सब्सिडी : कल्याण या राजनीति? मुफ्तखोरी के दुष्चक्र में फंसता देश
ज्यादातर देशों में एक ओर जहां राजनीतिक पार्टियां चुनाव जीतने के लिए मुफ्तखोरी को हथियार बनाती हैं, वहीं इसी दुनिया में स्विटजरलैंड जैसा भी एक देश है, जहां की जनता ने सरकार की इस पेशकश को ठुकरा दिया. दूसरी तरफ भारत में देखें तो राजनीतिक पार्टियां और सरकारें मतदाताओं को लुभाने के लिए मुफ्तखोरी को […]
ज्यादातर देशों में एक ओर जहां राजनीतिक पार्टियां चुनाव जीतने के लिए मुफ्तखोरी को हथियार बनाती हैं, वहीं इसी दुनिया में स्विटजरलैंड जैसा भी एक देश है, जहां की जनता ने सरकार की इस पेशकश को ठुकरा दिया. दूसरी तरफ भारत में देखें तो राजनीतिक पार्टियां और सरकारें मतदाताओं को लुभाने के लिए मुफ्तखोरी को बढ़ावा देनेवाली नीतियों को प्रश्रय देती रहती हैं
भारत जैसे कल्याणकारी राज्य में सब्सिडी एक जरूरी व्यवस्था है, लेकिन समुचित प्रबंधन और प्रशासकीय लापरवाही के कारण उसका पूरा लाभ इसके वास्तविक हकदारों को नहीं मिल पाता है. चीजों को मुफ्त बांटने की नीति की वजह से राजकोष पर बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है और विकास की योजनाओं के लिए धन की कमी भी हो रही है.
सर्वोच्च न्यायालय और निर्वाचन आयोग के निर्देशों के बावजूद मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए मुफ्त बिजली-पानी से लेकर विभिन्न तरह के भत्तों और रंगीन टीवी तक के वादे किये जाते हैं. लोकलुभावन चुनावी घोषणाओं तथा सब्सिडी के बढ़ते बोझ से उपजे परिदृश्य पर बहस की जरूरत को रेखांकित कर रहा है आज का संडे इश्यू.
ज्यादातर देशों में एक ओर जहां राजनीतिक पार्टियां चुनाव जीतने के लिए मुफ्तखोरी को हथियार बनाती हैं, वहीं इसी दुनिया में स्विटजरलैंड जैसा भी एक देश है, जहां की जनता ने सरकार की इस पेशकश को ठुकरा दिया. दूसरी तरफ भारत में देखें तो राजनीतिक पार्टियां और सरकारें मतदाताओं को लुभाने के लिए मुफ्तखोरी को बढ़ावा देनेवाली नीतियों को प्रश्रय देती रहती हैं
भारत जैसे कल्याणकारी राज्य में सब्सिडी एक जरूरी व्यवस्था है, लेकिन समुचित प्रबंधन और प्रशासकीय लापरवाही के कारण उसका पूरा लाभ इसके वास्तविक हकदारों को नहीं मिल पाता है. चीजों को मुफ्त बांटने की नीति की वजह से राजकोष पर बोझ लगातार बढ़ता जा रहा है और विकास की योजनाओं के लिए धन की कमी भी हो रही है.
सर्वोच्च न्यायालय और निर्वाचन आयोग के निर्देशों के बावजूद मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए मुफ्त बिजली-पानी से लेकर विभिन्न तरह के भत्तों और रंगीन टीवी तक के वादे किये जाते हैं. लोकलुभावन चुनावी घोषणाओं तथा सब्सिडी के बढ़ते बोझ से उपजे परिदृश्य पर बहस की जरूरत को रेखांकित कर रहा है आज का संडे इश्यू.
मोहन गुरुस्वामी
अर्थशास्त्री
भारत में मुफ्तखोरी सिर्फ एक विकृत संस्कृति या समस्याभर नहीं है, बल्कि यह अफीम या किसी खतरनाक ड्रग के नशे की तरह है. हर कोई इस नशे का शिकार हो रहा है, चाहे मुफ्त खानेवाला हो या फिर मुफ्त खिलानेवाला. लोगों में मुफ्त खाने-खिलाने की एक आदत सी बन गयी है. मजे की बात यह है कि हमारी सरकारों ने अपनी लोकलुभावन राजनीति के तहत इसे और भी बढ़ा दिया है. जिसे देखो वही जनता को कुछ-न-कुछ मुफ्त बांटे जा रहा है.
