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हर साल डेढ़ लाख मौतों का दोषी कौन!

पीयूष तिवारी सीइओ, सेव लाइफ फाउंडेशन भारत में हर साल करीब डेढ़ लाख लोग सड़क दुर्घटनाओं में मारे जा रहे हैं और पांच लाख से ज्यादा लोग घायल होते हैं. हमारे देश में सड़क दुर्घटनाओं में ज्यादा मौतें होने के कई कारण हैं. पहला कारण तो यह है कि सड़क पर ड्राइवरों का व्यवहार उचित […]

पीयूष तिवारी
सीइओ, सेव लाइफ फाउंडेशन
भारत में हर साल करीब डेढ़ लाख लोग सड़क दुर्घटनाओं में मारे जा रहे हैं और पांच लाख से ज्यादा लोग घायल होते हैं. हमारे देश में सड़क दुर्घटनाओं में ज्यादा मौतें होने के कई कारण हैं. पहला कारण तो यह है कि सड़क पर ड्राइवरों का व्यवहार उचित नहीं होता है.
हमारे यहां ट्रैफिक नियमों का पालन अच्छी तरह से नहीं होता. दुनिया के किसी अन्य विकासशील देश के मुकाबले भारत में बहुत ही रफ ड्राइविंग का चलन है, जो मौतों का कारण बनती है. इसके पीछे भी एक कारण है. जो यह तय करता है कि कौन सड़क पर आये और कौन न आये, यानी हमारा लाइसेंसिंग सिस्टम, वह बहुत खराब स्थिति में है. देश में कई ऐसे हिस्से हैं, जहां लोगों को घर बैठे ड्राइविंग लाइसेंस मिल जाता है, बिना इस बात की तस्दीक किये कि उसे गाड़ी चलानी आती है या नहीं. दरअसल, भारत में गाड़ी चलाने का लाइसेंस रखना एक जिम्मेवारी नहीं है, बल्कि लोगों के लिए जन्मसिद्ध अधिकार जैसा है कि अब हम 18 साल के हो गये हैं, तो हमें ड्राइविंग लाइसेंस मिल ही जाना चाहिए. जबकि सिर्फ ड्राइविंग लाइसेंस रख लेना ही काफी नहीं है, एक ड्राइवर को गाड़ी चलाना और ट्रैफिक नियमों का पालन करना भी आना चाहिए. ऐसी ही कमियों के चलते सड़क दुर्घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं. इसलिए जरूरी है कि सबसे पहले खराब हो चुके लाइसेंसिंग सिस्टम को सही किया जाये, सख्त नियम बनाये जायें और उन्हें पालन कराने की पूरी जिम्मेवारी का निर्वहन किया जाये.
दूसरा कारण है अमल कराने (एनफोर्समेंट) और अमल न करनेवाले के लिए फाइन भरने का कमजोर सिस्टम. अब दुनियाभर में सीसीटीवी कैमरे से ट्रैफिक निगरानी होने लगी है, लेकिन भारत में ज्यादातर जगहों पर ऐसी सुविधा मौजूद नहीं है. अगर लोगों को पता हो कि सीसीटीवी से उसकी निगरानी रखी जा रही है, तो वे हेलमेट लगा कर या सीट बेल्ट बांध कर चलेंगे. उन्हें पता होगा कि अगर वे इसका उल्लंघन करते हैं, तो उन्हें भारी फाइन भरना पड़ेगा. इस तरह भी सड़क दुर्घटनाओं को कम किया जा सकता है.
तीसरा कारण यह है कि हमारे देश की सड़कें अंतरराष्ट्रीय मानकों पर खरी नहीं उतरती हैं.
हमारे रोड कंस्ट्रक्शन का तरीका सुनियोजित नहीं है, बस जैसे-तैसे जहां-तहां से सड़कें निकाल दी जाती हैं. इस कारण से कुछ बड़ी समस्याएं जन्म लेती हैं. इसमें पहली समस्या है- ‘रोड यूजर कंफ्लिक्ट’. रोड यूजर कंफ्लिक्ट का अर्थ यह है कि हमारे छोटे-बड़े सभी वाहन जैसे बस, ट्रक, मोटर कार, ऑटो, मोटरसाइकिल, साइकिल और किनारे चलनेवाले पैदलयात्री सभी एक ही चौड़ी सड़क का इस्तेमाल एक साथ ही करते हैं. ऐसी स्थिति में अगर जरा सा भी कहीं जाम लगता है, तो सारे इकट्ठा होकर लड़ाई-झगड़े पर उतर आते हैं. अक्सर बड़ी और छोटी गाड़ी की भिड़ंत में जानें चली जाती हैं. इसलिए जरूरी है कि जो तेज गति वाले वाहन हैं, जो हैवी मालवाहन हैं, उनके लिए बाकी हल्के वाहनों से बिल्कुल अगल लेन बनाये जायें.
