दुनिया में बीते एक साल के दौरान परमाणु हथियारों की संख्या में कमी तो आयी है, लेकिन धरती को कई बार तबाह कर देने की क्षमतावाले हजारों ऐसे हथियार आज भी मौजूद हैं और नौ परमाणु-शक्ति संपन्न देश उन्हें अधिक खतरनाक बनाने की जुगत में हैं. दूसरी ओर, शांतिपूर्ण उद्देश्यों के साथ न्यूक्लियर सामान और तकनीक की उपलब्धता के लिए एनएसजी में भारत की सदस्यता की राह को चीन रोक रहा है तथा इस समूह में पाकिस्तान को भी शामिल करने पर जोर दे रहा है.
ऐसे समय में यह जानना दिलचस्प होगा कि प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय संस्था ‘सिप्री’ की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक चीन और पाकिस्तान न सिर्फ परमाणु क्षेत्र में परस्पर सहयोग कर रहे हैं, बल्कि उनके पास भारत से कहीं अधिक परमाणु हथियार मौजूद हैं. दुनिया में परमाणु निरस्त्रीकरण पर जोर देनेवाली इस रिपोर्ट से चीन के तर्कों का खंडन होता है. सिप्री की रिपोर्ट की खास बातों और एनएसजी के बुनियादी बिंदुओं पर नजर डाल रहा है आज का इन-डेप्थ पेज.
सिप्री की ताजा रिपोर्ट में आकलन
दुनिया में िवध्वंसक और युद्ध-संबंधी हथियारों की मौजूदगी पर शोध करनेवाली प्रतिष्ठित संस्था स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (सिप्री) ने परमाणु हथियारों से जुड़े ताजा आंकड़े प्रस्तुत किये हैं. सिप्री की वार्षिक रिपोर्ट बताती है कि दुनिया में परमाणु हथियारों की संख्या में कमी आ रही है, लेकिन ऐसा कोई संकेत नहीं है कि ऐसे हथियारों से लैस देश इन्हें पूरी तरह से समाप्त करना चाहते हैं.
मौजूदा समय में नौ देशों के पास परमाणु हथियार हैं. ये देश हैं- अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, फ्रांस, चीन, भारत, पाकिस्तान, इजरायल और उत्तर कोरिया. जनवरी, 2016 में इन देशों के पास ऐसे हथियारों की कुल संख्या 15,395 थी, जो एक साल पहले यानी 2015 के शुरू में 15,850 थी.
रिपोर्ट के मुताबिक, अमेरिका, रूस, ब्रिटेन और फ्रांस के करीब 4,120 परमाणु हथियार तैनात हैं यानी ये ऐसे ठिकानों पर हैं जहां से इनका तुरंत इस्तेमाल किया जा सकता है.
संख्या में कमी के बावजूद परमाणु हथियारों में बढ़ रहा है निवेश
पिछले एक साल में दुनिया में परमाणु हथियारों की कुल संख्या में आयी कमी का मुख्य कारण अमेरिका और रूस द्वारा अपने हथियारों में कटौती करना है. इन दो देशों के पास दुनिया के 93 फीसदी से अधिक परमाणु हथियार है. दोनों देशों के बीच 2011 में विनाशकारी हथियारों में कटौती करने का समझौता हुआ था, जिसे ‘न्यू स्टार्ट’ की संज्ञा दी गयी थी.
हालांकि इस द्विपक्षीय करार के बावजूद, ऐसे हथियारों की संख्या में कमी करने का काम बहुत धीमी गति से चल रहा है. इतना ही नहीं, अमेरिका और रूस अपने परमाणु हथियारों को अत्याधुनिक बनाने के लिए बेहद खर्चीले कार्यक्रम भी चला रहे हैं. वर्ष 2015 से 2024 के बीच अमेरिका ने इस मद में 348 अरब डॉलर खर्च करने की योजना बनायी है.