जिस तरह से तमिलनाडु ने टीवी, मिक्सर बांटा है, उत्तर प्रदेश ने लैपटॉप बांटा है, और अन्य कई राज्यों ने भी बहुत कुछ बांटा है, इसे देख कर तो यही लगता है कि जिसको जिस किसी चीज की वास्तव में ज्यादा जरूरत है, उसे वह चीज नहीं मिल रही है. मसलन, अगर किसी को स्वास्थ्य सेवाओं की जरूरत है या किसी को शिक्षा की बहुत जरूरत है, तो उसे टीवी या लैपटॉप देने से क्या फायदा मिलेगा? इसको हम ‘नाहक सब्सिडी’ (अनडिजर्व्ड सब्सिडी) कहते हैं, यानी एक ऐसी सब्सिडी जो जरूरतमंद के किसी काम न आये.
इस तरह की राजनीति देश की मूल समस्याओं का उन्मूलन नहीं कर सकती. सब्सिडी को लेकर सोच सही नहीं होने के कारण ही आज भी हमारे दूर-दराज के गांवों में स्कूल-कॉलेजों और प्राथमिक चिकित्सालयों की कमी है.
इस कमी के चलते स्वास्थ्य और शिक्षा का स्तर नीचे गिर रहा है. यह एक गंभीर समस्या है, इसलिए इसे खत्म करने के लिए एक संवैधानिक सुधार की जरूरत है कि कोई सरकार एक सीमा के बाद किसी को कुछ भी नहीं दे सकती. सरकार को चाहिए कि वह इस नाहक सब्सिडी को पूरी तरह से खत्म करने की कोशिश करे, क्योंकि इससे देश के जरूरतमंद लोगों को नुकसान होता है और उन्हें गैरजरूरी चीजें मुहैया करायी जाती हैं.
इसी कड़ी में मेरा मानना है कि हज पर सब्सिडी देने की भी कोई जरूरत नहीं है. इसलाम में यह कहा गया है कि मुसलमान को अपने पैसे से हज करने जाना चाहिए. असदुद्दीन ओवैसी जैसा नेता भी हमेशा इस बात को कहता रहा है कि हज से सब्सिडी की रकम को निकाल देनी चाहिए और उस रकम से मुसलिम लड़कियों के लिए स्कूल-कॉलेज खोले जाने चाहिए. हमारी सरकारों को भी यही सोच अपनानी होगी, ताकि देश के लोग मुफ्तखोर न बनें, बल्कि पढ़-लिख कर खुद से सक्षम बनें.मगर विडंबना यह है कि मुफ्तखोरी की ऐसी आदत हो गयी है, कि राजनीति इसे खत्म हाेने ही नहीं देगी.
लोग सरकार से इस बात की उम्मीद नहीं लगाते कि उन्हें टीवी मिलेगी या मिक्सर, लैपटॉप मिलेगा या साड़ी. यह तो हमारी सरकारों ने ही अपनी लोकलुभावन राजनीति के तहत जनता को मुफ्तखोर बनाती रही हैं. आम आदमी सरकार से इन सब चीजों की उम्मीद नहीं रखता, लेकिन सरकारें खुद उनके पास जाकर लालच दिखाती हैं. उनके मन में यह घर कर जाता है कि ये नेता उन्हें जरूरत की चीज तो देने से रहे, जो मिल रहा है उसे क्यों न ले लें. इस तरह लालच बढ़ कर आदत बन जाती है. अगर जनता मुफ्तखोरी की आदी हो गयी है, तो इसमें उसका उतना दोष नहीं जितना कि सरकारों का है.
