कर्ज के पैसों से खड़ी की “25 करोड़ की कंपनी
अपने साथ औरों के जीवन में भी उजियारा फैला रहे भवेश कहते हैं कि अंधेरे को कोसने से अच्छा है एक मोमबत्ती जलाना़ भवेश भटिया की कहानी भी कुछ ऐसी ही है़ नेत्रहीन भवेश ने अपने अंधेरे जीवन पर निराश होने के बजाय उसमें मोमबत्ती की रोशनी बिखेरने का निश्चय किया़ उधार के 15 हजार […]
अपने साथ औरों के जीवन में भी उजियारा फैला रहे भवेश
कहते हैं कि अंधेरे को कोसने से अच्छा है एक मोमबत्ती जलाना़ भवेश भटिया की कहानी भी कुछ ऐसी ही है़ नेत्रहीन भवेश ने अपने अंधेरे जीवन पर निराश होने के बजाय उसमें मोमबत्ती की रोशनी बिखेरने का निश्चय किया़ उधार के 15 हजार रुपये से शुरू किये मोमबत्तियों के उनके कारोबार का सालाना टर्नओवर 25 करोड़ रुपये तक जा पहुंचा है. यही नहीं, वह अपनी कंपनी में कर्मचारियों की नियुक्ति में दृष्टिहीनों को ही प्राथमिकता देते हैं.
मूल रूप से महाराष्ट्र के लातूर जिले के सांघवी के रहनेवाले 46 वर्षीय भवेश भाटिया की आंखों की रोशनी मैक्यूलर डीजेनेरेशन नामक बीमारी की वजह से बचपन से ही धीरे-धीरे कम होने लगी थी़ स्कूल-कॉलेज के दिनों में कमजोर आंखों की वजह से वह किताब भी ठीक से नहीं देख पाते थे़
इससे उन्हें पढ़ाई-लिखाई में परेशानी होती थी़ 20 साल की उम्र तक भवेश की आंखों की रोशनी पूरी तरह जा चुकी थी़ बचपन से लेकर तब तक भवेश की मां ने ही किताबें पढ़ कर उन्हें पाठ याद कराये थे़ आंखों की रोशनी खोना, भवेश की जिंदगी का सबसे दर्द भरा समय था, लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं मानी़ उन्हें अपनी मां की कही हुई एक बात हमेशा प्रेरणा देती कि ‘तुम लोगों को देख नहीं सकते ताे क्या हुआ? कुछ ऐसा करो कि लोग तुम्हें देखें’.
जिंदगी को मिली नयी दिशा : आंखों की रोशनी जाने की सही वजह जानने और भविष्य में जीवन-यापन के लिए कुछ हुनर सीखने के लिए भवेश ने नेशनल एसोसिएशन फॉर ब्लाइंड इंस्टीट्यूट में दाखिला लिया़ यह संस्था नेत्रहीन लोगों को अलग-अलग कौशल प्रशिक्षण प्रदान करती है.
यहां भवेश ने कई तरह के कौशल सीखे़ इस दौरान उन्होंने जाना कि मोमबत्ती बनाने का काम उनके लिए सुविधाजनक है़ तब उन्होंने इस क्षेत्र में व्यवसाय करने का निश्चय किया़ लेकिन कच्चा माल खरीदने के लिए भवेश को पैसों की जरूरत थी, जो उनके पास थे नहीं. इसके लिए उन्होंने महाबलेश्वर के एक होटल में मालिश चिकित्सक के रूप में पार्ट-टाइम नौकरी पकड़ ली़
भवेश दिन रात काम करते और अपने व्यापार के लिए पैसे जोड़ते़ फिर एक दिन उन्होंने पांच किलो मोम खरीद कर अपने बिजनेस की शुरुआत कर दी़ अब भवेश रात-रात भर कैंडल बनाते और दिन में उसे बेचते़ उन्होंने महाबलेश्वर में अपनी एक छोटी-सी दुकान सड़क पर ही शुरू कर दी़
जुड़ा नीता से नाता और चमका सितारा
इसी दौरान भवेश की मुलाकात नीता से हुई, जो मुंबई से महाबलेश्वर घूमने आयीं थीं. उन्होंने भवेश से कुछ मोमबत्तियां खरीदीं. बातों-बातों में वह भवेश से बहुत प्रभावित हुईं. उन्होंने भवेश से वादा किया कि उनकी मोबत्तियों को बेचने में वह पूरी मदद करेंगी़ समय के साथ उन दोनों में बहुत अच्छी दोस्ती हो गयी, फिर दोनों ने शादी कर ली. आज भवेश अपनी सफलता के पीछे अपनी मां के बाद नीता का बड़ा हाथ मानते हैं.
शादी होने के बाद अब भवेश की जिम्मेदारी और बढ़ गयी थी़ बहुत मेहनत करने के बाद भी जिंदगी वही थी़ फिर एक दिन उम्मीद की किरण नजर आयी, जिसने भवेश की पूरी जिंदगी ही बदल डाली. महाराष्ट्र के सतारा सहकारी बैंक ने भवेश को 15000 रुपये लोन के रूप में दिये़ यह नेशनल एसोसिएशन फॉर ब्लाइंड की एक विशेष योजना के अंतर्गत संभव हुआ. इन पैसों से भवेश ने 15 किलो मोम, दो रंग और एक हाथ गाड़ी खरीदी़ उसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा़ उन्होंने घर को ही कारखाना बना डाला़ रसोई घर और बर्तन का उपयोग करके मोमबत्तियां बनाते चले गये. फिर कुछ समय बाद, यानी वर्ष 1996 में भवेश ने ‘सनराइज कैंडल्स’ के नाम से अपनी कंपनी शुरू कर डाली़
दृष्टिहीन कर्मचारियों की कंपनी ने देखी नयी ऊंचाई
एक समय कारोबार की शुरुआत करने के लिए भवेश के पास मोम खरीदने के लिए पैसे नहीं थे, लेकिन आज उनकी कंपनी 25 टन मोम हर रोज खरीद कर उसे तरह-तरह के आकर्षक आकारों में ढालती है़
आज की तारीख में यह कंपनी अपने 350 दृष्टिहीन कर्मचारियों की मदद से मोमबत्तियों की लगभग 10000 किस्में तैयार करती है, जिन्हें भारत के अलावा दुनियाभर के 65 देशों में निर्यात भी किया जाता है़ अपने उत्पादों को देश भर के ग्राहकों तक पहुंचाने के लिए सनराइज कैंडल्स के पास मार्केटिंग एजेंट्स का वृहद नेटवर्क है, जिनमें लगभग 1850 दृष्टिहीन भी अपना काम मुस्तैदी से कर रहे हैं.
खेलों में भी आगे
एक जुझारू और कुशल व्यवसायी होने के अलावा, भवेश बहुत अच्छे खिलाड़ी भी हैं. उन्होंने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आयोजित होनेवाले पैरालिंपिक्स में होनेवाले शॉट-पुट, डिस्कस थ्रो और जैवेलिन थ्रो में 32 स्वर्ण पदक सहित कुल 100 से ज्यादा पदक जीते हैं. वर्ष 2014 में राष्ट्रपति के हाथों सर्वश्रेष्ठ स्वरोजगाररत व्यक्ति का पुरस्कार पा चुके भवेश आने वाले दिनों में दृष्टिहीन लोगों के लिए वृद्धाश्रम और जरूरतमंदों के लिए अांखों का एक अस्पताल खोलना चाहते हैं.