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ब्रिटेन पहले भूचाल से निकले तो
ब्रेक्जिट से प्रभावित होंगे भारत के साथ राजनीतिक, कूटनीतिक एवं आर्थिक रिश्ते, लेकिन असर का सटीक अनुमान अभी जल्दीबाजी होगी प्रो उम्मू सलमा बावा सेंटर फॉर यूरोपियन स्टडीज, जेएनयू यूरोपियन यूनियन (इयू) से ब्रिटेन के अलग होने के बाद ब्रिटेन और यूरोपियन यूनियन के बाकी देशों के साथ भारत के राजनीतिक, कूटनीतिक और आर्थिक रिश्ते […]
ब्रेक्जिट से प्रभावित होंगे भारत के साथ राजनीतिक, कूटनीतिक एवं आर्थिक रिश्ते, लेकिन असर का सटीक अनुमान अभी जल्दीबाजी होगी
प्रो उम्मू सलमा बावा
सेंटर फॉर यूरोपियन स्टडीज, जेएनयू
यूरोपियन यूनियन (इयू) से ब्रिटेन के अलग होने के बाद ब्रिटेन और यूरोपियन यूनियन के बाकी देशों के साथ भारत के राजनीतिक, कूटनीतिक और आर्थिक रिश्ते कैसे होंगे, किन-किन देशों को क्या-क्या नुकसान-फायदे होंगे, इन सब के बारे में अभी कयास ही लगाये जा सकते हैं, कुछ ठोस कह पाना बहुत जल्दबाजी होगी, क्योंकि अभी ब्रिटेन को यूरोपियन यूनियन से हर स्तर पर अलग होने में डेढ़ से दो साल चलनेवाली लंबी अलगाव प्रक्रिया और कानूनी प्रावधानों से होकर गुजरना है. यूरोपियन यूनियन की लिस्बन ट्रीटी (संधि) के अनुच्छेद 50 के प्रावधानों के तहत ही ब्रिटेन के अलग होने की प्रक्रिया पूरी होगी. इस अनुच्छेद में किसी देश के अलग होने के लिए दो साल का समय निर्धारित है और सभी 28 देशों की आम-सहमति जरूरी है.
यानी जब तक इस विदाई संधि पर हस्ताक्षर नहीं हो जाता, तब तक ब्रिटेन इयू का सदस्य देश बना रहेगा. हालांकि, इस दौरान इयू से अलग होने के मामले में ब्रिटेन इयू के बाकी 27 सदस्य देशों के बीच होनेवाली चर्चाओं का हिस्सा नहीं होगा. जाहिर है, अलग होने की प्रक्रिया इतनी आसान नहीं है, और एक बार अलग होने के बाद दोबारा जुड़ने की प्रक्रिया भी कुछ ऐसी ही मुश्किल भरी होगी.
प्रभावित होंगे भारत के साथ राजनीतिक एवं कूटनीतिक रिश्ते
जहां तक भारत और ब्रिटेन के रिश्ते की बात है, तो इसे राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और कूटनीतिक श्रेणियों में अलग-अलग बांट कर देखना होगा. पहले राजनीतिक रिश्ते की बात करते हैं, जिस पर असर पड़ना लगभग तय है. भारत और ब्रिटेन के बीच बहुत अच्छा राजनीतिक रिश्ता है.
यह रिश्ता काफी समय से चला चला आ रहा है, स्थायी है और बहुत मजबूत है. इस रिश्ते के काफी प्रभावित होने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि दोनों देशों के प्रधानमंत्री अलग-अलग मुद्दों पर एकजुट होकर काम करने के लिए विचार-विमर्श करते रहे हैं. अब जबकि ब्रिटेन के प्रधानमंत्री डेविड कैमरून ने इस्तीफा दे दिया है और वे अक्तूबर से पहले अपने कार्यभार से मुक्त हो जायेंगे, तब इस स्थिति में यह मुश्किल है कि कैमरून भारत का किसी स्तर पर समर्थन कर पायें. यह स्वाभाविक भी है.