आरबीआइ गवर्नर रघुराम राजन ने ठीक ही कहा था कि बड़ी-बड़ी कंपनियां और बड़े-बड़े पूंजीपति सबसे ज्यादा मुफ्तखोर हैं. यह सौ प्रतिशत सही बात है. तमाम बड़ी कंपनियों और पूंजीपतियों को मुफ्त की जमीन चाहिए, इन्हें टैक्स में छूट चाहिए, हर चीज पर सब्सिडी चाहिए. ये लोग बैंक का पैसा लूटते हैं, जगह-जमीन का कम से कम रेंट देते हैं, और ये हर तरह की रियायतें चाहते हैं. सरकारें भी इन्हें वह सब कुछ देने को तैयार रहती हैं, जो वे चाहते हैं.
पिछले 60 साल से यही हो रहा है और आज भी देश की 65 करोड़ की आबादी गरीबी रेखा से नीचे जीने के लिए मजबूर है. आज देश में मौजूदा पूंजी निवेश से कहीं ज्यादा पैसा सब्सिडी में खर्च हाे जाता है. अगर भारत से मुफ्तखोरी खत्म हो जाये, तो देश में पूंजी निवेश दोगुना हो जायेगा. पुल, सड़कें, स्कूल, अस्पताल आदि के निर्माण में इजाफा हो जायेगा, उद्योग तेजी से बढ़ेंगे और अर्थव्यवस्था बूम कर जायेगी. अगर मुफ्तखोरी खत्म नहीं हुई, तो जैसे देश चल रहा है पिछले छह-सात दशकों से, वैसे ही चलता रहेगा और हम अपनी तमाम समस्याओं पर रोते रहेंगे.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
एक लाख करोड़ से अधिक सब्सिडी धनी लोगों को
वर्ष 2016 के आर्थिक सर्वे के अनुसार, भारत में धनी लोगों को एक लाख करोड़ रुपये से अधिक की सब्सिडी मिलती है, जो वास्तव में गरीबों के लिए निर्धारित है. इस आंकड़े में सिर्फ छह वस्तुओं, रेलवे, बिजली और पब्लिक प्रॉविडेंट फंड के ही अनुदान शामिल हैं. मुख्य आर्थिक सलाहकार और सर्वे के प्रमुख लेखक अरविंद सुब्रमण्यन का कहना है कि मुख्य रूप से धनी लोगों द्वारा उपभोग की जानेवाली वस्तुओं पर लगनेवाले करों की दर बहुत कम है और इसका मतलब यह है कि गरीबों की कीमत पर धनी लोगों को सब्सिडी दी जा रही है.
उदाहरण के लिए देश में 98 फीसदी सोना धनी लोग इस्तेमाल करते हैं, पर केंद्र और राज्यों को मिला कर इस पर मात्र 1 से 1.6 फीसदी कर ही लगता है. किरासन की सब्सिडी का 88 फीसदी यानी 5,501 करोड़ तथा रसोई गैस की सब्सिडी का 86 फीसदी यानी 40,151 करोड़ धनी लोगों के खाते में जाता है. हवाई जहाज के ईंधन पर औसत कर 20 फीसदी है, जबकि डीजल और पेट्रोल पर क्रमशः 55 और 61 फीसदी (जनवरी, 2016) कर लगता है.
तमिलनाडु में अम्मा का महामुफ्तवाद!
लोकलुभावन वादे कर चुनावी राजनीति करने के मामले में देश में तमिलनाडु का स्थान अद्वितीय है. राज्य में मुख्यमंत्री जयललिता के समर्थक ‘अम्मा’ के नाम से पुकारते हैं. राज्य सरकार के लगभग हर कल्याणकारी कार्यक्रम के साथ अम्मा संज्ञा जुड़ी होती है. शहरी क्षेत्रों में गरीबों को बहुत ही सस्ते दाम पर अच्छा खाना खिलाने के लिए करीब 550 अम्मा कैंटीन खोले गये हैं.
