मानवीय दायित्व का पूर्ण नवीकरण जरूरी
हमारी अंतरात्मा को हमारी तार्किकता के साथ चलना ही होगा, वरना हमारा विनाश तय है अपनी सभ्यता के सामने खड़े मौजूदा संकट के बारे में चाहे जहां से भी सोचना प्रारंभ करूं, मैं हमेशा मानवीय दायित्व के बिंदु पर लौट आता हूं, जो सभ्यता के साथ-साथ चलने में और इसे मानव जाति के विरुद्ध जाने […]
हमारी अंतरात्मा को हमारी तार्किकता के साथ चलना ही होगा, वरना हमारा विनाश तय है अपनी सभ्यता के सामने खड़े मौजूदा संकट के बारे में चाहे जहां से भी सोचना प्रारंभ करूं, मैं हमेशा मानवीय दायित्व के बिंदु पर लौट आता हूं, जो सभ्यता के साथ-साथ चलने में और इसे मानव जाति के विरुद्ध जाने से रोकने में अक्षम नजर आता है. लगता है, जैसे यह विश्व कुछ ऐसा हो गया है कि हम इससे निबट ही नहीं सकते.
अब पीछे लौट पाना तो मुमकिन नहीं. यह तो केवल एक स्वप्नदर्शी ही सोच सकता है कि इसका समाधान सभ्यता की प्रगति की काट-छांट में है. आगे आनेवाले वक्त में मुख्य कार्य कुछ दूसरा ही है- हमारे दायित्वबोध का एक आमूल नवीकरण. आज पढ़ें प्रेरक भाषण की नवीं कड़ी में वाक्लाव हावेल को.
वाक्लाव हावेल
मिस्टर प्रेसिडेंट, मिस्टर वाइस प्रेसिडेंट, देवियों और सज्जनों, बहुत दिन नहीं हुए, जब मैं नदी तट पर स्थित एक आउटडोर रेस्टोरेंट में बैठा था. मेरी कुरसी बहुत कुछ वैसी ही थी, जैसी वे प्राग की वल्तवा नदी के किनारे स्थित रेस्टोरेंटों में रखी होती हैं और वहां अधिकतर चेक रेस्टोरेंटों में बजनेवाला रॉक संगीत भी बज रहा था.
मैं वैसे ही विज्ञापन भी देख रहा था, जिनसे मैं अपने गृहनगर में सुपरिचित हो चुका था. सबसे बढ़ कर मैं वैसे ही युवाओं से घिरा था, जो उसी तरह के लिबास में, हाथों में वैसे ही परिचित से पेय लिये, उसी बेलौस भाव से व्यवहार कर रहे थे, जैसे प्राग में उनके समवयस्क किया करते हैं. सिर्फ उनकी चमड़ी का रंग और उनके चेहरे-मोहरे भिन्न थे, क्योंकि मैं सिंगापुर में था. मैं वहां एक बार फिर इसके ही विषय में सोचता बैठा रहा- जैसा मैं अनगिनत बार कर चुका हूं- और मैंने एक बार फिर उसी पुरानी सच्चाई को महसूस किया कि आज हम एक समरूप वैश्विक सभ्यता में रह रहे हैं.
इस सभ्यता की पहचान केवल एक ही तरह के परिधान, पेय अथवा लगातार चलते उसी व्यावसायिक संगीत में नहीं और न ही अंतरराष्ट्रीय विज्ञापनों में पड़ी होती है. यह कहीं और गहरे स्थित है. सतत प्रगति के इस आधुनिक विचार, इसके अंतर्निहित विस्तारवाद और इससे सीधे-सीधे निकलती वैज्ञानिक प्रगति की वजह से हमारी पृथ्वी मानव जाति के लंबे इतिहास में पहली बार, और केवल कुछ दशकों के अंदर ही, एक समरूप सभ्यता के आवरण में लिपट गयी है, जो अनिवार्यतः टेक्नोलॉजिकल है.
यह विश्व अब करोड़ों छोटे-छोटे धागों अथवा कोशिकाओं (कैपिलरीज) से बने दूरसंचार नेटवर्क में लिपटा है, जो न सिर्फ सभी तरह की सूचनाएं विद्युत गति से प्रसारित करता रहता है, बल्कि सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक व्यवहारों के समेकित मॉडल भी संचारित करता है. वे इन मानकों के साथ-साथ अरबों डॉलरों की मुद्राओं की वाहिकाएं भी हैं, जो उनके प्रत्यक्ष लेन-देन करनेवालों के लिए भी अदृश्य रहते हुए पूरी दुनिया में यहां से वहां करते ही रहते हैं.