कुछ आकलनों के अनुसार आगामी 30 सालों में अमेरिका के परमाणु हथियारों के आधुनिकीकरण पर एक खरब डॉलर का खर्च आ सकता है. सिप्री की वार्षिक रिपोर्ट के सह-लेखक हैंस क्रिस्टेंसेन का कहना है कि ओबामा प्रशासन की यह महत्वाकांक्षी योजना राष्ट्रपति बराक ओबामा के उस संकल्प के बिल्कुल विपरीत है, जिसमें उन्होंने परमाणु हथियार और अमेरिकी सुरक्षा रणनीति में ऐसे हथियारों की भूमिका को कम करने की बात कही थी.
परमाणु-शक्ति संपन्न अन्य देशों के पास बहुत कम हथियार हैं, लेकिन सभी ने या तो नये डेलीवरी सिस्टम को स्थापित करने का काम शुरू कर दिया है या ऐसा करने का इरादा जाहिर किया है. चीन आधुनिकीकरण के साथ अपनी परमाणु ताकत में बढ़ोतरी कर रहा है. चीन के पास इस समय 260 परमाणु हथियार हैं.
पाकिस्तान के पास भारत से ज्यादा परमाणु हथियार
रिपोर्ट के मुताबिक, भारत और पाकिस्तान भी अपने हथियार बढ़ाने के साथ-साथ मिसाइल डेलीवरी सिस्टम को भी बेहतर करने की कोशिश में हैं. इस समय पाकिस्तान के पास 110 से 130 परमाणु हथियार हैं, जबकि भारत के पास 110 से 120 हथियार. एक साल पहले, 2015 में भी पाकिस्तान के पास भारत से ज्यादा परमाणु हथियार थे.
उधर, उत्तर कोरिया के पास 10 परमाणु हथियार बनाने की पूरी क्षमता है, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि उसने बम बनाया या उन्हें तैनात किया है या नहीं.
सिप्री के परमाणु हथियार परियोजना के प्रमुख शैनॉन किले का कहना है कि हथियारों की संख्या में कमी के बावजूद परमाणु निरस्त्रीकरण की ओर वास्तविक प्रगति की संभावनाएं अत्यंत क्षीण हैं. परमाणु हथियारों से संपन्न सभी देश अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति में परमाणु क्षमता को प्राथमिकता देना जारी रखे हुए हैं.
स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट (सिप्री)
स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट यानी सिप्री एक अंतरराष्ट्रीय संस्था है, जो संघर्ष, शस्त्रीकरण, हथियारों के नियंत्रण और निरस्त्रीकरण पर शोध करती है. वर्ष 1964 में स्वीडन के तत्कालीन प्रधानमंत्री टैग एरलांडर ने स्वीडन में पिछले 150 वर्षों से कायम शांति की याद में एक इंस्टीट्यूट की स्थापना का विचार दिया था. अल्वा मिरडल की अध्यक्षता में स्वीडिश रॉयल कमीशन ने 1966 में अपनी रिपोर्ट में इस संस्थान की स्थापना का प्रस्ताव दिया. स्वीडन की संसद के फैसले पर यह संस्था एक जुलाई, 1966 से वैधानिक रूप में अस्तित्व में आ गयी.
दुनियाभर में हथियारों के विकास, आर्म्स ट्रांसफर और प्रोडक्शन, सैन्य खर्चों समेत उसकी सीमाओं, उसमें होनेवाली कटौती और निरस्त्रीकरण के बारे में इसे आंकड़ों के संग्रह करनेवाली भरोसेमंद संस्था के रूप में जाना जाता है. नीति निर्माताओं, शोधकर्ताओं, मीडिया और संबंधित विधा में रुचि रखनेवाले लोगों को यह संस्था आंकड़े और विश्लेषण आधारित सूचनाएं मुहैया कराती है.
इसका प्रमुख कार्य अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शांति और सुरक्षा कायम रखने के मकसद से किये जाने वाले उपायों व संघर्षों के बारे में शोध करना है. साथ ही इन अंतरराष्ट्रीय संघर्षों से निबटने और शांति कायम करने के समाधान की समझ को विकसित करते हुए इन उपायों को लागू करने में योगदान देना है.