दूसरी बड़ी समस्या है- ‘सेफ सिस्टम अप्रोच’ को फॉलो न करने की. दुनियाभर की परिवहन व्यवस्था में सेफ सिस्टम अप्रोच को फाॅलो किया जाता है, लेकिन हमारे यहां के इंजीनियर इसे फॉलो नहीं कर पाते. सेफ सिस्टम अप्रोच की परिभाषा यह है कि कोई भी व्यक्ति चाहे जितना भी इंटेलिजेंट हो, वह कहीं न कहीं किसी, न किसी बिंदु पर गलती करता ही है. यानी सेफ सिस्टम अप्रोच के तहत हमें एेसी व्यवस्था बनानी होती है कि अगर कोई दुर्घटना होती भी है, तो उसमें किसी की जान न जाने पाये. मसलन, दुनिया के देशों में हाइवेज के बीच में एक घास का मीडियन होता है. वह मीडियन सुंदरता के लिए नहीं होता, बल्कि इसलिए होता है कि अगर कोई गाड़ी अनियंत्रित हो जाये तो उसे उस मीडियन में रिकवर होने का मौका मिल जाये. लेकिन हमारे यहां हाइवे पर दोनों सड़कों के बीच में नाले बनाये गये हैं. अब अगर गाड़ी अनियंत्रित हुई तो सीधा नाले में जायेगी. पता नहीं क्यों हमारे इंजीनियर इस सेफ सिस्टम अप्रोच को ध्यान में रख कर सड़कों को डिजाइन ही नहीं करते.
यहां तीसरी समस्या यह है कि हमारे देश में गाड़ियां भी सुरक्षा की दृष्टि से अंतरराष्ट्रीय मानक की नहीं बनायी जाती हैं. इसलिए जरा सी टक्कर होने पर ही उनका तियां-पांचा निकल जाता है और उसमें बैठा सवार मौत के नजदीक पहुंच जाता है. इन तीनाें प्रकार की समस्याओं को अगर सरकार समझ कर इनका हल निकालती है, तो मैं समझता हूं कि सड़क दुर्घटना में बहुत कमी लायी जा सकती है.
चौथा, लेकिन महत्वपूर्ण, कारण यह है कि किसी सड़क दुर्घटना के हो जाने के बाद 50 प्रतिशत जानें इस वजह से जाती हैं, क्योंकि घायलों को समय से चिकित्सा नहीं मिलती. अगर समय पर उन्हें प्राथमिक चिकित्सा भी मिल जाये तो उनकी जानें बचायी जा सकती हैं. यह इमर्जेंसी रिस्पांस सिस्टम का मामला है कि कितनी तेजी से किसी दुर्घटना में घायल हुए व्यक्ति को मौत के मुंह से बाहर लाया जा सके. घायल व्यक्ति को अगर अस्पताल पहुंचाया जाता है, तो कई बार अस्पताल लेने से मना कर देता है, और जब तक लेता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है.
पांचवां सबसे बड़ा कारण. गाड़ी चलाने का लाइसेंस और ट्रेनिंग सरकार के ट्रांसपोर्ट विभाग के अंतर्गत आता है. लागू कराने की जिम्मवारी (एनफोर्समेंट) आती है पुलिस विभाग के अंतर्गत. रोड इंजीनियरिंग पांच-छह विभागों के अंतर्गत आती है. गाड़ियों की इंजीनियरिंग सरकार के हैवी इंडस्ट्रियल विभाग के अंतर्गत आती है. ट्रॉमा केयर यानी घायल का हेल्थकेयर सरकार के स्वास्थ्य विभाग के अंतर्गत आता है. यानी हमारे देश में सात से दस विभाग हैं, जो एक दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति की शिकायत सुनने से लेकर स्वास्थ्य सुरक्षा तक के लिए जिम्मेवार हैं. ये सारे विभाग अपने-अपने डब्बे में बंद होकर काम करते हैं, जबकि इन्हें एक साथ मिल कर काम करने की जरूरत है. हमारे देश में ऐसा कोई सिस्टम नहीं है, जो इनको एक-साथ लाकर इनसे काम करा सके.
