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बाल मृत्यु दर में भारत की स्थिति अब भी चिंताजनक, बच्चों को मौत बांट रही बीमारियां

खस्ताहाल सेहत आर्थिक विकास की दौड़ में तेजी से आगे बढ़ रहे भारत में स्वास्थ्य के मामले में निराशाजनक प्रगति किसी से छिपी नहीं है. यूनाइटेड नेशंस चिल्ड्रेन्स इमर्जेंसी फंड (यूनिसेफ) द्वारा हाल में जारी रिपोर्ट ‘द स्टेट ऑफ द वर्ल्ड चिल्ड्रेन 2016’ में फिर से इसी बात की पुष्टि हुई है. रिपोर्ट के मुताबिक […]

खस्ताहाल सेहत
आर्थिक विकास की दौड़ में तेजी से आगे बढ़ रहे भारत में स्वास्थ्य के मामले में निराशाजनक प्रगति किसी से छिपी नहीं है. यूनाइटेड नेशंस चिल्ड्रेन्स इमर्जेंसी फंड (यूनिसेफ) द्वारा हाल में जारी रिपोर्ट ‘द स्टेट ऑफ द वर्ल्ड चिल्ड्रेन 2016’ में फिर से इसी बात की पुष्टि हुई है.
रिपोर्ट के मुताबिक 2015 में भारत में पांच साल से कम उम्र के करीब 12.6 लाख बच्चों की मृत्यु ऐसी बीमारियों के चलते हो गयीं, जिनका इलाज मुमकिन है. आखिर कौन-कौन सी बीमारियां भारत में बच्चों को असमय मौत बांट रही हैं, क्या हैं उनके लक्षण और बचाव के उपाय आदि के बारे में बता रहा है यह आलेख…
देश में शिशुओं के स्वास्थ्य की देखभाल की दशा चिंताजनक बनी हुई है. यूनिसेफ (यूनाइटेड नेशंस चिल्ड्रेन्स इमर्जेंसी फंड) द्वारा हाल मेें जारी रिपोर्ट ‘द स्टेट ऑफ द वर्ल्ड चिल्ड्रेन 2016’ में कहा गया है कि भारत और नाइजीरिया जैसे देशों में आर्थिक गतिविधियों में भले ही तेजी आ गयी हो, लेकिन बाल मृत्यु दर (पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु) के हालात बेहद भयावह हैं. साल 2015 में भारत में करीब 2.5 करोड़ बच्चों का जन्म हुआ, जिनमें से करीब 12 लाख बच्चों की मृत्यु पांच साल की आयु से पहले ही ऐसी बीमारियों के चलते हो गयीं, जिनका निदान या उपचार मुमकिन है.
हालांकि, इस मामले में भारत की स्थिति में 1990 के मुकाबले काफी सुधार आया है. वर्ष 1990 में जहां जन्म लेनेवाले प्रत्येक 1,000 बच्चों में से 146 बच्चे पांच साल से ज्यादा उम्र तक नहीं जीवित रह पाते थे, वहीं अब यह आंकड़ा सिमट कर 48 पर आ गया है.
इस लिहाज से भारत की स्थिति अब पड़ोसी देश पाकिस्तान और अफगानिस्तान से भले ही बेहतर हो गयी है, लेकिन आर्थिक रूप से भारत से कम आंके जानेवाले पड़ोसी देशों- नेपाल और बांग्लादेश से अब भी खराब है. नेपाल में पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर हजार में 36 है, जबकि बांग्लादेश में 38 और चीन में केवल 11 है.
भारत में अधिक बाल मृत्यु दर का एक दुखद पहलू यह भी है कि हर साल लाखों बच्चे ऐसी बीमारियों के चलते मौत के मुंह में जा रहे हैं, जो निदानयोग्य हैं यानी जिनका इलाज मुमकिन है.
भारत में जिन चार प्रमुख बीमारियों के चलते पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों को जान से हाथ धोना पड़ता है, वे हैं- प्रीमैच्योर एंड नीओनेटल बर्थ कॉम्प्लीकेशन यानी समयपूर्व जन्म की विविध जटिल समस्याएं (39 फीसदी), निमोनिया (14.9 फीसदी), डायरिया (9.8 फीसदी) और सेप्सिस (7.9 फीसदी). इसके अलावा, कुपोषण, टीकाकरण और शुद्ध पेयजल की कमी भी इस दिशा में बड़ी चुनौती हैं.