ऐसे में हमें देखना होगा कि अक्तूबर के बाद ब्रिटेन का जो अगला प्रधानमंत्री होगा, क्या वह भारत के साथ वैसा सहयोग करेगा, जैसा कैमरून कर रहे थे. स्वाभाविक है कि जो भी नया प्रधानमंत्री होगा, उससे नये सिरे से बातचीत होगी, नये तरह के रिश्ते का सूत्रपात होगा, फिर कुछ राजनीतिक मुलाकातों के बाद शायद रिश्तों में कोई प्रगाढ़ता आये, लेकिन अभी इसमें बहुत वक्त लगना बाकी है.
हालांकि मुझे लगता है कि ऊपरी तौर पर भले भारत-ब्रिटेन के राजनीतिक रिश्ते प्रभावित होंगे, लेकिन बुनियादी स्तर पर भारत-ब्रिटेन रिश्तों में कोई बड़ा प्रभाव देखने को नहीं मिलेगा, क्योंकि इसके ऐतिहासिक कारण हैं- भारत और ब्रिटेन ऐतिहासिक रूप से सदियों से एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं.
आर्थिक संबंधों और आयात-निर्यात पर भी असर तय
जहां तक आर्थिक असर की बात है, तो यह जनमत संग्रह के नतीजे आने के फौरन बाद ही पता चल गया था कि नुकसान काफी बड़ा हो सकता है, जब शेयर बाजारों में भारी गिरावट दर्ज की गयी थी. अनुमानों की मानें तो यह ‘टिप ऑफ दि आइस बर्ग’ है यानी यह नुकसान अभी सुई की नोक के बराबर ही है, हो सकता है कि आगे आनेवाले समय में पूरी सुई बराबर असर दिख जाये! यूरोपियन यूनियन के इतिहास में पहली बार हुई यह परिघटना एक ऐसे रोमांचकारी नॉवेल की तरह लगती है, जिसका कोई अंत अभी लिखा नहीं जा सका है.
ऐसे में आर्थिक नफा-नुकसान को लेकर हर किसी का अपना-अपना अनुमान है, लेकिन वास्तव में क्या होना है, यह तो आनेवाले उस समय पर निर्भर है, जिसमें अलग होने के बाद अर्थ-व्यापार की अलग-अलग नीतियां बनेंगी. इतना जरूर है कि वैश्विक मुक्त बाजार के इस दौर में ऐसी घटनाओं का ग्लोबल मार्केट पर असर होगा ही. ऐसे में भारत अप्रभावित कैसे रहेगा, जबकि भारत में दुनिया का तीसरा बड़ा निवेशक है ब्रिटेन. इसके ऐतिहासिक कारण हैं कि भारत और ब्रिटेन एक-दूसरे से वर्षों से जुड़े हुए हैं. इस निवेश पर थोड़ा असर जरूर पड़ेगा और भारत में एफडीआइ की कमी आ सकती है.
बंद होगी भारतीय सामानों की इयू में आसान पहुंच
साल 1986 में यह तय किया गया था कि यूरोपियन यूनियन की अर्थव्यवस्था के कुछ मुख्य पहलुओं- कैपिटल, लेबर, आइडियाज- वगैरह पर कोई रोक-टोक नहीं होगा. यानी अगर भारत अपना सामान ब्रिटेन में भेज देता है, तो वहां से यूनियन के सभी देशों में आसानी से पहुंच जाता है. अब यह काम मुश्किल होगा. जब एक-दो साल में यूरोपियन यूनियन से ब्रिटेन पूरी तरह से अलग हो जायेगा, तो खुद ब्रिटेन को भी बाकी सभी 27 देशों के साथ आयात-निर्यात के लिए नये समीकरण बनाने होंगे और नियम-कानून बनाने होंगे. इसका सीधा असर भारत के यूरोप में निर्यात पर पड़ेगा.
