पार्टियों के लिए अलग-अलग सबक-संकेत
संजय कुमार राजनीतिक विश्लेषक पांच राज्यों के चुनावी नतीजे अलग-अलग पार्टियों के लिए अलग-अलग संदेश दे रहे हैं. भाजपा के लिए ये नतीजे बड़ी खुशियां लेकर आये हैं. पार्टी ने असम में भारी जीत हासिल की है, पश्चिम बंगाल में उसे सीटें मिली हैं और वोट शेयर बढ़ाते हुए उसने केरल में खाता खोला है. […]
संजय कुमार
राजनीतिक विश्लेषक
पांच राज्यों के चुनावी नतीजे अलग-अलग पार्टियों के लिए अलग-अलग संदेश दे रहे हैं. भाजपा के लिए ये नतीजे बड़ी खुशियां लेकर आये हैं. पार्टी ने असम में भारी जीत हासिल की है, पश्चिम बंगाल में उसे सीटें मिली हैं और वोट शेयर बढ़ाते हुए उसने केरल में खाता खोला है. इससे भाजपा के पूर्व और दक्षिण में विस्तार का दरवाजा खुला है. दूसरी ओर, कांग्रेस के लिए ये नतीजे भारी सिरदर्द लेकर आये हैं.
असम और केरल में सत्ता से दूर होने के बाद अब बड़े राज्यों में सिर्फ कर्नाटक में और चार छोटे राज्यों- मणिपुर, मिजोरम, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड- में उसकी सरकारें बची हैं. हाल के चुनावों में कांग्रेस न सिर्फ हारी है, बल्कि वह तीसरे, चौथे स्थान पर खिसकती गयी है. ये नतीजे यह भी संकेत करते हैं कि भारतीय चुनावों में क्षेत्रीय दलों का महत्व बना हुआ है. महिला नेताओं- ममता बनर्जी और जयललिता- के नेतृत्व में दो क्षेत्रीयों पार्टियों- तृणमूल कांग्रेस और अन्ना द्रमुक- ने अपने-अपने राज्यों में जीत हासिल की है.
पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस ने न सिर्फ सत्ता पर कब्जा बरकरार रखा है, बल्कि अपनी सीटें और वोट शेयर में भी काफी बढ़ोतरी की है. यह उसके बढ़ते जनाधार का स्पष्ट संकेत है.
यह जनादेश मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की व्यक्तिगत लोकप्रियता का परिचायक है और बीते पांच साल में उनकी सरकार के कामकाज का समर्थन है. तृणमूल कांग्रेस वाम मोर्चे के मजबूत जनाधार- गरीब और मुसलिम मतदाताओं- में सेंध लगाने में भी कामयाब रहा है. ये वर्ग विगत चुनावों में बड़े स्तर पर वाम मोर्चे के पक्ष में मतदान करते रहे हैं. तृणमूल के पक्ष में महिला मतदाताओं का निर्णायक मतदान उसकी जीत में महत्वपूर्ण कारक है. बीते तीन दशकों में कांग्रेस और वाम मोर्चा चुनावों में आमने-सामने रहे थे और कई बार तो यह संघर्ष बहुत खूनी होता था. साफ है कि इस चुनाव में उनका गठबंधन मतदाताओं को रास नहीं आया. ऐसा लगता है कि भले ही वाम मोर्चा अपने वोटों को कांग्रेस को हस्तांतरित कर सका हो, पर कांग्रेस के मतदाताओं में वाम मोर्चे के उम्मीदवारों को वोट देने में हिचक रही.
असम का परिणाम आश्चर्य का कारण नहीं होना चाहिए. भाजपा ने असम विधानसभा का दरवाजा तभी खटखटा दिया था जब वह 2014 के लोकसभा चुनाव में राज्य में सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी थी. इस चुनाव से उसे विधानसभा के भीतर प्रवेश का अवसर मिला है. बोडो पीपुल्स फ्रंट और असम गण परिषद के साथ गठबंधन कर भाजपा न सिर्फ जीतने में कामयाब रही है, बल्कि 126 में से 82 सीटें जीत कर भारी बहुमत हासिल की है.
हालांकि पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में कांग्रेस के वोट शेयर में बहुत गिरावट नहीं हुई है. इससे संकेत मिलता है कि यह कांग्रेस के खिलाफ जनादेश नहीं है, बल्कि राज्य में परिवर्तन के पक्ष में मतदान है.