हालांकि केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने कुछ विभागों को एक-साथ लाकर इन समस्याओं के निपटारे की बात की है, लेकिन अब यह देखना होगा कि यह कब तक हो पाता है. विडंबना यह है कि हम यह सब जानते हुए भी, इन समस्याओं को समझते हुए भी कुछ बड़े कदम नहीं उठा पा रहे हैं, जिसका नतीजा यह है कि भारत में सड़क दुर्घटनाएं बढ़ती ही जा रही हैं, जबकि ज्यादातर देशों में यह घट रही हैं. (बातचीत पर आधारित)
सड़कों की सही डिजाइन और कड़े नियमों से कम होंगी दुर्घटनाएं
डॉ अनविता अरोड़ा
एमडी एवं सीइओ,
इनोवेटिव ट्रांसपोर्ट
सॉल्यूशन आइ-ट्रांस)
हमारे यहां दोष किसी और पर मढ़ देने की एक आम परंपरा है. देश में अगर कोई सड़क दुर्घटना होती है, तो इसके लिए सबसे पहले या तो ड्राइवर को दोषी ठहराया जाता है या फिर आम आदमी को. मैं इस बात को नहीं मानती कि सड़क दुर्घटनाओं के लिए सिर्फ चालक या सड़क किनारे चलनेवाला आम आदमी ही जिम्मेवार है. गाड़ी चलाते वक्त चालक ने सड़क की किन-किन परिस्थितियों से सामना किया या आम आदमी ने सड़क पार करने की जहमत ही क्यों उठायी, इस तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता और न ही कोई इतनी गहराई से सोचता है. लोग यह सोच ही नहीं पाते कि हमारी सड़कों की डिजाइन अच्छी नहीं है.
अगर डिजाइन अच्छी होती, तो एक चालक को पता होता कि कहां रुकना है, कहां जाना है, टर्न लेने के लिए उसे कितनी देर पहले लेन बदल लेनी चाहिए वगैरह-वगैरह. यह सब तभी होगा जब हमारी सड़कों की डिजाइन अच्छी होगी. हर चौड़ी-पतली सड़क के किनारे पैदल चलनेवालों के लिए अलग से ट्रैक बनाना जरूरी है. सड़क दुर्घटनाओं में मरनेवाले ज्यादातर या तो पैदल यात्री होते हैं या साइकिल चालक. आज देश के किसी भी महानगर में देख लीजिए, सड़कों के किनारे पैदल चलनेवालों के लिए ट्रैक नहीं के बराबर हैं.
अगर कहीं ट्रैक है भी, तो जाम से बचने के लिए अपनी लेन छोड़ कर दुपहिया वाले उस ट्रैक पर ही दे-दनादन भागते नजर आते हैं. हमारे यहां यातायात नियमों का पालन करने की फिक्र किसी को नहीं है. मान लीजिए आप सड़क के इस तरफ हैं, और दूसरी तरफ एटीएम है, तो आप उस तक कैसे जायेंगे, जबकि उस पार तक जाने के लिए कोई समपार (ऊपरी पुल) नहीं है. ऐसे में लोग जल्दी से सड़क पार करने का विकल्प चुनते हैं और दुर्घटना के शिकार हो जाते हैं. पार करनेवाले को अंदाजा नहीं होता है कि गाड़ी कितनी गति से आ रही है और ड्राइवर को यह अंदाजा नहीं होता है कि कोई अचानक सड़क पार करनेवाला है. नतीजा- एक्सीडेंट.
सड़क दुर्घटनाओं में स्पीड लिमिट की बड़ी भूमिका है. अगर तेज स्पीड में गाड़ी है, तो उससे हुई हल्की टक्कर की इंज्यूरी (चोट) भी मृत्यु का कारण बन जाती है. कहने का अर्थ है कि अगर स्पीड 40 से ऊपर होती है, तब एक छोटी सी दुर्घटना भी जानलेवा बन जाती है.