भारत की तकरीबन 800 कंपनियां ब्रिटेन में काम करती हैं. अलग होने के बाद कॉमन मार्केट न होने की वजह से इन कंपनियों को अपने सामान निर्यात करने में मुश्किलें आयेंगी और इससे सामानों के दाम भी बढ़ जायेंगे. यहीं इस बात की भी संभावना बढ़ जाती है कि हमारे देश की कंपनियां अपने बिजनेस को ब्रिटेन से निकाल कर अब यूरोप के किसी ऐसे देश में यानी जर्मनी या फ्रांस जैसे देशों में ले जाने की कोशिश कर सकती हैं, जहां से वे पूरे यूरोप में कॉमन मार्केट के तहत आसानी से अपना व्यापार कर सकेंगी. लेकिन यह संभावना इस बात पर निर्भर करेगी कि भारत के यूरोप में बिजनेस का कितना प्रतिशत हिस्सा ब्रिटेन में है और कितना प्रतिशत बाकी 27 यूरोपीय देशों में है.
अब भारत को एक नये यूरोपीय देश की तलाश होगी, जहां से वह अपना बिजनेस पूरे यूरोप में कर सके.
सीरिया संकट को राजनीति ने बड़ा मुद्दा बना दिया
यह बात सच है कि सीरिया संकट ने यूरोप को शरणार्थियों की पनाहगाह बना दिया है. यूरोप के कई राष्ट्रों, खासतौर से जर्मनी ने शरणार्थियों को पनाह देने की पहल की थी. इयू के सारे देशों की इस पर सहमति नहीं थी, फिर भी शरणार्थियों को पनाह मिली. पोलैंड, हंगरी और ब्रिटेन जैसे देशों ने ज्यादा विरोध किया कि वे इन शरणार्थियों को पनाह नहीं देंगे. लेकिन, यह बात उतनी सही नहीं है कि शरणार्थियों के यूरोप में पनाह लेने से वहां नौकरियों का संकट उत्पन्न हुआ है. बड़ी ही छोटी सी बात है कि कोई देश शरणार्थियों को कौन सी नौकरियां देगा? शरणार्थियों को पहले शरणार्थी शिविर में ले जाया जाता है और फिर उनके बारे में सोचा जाता है.
ऐसा तो है नहीं कि वे फौरन ही लेबर मार्केट में उतर जायेंगे. क्या ब्रिटेन में नौकरी देने की प्रक्रिया इतनी आसान है कि कहीं से कोई भाग कर आयेगा और उसे तुरंत नौकरी मिल जायेगी? क्या डॉक्यूमेंट नाम की कोई चीज नहीं होती? मुझे इस बात पर यकीन नहीं आता. लेकिन, राजनीति ने इसको मुद्दा बना दिया और इतना उछाला कि लगा जैसे शरणार्थी आ रहे हैं इसलिए वहां नौकरियां जा रही हैं. ब्रिटेन को रेफरेंडम (जनमत संग्रह) की ओर ले जाने का काम वहां की राजनीति ने किया है. ब्रिटेन का इतिहास बताता है कि उसने हमेशा दूसरे देशों के लोगों को अपने में शामिल करता रहा है और इससे उसकी अर्थव्यवस्था भी मजबूत होती रही है.
ब्रिटेन शुरू से ही बरत रहा था कई सावधानियां
ब्रिटेन यूरोपियन यूनियन की कॉमन करेंसी यूरो का सदस्य नहीं है. यूरो में भी सिर्फ 19 सदस्य देश हैं. ब्रिटेन ने कहा था कि वह दो चीजों के साथ नहीं जुड़ना चाहेगा- एक तो इयू की कॉमन करेंसी यूरो के साथ और दूसरा कॉमन वीजा प्रोग्राम के साथ. इसलिए ब्रिटेन की अपनी करेंसी पाउंड है और उसकी अपनी वीजा पॉलिसी है. ब्रिटेन जाने के लिए इयू से बाहरी देशों को पहले भी अलग वीजा लेना पड़ता था और अब भी पड़ेगा. जब ब्रिटेन की वीजा पॉलिसी बदल जायेगी, तब भी इसका असर इयू से बाहर के देशों पर नहीं पड़ेगा, बल्कि इयू के देशों पर पड़ेगा, क्योंकि इयू के ज्यादातर सदस्य देशों के बीच आने-जाने में कोई वीजा नहीं लगता है.