असम के लोगों के सामने भाजपा ही एकमात्र संभावित विकल्प थी, क्योंकि एक समय सत्तारूढ़ रही असम गण परिषद राज्य की राजनीति में पूरी तरह से हाशिये पर है. भाजपा ने बोडो फ्रंट और असम गण परिषद के साथ गठबंधन कर अपनी शानदार जीत सुनिश्चित की. इससे भाजपा को हिंदू समुदाय के अधिकतर मतों के साथ आदिवासी मतदाताओं को लामबंद करने में आसानी हुई. सर्बानंद सोनोवाल को मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में घोषित करना भी मतदाताओं को आकर्षित करने में मददगार साबित हुआ.
सरकार में बदलाव की कई दशकों से चली आ रही परिपाटी का हवाला देकर कांग्रेस केरल की हार का स्पष्टीकरण देने का प्रयास कर सकती है. इस बात में सच्चाई भी हो सकती है, पर कांग्रेस के लिए चिंताएं बहुत बड़ी हैं. अब तक राज्य में हारने और जीतनेवाले के बीच वोटों के प्रतिशत में मामूली अंतर रहता है, लेकिन इस बार लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट की जीत बहुत ठोस है. हार-जीत के वोट प्रतिशत में बड़ा फासला है. कांग्रेस के लिए बुरी खबर महज इतनी ही नहीं है. कांग्रेसनीत यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट में सहयोगी दलों के मुकाबले कांग्रेस का प्रदर्शन बहुत खराब रहा है. कांटे की टक्कर, जो कि अमूमन तमिलनाडु में नहीं होता है, में अन्ना द्रमुक सत्ता पर कब्जा बरकरार रखने में कामयाब रहा है.
हालांकि अन्ना द्रमुक के पक्ष में यह एक सकारात्मक जनादेश है, लेकिन अगर द्रमुक एक अच्छा गठबंधन बना पाने में कामयाब हो जाता, तो यह नतीजे अलग भी हो सकते थे. भाजपा के पास इन सफलताओं का जश्न मनाने के कारण हैं. पिछले सालों की बिहार और दिल्ली की बड़ी हार के बाद ये नतीजे भाजपा को बहुत जरूरी ऑक्सीजन मुहैया करायेंगे, जिससे वह अपने कार्यकर्ताओं को अगले साल होनेवाले उत्तर प्रदेश चुनाव के लिए उत्साहित कर सकती है. लेकिन, यदि पार्टी को लगता है कि केंद्र सरकार के दो साल के कामकाज पर लोगों ने मुहर लगायी है, तो यह उसकी भारी भूल होगी. ये परिणाम केंद्र सरकार के कामकाज पर जनमत-संग्रह नहीं हैं.
ऐसे संकेत हैं कि लोग भले ही केंद्र सरकार के प्रदर्शन से नाखुश नहीं हों, पर ऐसे भी बहुत संकेत हैं कि लोगों के भीतर बेचैनी और चिंता बढ़ रही है. पुदुचेरी का सांत्वना पुरस्कार कांग्रेस के लिए खुश होने का कारण नहीं हो सकता है, उसे आगे के लिए बहुत सोच-विचार करने की जरूरत है. क्षेत्रीय पार्टियां 2019 के मुकाबले के लिए गैर-भाजपा मोर्चा बनाने के बारे में जरूर सोच रही होंगी, जिसकी गूंज कभी-कभार सुनाई भी देती है.
भाजपा को जिताया नहीं कांग्रेस को हराया है
डॉ मुकेश कुमार
वरिष्ठ पत्रकार
असम
असम में संकेत तो मिल रहे थे, और एक्जिट पोल ने भी खतरे की घंटी बजा दी थी, लेकिन किसी को एहसास नहीं था कि हालात इतने बुरे होंगे कि कांग्रेस का सूपड़ा ही साफ हो जायेगा. मुख्यमंत्री तरुण गोगोई आत्मविश्वास दिखाते रहे, परंतु वह खोखला साबित हुआ. वे बड़बोले बयान देते रहे, दावे करते रहे कि जीत कांग्रेस की ही होगी. उन्हें पता ही चला कि उनके पैरों के नीचे से जमीन कब की खिसक चुकी है. कांग्रेस हाईकमान भी उनके भरोसे बैठा रहा. उसे अंदाजा नहीं था कि पंद्रह साल सत्ता में रहने के बाद उसके प्रति मतदाताओं में जबर्दस्त असंतोष है, जो पार्टी की ऐतिहासिक पराजय में व्यक्त होगा. कांग्रेस आलाकमान मतदाताओं के मिजाज को भांपने में ही नहीं चूका, बल्कि बीजेपी के आक्रामक अभियान का जवाब देने में भी नाकाम रहा.
