राजनीति में धर्म का इस्तेमाल कांग्रेस की देन

बात–मुलाकात : उग्र और विकृत हिंदुत्व की राजनीति खतरनाक संसदीय राजनीति से संन्यास ले चुकने के बाद भी समाजवादी नेता शिवानंद तिवारी लोगों को राजनीतिक रूप से सजग बनाने के काम में लगे हुए हैं. वर्तमान केंद्र सरकार केे कार्यकलाप उन्हें देशहित में नहीं दिखते हैं. उग्र धार्मिक राजनीति को भारत के लिए खतरनाक मानते […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | May 5, 2016 8:28 AM
an image

बात–मुलाकात : उग्र और विकृत हिंदुत्व की राजनीति खतरनाक

संसदीय राजनीति से संन्यास ले चुकने के बाद भी समाजवादी नेता शिवानंद तिवारी लोगों को राजनीतिक रूप से सजग बनाने के काम में लगे हुए हैं. वर्तमान केंद्र सरकार केे कार्यकलाप उन्हें देशहित में नहीं दिखते हैं. उग्र धार्मिक राजनीति को भारत के लिए खतरनाक मानते हैं. देश की मौजूदा स्थिति पर पत्रकार निराला ने उनसे लंबी बातचीत की. पढ़िए बातचीत केमुख्य अंश.

आप तो घोषित तौर पर संसदीय राजनीति से संन्यास जैसा ले चुके हैं. तो फिर अब जो राजनीति कर रहे हैं, उसका मकसद और लक्ष्य क्या है?

इस समय मेरे पास एक ही एजेंडा है. जो अभी दिल्ली में केंद्र की सरकार है, उसके सत्ता संभालने के बाद से ही देश में जो स्थिति बनी है, उससे होनेवाले खतरे के बारे में सबको बताना. जितना अपना दायरा है, जितनी संभावना है, उतने लोगों को बताना चाहता हूं कि देश को किस तरह से कुछ लोग खतरनाक मुहाने पर पहुंचा रहे हैं और उसका आनेवाले दिनों में क्या असर पड़ेगा?

यह अचानक तो नहीं हो रहा. यह तो सबको पता था कि संघ के कोर ग्रुप से निकले नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा देश में सत्ता में आयेगी, तो फिर कुछ ऐसा माहौल बन सकता है, जिसे आप सबसे बड़ी चिंता बता रहे हैं. लेकिन, देश की जनता ने तो मोदी को चुना और कांग्रेस तथा दूसरे दलों को खारिज किया.

मैं तो चुनाव के पहले से ही कह रहा हूं, कि मोदी ताकतवर नेता हैं और उनके आने से देश में दूसरे किस्म का माहौल बनेगा. वही हो रहा है. आज तो अजीब किस्म का माहौल हो गया है. बोलने की आजादी नहीं. लिखने की आजादी नहीं. वंदे मातरम और भारत माता की जय बोलने का फरमान जारी हो रहा है. कोई कह रहा है कि हिंदू औरतों को सूअर की तरह अधिक-से-अधिक बच्चे पैदा करने चाहिए. यह सब कभी हुआ था क्या? हिंदुत्व के उभार के नाम पर यह सब हो रहा है.

आप तो ऐसा कह रहे हैं जैसे अचानक भाजपा हिंदुत्ववादी पार्टी हो गयी हो? उसकी तो पूरी बुनियाद ही हिंदुत्ववादी राजनीति की रही है. भारत में कांग्रेस को छोड़ कौन ऐसी पार्टी है, जो भाजपा के साथ नहीं रही है या सत्ता के लिए भाजपा का साथ नहीं ली है.

नहीं, ऐसा नहीं है. यह सही है कि भाजपा की उत्पत्ति ही हिंदुत्ववादी राजनीति से हुई है, लेकिन एक समय में अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता थे इसके पास, जिनकी पीठ नेहरू जैसे नेता थपथपाते थे.