वर्ष 2013 में सलेम नगरपालिका क्षेत्र में किये गये एक अध्ययन से पता चला था कि अम्मा कैंटीनों का लाभ उठानेवाले 58 फीसदी लोगों की मासिक आय पांच से दस हजार के बीच थी. शेष लोग शहरी मध्यवर्ग से थे. वर्ष 2011 में सत्ता में आते ही जयललिता ने 1.91 करोड़ चावल कार्डधारियों को मुफ्त चावल देने की नीति शुरू की थी. इसके अलावा मिनरल वाटर, नमक और सीमेंट पर सब्सिडी देने की भी घोषणा की गयी थी. ये सभी कार्यक्रम ‘अम्मा’ ब्रांड के तहत लागू हुए थे. छात्रों और ग्रामीण क्षेत्र के गरीबों के लिए मुफ्त में बिजली के पंखे, इंडक्शन चूल्हे, धोती, साड़ी, लैपटॉप, साइकिल तथा दुधारू गायें, बकरियां और भेड़ें वितरित की गयी थीं. ये काम अब भी बदस्तूर जारी हैं.
तमिलनाडु में लोकलुभावन राजनीति का इतिहास
राज्य में लोकलुभावन राजनीति का इतिहास 1977 में एमजी रामचंद्रन के मुख्यमंत्री बनने के साथ शुरू होता है, जब उन्होंने स्कूली बच्चों के लिए मिड-डे मील स्कीम की घोषणा की थी. हालांकि यह एक कल्याणकारी योजना थी, लेकिन इससे मुफ्त वितरण की संस्कृति का आरंभ भी हुआ. वर्ष 2006 में करुणानिधि ने रंगीन टेलीविजन का वादा कर चुनावी जीत हासिल कर ली थी.
इस साल मई में फिर सरकार बनाने के साथ ही जयललिता ने 5,780 करोड़ के किसानों के कर्ज, घरेलू ग्राहकों के लिए 100 यूनिट मुफ्त बिजली (1,607 करोड़) तथा बुनकरों के लिए 750 यूनिट मुफ्त बिजली देने का आदेश जारी किया. फिलहाल राज्य में सब्सिडी और अन्य ऐसे मदों में सालाना करीब 62,500 करोड़ खर्च होता है.
गरीबी निवारण में सफलता
यह सही है कि पब्लिक सर्विस में सक्षमता से राज्य में बीते एक दशकों में गरीबी निवारण में अभूतपूर्व सफलता मिली है. सार्वजनिक वितरण प्रणाली में लीकेज भी तमिलनाडु में महज छह फीसदी है, जबकि देश के बाकी हिस्सों में यह बर्बादी 40 से 50 फीसदी तक है.
परंतु, मुफ्त में चीजों को बांटने के अंतहीन सिलसिले का असर राज्य के वित्तीय स्वास्थ्य पर गंभीर रूप से पड़ा है. वर्ष 2012-13 से सकल घरेलू उत्पादन की तुलना में वित्तीय घाटा लगातार बढ़ रहा है. तब का 2.2 फीसदी घाटा 2015-16 में 2.9 फीसदी हो गया है. हालांकि यह अब भी तीन फीसदी के ऊपरी सीमा से कुछ कम है, परंतु 2017-18 में सातवें वेतन आयोग को राज्य में लागू करने के बाद इसमें और वृद्धि होगी. प्रति व्यक्ति आय के मामले में शीर्ष के राज्यों में होने के कारण केंद्र का आवंटन भी अपेक्षाकृत कम होता है. ऐसे में तमिलनाडु की अधिक निर्भरता अपने संसाधनों पर है और उसे पूंजी निवेश बढ़ाने के लिए कोशिश करनी होगी.
स्विटजरलैंड : नागरिकों ने ठुकरा दी मुफ्तखोरी की पेशकश
ज्यादातर देशों में एक ओर जहां राजनीतिक पार्टियां चुनाव जीतने के लिए मुफ्तखोरी को हथियार बनाती हैं, वहीं स्विटजरलैंड जैसा देश भी है, जहां की जनता ने सरकार की इस पेशकश को ठुकरा दिया. दरअसल, स्विटजरलैंड सरकार ने ‘बेसिक इनकम गारंटी’ नाम से एक जनमत संग्रह कराया, जिसके तहत नागरिकों को प्रतिमाह डेढ़ लाख रुपये देने का प्रावधान किया गया था, लेकिन दो तिहाई से अधिक जनता ने इस प्रस्ताव के खिलाफ अपना मत दिया.