यूनिसेफ की रिपोर्ट का अनुमान है कि यदि सरकारों ने अपना रवैया नहीं बदला, तो साल 2030 तक दुनिया में उपचार योग्य बीमारियों के चलते 6.9 करोड़ बच्चों की मौत पांच साल से कम उम्र में ही हो सकती है, जिनमें से आधी से ज्यादा (52 %) मौतें सिर्फ पांच देशों में होने की संभावना है. ये पांच देश हैं- भारत (17%), नाइजीरिया (15%), पाकिस्तान (8%), डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो (7%) और अंगोला (5%).
लेकिन, बाकी चारो देश अर्थव्यवस्था और तरक्की के मामले में भारत की बराबरी नहीं करते, फिर भी बीमारियों से होनेवाली मौतों में भारत इनके बराबर खड़ा है. रिपोर्ट में कहा गया है कि आर्थिक विकास की राह पर तेजी से आगे बढ़ रहे देशों में भी बच्चों की सेहत को सुधारने की उन्नत व्यवस्था का न होना यह दर्शाता है कि इस दिशा में अभी काफी कुछ किया जाना शेष है.
भारत में बच्चों की मौत का कारण बनती चार प्रमुख बीमारियां
प्रीमैच्योर एंड नीओनेटल बर्थ कॉम्प्लीकेशन यानी समयपूर्व प्रसव और नवजात की जटिल समस्याएं
डॉ कुमार अंकुर
कंसल्टेंट इंचार्ज, नियोनैटोलाॅजी,
बीएलके सुपर स्पेशियल्टी हॉस्पिटल, दिल्ली
शि शु का जन्म गर्भावस्था के 37 सप्ताह पूरे होने से पहले हो जाने की दशामें इसे समयपूर्व जन्म या प्रीमैच्योर बर्थ कहा जाता है. भारत में करीब 30 फीसदी बच्चे समयपूर्व जन्म लेते हैं.
आम तौर पर इस समय के पूरा होने के जितने ज्यादा दिनों बाद बच्चे का जन्म होता है, वह उतना अधिक सेहतमंद होता है. इससे शिशु के अंग परिपक्व होते हैं और फेफड़े अच्छी तरह से सांस लेते हैं. समयपूर्व जन्म की समस्याओं- जैसे सांस लेने में परेशानी, संक्रमण और ब्रेन हैमरेज आदि- से बच्चे मौत के शिकार होते हैं. जो बच्चे बच जाते हैं, उनमें से बहुतों में आजीवन अपंगता रहती है, जिसमें सेरेब्रल पाल्सी, सीखने में असमर्थता, देखने व सुनने में परेशानी शामिल हैं.
कारण : समयपूर्व जन्म कई कारणों से हो सकता है. करीब 10 फीसदी शिशु इसके दायरे में आते हैं. यह माता या शिशु में किसी जटिलता या आनुवंशिक कारण से भी हो सकता है. समयपूर्व अधिकतर जन्म अनायास होते हैं, लेकिन कुछ मेडिकल या किसी अन्य कारण से सीजेरियन जन्म के कारण भी होते हैं. समयपूर्व जन्म के आम कारणों में बार-बार गर्भधारण करना, संक्रमण व क्रोनिक समस्याएं, जैसे डायबिटीज व उच्च रक्तचाप हैं. हालांकि अक्सर इसके कारण का पता नहीं चल पाता है.
बचाव : तीन-चौथाई से ज्यादा समयपूर्व जन्मे शिशुओं को प्रभावशाली स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराते हुए बचाया जा सकता है. प्रत्येक माता और शिशु को पोस्टनैटल समय में एंटीनैटल स्टीरॉयड इंजेक्शन (समयपूर्व जन्म की स्थिति में गर्भवती माताओं को दिया जाता है, ताकि शिशु के फेफड़े मजबूत बनें), कंगारू मदर केयर (शिशु को माता के त्वचा का स्पर्श व स्तनपान कराते हुए रखा जाता है) और नवजात को संक्रमण से बचाने के लिए एंटीबायोटिक्स इंजेक्शन देकर बचाया जा सकता है.
निमोनिया
निमोनिया से फेफड़े के ऊतकों पर असर पड़ता है. इसका कारण बैक्टीरिया से होनेवाला संक्रमण है. वायरस से इसका संक्रमण कम होता है, ज्यादातर यह संक्रमण हवा से होता है.