कुल मिलाकर, ब्रिटेन अभी जिस हालत में है, इससे उबरने में उसे कितना वक्त लगेगा, यह अलग होने के बाद उसकी आर्थिक नीतियां ही बता पायेंगी. लेकिन यह निश्चित है कि ब्रिटेन कोशिश करेगा कि पहले वह इस भूचाल से निकले, फिर आर्थक रूप से खुद को संभालने की कोशिश करे.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
ब्रेक्जिट का भारत पर असर
20वीं सदी के मध्य में द्वितीय विश्वयुद्ध से उबर रही दुनिया ने वैश्वीकरण की अवधारणा को तेजी से अपनाना शुरू किया. संयुक्त राष्ट्र (यूएन) के गठन के बाद अंतरदेशीय संबंधों के समीकरण बदलने लगे. सदी के अंतिम दशक तक वैश्विक उदारीकरण की अवधारणा भारत सहित दुनिया के तमाम देशों तक पहुंच चुकी थी. छह देशों के साथ वर्ष 1957 में यूरोपीय संघ का गठन हुआ. यूके यूरोपीय संघ में 1973 में शामिल हुआ.
हालांकि, इयू के सदस्य देशों द्वारा ‘यूरो’ अपनाने के बावजूद यूके ने अपनी मुद्रा पौंडको जारी रखा. अब जिस तरह से ब्रिटेनवासियों ने यूरोपीय संघ से अलग होने का फैसला किया है, उससे 21वीं सदी में वैश्वीकरण अवधारणा के स्वरूप में बदलाव के रूप में देखा जा सकता है. प्रवासियों की लगातार बढ़ती संख्या, आर्थिक अस्थिरता, रोजगार जैसे तमाम कारणों से राष्ट्रवादी और नस्लवादी सोच न केवल यूरोपीय देशों, बल्कि बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों में अपनी जड़ें मजबूत कर रही है.
ब्रिटेन के इस जनमत संग्रह के परिणाम के बाद दुनिया में मची आर्थिक हलचल विशेषकर स्टॉक और करेंसी में गिरावट का असर उभरती अर्थव्यवस्थावाले देशों को सबसे अधिक प्रभावित करेगा. विकास के पथ पर तेजी से चलने को आतुर भारत इस समय विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए जी-तोड़ मेहनत कर रहा है, लेकिन ब्रिटेन के अगले दो वर्षों के भीतर यूरोपीय संघ से अलग होने से यहां अरबों डॉलर का निवेश प्रभावित हो सकता है.
यूरोप में व्यापार करनेवाली भारतीय कंपनियों को इस चुनौती से निपटने के लिए यूरोपीय संघ और ब्रिटेन के साथ नये सिरे से काम करना होगा. हालांकि, यूरोपीय संघ से अलग होने की प्रक्रिया अभी दो साल में पूरी होगी. ऐसे में यदि ब्रिटेन को यूरोपीय संघ से मिलनेवाले व्यापार नियमों में छूट जारी रहती है, तो भारत को काफी हद तक राहत मिल सकती है. भारत-ब्रिटेन संबंध और ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से अलग होने के संभावित असर पर नजर डाल रहा है आज का यह विशेष पेज.
के बाद ब्रिटिश अर्थव्यवस्था !
ब्रिटेन के सबसे बड़े व्यापारिक साझेदार यूरोपीय संघ के साथ संबंधों में दिशा परिवर्तन होना लाजिमी है. बाजार में जिस तरह से उतार-चढ़ाव शुरू हुआ है, वह ब्रिटेन को मंदी की चपेट में भी धकेल सकता है.