मैं तो यह कह रहा हं कि आज भाजपा के लोग वंदे मातरम और भारत माता की जय कहने का आदेश जारी कर रहे हैं तो उनसे पूछा जाना चाहिए कि देशभक्ति का उनका इतिहास क्या रहा है? उनके सबसे बड़े दार्शनिक गुरु गोलवलकर तो पितृभूमि-पुण्यभूमि का सिद्धांत दिये थे. उनके बड़े नेता हुए श्यामा प्रसाद मुखर्जी. वह बंगाल में मुसलिम लीग की सरकार में मंत्री थे. 1942 की लड़ाई हुई देश में, तो वे अंगरेजों को चिट्ठी लिखकर कह रहे थे कि भारत की ऐसी लड़ाई का सरकार कड़ाई से दमन करे.

अब उस जमात के लोग देशभक्ति का सर्टिफिकेट बांट रहे हैं. भारत में देशभक्ति और देश के राजनीतिक निर्माण में किसी की भूमिका देखनी हो, तो तीन मौके देखे जा सकते हैं. एक तो आजादी की लड़ाई के दौरान. दूसरा इमरजेंसी के दौरान और तीसरा 90 के बाद. तीनों में इनकी भूमिका देखिए. इमरजेंसी में तो इंदिरा गांधी को जब कोर्ट से स्टे मिला, तो संघी लोग उन्हें बधाई दे रहे थे. आजादी की लड़ाई में इनका कोई योगदान है ही नहीं और 90 में मंडल कमीशन के लागू होने के बाद की इनकी कहानी सब जानते हैं.

आप भाजपा और संघ पर धर्म की राजनीति के लिए निशाना साध रहे हैं. इस पाप में तो कांग्रेसी भी दोषी माने जाते हैं.

धार्मिक बिंबों का इस्तेमाल तो राजनीति के लोग हमेशा ही करते हैं, लेकिन उग्र और विकृत हिंदुत्व की जो राजनीति संघ परिवार करना चाहती है, वह खतरनाक है. वरना धार्मिक तो गांधी भी थे.

विनोबा और तिलक ने भी शानदार तरीके से गीता की टिप्पणी लिखी, लेकिन ये दोनों हिंदुत्ववादी नहीं थे. राम के बारे में तो लोहिया भी बात करते थे. गांधी भी बात करते थे. हमें गांधी और लोहिया के राम से कहां कोई आपत्ति है. राम नायक थे. लेकिन संघ के लोग दूसरे राम को आरोपित करते हैं. उस राम को, जिसने शंबूक की हत्या की, राम के उस रूप को महिमामंडित करना चाहते हैं. रही बात कांग्रेस की, तो वह तो पापों की जड़ में है.

उसने धर्म का सियासत में इस्तेमाल ही शुरू किया था और आज नहीं आजादी के बाद ही चुनाव में कांग्रेस ने बाबा राघवदास को आचार्य नरेंद्र देव के खिलाफ मैदान में उतारा था. बाबा राघवदास हाथ में तुलसी पत्ता और गंगा जल लेकर प्रचार करते थे. कहते थे कि हम पूजा पाठ वाले हैं, आचार्य नरेंद्र देव तो नास्तिक है. कांग्रेस ने तो अपने उम्मीदवारों से इस तरह से प्रचार करवाया है. अब उसका विस्तार दिख रहा है.

आप सबकी गलतियों की ओर ध्यान दिला रहे हैं, लेकिन नाराज सबसे ज्यादा भाजपा से दिख रहे हैं?

उसकी वजह है. एक तो भाजपा अभी सत्ता में है और देखिए कि देश में क्या हो रहा है. लोग पानी के लिए मर रहे हैं, तमाम नदियां सूख रही हैं, जो जिंदा नदियां हैं, उनका पानी रहे, इस पर बात नहीं करेंगे भाजपावाले. लेकिन, सरस्वती को खोजने के लिए अरबों बहाने को तैयार हैं.

