अनुजीवी भारतीय विद्वता : आलस्य, अक्षम, अहंकार

विचार : सहिष्णु भारतीय, असहिष्णु भारत -2 रवि दत्त बाजपेयी द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पूर्वी यूरोप और चीन में साम्यवादी व्यवस्था की स्थापना ने भारतीय विद्वानों को बहुत प्रभावित किया और भारतीय बौद्धिक समूह ने स्वयं को प्रगतिशील साबित करने का संकल्प लिया. इस उद्देश्य से प्रगतिशील विद्वानों ने भारत में ज्ञान पद्धति के […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 14, 2016 6:13 AM
an image
विचार : सहिष्णु भारतीय, असहिष्णु भारत -2
रवि दत्त बाजपेयी
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पूर्वी यूरोप और चीन में साम्यवादी व्यवस्था की स्थापना ने भारतीय विद्वानों को बहुत प्रभावित किया और भारतीय बौद्धिक समूह ने स्वयं को प्रगतिशील साबित करने का संकल्प लिया. इस उद्देश्य से प्रगतिशील विद्वानों ने भारत में ज्ञान पद्धति के आधुनिकीकरण के नाम पर स्थानीय ज्ञान-विद्या की परंपरा को पूरी तरह से बहिष्कृत किया.
आज पढ़िए दूसरी कड़ी.ऐसा क्यों है कि, स्वतंत्र भारत में सरकार और उसकी विचारधारा के समर्थक-अनुजीवी विद्वानों ने लगभग 67 वर्ष तक, भारत को सहिष्णुता का जो पाठ पढ़ाया था, वह इसी विद्वत समूह के अनुसार अकस्मात, 16 मई 2014 को पूरी तरह से विस्मृत हो गया? भारत के अनुजीवी चिंतकों और विद्वानों ने भारतीय जनमानस को धर्मनिरपेक्षता और सहिष्णुता का पाठ पढ़ाने के लिए दोहरी रणनीति बनायी; जिसमें एक ओर यूरोपीय सभ्यता से अभिभूत भारतीय राजनीतिज्ञों को सार्वत्रिक, आधुनिक और उदार बताया, तो दूसरी ओर इनके समकालीन देशज संस्कारों से युक्त अन्य राजनीतिज्ञों/स्वतंत्रता सेनानियों को प्रांतीय, पुरातनपंथी और संकीर्ण दिखाया गया.
आखिरकार सात दशकों से जारी इस अभियान के पाठ/ पाठयक्रम/ पाठनयुक्ति/पाठकों में ऐसा क्या दोष था कि इतनी लंबी और व्यवस्थित मुहिम पर एकाएक ही घड़ों पानी पड़ गया?
इन भारतीय विद्वानों को अनुजीवी कहने के कुछ कारण हैं; जैसे ज्ञान पद्धति का विदेशी आधार, प्रगतिवाद की आड़ में सामंतवाद, संभ्रांत-कुलीन सहधर्मियों में संवाद जिनमें आम-जन नहीं है, अवसरवाद व सरकारी संरक्षण की लालसा और एकांगी दृष्टिकोण.
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पूर्वी यूरोप और चीन में साम्यवादी व्यवस्था की स्थापना ने भारतीय विद्वानों को बहुत प्रभावित किया और भारतीय बौद्धिक समूह ने स्वयं को प्रगतिशील साबित करने का संकल्प लिया.
इस उद्देश्य से प्रगतिशील विद्वानों ने भारत में ज्ञान पद्धति के आधुनिकीकरण के नाम पर स्थानीय ज्ञान-विद्या की परंपरा को पूरी तरह से बहिष्कृत किया और इसके स्थान पर केवल विदेशी अवधारणों को आत्मसात किया. स्वतंत्र भारत में चिंतन, मनन और सृजन को यूरोपीय सांचे की आधुनिकता में ढालने के लिए, इस विद्वत समूह ने भारतीय शैली के ज्ञान, दर्शन और मीमांसा को दोयम दर्जे का साबित करने का बीड़ा उठाया. इस अभियान में नवस्वतंत्र भारत के इन विद्वानों को अधिक परिश्रम नहीं करना पड़ा, चूंकि ब्रिटिश अधीनता के दौरान भारतीय ज्ञान पद्धति को ओछा सिद्ध करने के लिए प्रचुर साहित्य पहले से ही उपलब्ध था.
प्रगतिशील समूह के इन भारतीय विद्वानों ने समाज-शास्त्र और मानविकी में भारतीय लेखन को यूरोपीय विद्वता का समकक्ष नहीं मातहत बनाने का काम किया, जिसके बाद से भारतीय विद्वानों की अनेक पीढ़ियों ने इस मानसिक अधीनता को ही बौद्धिकता का चरम मान लिया है.
इन प्रगतिशील विद्वानों ने आम जनमानस, लोक आचार और स्थानीय रीति-रिवाजों के केवल उन पक्षों को प्रश्रय दिया, जो प्रगतिवाद, असल में साम्यवाद के राजनीतिक-सामाजिक प्रचार के साधन बन सके. लोक संस्कृति के जिन पक्षों से इस विचारधारा का मेल नहीं था, उसके विरोध में तो पूरा साहित्य रच दिया.