यूरोपीय यूनियन के हिमायती डेविड कैमरन के इस्तीफे के बाद ब्रिटेन के सामने इयू के साथ रिश्तों को सामान्य रख पाने की भी बड़ी चुनौती होगी. ब्रिटेन के इस फैसले से इयू के सदस्य देश खुश नहीं हैं. ऐसे में इयू ब्रिटेन के साथ कड़े बर्ताव कर सकता है. यूके सरकार का मानना था कि इयू के साथ रहने पर ब्रिटिश अर्थव्यवस्था 3.8 से 7.5 प्रतिशत छोटी हो सकती है. आलोचकों का मानना है कि ब्रिटेन यह फैसला अर्थव्यवस्था को बड़े स्तर पर प्रभावित करेगा.
स्टॉक मार्केट की घबराहट लंबे समय तक नहीं रहेगी
शशांक
पूर्व विदेश सचिव
भारत का एक बेहतरीन मित्र देश है ब्रिटेन, जो अब यूरोपियन यूनियन से अलग हो जायेगा. ब्रिटेन के इयू से अलग होने का असर भारत के कई क्षेत्रों में देखने को मिल सकता है. इसका सबसे बड़ा असर तो यही होगा कि भारत को हर स्तर पर- राजनीतिक, कूटनीतिक और आर्थिक- अब यूरोपीय यूनियन और ब्रिटेन, दोनों के साथ अलग-अलग रिश्ते बनाने की जरूरत पड़ेगी, जिसके चलते सभी देशों पर एक प्रकार का राजनीतिक, कूटनीतिक और आर्थिक बोझ बढ़ेगा.
दरअसल, भारत के हर स्तर के रिश्तों को, मसलों-मुद्दों को यूरोपियन यूनियन तक पहुंचाने में ब्रिटेन की महत्वपूर्ण भूमिका होती रही है, जिसकी अब आगे आनेवाले वक्त में कोई उम्मीद नहीं की जा सकती. इयू से ब्रिटेन के पूरी तरह से अलग हो जाने के बाद भारत को अपनी सामरिक भागीदारी (स्ट्रैटजिक पार्टनरशिप) बदलनी पड़ेगी और इसे अब ब्रिटेन और इयू के नजरिये से अलग-अलग करके देखना होगा. आर्थिक भागीदारी को बढ़ाने और आयात-निर्यात के लिए अब अलग-अलग व्यापारिक क्षेत्रों का निर्धारण करना होगा और बातचीत भी अलग-अलग करनी होगी. इयू के साथ भारत के कई द्विपक्षीय करार हैं, जिसे अब नये सिरे से देखना होगा.
हालांकि, स्टॉक मार्केट पर फिलहाल जो असर दिख रहा है, वह लंबे समय तक नहीं बना रहेगा और बाद में चल कर स्थितियां सामान्य हो जायेंगी, ऐसा अनुमान है. ऐसा इसलिए, क्योंकि दुनियाभर में इयू की आर्थिक सहभागिता तो बनी ही रहेगी. ब्रिटेन के अलग होने की खबरों के बाद जिस तरह से दुनिया के शेयर मार्केट गिरे, उसकी जरूरत तो नहीं दिख रही थी, क्योंकि मेरे ख्याल में मुख्य प्रभाव तो इयू और ब्रिटेन के मार्केट पर पड़ना चाहिए था.
यह भी माना जा रहा है कि ब्रिटेन में काम करनेवाले भारतीय लोगों और भारतीय कंपनियों पर इसका व्यापक असर पड़ेगा. लेकिन मुझे ऐसा नहीं लगता, क्योंकि ब्रिटेन में मौजूद भारतीय कंपनियों में ज्यादातर कर्मचारी तो वहीं के हैं, भारतीय लोग बहुत कम हैं. हां इन कंपनियों के स्टॉक मार्केट पर असर जरूर पड़ेगा. कुल मिला कर देखें, तो भारत को जो द्विपक्षीय करार सिर्फ इयू से करने होते थे, अब उसे अलग से ब्रिटेन से भी करने होंगे.
(बातचीत पर आधारित)
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