सिप्री का मुख्यालय स्टॉकहोम में है. इसके अलावा यह दुनियाभर में इस तरह के कार्य में संलग्न अन्य रिसर्च सेंटर्स और व्यक्तिगत शोधकर्ताओं से भी संपर्क कायम रखती है. साथ ही यह संस्था संयुक्त राष्ट्र और यूरोपियन यूनियन, वैज्ञानिक व सरकारी प्रतिनिधियों, विजिटिंग शोधकर्ताओं आदि से तालमेल कायम रखता है. सिप्री का रिसर्च एजेंडा व्यापक रूप से भरोसेमंद समझा जाता है और दुनियाभर में इसकी बहुत मांग है.
परमाणु हथियारों पर पाबंदी की उम्मीदें अब भी हैं
हालांकि सिप्री की रिपोर्ट निराशा को बढ़ाती है, लेकिन परमाणु हथियारों से विश्व को मुक्त कराने के अभियान में लगे लोगों ने उम्मीदें नहीं छोड़ी हैं. जेनेवा स्थित अंतरराष्ट्रीय संस्था ‘एबॉलिश न्यूक्लियर वीपंस’ का मानना है कि स्पष्ट तौर पर दुनिया के अधिकतर देश परमाणु हथियारों पर रोक लगाने के लिए वार्ता के पक्ष में हैं. इस उत्साह का आधार मई में जेनेवा में इस मुद्दे पर हुए संयुक्त राष्ट्र के ओपेन एंडेड वर्किंग ग्रुप की बैठक है. इस सत्र का मुख्य विषय परमाणु हथियारों पर वैश्विक प्रतिबंध की दिशा में काम शुरू करना था.
शांति प्रयासों के लिए समर्पित संस्था ‘रीचिंग क्रिटिकल विल’ के रे एकेसन ने इस बात को रेखांकित किया है कि परमाणु हथियारों पर रोक और उन्हें नष्ट करने के लिए वैधानिक खाई को पाटने की मानवीय अपील पर 127 देशों ने हस्ताक्षर किया है. इन देशों ने वर्किंग ग्रुप को नये समझौते के बारे में एक प्रस्ताव भी दिया है. देखना यह है कि क्या यह ग्रुप सितंबर में हो रहे संयुक्त राष्ट्र महासभा में स्पष्ट सुझाव पेश करता है या नहीं. परमाणु हथियार विरोधी देशों को भी ठोस दबाव बनाना होगा. महासभा से पहले अगस्त में वर्किंग ग्रुप की बैठक में इन सवालों का जवाब मिल जायेगा.
नेहरू चाहते तो चीन से पहले परमाणु परीक्षण कर सकता था भारत!
यदि भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने परमाणु परीक्षण करने में अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ केनेडी की मदद स्वीकार कर ली होती, तो आज भारत को न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप की सदस्यता के लिए इतनी मशक्कत नहीं करनी पड़ती. यह मानना पूर्व िवदेश सचिव एमके रसगोत्रा का.
उनके अनुसार, भारतीय लोकतंत्र और नेहरू के अनन्य प्रशंसक केनेडी चाहते थे कि साम्यवादी चीन के बजाय लोकतांत्रिक भारत को परमाणु परीक्षण करनेवाला पहला एशियाई देश होना चाहिए. अगर ऐसा हो जाता, तो 1964 में चीन के परमाणु परीक्षण से पहले ही भारत परीक्षण कर लेता, और 1962 में चीन भारत पर आक्रमण करने से भी परहेज करता. साथ ही, 1965 में पाकिस्तान भी हमला करने से पहले समुचित विचार करता.
(स्रोत : पीटीआइ)
इन्हें भी जानें
न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप (एनएसजी) क्या है?
न्यू क्लियर सप्लायर्स ग्रुप यानी एनएसजी परमाणु अपूर्तिकर्ता देशों का समूह है, जो परमाणु हथियार बनाने में सहायक हो सकनेवाली वस्तुओं, यंत्रों और तकनीक के निर्यात को नियंत्रित कर परमाणु प्रसार को रोकने की कोशिश करता है.
भारत द्वारा मई, 1974 में किये गये पहले परमाणु परीक्षण की प्रतिक्रिया में इस समूह के गठन का विचार पैदा हुआ था और इसकी पहली बैठक नवंबर, 1975 में हुई थी. इस परीक्षण से यह संकेत गया था कि असैनिक परमाणु तकनीक का उपयोग हथियार बनाने में भी किया जा सकता है. ऐसे में परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर कर चुके देशों को परमाणविक वस्तुओं, यंत्रों और तकनीक के निर्यात को सीमित करने की जरूरत महसूस हुई.
प्रारंभ में एनसीजी के सात संस्थापक सदस्य देश थे- कनाडा, वेस्ट जर्मनी, फ्रांस, जापान, सोवियत संघ, ब्रिटेन और अमेरिका. वर्ष 1976-77 में यह संख्या 15 हो गयी. वर्ष 1990 तक 12 अन्य देशों ने समूह की सदस्यता ली. चीन को 2004 में इसका सदस्य बनाया गया. फिलहाल इसमें 48 देश शामिल हैं और 2015-16 के लिए समूह की अध्यक्षता अर्जेंटीना के पास है.
भारत के लिए एनएसजी की सदस्यता का महत्व
चूंकि एनएसजी का गठन भारत द्वारा किये गये परमाणु परीक्षण की प्रतिक्रिया में हुआ था, इसलिए भारत का मानना है कि इसका लक्ष्य अत्याधुनिक तकनीक तक भारत की पहुंच को रोकना है. मौजूदा 48 सदस्यों में से पांच देश परमाणु हथियार संपन्न हैं, जबकि अन्य 43 देश परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर कर चुके हैं.
इस संधि को भेदभावपूर्ण मानने के कारण भारत ने अब तक इस पर हस्ताक्षर नहीं किया है. वर्ष 2008 में हुए भारत-अमेरिका परमाणु करार के बाद एनएसजी में भारत को शामिल होने की प्रक्रिया शुरू हुई.
यदि भारत को इस समूह की सदस्यता मिल जाती है, तो उसे निम्न लाभ हो सकते हैं-
1. दवा से लेकर परमाणु ऊर्जा सयंत्र के लिए जरूरी तकनीकों तक भारत की पहुंच सुगम हो जायेगी, क्योंकि एनएसजी आखिरकार परमाणु कारोबारियों का ही समूह है. भारत के पास देशी तकनीक तो है, पर अत्याधुनिक तकनीकों के लिए उसे समूह में शामिल होना पड़ेगा.
2. भारत ने जैविक ईंधन पर अपनी निर्भरता कम करते हुए अक्षय और स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों से अपनी ऊर्जा जरूरतों का 40 फीसदी पूरा करने का संकल्प लिया हुआ है. ऐसे में उस पर अपनी परमाणु ऊर्जा उत्पादन को बढ़ाने का दबाव है, और यह तभी संभव हो सकेगा, जब उसे एनएसजी की सदस्यता मिले.
3. भारत के पास परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर कर हर तरह की तकनीक हासिल करने का विकल्प है, पर इसका मतलब यह होगा कि उसे अपने परमाणु हथियार छोड़ने होंगे. पड़ोस में दो परमाणु-शक्ति संपन्न देशों को होते हुए उसका ऐसा करना संभव नहीं है. एनसीजी में सदस्यता इस संशय से बचा सकती है.
4. तकनीक तक पहुंच के बाद भारत परमाणु ऊर्जा यंत्रों का वाणिज्यिक उत्पादन भी कर सकता है. इससे देश में नवोन्मेष और उच्च तकनीक के निर्माण का मार्ग प्रशस्त होगा, जिसके आर्थिक और रणनीतिक लाभ हो सकते हैं. परमाणु उद्योग का विस्तार ‘मेक इन इंडिया’ के महत्वाकांक्षी कार्यक्रम को नयी ऊंचाई दे सकता है.
5. इस समूह में नये सदस्य मौजूदा सदस्यों की सर्वसम्मति से ही शामिल हो सकते हैं. यदि भारत को सदस्यता मिल जाती है, तो वह भविष्य में पाकिस्तान को इसमें आने से रोक सकता है. इसी स्थिति को रोकने के लिए ही चीन भारत के साथ पाकिस्तान को भी सदस्य बनाने पर जोर दे रहा है.