कुछ उल्लेखनीय अपवादों को छोड़ कर अधिकतर भारतीय विद्वानों का प्रगतिवाद, वस्तुतः साम्यवादी विचारधारा की आड़ में विद्यार्जन-ज्ञानार्जन को पूंजीवादी-सामंती स्वरूप में चलाना रहा है.
स्वतंत्र भारत में उच्च शिक्षा पर ज्यादातर सरकारी नियंत्रण था, समाज शास्त्र-मानविकी के उच्च स्तरीय शोध संस्थान भी बेहद कम थे और ऐसे अधिकतर संस्थानों पर प्रगतिशील विद्वान मठाधीश की भूमिका में ही थे. लंबे समय से इन संस्थानों में प्रवेश, छात्रवृत्ति, अनुदान, रोजगार जैसे सारे निर्णय इन्हीं प्रगतिशील विद्वानों के पास रहे हैं, तो आखिर क्या कारण है कि आज इन संस्थानों का इतना अवमूल्यन हो चुका है. भारतीय प्रगतिशील विद्वानों ने ज्ञान-विद्या-कौशल-क्षमता विकास के इन संस्थानों को पूंजीवादी-सामंती तरीके से नियंत्रित किया है.
स्वतंत्रता के बाद भारत जैसे आर्थिक रूप से पिछड़े देश में सिर्फ बड़े शहरों के अभिजात्य-कुलीन-विशिष्ट व्यक्तियों की मंडली; अच्छी शिक्षा, संपन्न पुस्तकालयों, विदेशी छात्रवृत्ति, शोध के अवसर, अनुदान जैसे संसाधनों पर कुंडली मार कर बैठ गयी. इसके बाद इस अति सूक्ष्म समूह की कुल परंपरा से बाहर की प्रतिभा के लिए साधन बचे ही नहीं. आज भी भारत के नामचीन संस्थानों में प्रगतिवाद-साम्यवाद-समतावाद के अधिकतर आचार्य इसी कुल परंपरा से आते हैं.
यह एक महती विडंबना है कि, पूंजीवाद से उपजे इंटरनेट ने भारत में ज्ञान-विद्या-कौशल-क्षमता विकास के कुछ साधनों-संसाधनों को इन साम्यवादी विद्वानों के चंगुल से बाहर निकालने का काम किया है. पिछले सात दशकों के प्रगतिवादी इतिहास लेखन के बाद, भारत के उत्तर-पूर्व के निवासी, महिलाएं, दलित, और आदिवासी आज भी इतिहास की पढ़ाई की मुख्य धारा से बाहर है.
अंगरेजी में एक वाक्यांश है ‘प्रीचिंग टू द कनवर्टेड’, याने धर्मांतरण कर चुके व्यक्ति को उपदेश देना, भारत में प्रगतिशील विद्वानों का विचार विनिमय ज्यादातर संभ्रांत-कुलीन सहधर्मियों के बीच संवाद है, जिसमें आम-जन की भागीदारी नहीं है. अधिकतर भारतीय विद्वान, आम भारतीय की विद्या, बुद्धि, विवेक को संदेहास्पद मानते हैं और इन विद्वानों के अनुसार चूंकि आम भारतीय के सोचने-समझने की शक्ति सीमित है, अतः आम लोगों को विद्वानों के सुझाये मार्ग पर ही चलना चाहिए. आज सारे विश्व में विचार, विद्या और ज्ञान पर यूरोपीय प्रभुता को चुनौती देते हुए, गैर यूरोपीय स्रोतों की पड़ताल जारी है तो समस्या यह है कि, यूरोपीय आधुनिकता के भारतीय झंडाबरदार अब किस ओर जायें.
भारतीय विद्वानों के अवसरवाद तथा सरकारी संरक्षण-प्रश्रय की लालसा की विस्तृत जानकारी पहले से ही उपलब्ध है. यह एक सर्वविदित तथ्य है कि, प्रगतिशील भारतीय विद्वत समूह के कई बड़े नामों को, रूस और पूर्वी यूरोप के निरकुंश तानाशाहों से सम्मान ग्रहण करने में कभी कोई संकोच नहीं हुआ. अनुजीवी भारतीय विद्वानों ने अनेक अवसरों पर एकांगी दृष्टिकोण अपनाया है; जैसे आपातकाल, 1984 के सिख विरोधी दंगों, भोपाल गैस त्रासदी, अयोध्या में राम मंदिर के द्वार खोलने, तसलीमा नसरीन पर हमले जैसे हादसों के बाद भी तत्कालीन शासन से अनुग्रहीत रहना. भारतीय जन मानस को आधुनिकता, उदारता, सहिष्णुता का पाठ पढ़ाने वाले भारतीय उदारवादी, प्रगतिवादी विद्वान जब स्वयं ही दकियानूसी, सामंती और पूंजीवादी प्रतिमान अपनाये तो ऐसे में आम लोगों से क्या उम्मीद रखनी चाहिए?
(जारी)
Exit mobile version