कारण और लक्षण : आम तौर पर स्वस्थ बच्चे को निमोनिया नहीं होता, लेकिन किसी अन्य बीमारी की दशा में शरीर की प्रतिरोधी क्षमता कम होने पर निमोनिया उसे अपनी चपेट में ले लेता है. निमोनिया में फेफड़ों के एक हिस्से में शोथ हो जाता है, जिससे बच्चा तेजी से सांस लेने लगता है.
शोथ से खांसी और बुखार हो जाता है. भूख खत्म हो जाती है और उल्टी, पतले दस्त होने से कमजोरी हो जाती है. इसके अलावा सांस छोड़ते समय घरघराहट की आवाज आना, होंठ व त्वचा पर नीलापन दिखाई देना, पेट में दर्द होना और दूध न पीना- ये सभी लक्षण निमोनिया के हो सकते हैं.
बचाव : नवजात शिशु का शरीर पूरी तरह से ढक कर रखना चाहिए, ताकि उसे ठंड न लगे. उपरोक्त किसी भी लक्षण दिखने की दशा में बच्चों को तत्काल डॉक्टर के पास ले जाएं.
डायरिया
बच्चों को ज्यादा दस्त होना प्राणघातक हो सकता है. डायरिया होने पर बार-बार मल त्याग होता है. इससे डीहाइड्रेशन यानी निर्जलीकरण हो जाता है, जिस कारण शरीर में से पानी व खनिज लवण बाहर निकल जाते हैं और शरीर को समुचित रूप से पोषण नहीं मिल पाता है. आम तौर पर यह वायरल संक्रमण के कारण होता है. कई बार पेट के कीड़ों या बैक्टीरिया के संक्रमण के कारण भी यह होता है.
लक्षण : काला दस्त होना. दस्त के साथ पेट दर्द की शिकायत. प्यास ज्यादा लगना और पेशाब कम होना. त्वचा में सिकुड़न.
कारण और बचाव : आंत में अधिक द्रव पदार्थ एकत्रित होने और तरल पदार्थों को कम मात्रा में अवशोषित करने की दशा में डायरिया होता है. डायरिया होने के पहले दो दिन तक बच्चे को फल, दूध या वसायुक्त खाना नहीं देना चाहिए. बच्चे को गर्म लिक्विड ज्यादा देना चाहिए. केला और चावल खाने से आंतों की गति नियंत्रित होती है और दस्त को बांधने में ये सहायक होते हैं.
सेप्सिस
जन्म के एक माह के भीतर शिशु में होनेवाले रक्त संक्रमण को सेप्सिस कहा जाता है. इसमें शरीर की प्रतिरोधक क्षमता काफी कम हो जाती है. शिशु में जन्म के पहले से होनेवाले रक्त संक्रमण को इंट्रायूटेराइन सेप्सिस और जन्म के बाद होनेवाले रक्त संक्रमण को एक्स्ट्रायूटेराइन सेप्सिस कहा जाता है. यह संक्रमण फेफड़ों में होने पर निमोनिया का खतरा बढ़ जाता है. मेनिंजाइटिस और गेस्ट्रोएंटेराइटिस भी इसी में शामिल है.
क्या हैं लक्षण : बढ़ जाती है दिल की धड़कन. तेजी से चलने लगती है सांस. बुखार और सुस्ती. त्वचा पीला पड़ना और आंखें सफेद होना.
कारण : इसके कई कारण हो सकते हैं- हारपीज वायरस, रूबेला बैक्टीरिया या फफूंद. इसके अलावा गर्भावस्था के दौरान महिला में सिफिलिस, हेपेटाइटिस बी आदि बीमारी होने की दशा में भी इसकी आशंका बढ़ जाती है.
न्यू िरसर्च
लिक्विड एस्पीरिन ब्रेन कैंसर के इलाज में कीमोथेरेपी के मुकाबले 10 गुना प्रभावी
लि क्विड एस्पीरिन के जरिये ब्रेन कैंसर के मरीज अब ज्यादा दिनों तक जीवित रह पायेंगे. ‘डेली मेल’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, ब्रिटेन की पोर्ट्समाउथ यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों और मैनचेस्टर स्थित एक स्टार्टअप ने मिलकर एक नये शोधकार्य को अंजाम दिया है.