बीजेपी ने गोगोई सरकार की असफलता का लाभ उठाने के लिए सही गोटियां चलीं और कामयाब हुई. बांग्लादेशियों के मुद्दे पर उसने हिंदू-मुसलिम ध्रुवीकरण करने की जो कोशिश की थी, उसने भी रंग दिखाया. असमिया अस्मिता का प्रश्न पिछले चार दशकों से असम की राजनीति का केंद्र बिंदु रहा है, पर कई बार नाकाम सिद्ध हो चुके इस मुद्दे को गोगोई सरकार की अलोकप्रियता ने पुनर्जीवित कर दिया.
पूर्वोत्तर के इस बड़े राज्य में सरकार बनाने की बीजेपी की इच्छा पूरी हुई, इससे भी बड़े महत्व की बात यह है कि उसने उस राज्य में झंडा गाड़ दिया है जहां मुसलमानों की आबादी सबसे ज्यादा है. करीब पैंतीस फीसदी मुसलिम आबादी वाले इस राज्य में किसी हिंदुत्ववादी पार्टी का इस पैमाने पर कामयाब होना किसी चमत्कार से कम नहीं है. लेकिन, वास्तव में यह उसकी विजय से ज्यादा कांग्रेस की हार है. असम के मतदाताओं ने बीजेपी को जिताया नहीं, कांग्रेस को हराया है.
वे कांग्रेस को सत्ता से बाहर करना चाहते थे और इसके लिए उन्हें सामने जो विकल्प दिखा उसे ही उन्होंने जिता दिया. यही वजह है कि मुसलिम वोटों पर अपना अधिकार समझनेवाली बदरूद्दीन अजमल की एआइयूडीएफ को भी धक्का लगा है. अजमल 25-30 सीटें जीत कर किंगमेकर बनने के ख्वाब देख रहे थे, मगर उनकी चार सीटें घट गयीं.
लोकसभा चुनाव में बीजेपी 69 विधानसभा क्षेत्रों में आगे थी और इसी ने उसके अरमानों को पर लगा दिये थे. इसका सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि वह खुद को सत्ता की सबसे सशक्त दावेदार के रूप में पेश करने में सफल हुई. पिछले विधानसभा चुनाव में केवल पांच सीट जीतनेवाली पार्टी ने दस सीटों वाली असम गण परिषद को अपने सामने आत्मसमर्पण करने के लिए मजबूर कर दिया.
कांग्रेस यहां रणनीति के मामले मे कई स्तरों पर चूकी है. अव्वल तो हेमंत विश्व सरमा का जाना और फिर गोगोई का थका हुआ नेतृत्व नुकसानदेह साबित हुआ. फिर वह वोटों के विभाजन को रोक पाने में भी नाकाम रही. अब जिस तरह से एकतरफा नतीजे आये हैं, वे बताते है कि मुसलिम मतदाताओं के वोट कांग्रेस और एआइयूडीएफ के बीच बंट गये और उसमें बीजेपी तथा उसके सहयोगी दलों को फायदा हो गया. लोअर असम में, जहां मुसलमानों की आबादी सबसे घनी है, बीजेपी की कामयाबी का सूत्र यही है. अभी यह देखना होगा कि क्या गोगोई सरकार से नाराजगी मुसलमानों के एक छोटे से वर्ग को बीजेपी गंठबंधन की ओर भी ले गयी या नहीं.
असम की जीत बीजेपी के लिए टॉनिक की तरह काम करेगी. दिल्ली और बिहार की हार के बाद असम की जीत से उसे हिम्मत मिलेगी और यह आनेवाले विधानसभा चुनावों में भी उसके काम आयेगी. अलबत्ता कांग्रेस के सामने तो हर तरफ अंधेरा छाता दिख रहा है. उसके हाथ से दो राज्य और निकल चुके हैं. ऐसे में कांग्रेस के लिए यह गंभीर चिंतन और अपना पुनराविष्कार करने का समय है.
वाम दलों और कांग्रेस के लिए आत्ममंथन का वक्त
आनंद प्रधान
वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक
प बंगाल
पश्चिम बंगाल के चुनावी नतीजे हैरान करनेवाले नहीं हैं. राजनीतिक विश्लेषकों, ओपिनियन पोल, एग्जिट पोल सभी से ऐसे ही संकेत मिल रहे थे. हालांकि, जीत का फासला कितना होगा, इस पर विचार अलग-अलग थे. हालिया नतीजों से यह साफ है कि तृणमूल कांग्रेस ने 2011 के चुनावों के मुकाबले अपनी स्थिति और मजबूत की है. बड़ी बात यह कि तृणमूल अकेले चुनाव में उतरी और उसने बेहतर प्रदर्शन किया. ममता बनर्जी बंगाल में अकेले सबसे बड़ी ताकत के रूप में उभरी हैं. तृणमूल के लिए वर्ष 2011 और 2014 का नतीजा चमत्कार नहीं था, ऐसा इस बार साबित हुआ है.
वाम दल मान रहे थे कि कांग्रेस के साथ तालमेल से उनको फायदा होगा. वर्ष 2011 और 2014 के चुनावों में वोट प्रतिशत कम होता देख वाम दलों ने ‘सिलीगुड़ी मॉडल’ के मुताबिक अपना एजेंडा आगे बढ़ाया. सिलीगुड़ी के मेयर चुनाव में तथाकथित ‘सिलीगुड़ी मॉडल’ प्रभावी रहा, लिहाजा तृणमूल से मुकाबले के लिए कम्युनिस्टों ने इसे विधानसभा चुनाव में भी अपनाया, लेकिन लोगों ने उसे नकार दिया. सीपीएम के लिए यह एक बड़ा सबक है. सीपीएम गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपा राजनीति करती रही है और आज भी उसकी राष्ट्रीय लाइन यही है. लेकिन, तात्कालिक फायदे के लिए बंगाल में उसने अपनी इस लाइन से इतर चुनाव लड़ा, जिसे लोगों ने अस्वीकार कर दिया. सीपीएम के लिए यह एक वैचारिक और राजनीतिक चुनौती है. वाम दलों को पुनर्विचार करना होगा कि लोगों को देने के लिए उसके पास नया क्या है.
ममता बनर्जी के बारे में कहा जाता है कि वे भी एक प्रकार की वाम राजनीति ही करती हैं, ऐसे में सीपीएम को यह बताना चाहिए कि तृणमूल से इतर उनका क्या नया विजन है. करीब तीन-चार दशकों तक सत्ता में रह चुकी सीपीएम की कारगुजारियों को लोग भूले नहीं हैं. भाजपा और कांग्रेस से इतर वह नया विकल्प नहीं दे पायी है. सीपीएम के भीतर यह धारणा बन चुकी थी कि जोड़तोड़ से चुनाव जीता जा सकता है. पिछले कुछ दशकों से यह केवल चुनावी पार्टी बन कर रह गयी है. जब तक यह नया विकल्प और विजन नहीं देगी, तब तक उसकी दशा में सुधार नहीं होगा. लोगों को याद है कि उनके लंबे शासनकाल के दौरान उनकी सरकार और काडर में किस तरह का पतन हुआ था. ठेकेदारों और भ्रष्टाचारियों का वर्चस्व बढ़ गया था. वाम को गहरी वैचारिक पड़ताल करनी होगी कि ऐसा क्यों हुआ?
कांग्रेस को इस चुनाव में कोई नुकसान नहीं हुआ है. वोट फीसदी में कुछ इजाफा ही हुआ है. लोकसभा चुनावों के मुकाबले भाजपा को भले ही वोट फीसदी का नुकसान हुआ है, लेकिन राज्य की राजनीति में उसकी पैठ बढ़ी है. यह धारणा बदल रही है कि बंगाल में भाजपा के लिए जगह नहीं है. बल्कि धीरे-धीरे उसने यहां अपनी जमीन बनानी शुरू कर दी है. 2021 के विधानसभा चुनाव में बंगाल में उसे खुद को प्रस्तुत करने का बड़ा मौका मिलेगा.
जैसे 2014 के लोकसभा चुनावों का बाद में हुए दिल्ली और बिहार विधानसभा चुनावों पर कोई असर नहीं हुआ, वैसे ही इन नतीजों का अगले साल होनेवाले विधानसभा चुनावों पर कोई असर नहीं पड़ेगा. हमारे देश में राज्यों की राजनीति राज्य विशेष तक ही सीमित है. उसका कोई बड़ा असर किसी दूसरे राज्य पर नहीं पड़ता है. अगले साल उत्तर प्रदेश, पंजाब और गुजरात में चुनाव होने हैं और तीनों ही जगहों पर अलग-अलग परिस्थितियां हैं. राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस के लिए यह निश्चित तौर पर पुनर्विचार का समय है. उसकी ताकत में हो रही गिरावट का नुकसान उसे पंजाब में उठाना पड़ सकता है. भाजपा का मनोबल थोड़ा बढ़ेगा, लेकिन आगामी विधानसभा चुनावों पर इसका फर्क नहीं पड़ेगा.