दुनिया के अमीर देशों में शुमार स्विटजरलैंड ने जून माह में अपने नागरिकों से जन कल्याणकारी नीतियों में बदलाव के संदर्भ में मत मांगा था. इसके पक्ष में 23 प्रतिशत लोगों ने वोट दिया, तो वहीं इसके खिलाफ 77 प्रतिशत ने वोट किया. हालांकि, फेडरल काउंसिल और संसद को इस बात का भय था कि यदि यह प्रस्ताव पारित हो जाता है, तो काम को चुननेवालों की संख्या में तेजी से कमी आयेगी. इससे सरकार को हर माह सभी नागरिकों और नागरिकता लेनेवाले विदेशियों को प्रतिमाह वेतन देना पड़ता. स्विटजरलैंड दुनिया का पहला ऐसा देश हैं, जहां नागरिकों के बीच वेतन देने का ऐसा प्रस्ताव रखा गया.
आंध्र प्रदेश में रेवड़ियां बांटने की चंद्रबाबू की नीति
आर्थिक सुधारों और तकनीक के व्यापक प्रसार के पक्षधर माने जानेवाले आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू 2004 और 2009 के चुनावी झटके के बाद लोक-लुभावन राजनीति की ओर तेजी से बढ़े हैं. आठ जून, 2014 को विभाजित आंध्र प्रदेश का मुख्यमंत्री बनते ही उन्होंने किसानों, बुनकरों एवं स्वयं सहायता समूहों के कर्जे को माफ करने की घोषणा की थी, जो उनका मुख्य चुनावी वादा था. उसी दिन उन्होंने वृद्धावस्था, विधवा और विकलांग पेंशन बढ़ाने, सभी गांवों में मिनरल वाटर पहुंचाने, गांवों में अवैध शराब की दुकाने बंद करने तथा सरकारी कर्मचारियों की सेवानिवृति की आयु 58 से बढ़ाकर 60 करने की घोषणा भी की थी.
बीते दो सालों में उनकी सरकार ने विभिन्न त्योहारों में राशन के मुफ्त पैकेट वितरित करने, शहरों में सस्ती दर के भोजनालय खोलने, सस्ती कीमत की आवासीय योजनाएं शुरू करने, गरीबों को मुफ्त चिकित्सा देने, सामाजिक सुरक्षा पेंशनों में पांच गुना तक की वृद्धि करने जैसे अनेक कदम उठाये हैं. वर्ष 2016-17 के लिए राज्य की दो प्रमुख ऊंची जातियों (ब्राह्मण और कापू) के कल्याण कॉरपोरेशन के लिए क्रमशः 65 और 1,000 करोड़ की राशि आवंटित की गयी है.
वर्ष 2004 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के वाइएस राजशेखर रेड्डी ने किसानों को मुफ्त बिजली देने का वादा कर जीत हासिल की थी. तब नायडू ने इसे असंभव बताते हुए विरोध किया था. लेकिन, लोकलुभावन नीतियों के कारण रेड्डी दुबारा भी जीते और उनकी लोकप्रियता बहुत बढ़ गयी. इस अनुभव ने नायडू को भी रेवड़ियां बांटने की नीति पर चलने के लिए विवश कर दिया.
यूपी में अखिलेश की मुफ्त सौगातें
वर्ष 2012 में सरकार बनाते ही अखिलेश यादव ने 35 साल से अधिक आयु के पंजीकृत बेरोजगारों को एक हजार रुपये का मासिक भत्ता देने का ऐलान किया था. इसके साथ ही, 12वीं और 10वीं के सफल छात्रों को लैपटॉप और टैबलेट देने का भी फैसला किया गया था. राज्य सरकार 10वीं कक्षा पास करनेवाली मुसलिम छात्राओं को आगे की पढ़ाई या शादी में सहयोग के लिए 30 हजार रुपये देती है. अनुमानित तौर पर ऐसी लड़कियों की संख्या करीब एक लाख तक हो सकती है और इस कार्यक्रम पर 300 करोड़ के खर्च का अनुमान है.
नौ लाख पंजीकृत बेरोजगारों को हजार रुपये के मासिक भत्ता देने से राजकीय कोष पर करीब 11 सौ करोड़ का अतिरिक्त भार पड़ता है. मुफ्त लैपटॉप और टैबलेट पर सालाना तीन हजार खर्च होता है. इन कार्यक्रमों में व्यापक अनियमितताओं की शिकायतें भी आती रहती हैं.