शहरों की खाली सड़कों पर, जहां गाड़ियां तेज स्पीड में चलती हैं, जानलेवा दुर्घटनाएं ज्यादा होती हैं, जबकि शहर के सघन इलाकों में, जहां ट्रैफिक के कारण तेज स्पीड में चलने की गुंजाइश नहीं होती है, दुर्घटनाओं की संख्या बहुत ही कम होती है और आम तौर पर किसी की मृत्यु जैसी स्थिति नहीं बनती. चौड़ी सड़कों पर अक्सर लोग तेज स्पीड में गाड़ी चलाते हैं, तो चौड़ी सड़कों को पार करने में भी ज्यादा वक्त लगता है. इसका अर्थ यह नहीं कि चौड़ी सड़कें बनायी ही न जायें, बल्कि जरूरी यह है कि चौड़ी सड़कों के किनारे पैदल चलनेवालों के लिए ट्रैक बनाये जायें और हर पांच सौ मीटर पर रेड लाइट हो, थोड़ी-थोड़ी दूरी पर सड़क पार करने की व्यवस्था हो.
इस समय क्या हो रहा है- एक तरफ तो हम सड़कें चौड़ी कर रहे हैं और दूसरी तरफ बढ़ती गाड़ियों का हवाला देकर रेडलाइट हटाते जा रहे हैं, ताकि जाम न लगे. बड़े शहरों में फ्लाइओवर बना कर सड़क को सिग्नल फ्री करते जा रहे हैं, ताकि गाड़ियां जल्दी से अपनी मंजिल तक पहुंचें और जाम की समस्या न उत्पन्न हो.
सड़कों की यह डिजाइन दुर्घटनाओं को बढ़ावा देनेवाली है. आप दुनिया के किसी भी कम दुर्घटनावाले देशों की सड़क की डिजाइन को देखिए, वहां की सड़कों पर की गयीं व्यवस्थाओं को देख कर ही पता चल जाता है कि 95 प्रतिशत सड़क दुर्घटनाएं तो बेहतर डिजाइन के कारण ही नहीं होती हैं.
एक और महत्वपूर्ण बात, कम दुर्घटनावाले देशों में सड़क पर अगर रेड लाइट नहीं भी है और कोई पैदल यात्री सड़क पार करने लगता है, तब सारी गाड़ियां रुक जाती हैं और पैदल यात्री के सड़क पार करने के बाद ही आगे बढ़ती हैं. ऐसा इसलिए संभव है, क्योंकि किसी पैदल यात्री को टक्कर मारने पर जुर्माना (फाइन) बहुत ज्यादा है. अधिक जुर्माने का डर भी एक बड़ी चीज साबित हो सकती है दुर्घटनाओं को कम करने में. मसलन, सिंगापुर में मेट्रो ट्रेन परिसर में सिगरेट पीने पर दस हजार डॉलर का जुर्माना भरना पड़ता है.
भारतीय रुपये में साढ़े छह-सात लाख रुपये के आसपास. इस तरह की फाइन भारत में लागू हो जाये, तो ट्रेन परिसर या स्टेशन पर लोग सिगरेट पीने के बारे में सोचेंगे भी नहीं. यही बात सड़क नियमों के साथ भी लागू हो सकती है कि रेड लाइट जंप करने या स्पीड लिमिट से ज्यादा तेज गाड़ी चलाने पर ज्यादा फाइन लगायी जाये. हमारे यहां जेब्रा क्रॉसिंग पार करते हुए अगर किसी पैदलयात्री का एक्सीडेंट हो गया और उसको चोट लग गयी, तो उसकी भरपाई के रूप में महज कुछ सौ रुपये की फाइन का चलन है.
अब मसला यह है कि एक तो हम पैदल यात्रियों लिए जगह नहीं बनाते और दूसरे उन्हें मारनेवाले पर कोई बड़ा जुर्माना नहीं करते हैं, तो फिर दुर्घटनाएं कैसे कम हो सकती हैं? अगर हमारे देश में भी स्पीड लिमिट या रेड लाइट का उल्लंघन करने पर एक लाख रुपये का जुर्माना देना पड़ता, तो यकीन जानिए कोई भी ऐसा करने से पहले हजार बार सोचेगा. सड़कों की व्यवस्था को अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप बनाना होगा और फाइन को बढ़ाना होगा.
यहां तक कि अगर 18 साल से कम उम्र का बच्चा गाड़ी चलाता है और उससे कोई दुर्घटना होती है, तो उस बच्चे के बजाय उसके पैरेंट से भारी जुर्माना वसूला जाना चाहिए.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)

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