं. इस मामले में वित्तीय पारदर्शिता की छोटी सी परिभाषा है- आपके पास कितना पैसा आया, कहां से आया, कैसे आया और आपने कितना पैसा खर्च किया, कहां खर्च किया, कैसे खर्च किया… इसी का सही-सही हिसाब दे दीजिए. ऐसा करने में तो कोई बुराई नहीं दिखती. मान लीजिए, एक व्यक्ति नौकरी करता है, उसे सैलरी मिलती है, उसमें से टैक्स कटता है, इस बात की पूरी-पूरी जानकारी इनकम टैक्स विभाग को बताना होता है कि ये पैसे कहां से आये और किस-किस को दिये गये.
यही प्रक्रिया राजनीतिक पार्टियों पर भी लागू होती है कि वे अपने चंदे का सही-सही हिसाब दें, लेकिन वे ठीक से बताते ही नहीं हैं, इनकम टैक्स रिटर्न में भी सही तथ्य नहीं पेश करते हैं. जाहिर है, जिस पैसे को छुपा लिया गया हो, उसका सही इस्तेमाल करने में मुश्किल होती है, इसलिए वह पैसा चुनावों में बांटने, उससे शराब या उपहार बांटने या बेतहाशा लुटाने में किया जाता है. यह एक प्रकार का राजनीतिक भ्रष्टाचार है. अगर राजनीतिक पार्टियों में वित्तीय पारदर्शिता होती, तो यह सब नहीं हो पाता.सबसे प्रमुख और मूलभूत चुनाव सुधार यही है कि राजनीतिक पार्टियां अपने चंदे का सही-सही हिसाब दें.
लेकिन यही मुश्किल है, क्योंकि चुनाव सुधार और राजनीतिक सुधार इन दोनों का चोली-दामन का रिश्ता है. चुनाव सुधार का कोई मतलब नहीं है, जब तक राजनीतिक सुधार न हो. मान लीजिए आपके अंदर कहीं कोई इनफेक्शन है, जिस कारण आपको बुखार आ रहा है. बुखार खत्म करने के लिए आप क्रोसिन की गोली खा लेते हैं और चार-छह घंटे के लिए आराम मिल जाता है. लेकिन, इनफेक्शन तो अब भी बना हुआ है. इस बीमारी को खत्म करने के लिए बीते 40 सालों से बहस चल रही है. पार्टियां भी इस बीमारी को ही खत्म करने की बात करती हैं, लेकिन खुद पार्टियों ने ही आरटीआइ के दायरे में न आने के लिए सुप्रीम कोर्ट में लिख कर दिया हुआ है. ऐसा करना तो बीमारी को ठीक करना नहीं, बल्कि उसे और भी बढ़ाना है.
निष्पक्ष और स्वच्छ चुनाव के लिए चुनाव सुधार से पहले राजनीतिक सुधार बहुत जरूरी है. राजनीतिक सुधार के लिए सबसे पहले जरूरी है कि पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र हो. हमारे देश में प्रतिनिधित्व वाला लोकतंत्र (रिप्रजेंटेटिव डेमोक्रेसी) है, डायरेक्ट डेमोक्रेसी नहीं है.
रिप्रजेंटेटिव डेमोक्रेसी में राजनीतिक पार्टियों की बहुत बड़ी भूमिका होती है. इस ऐतबार से आप राजनीतिक पार्टियों को लोकतंत्र का स्तंभ कह सकते हैं. यहां सोचनेवाली बात है कि अगर हमारे स्तंभ के भीतर ही लोकतंत्र नहीं है, तो समाज के भीतर कैसे होगा? कुल मिला कर कहें, तो राजनीतिक पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र और वित्तीय पारदर्शिता, इन दो चीजों में सुधार के बिना चुनाव को स्वच्छ नहीं बनाया जा सकता.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)