विचार : सहिष्णु भारतीय : असहिष्णु भारत – 5
रवि दत्त बाजपेयी
वंशवादी, भ्रष्ट व सांप्रदायिक राजनीति, धर्म की थोक व खुदरा दुकानदारी, निकृष्ट शिक्षा और निर्बलों पर हिंसा के प्रति भारतीयों के पास असीम सहनशीलता है. अपने चारों ओर व्याप्त कलंकों-कुरीतियों-कुटिलताओं के प्रति भारतीयों की इस अापराधिक निष्ठुरता को क्या सचमुच में उदारता, सहनशीलता, या सहिष्णुता पुकारा जा सकता है? पढ़िए लेख की अंतिम कड़ी.
भारत की प्राचीन सभ्यता की दिव्यता और सांस्कृतिक धरोहर की भव्यता के समर्थक, भारतीयों की सहिष्णुता को सार्वभौमिक, सार्वकालिक और चिरंतन बताते रहे हैं. सहिष्णुता के इस अतिरंजित महिमामंडन को, एक अधम, अनर्थकारी और आपत्तिजनक व्यवस्था के प्रति भारतीयों की अनंत सहनशीलता, कुछ हद तक सही साबित करती है. अपने क्षुद्र, क्षणिक और क्षयकारी स्वार्थसिद्धि में अत्यंत असहनशील भारतीयों को अपने सबसे शुभ, शाश्वत और श्रेष्ठ हितों के विध्वंस के प्रति असीमित सहनशक्ति, सारे विश्व में अद्वितीय है.
अपने नाम, वंश, परिवार, कुटुंब के सुरक्षित, समृद्ध और स्वस्थ भविष्य के प्रति आसक्त भारतीय, अधम राजनीतिज्ञों, धर्म के व्यापारियों, निकृष्ट शिक्षा-स्वास्थ्य-सामुदायिक सुविधाओं, पर्यावरण के विनाश, सामाजिक कुरीतियों और निर्बलों पर अत्याचार से पूर्णतः विरक्त है. भारतीयों की यह दुर्लभ सहनशीलता, अन्य राष्ट्रों और उनके नागरिकों के लिए अप्राप्य है.
किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में, भ्रष्टाचारी, वंशवादी और सांप्रदायिक राजनीतिज्ञों के प्रति भारतीयों की सहनशीलता, बेमिसाल है. सांप्रदायिक हिंसा या अपरिमित भ्रष्टाचार में शामिल होने के आरोप सिद्ध होने, न्यायालय से दंड मिलने और कारावास भोगने के बाद भी, भारतीय राजनीतिज्ञों को निष्ठावान अनुयायियों और समर्पित मतदाताओं की कमी नहीं देखनी पड़ती है.
भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत सजायाफ्ता भ्रष्ट अपराधी, पूरी धृष्टता के साथ एक राजनेता के रूप में भारतीय संविधान के संरक्षण, संशोधन, समंजन की प्रक्रिया में निर्णायक भूमिका में बने रहते हैं. एक आम भारतीय के लिए अब दो राजनीतिक विकल्प हैं; भ्रष्ट, अवसरवादी, कुनबापरस्त धर्मनिरपेक्षता अथवा आक्रामक दक्षिणपंथ, एक राष्ट्र-राज्य या एक सामाजिक-सांस्कृतिक इकाई के रूप भारत के लिए दोनों ही विकल्प सांघातिक हैं.
21वीं सदी में भारत में धर्म की आढ़त सबसे लाभकारी उद्यम है, धर्म के थोक और खुदरा व्यापारियों के प्रति भारतीयों की अंतहीन सहिष्णुता सारे विश्व में सबसे अनूठी है. धर्म के थोक व्यापारियों की पुरानी परिपाटी में महंत, पीठासीन आचार्य, परमहंस, जगद्गुरु आदि आते है, तो नयी व्यवस्था में इलेक्ट्रॉनिक प्रचार माध्यमों से प्रवचन और परचून के वितरक अब स्थापित-प्रमाणित धर्मगुरु भी हैं.
इन थोक व्यापारियों में कई लोगों के अधम, अपराधी और दुश्चरित्र होने के पुख्ता सबूत मिलने के बाद भी इन धर्माचार्यों के प्रति इनके उपासकों की अंधश्रद्धा, भारतीयों की सहनशीलता का अनिर्वचनीय रूप है. धर्म के खुदरा व्यापारी, हर छोटे-बड़े शहर के व्यस्ततम इलाके में सार्वजनिक स्थान पर भजन, सत्संग, पत्थर पूजन या अस्थायी पंडाल से बेजा कब्जा करते हैं, जो यथाशीघ्र अवैध पूजनस्थल सह व्यावसायिक परिसर में बदल जाता है.
जिन भारतीयों को अपनी निजी भूमि पर तिनके का अतिक्रमण भी असहनीय है, उन्हें पीढ़ियों से चली आ रही अपनी सामूहिक भूमि की विरासत पर अवैध कब्जे से पूरी सहानुभूति है. भावी पीढ़ियों की इस सामुदायिक भूमि पर हरित पट्टी, बाग, खेलकूद का मैदान, भूजल-संरक्षण, पुस्तकालय, वाहन पड़ाव, शौचालय जैसे जनोपयोगी सुविधाओं के स्थान पर जबरन प्रार्थनाघर-देवालय की स्थापना पर भारतीयों की अचल सहनशीलता ही इस देश को सच्चे अर्थों में अतुल्य भारत बनाती है.
नागरिक सुविधाओं के अभाव, निकृष्ट शिक्षा-स्वास्थ्य सुविधाएं, आवागमन के जर्जर ढांचे, बिजली-पानी की कुव्यवस्था, खंडहर में तब्दील सामुदायिक भवनों और सेवाओं, जैसी विकृतियों के प्रति भारतीयों का वीतरागी दृष्टिकोण, उनकी अचिंत्य सहनशीलता का परिचायक है.
भारत में वृहद् हिंदू समाज से संबद्ध लगभग सभी समुदाय, प्रत्येक जड़ी-बूटी, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, भूमि-जल-आकाश-अंतरिक्ष को अपनी धार्मिक-आध्यात्मिक आस्था में पूज्य मानते हैं, लेकिन पर्यावरण के विनाश के प्रति इन समुदायों की सहनशीलता अवर्णनीय है. करोड़ों लोगों की आस्था की प्रतीक, जीवनदायिनी, मोक्षदायिनी गंगा की दशा भारतीयों की इस निरर्थक सहनशीलता का सबसे बड़ा प्रमाण है, भारत सरकार के प्रयासों से निर्मल गंगा, अविरल गंगा बनने से पहले, संभव है कि अपने उपासकों के भगीरथ प्रयास से तरल गंगा, अचल गंगा में बदल जायेगी.
भारतीयों की निक्कमी, निर्लज्ज, निरूपाय सहनशीलता का सबसे क्रूर स्वरूप, निर्बलों पर हो रहे अत्याचार के प्रति उनकी अापराधिक निष्ठुरता है. आर्थिक-सामाजिक रूप से कमजोर तबकों, अलग धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा, भोजन, शक्ल-सूरत, विचारधारा से संबंधित लोगों के साथ व्यक्तिगत, सामूहिक और संस्थागत हिंसा में सक्रिय भागीदारों को अब स्वाभिमानी और इस हिंसा से निर्लिप्त लोगों को सहनशील माना जाता है.
महिलाओं और बच्चों के साथ सार्वजनिक स्थानों पर, अनेक लोगों के सामने हो रहे अमानवीय व्यवहार के प्रति निर्दयी तटस्थता, समूचे भारतीय समाज की सहनशीलता का सबसे वीभत्स स्वरूप है. महिलाओं के साथ हो रहे, प्रत्यक्ष दुर्व्यवहार के प्रति निष्क्रियता का अर्थ क्या है, सभ्य समाज सहनशील हो रहा है या भीरु समाज पतनशील हो रहा है?
अपने चारों ओर व्याप्त कलंकों-कुरीतियों-कुटिलताओं के प्रति भारतीयों की इस अापराधिक निष्ठुरता को क्या सचमुच में उदारता, सहनशीलता, या सहिष्णुता पुकारा जा सकता है?
(समाप्त)