इस शोध को गेम-चेंजर माना जा रहा है. इस लिक्विड एस्पीरिन को विकसित करनेवाली टीम का कहना है कि कैंसर के मरीजों के दिमाग में कुछ ‘ब्लड-ब्रेन बैरियर’ होते हैं, जो कैंसर की दवाओं को ब्रेन ट्यूमर्स पर हमला करने से रोकते हैं. दूसरी ओर, आरंभिक टेस्ट के दौरान ‘ब्रेन कैंसर सेल्स’ को मारने में मौजूदा प्रचलित सिस्टम कीमोथेरेपी के मुकाबले लिक्विड एस्पीरिन को 10 गुना ज्यादा प्रभावी पाया गया है. वैज्ञानिकों का कहना है कि कीमोथेरेपी पूरी तरह से प्रभावी नहीं हो पाती है, क्योंकि इस प्रणाली के माध्यम से भेजी जानेवाली कैंसररोधी दवाएं पूरी तरह से ट्यूमर तक नहीं पहुंच पाती हैं, जिससे ट्यूमर को समग्रता से नष्ट करने में कामयाबी नहीं मिल पाती है.
मक्खन से बढ़ सकता हृदय रोगों का जोखिम!
हृदय रोगों के लिहाज से मक्खन (बटर) को अब तक भले ही ज्यादा असुरक्षित नहीं माना गया हो, लेकिन एक हालिया शोध में पाया गया है कि इससे हार्ट डिजीज का खतरा बढ़ जाता है.
‘डेली मेल’ के मुताबिक, अमेरिका के बोस्टन स्थित हार्वर्ड चान स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के शोधकर्ताओं ने 1,20,000 ऐसे वयस्कों पर यह अध्ययन किया, जो ज्यादा सेचुरेटेड फैट का सेवन करते थे. ऐसे लोगों में इस कारण से मौत के मामले आठ फीसदी ज्यादा पाये गये. हालांकि, विशेषज्ञ अब तक मानते रहे हैं कि मक्खन व अन्य सेचुरेटेड फैट का सेवन ज्यादा नुकसानदायक नहीं है और कई बार यह वजन कम करने में मददगार भी होता है.
लेकिन, इस हालिया शोध में यह पाया गया है कि सेचुरेटेड फैट के सेवन में कमी लाने से मृत्यु का जोखिम अगले तीन महीने में पांच फीसदी तक कम हो जाता है. मक्खन, क्रीम, चीज, बिस्किट और केक के अलावा रेड मीट में सेचुरेटेड फैट प्रचुरता में पाया जाता है. रिपोर्ट के मुताबिक, इनके सेवन से खून में कॉलेस्ट्रॉल का स्तर बढ़ता है, जो भविष्य में हार्ट अटैक और स्ट्रोक का कारण बन सकता है. सेचुरेटेड फैट को डिमेंशिया के कारणों से भी जोड़ा गया है, क्योंकि इससे ब्रेन को जानेवाले खून का बहाव प्रभावित होता है.
गर्भावस्था में पारासिटामोल के सेवन से बच्चों में ऑटिज्म का खतरा!
गर्भावस्था के दौरान महिलाओं को पारासिटामोल के सेवन करने से बचना चाहिए. स्पेन के शोधकर्तओं ने इस संबंध में हालिया अध्ययन में पाया है कि गर्भावस्था के दौरान इस दवा का सेवन करने से पैदा होनेवाले बच्चे पर इसका गंभीर असर पड़ सकता है. यहां तक कि बच्चे को ऑटिज्म (एक प्रकार की मानसिक बीमारी) हो सकता है और वह एडीएचडी (अटेंशन-डिफिसिट हाइपरएक्टिविटी डिजॉर्डर) का शिकार हो सकता है यानी उसे ध्यानकेंद्रित बनाये रखने में बाधा आ सकती है.
स्पेन में सेंटर फॉर रिसर्च इन एनवायर्नमेंटल एपिडेमियोलॉजी के शोधकर्ताओं ने इस शोध अध्ययन में 2,644 माताओं-बच्चों की जोड़ी को शामिल किया और गर्भ के समय से ही उन पर निगरानी रखी. पारासिटामोल का सेवन करनेवाली महिलाओं की संतान में ऑटिज्म की बीमारी का खतरा 30 फीसदी ज्यादा पाया गया है. इनमें से करीब 88 फीसदी का तब मूल्यांकन किया गया, जब बच्चे एक साल के थे और करीब 80 फीसदी का तब किया गया, जब बच्चे पांच साल के हो गये थे.

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