आध्यात्मिक चेतना का मूल है योग

बल्देव भाई शर्मा आज मानो योग सारी दुनिया के सिर चढ़ कर बोल रहा है. यह विडंबना ही है कि भारत की प्राच्य विद्याओं के प्रति एक खास बुद्धिजीवी वर्ग ने अत्यंत हेय दृष्टि अपना ली है. वह न केवल मानता है, बल्कि यह प्रचारित करने में भी जुटा रहता है कि भारत में गर्व […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | June 25, 2016 6:00 AM
an image

बल्देव भाई शर्मा

आज मानो योग सारी दुनिया के सिर चढ़ कर बोल रहा है. यह विडंबना ही है कि भारत की प्राच्य विद्याओं के प्रति एक खास बुद्धिजीवी वर्ग ने अत्यंत हेय दृष्टि अपना ली है. वह न केवल मानता है, बल्कि यह प्रचारित करने में भी जुटा रहता है कि भारत में गर्व करने लायक क्या है ? उसके अनुसार आज हम जिस तरक्की की राह पर बढ़ रहे हैं उसकी नींव तो अंगरेजी शासन में रखी गयी और इसलिए हमें अंगरेजों या पाश्चात्य देशों का शुक्रगुजार होना चाहिए. लेकिन जब भारत की ही किसी विद्या या उपलब्धि को जिसे अंग्रेजियत के जुनून में भुला दिया गया, पाश्चात्य देश विशेषकर अमेरिका सिर-माथे रख लेता है तो हमें भी लगता है कि हमें भी इसे अपनाना चाहिए और फिर उसके पीछे हम पागलपन की हद तक दौड़ पड़ते हैं. कल तक जिस बात को हम हीन और तिरस्कृत मानते थे, वही हमारे लिए गौरव का विषय बन जाती है.

योग विश्व के लिए भारत की ऐसी ही अनुपम देन है. आज उसे व्यक्तिगत साधना और अनुभवों से निकल कर सामूहिक व वैश्विक पहचान मिल रही है. 21 जून को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस मानो एक वैश्विक पर्व बन गया. लगभग हर आदमी योग को अपनी फिटनेस का माध्यम बनाने को तत्पर दिख रहा है.

लेकिन यह योग का आठवां हिस्सा मात्र है जिसे आसन के नाम से लोग जानते हैं. कुछ लोग इससे आगे बढ़ कर प्राणायाम व ध्यान तक पहुंच जाते हैं जिसे अष्टांग योग कहा जाता है . उसमें यम, नियम, आसन, प्रत्याहार, प्राणायाम, ध्यान, धारणा और समाधि में आठ अंग हैं. इन सबको मिला कर संपूर्ण योग का स्वरूप बनता है.

वस्तुत: योग अाध्यात्मिक चेतना के जागरण का एक सशक्त माध्यम है जो हमें मानचित्र, विचार, भाव, प्राण और आत्मा की शुद्धि के द्वारा परमतत्व से जोड़ता है. योग का अर्थ है जोड़ना. भारत के छह दर्शनों में एक है योग जिसे महर्षि पतंजलि ने रचा. वैसे योग की उत्पत्ति का मूल शिव को माना गया है.

हिमालय पर लंबी साधना के बाद सिद्धि प्राप्त कर जब शिव आनंद से सराबोर लेकर नृत्य करते हैं तो कभी परमानंद और कभी परम शांति के भाव उनमें प्रकट होते हैं. उनका यह अनुभव जानने की अभिलाषा तपस्वी ऋषियों में जगाती है. इसलिए वे अपनी तपस्या से शिव को प्रसन्न कर जगत के कल्याण के लिए शिव की उस अनुभूति को जानने का प्रयास करते हैं. शिव के परमानंद और शांति की यह अनुभूति ही योग दर्शन के रूप में प्रकट हुई है. महर्षि पतंजलि ने योग सूत्र के नाम से इसकी रचना की है जिसमें 195 सूत्र हैं और हर सूत्र अपने आप में एक विशद व्याख्या है.

महर्षि पतंजलि ने योग का केंद्र चित्त को माना है. इसलिए योग को परिभाषित करते हुए कहा गया ‘योग: चित्तवृत्ति निग्रह: चित्त की वृत्तियों को यदि निग्रह यानी नियमन या नियंत्रण हो गया तो जीवन की सारी समस्याओं का समाधान स्वयं हो जायेगा. आज के दौर में तो व्यक्ति अपनी लालसाओं को पूरा करने की होड़ में सबसे आगे निकलने को आतुर हैं.

पर यह दौड़ उसमें लालच, स्वार्थ, ईष्या, क्रोध, अहंकार जैसी जानलेवा दुष्प्रवृत्तियां जगा सकती हैं. यह दूसरों से ज्यादा तो उसके खुद के लिए ही हितकर है जिससे असीमित तनाव व हताशा (डिप्रेशन) जैसे शारीरिक व मानसिक विकार उत्पन्न होते हैं. इनका केंद्र तो चित्त या मन ही है. वह संयमित और संतुलित होगा तो जीवन की सही दिशा और गति तय कर सकता है.