दिल्ली में राहत की बिजली और मुफ्त का पानी
पिछले साल सरकार में आते ही आम आदमी पार्टी ने अपने चुनावी वादे को पूरा करते हुए बिजली और पानी की दरों में भारी कटौती की घोषणा की थी. आर्थिक विशेषज्ञों के अनुसार, ऐसी पहलों से सब्सिडी का बोझ बढ़ेगा और इन्हें लंबे समय तक जारी रखना संभव नहीं हो सकेगा.
बिजली पर सब्सिडी से डेढ़ हजार करोड़ का बोझ
– 1,432 से 1,522.5 करोड़ रुपये के बीच बोझ राजकीय कोष पर हर साल बिजली की दरों को आधा करने से, बिजनेस स्टैंडर्ड के आकलन के मुताबिक. यह राशि 2014-15 के बजट अनुमानों का करीब चार फीसदी है.
बिजली उद्योग और यमुना पावर लिमिटेड के आंकड़ों के अनुसार-
– 540 से 600 करोड़ की सालाना सब्सिडी 21 लाख उपभोक्ताओं (शून्य से 200 यूनिट बिजली हर माह उपयोग करनेवाले) को. अब इन्हें चार रुपये प्रति यूनिट की जगह दो रुपये की दर पर बिजली मिल रही है.
– 892.5 से 922.3 करोड़ रुपये की सालाना सब्सिडी नौ लाख उपभोक्ताओं (200 से 400 यूनिट बिजली हर माह उपयोग करनेवाले) को. इन्हें 5.95 रुपये की जगह 2.96 रुपये की दर पर बिजली मिल रही है.
– 1,058.5 से 1,095 करोड़ की सालाना सब्सिडी 3.5 लाख उपभोक्ताओं (400 से 800 यूनिट बिजली हर माह उपयोग करनेवाले) को. इन्हें 7.3 रुपये की जगह 3.65 रुपये की दर से बिजली मिल रही है.
– दिल्ली में बिजली आपूर्ति कर रही एक कंपनी यमुना पावर लिमिटेड द्वारा दिल्ली विद्युत नियामक अधिकरण के सामने प्रस्तुत दस्तावेजों के अनुसार केंद्र सरकार की बिजली कंपनियों से 4.44 रुपये प्रति यूनिट तथा दिल्ली की कंपनियों से 5.60 रुपये प्रति यूनिट की औसत दर से बिजली खरीदी गयी थी 2013-14 में.
पानी पर भी सैकड़ों करोड़ की सब्सिडी
– 216 करोड़ रुपये सब्सिडी का खर्च है 20 किलोलीटर मुफ्त पानी देने में आम आदमी पार्टी के आकलन के मुताबिक. पानी के बिल में से सीवर चार्ज भी हटाये गये हैं.
– 665 करोड़ रुपये है मुफ्त पानी योजना में सब्सिडी का खर्च, दिल्ली जल बोर्ड के आंकड़ों के अनुसार.
– 36.6 लाख घरों में पानी की आपूर्ति होती है दिल्ली में. 81 फीसदी यानी 29.6 लाख घरों में पाइप से आपूर्ति होती है.
– 19 लाख के करीब परिवार 20 किलोलीटर से कम पानी उपयोग करते हैं हर महीने.
– 04 लाख के करीब कनेक्शन बिना मीटर के थे और इतने ही अन्य कनेक्शनों में खराब मीटर लगे थे 2012 में, दिल्ली जल बोर्ड के अनुसार.
– 15.43 रुपये का खर्च आता है एक किलोलीटर पानी को पीने लायक बनाने में, जल बोर्ड के अनुसार. लेकिन सरकारी सूत्रों और विशेषज्ञों के अनुसार इसमें पांच से सात रुपये का खर्च आता है, बिजनेस स्टैंडर्ड की रिपोर्ट के मुताबिक.
– 170 करोड़ रुपये की बढ़ोतरी हुई है जल बोर्ड के राजस्व में 2015-16 में, बोर्ड की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार.