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मुद्दों पर बनी फिल्मों को निर्माता की तलाश

अफसोस : 41 फिल्में बना कर 101 पुरस्कार जीत चुके हैं अंशुल, लेकिन… अंशुल सिन्हा हैदराबाद के रहनेवाले हैं. उन्होंने वर्ष 2011 में मोबाइल फोन के कैमरे से फिल्म बनाने की शुरुआत की़ तब वह 21 वर्ष के थे़ अब तक वे 40 से ज्यादा फिल्में बना चुके हैं, जिनके लिए उन्हें विभिन्न स्तरों पर […]

अफसोस : 41 फिल्में बना कर 101 पुरस्कार जीत चुके हैं अंशुल, लेकिन…

अंशुल सिन्हा हैदराबाद के रहनेवाले हैं. उन्होंने वर्ष 2011 में मोबाइल फोन के कैमरे से फिल्म बनाने की शुरुआत की़ तब वह 21 वर्ष के थे़ अब तक वे 40 से ज्यादा फिल्में बना चुके हैं, जिनके लिए उन्हें विभिन्न स्तरों पर 100 से ज्यादा पुरस्कार मिल चुके हैं. उनकी फिल्में सामाजिक मुद्दों पर आधारित होती हैं, जिनमें नेत्रहीन बच्चों के स्कूल में संसाधनों का अभाव सहित बायो-मेडिकल वेस्ट के निबटारे और किसानों की आत्महत्या जैसे विविध विषय शामिल हैं.

स्टेट लेवल अंडर-16 क्रिकेट खेल चुके अंशुल सिन्हा ने 21 वर्ष की उम्र में मोबाइल फोन के जरिये फिल्मों की शूटिंग शुरू की थी़ उनकी सारी फिल्में सामाजिक मुद्दों पर ही आधारित हैं और उनका उद्देश्य आम लोगों को इन मुद्दों से जागरूक कराना है़ अंशुल ने अपने इस अनोखे काम के लिए 102 पुरस्कार जीते हैं. फिल्मों में शौक के चलते अंशुल ने एमबीए की पढ़ाई पूरी करने के बाद भारतीय विद्या भवन से मास कम्यूनिकेशन में डिप्लोमा किया. इसके बाद हैदराबाद से उन्होंने डॉक्यूमेंटरी फिल्म बनाने के सफर की शुरुआत की़

स्कूल के दिनों से ही अंशुल की रुचि पढ़ाई के साथ-साथ खेल-कूद, स्कूली स्तर के ड्रामा और फिल्मों में भाग लेने की रही़ पढ़ाई तो अपनी जगह थी ही, लेकिन देश और समाज के लिए कुछ करने की आग उनके दिल में हमेशा से धधकती रही.

कॉलेज के दौरान उन्होंने अपनी क्लास के हर छात्र से एक रुपया बतौर चंदा जुटाना शुरू कर दिया. इस चंदे को महीने के आखिर में समाज कल्याण के कार्यों में लगाना था, ऐसे में उन्होंने शुरुआत की नेत्रहीन बच्चों के एक स्थानीय स्कूल से. उस स्कूल में इमारत तो थी, लेकिन संसाधनों का अभाव था. समय की मांग के हिसाब से वहां कंप्यूटर नहीं थे. इस समस्या का हल निकालने के लिए उनके दिमाग में एक आइडिया आया. उन्होंने अपना मोबाइल निकाला और स्कूल की फिल्म बनानी शुरू कर दी.

मोबाइल फोन से बनायी गयी सात मिनट की इस शॉर्ट फिल्म को हैदराबाद में कॉलेज स्तर के फिल्म फेस्टिवल ‘इन-फोकस’ में दिखाया गया़ इससे प्रभावित होकर एक स्थानीय स्वयंसेवी संस्था नेत्रहीन बच्चों के उस स्कूल की मदद के लिए आगे आयी और 12 कंप्यूटर उस स्कूल में लगवा दिये. स्कूल की बेहतरी के लिए किया गया यह काम अंशुल सिन्हा की सफलता की पहली सीढ़ी बना़

इस काम से मिली प्रेरणा अंशुल को बहुत आगे लेकर आ चुकी है और उनका यह सफर अब भी जारी है. मोबाइल फोन से बनायी डॉक्यूमेंटरी फिल्मों के लिए आज सैकड़ों पुरस्कारों से अंशुल का घर भरा पड़ा है. मोबाइल फोन के जरिये सारी फिल्में बनानेवाले अंशुल की यह कहानी उन लोगों के सपनों में नयी जान फूंक सकती है जो संसाधनों से मोहताज हैं, फिर भी जीवन में कुछ बड़ा करना चाहते हैं.

अब तक का उनका यह सफर काफी रोचक रहा है़ वह अब तक 41 फिल्में बना चुके हैं और उन्हें 101 पुरस्कार से नवाजा भी गया, इसमें 22 इंटरनेशनल नोमिनेशंस भी शामिल हैं. उनकी दूसरी फिल्म भारत में गरीबी पर आधारित थी, जिसने कॉलेज, यूनिवर्सिटी और राज्य स्तर पर 15 पुरस्कार जीते. सामाजिक मुद्दों पर लोगों को जागरूक करने के मकसद से फिल्में बनानेवाले अंशुल सिन्हा बायो-मेडिकल वेस्ट के निबटारे, किसानों की आत्महत्या, अंगदान, दहेज प्रथा जैसे विविध विषयों पर फिल्में बना चुके हैं.

वर्ष 2012 में कॉलेज की पढ़ाई खत्म करने के बाद अंशुल ने एक और शॉर्ट फिल्म ‘लपेट’ बनायी़ अंशुल की इस फिल्म ने लॉस एंजिलिस में आयोजित फिल्म फेस्टिवल में धूम मचायी और उसे पहला अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिला. हाल ही में आयी उनकी एक और फिल्म ‘गेटवे टू हेवेन’ ने भी कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सराही गयी़

यहां यह जानना जरूरी है कि इन फिल्मों की शूटिंग करने में अंशुल को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा. वह बताते हैं कि उनकी इन फिल्मों को प्रोड्यूस करने के लिए कोई तैयार नहीं था. तब उन्होंने रात में काम कर पैसे जमा करने शुरू किये. वह रात भर काम करते और दिन में शूटिंग.

यही नहीं, उनकी कुछ फिल्मों के विषय ऐसे थे, जिन पर रिसर्च करने के लिए अपनी जान जोखिम में डालनी पड़ी. कई फिल्मों पर काम करते समय उन्हें तरह-तरह कह धमकियां मिलतीं, लेकिन वे अपने काम में लगे रहे़ अंशुल कहते हैं कि उन्होंने यह काम समाज में कुछ बदलाव लाने के लिए किया है और उनकी यही इच्छा है कि देश के युवा आगे आकर कुछ अलग करें और समाज को नयी और सकारात्मक दिशा देने में अपना योगदान दें.

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