गीता में योग के विविध पक्षों को समाहित किया गया है. वैसे तो वेद, पुराण, उपनिषद सभी में योग का जहां-तहां वर्णन आया है, लेकिन गीता के तो हर अध्याय का नाम ही विभिन्न प्रकार के योग रूपों पर रखा गया है.

इसी गीता में विषादग्रस्त अर्जुन को जब कृष्ण मन को संयमित रख चिंतन करने की बात कहते हैं तो अर्जुन नहीं समझ पाते कि इस वायु के वेग से भी तेज गति वाले मन को कैसे धामे. अर्जुन के यह पूछने पर श्रीकृष्ण कहते हैं ‘अभ्यासेन तु कोतेय:’ कि अर्जुन निरंतर अभ्यास के द्वारा मन और चित्त को संयमित रखा जा सकता है. वास्तव में यह अभ्यास, योग का ही एक रूप है. श्रीकृष्ण कहते हैं- ‘अभ्यासयोगमुक्तेन चेतसा जान्यगामिना परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिंतपन.’ हे पार्थ परमेश्वर के अभ्यास रूप योग से युक्त, अन्य तरफ न जानेवाले यानी एकाग्र चित्त से निरंतर चिंतन करता हुआ पुरुष परम दिव्य रूप को प्राप्त होता है अर्थात परमात्मा में लय हो जाता है.

आज का दौर युवाओं का है. भारत दुनिया का सबसे बड़ा युवा देश है. देश की 65 प्रतिशत आबादी किशोर और युवाओं की बतायी जा रही है. युवा देश की सबसे बड़ी ताकत होते हैं. यदि वे कार्य-कुशल हो तो कहना ही क्या ? इसलिए देश की सरकार युवाओं के कौशल विकास पर बहुत जोर दे रही है. इसके लिए अलग से स्किल डेवलपमेंट मिनिस्ट्री भी बना दिया गया.

लेकिन हजारों साल पहले योग शास्त्र के रचनाकार ने इस स्किल डेवलपमेंट की संकल्पना प्रस्तुत करते हुए लिखा-‘ योग: कर्मशु कौशलम.’ कुशलतापूर्वक अपने कार्यों का निष्पादन करना ही योग है. यानी योग कौशल विकास का भी सशक्त माध्यम है. इसलिए युवाओं के लिए फिटनेस से भी आगे बहुत जीवनोपयोगी है योग जो उनके जीवन को, सोच को, व्यवहार को पूर्ण कुशल या वेल स्कील्ड बनाता है.

श्रीकृष्ण ने गीता में इसका उल्लेख करते हुए कहा है- ‘योगस्थ: कुरु कर्माणि संग त्यत्वा धनंजय : सिद्धयहियो समोभूत्वा समत्वं योग उच्यते. ‘हे धनंजय आसक्ति को त्याग कर सफलता और विफलता की स्थिति में भी समान चित्त रख कर कर्मों को कर. यह समत्व भाव ही योग कहा जाता है.’ मुझे सफलतापूर्वक कर्म करना है कि बजाय कुशलतापूर्वक कर्म करना है कि भावना ज्यादा संतोषजनक है क्योंकि सफलता की चाह आसक्ति है जो पूरी न होने पर विषाद यानी डिप्रेशन को जन्म देती है जबकि कुशलतापूर्वक कर्म करने की प्रवृत्ति सफलता का विश्वास जगाती है. योग वृत्ति से ही यह कुशलता या कौशल प्राप्त होता है.

योग न केवल आध्यात्मिक बल्कि सामाजिक चेतना भी जगाता है. जाे योग हमें परम तत्व से जोड़ता है, वह मन और चित्त का विस्तार कर सभी प्राणियों को आत्मतत्व में विलीन कर देता है. फिर मुझमें सब और सब में यानी ‘खल्विंद ब्रह्म:’ का साक्षात्कार कराता है.

यही तो सामाजिक समरसता का मंत्र है जब जाति-मत-पंथ या मजहब का भाव समाप्त होकर सब एक रूप हो जाने की अनुभूति अंत:करण में जाती है. इसी भाव-साधना को परिभाषित करते हुए संत तुलसीदास ने रामचरित मानस में लिखा है- जड़ चेतन जल जीव नभ सकल राममय जान.’ आदि शंकराचार्य जब यात्रा के दौरान सामने चंडाल को देख कर उससे बचने लगते हैं तो चंडाल तंज सकता है.-किससे बच रहा है ? तू भी ब्रह्म, मैं भी ब्रह्म फिर कौन किससे बचे ?

शंकराचार्य समझ जाते हैं कि असली ब्रह्म ज्ञान तो ये है और चंडाल का चरण पकड़ लिया. योग के अभ्यास से ही चित्त की ऐसी निर्मलता आती है और ब्रह्म ज्ञान मिलता है जहां सारे भेद मिट जाते हैं और समाज के विराट रूप के दर्शन होते हैं.

Exit mobile version