यह क्या पागलपन है. देश में जाटों के आरक्षण से लेकर गुजरात के पाटीदारों के आरक्षण के लिए चल रहे आंदोलन का हाल देखिए, देश गृहयुद्ध की ओर बढ़ रहा है. दोष तो अभी की सरकार को ही देंगे न, जो मसले को संभाल नहीं पा रही है.

चलिए, अब तो संघमुक्त भारत की राजनीति की शुरूआत हो ही रही है…

सिर्फ संघमुक्त या भाजपा मुक्त भारत से क्या होगा? यह तो समस्या का समाधान नहीं है. इस नाम पर होनेवाली राजनीतिक गोलबंदी का फलाफल ज्यादा नहीं निकलेगा. गोलबंदी तो नये किस्म का हो. यह जो विकास नीति है, अभी कुछ सालों से, जो आर्थिक नीति है, उसके खिलाफ हो. इस विकास नीति और आर्थिक नीति के विरोध में राजनीतिक गोलबंदी हो तो वह लंबे समय तक देश के लिए फायदेमंद होगा.

अभी से ही 2019 के लोकसभा चुनाव की कवायद शुरू हो गयी है. भाजपा को हटाने के लिए गोलबंदी भी, लेकिन दलित नेता या तो भाजपा के साथ गंठजोड़ बनाये हुए हैं या फिर गैर भाजपाइयों का साथ भी नहीं दे रहे हैं. दलित नेता सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्ष दलों के साथ क्यों नहीं हैं?

यह सोचना होगा. सबसे पहले समाजवादी दलों को सोचना होगा कि सामाजिक न्याय की राजनीति कर रहे हैं तो दलित नेताओं को साथ क्यों नहीं रख पा रहे, क्यों वे भाजपा के साथ हैं? 2019 के चुनाव के पहले दलित नेताओं को भाजपा के परिधि और परछाई से बाहर निकालना होगा, तभी भाजपा को हटाने में सफलता मिलेगी.

आखिरी सवाल. 25 वर्षों के सामाजिक न्याय की राजनीति का आकलन कैसे करते हैं?

बहुत कुछ बदला है. कम से कम बिहार को ही देखिए. बिहार में सब कुछ बदल चुका है. मंडल कमीशन लागू होने के बाद लोकतांत्रिक तरीके से राजनीति में खूबसूरती आयी. इसके पहले कोई भी दल ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार, यादव, कोइरी, कुरमी, चमार का वोट गिनता था. दूसरी जातियों को पूछता भी नहीं था. आज अतिपिछड़ों को, महादलितों को महत्व दिया जा रहा है.

महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण मिला है, उसका कम लाभ समझ रहे हैं क्या आप. जाकर देखिए, बिहार की सड़कों पर. पंचायत चुनाव के मौसम में किस तरह से महिलाएं झूमते हुए एक दूसरे को अबीर लगा रही हैं. यह सब बदलाव है. नीतीश कुमार ने तो लड़कियों को साइकिल देकर एक नये युग का सूत्रपात ही किया. यह सब क्यों हुआ, क्योंकि सत्ता का विकेंद्रीकरण हुआ. हालांकि मंडल की राजनीति की परिधि जाति की परिधि में फंस कर ज्यादा रह गयी, यह उसका एक कमजोर पक्ष है. मंडल राजनीति का असर अभी और देखा जायेगा. किसी भी आंदोलन का ठोस नतीजा निकलने में वक्त लगता है.

1967 का लोहिया का आंदोलन रहा, ‘100 में पिछड़ा पावे साठ’ का नारा लगा, तो उसका असर हुआ. राजनीति ने वहां से करवट ली. अचानक सदन में चेहरे बदलने लगे. उसी की पृष्ठभूमि में फिर जेपी का आंदोलन हुआ. जनेउ तोड़ो से लेकर अंतरजातीय विवाह आदि पर जोर दिया गया, उसका असर दिखा, अब भी दिख रहा है.

Exit mobile version