(कन्हैया झा से बातचीत पर आधारित)
दक्षिण के नतीजों का राष्ट्रीय राजनीति पर असर नहीं
आर राजगोपालन
वरिष्ठ पत्रकार
दक्षिण भारत के दो राज्य केरल और तमिलनाडु के चुनावी नतीजे अप्रत्याशित नहीं हैं. केरल में 1982 के बाद से यूडीएफ और एलडीएफ बारी-बारी से सत्ता में काबिज होते रहे हैं, जबकि तमिलनाडु में 1991 से डीएमके और एआइएडीएमके के बीच सत्ता की अदला-बदली होती रही है. इस बार केरल में ऐसा ही हुआ, लेकिन तमिलनाडु में जयललिता ने दोबारा सत्ता में वापसी कर पुरानी परंपरा को बदल दिया है.
केरल में धरे रह गये कांग्रेस के अनुमान
केरल में कांग्रेस सरकार पर भ्रष्टाचार के कई आरोप लगे, यहां तक कि मुख्यमंत्री को भी इसका सामना करना पड़ा. चुनाव में एलडीएफ ने इसे मुद्दा बनाया. दूसरी ओर, माकपा ने अच्युतानंदन और विजयन के बीच के अापसी विवाद को हावी नहीं होने दिया, जैसा कि कांग्रेस अनुमान लगा रही थी. भाजपा ने भी विभिन्न धड़ों को मिलाकर तीसरा मोर्चा बनाया. लेकिन, नतीजों से जाहिर होता है कि भाजपा नीत मोर्चे ने एलडीएफ की बजाय यूडीएफ को अधिक नुकसान पहुंचाया है. भाजपा केरल में पहली बार अपना खाता खोलने में कामयाब हुई और उसका मत प्रतिशत भी बढ़ा है. ऐसे में केरल के नतीजे भाजपा के लिए राज्य में अपना पैर पसारने में मददगार साबित होंगे.
तमिलनाडु में जनकल्याण की राजनीति
तमिलनाडु के नतीजों से साफ जाहिर होता है कि जयललिता की जनकल्याण की योजनाओं से शहरी और ग्रामीण क्षेत्र के गरीबों का पूरा समर्थन पार्टी को मिला. हालांकि डीएमके ने भी शासन में रहते कई योजनाओं को चलाया था और सरकार बनने पर कई वादे भी किये थे. लेकिन जयललिता के कामकाज पर लोगों ने अधिक भरोसा जताया. अम्मा कैंटीन, अम्मा मिनरल वाटर काफी लोकप्रिय हुई और इस बार उनकी सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप भी नहीं लगे. चेन्नई में आयी बाढ़ के बाद उपजे हालात को देखते हुए डीएमके को उम्मीद थी कि पार्टी शहरी क्षेत्रों में बेहतर प्रदर्शन करेगी, लेकिन उसे उम्मीद के मुताबिक सफलता नहीं मिली. डीएमके प्रमुख के परिवार से जुड़े कई सदस्यों पर भ्रष्टाचार के आरोपों से युवाओं का अपेक्षित समर्थन पार्टी को नहीं मिला. हालांकि पिछले चुनाव के मुकाबले पार्टी सीटों की संख्या बढ़ाने में कामयाब रही, लेकिन सत्ता पर काबिज नहीं हो सकी.
पहली बार तमिलनाडु का चुनाव तीन पार्टियों के बीच हो रहा था. डीएमके, एआइएडीएमके के अलावा डीएमडीके के नेतृत्व में तीसरा मोर्चा भी मैदान में था. तीसरे मोर्चे ने एआइएडीएमके के अधिक नुकसान डीएमके को पहुंचाया और जयललिता चुनाव जीतने में सफल रही. राज्यसभा में भाजपा को विधेयकों को पारित कराने के लिए क्षेत्रीय दलों के सहयोग की दरकार है और एअाइएडीएमके इसमें उसकी सहयोगी हो सकती है. इस नतीजे से निश्चित तौर पर तमिलनाडु में जयललिता पहले से भी मजबूत होकर उभरी हैं.
तमिलनाडु के नतीजों से साबित होता है कि राज्य में राष्ट्रीय पार्टियों का जनाधार सीमित है और इन्हीं दो पार्टियों के सहयोग से ही वे सफलता हासिल कर सकती है. हालांकि, इन नतीजों से राष्ट्रीय राजनीति में कोई बड़ा बदलाव आने के कोई संकेत नहीं है, क्योंकि जयललिता तीसरे मोर्चे को लेकर कभी गंभीर नहीं रही हैं.