न हम ऐसे हैं और न होना चाहते हैं
विश्लेषण : शिक्षा व्यवस्था को भी नये सिरे से दुरुस्त करना होगा शमशाद मुर्तजा हमें गहरे हस्तक्षेप के लिए आतंक निरोधी प्रकोष्ठों की जरूरत है. हमें बरगलाने वाली शक्तियों के खिलाफ एक प्रति रणनीति की भी दरकार है. पहला कदम तो यही होना चाहिए कि हम लोगों के अकेले या अलग-थलग पड़ने को रोकें. दूसरा […]
विश्लेषण : शिक्षा व्यवस्था को भी नये सिरे से दुरुस्त करना होगा
शमशाद मुर्तजा
हमें गहरे हस्तक्षेप के लिए आतंक निरोधी प्रकोष्ठों की जरूरत है. हमें बरगलाने वाली शक्तियों के खिलाफ एक प्रति रणनीति की भी दरकार है. पहला कदम तो यही होना चाहिए कि हम लोगों के अकेले या अलग-थलग पड़ने को रोकें. दूसरा जरूरी कदम है कि तमाम तरह के बेजा इस्तेमाल को लेकर खुद को जागरूक बनाएं. आज पढ़िए इस शृंखला की चौथी कड़ी.
अब तक की खबर के मुताबिक धावा बोलने वालों में से चार ने अंगरेजी माध्यम स्कूल और नामी निजी विश्वविद्यालय से पढ़ाई की थी, जबकि एक ने बोगरा के मदरसे से. इन सारे युवकों ने इस साल के शुरू तक सामान्य से बेहतर जिंदगी देखी थी. वे इस लक्ष्य के नाम पर एक-दूसरे से जुड़े कि ढाका के सबसे सुरक्षित इलाकों में से एक में प्रवासियों के बीच खानपान के लिए मशहूर ठिकाने पर विदेशियों की हत्या करनी है. उन्होंने बर्बरता के साथ हमारे उस जापानी साथी की हत्या कर दी, जो देश के पहले मेट्रो रेल सिस्टम को विकसित करने आया था. उन्होंने वस्त्र उद्योग के हमारे भरोसेमंद इतालवी साझीदार, तीन महिलाओं के साथ खासे उदार मन के उस युवक की भी हत्या कर दी, जो अपनी महिला मित्र को बचा रहा था.
जब बचाव कार्य शुरू हुए, तो वहां एक-दूसरे से जुड़े कई तरह के नुकसान की बातें सामने आयीं और लगा कि पिज्जा शेफ इस पूरे मामले में अहम कड़ी हो सकता है. अभी यह समझना बाकी है कि कैसे ये युवक कैफे में दाखिल हुए और किस तरह के वाहन का उन्होंने इस्तेमाल किया था. सीसीटीवी फुटेज से इनके होली आर्टीजन बेकरी में पहली बार घुसने का ही नहीं, बल्कि नये वैश्विक आतंकी खाके का भी पता चलेगा.
इस घटना को कुछ स्थानीय चैनलों के न्यूजफीड की मदद से कई अंतरराष्ट्रीय चैनल लाइव दिखा रहे थे. वे इस घटना को हमारी सरकार द्वारा आतंक की घरेलू उपज बताने की कोशिश को हवाई ठहराने में लगे थे. सरकार इस घटना को स्वार्थी तत्वों द्वारा देश में अस्थिरता पैदा करने के लिए गैर मुसलिम पुरोहितों की एक के बाद एक हुई हत्या, मुक्त विचारकों समेत ब्लॉगरों, बाउल प्रेमियों और समलैंगिक कार्यकताओं की छुरा घोंप कर की गयी हत्या की घटनाओं से ही जोड़कर देख रही थी. इसी सिलसिले में रहस्यपूर्ण तरीके से उस पुलिस अधिकारी की पत्नी की हत्या भी शामिल है, जो गरीब बस्तियों-झुग्गियों में रहने वाले करीब 15 हजार राष्ट्र विरोधी ठहराये गये अपराधियों की तलाश में जुटा था.
आतंकी घटनाओं में लिप्त युवाओं की पहचान का मामला काफी दिलचस्प है. आइएस से जुड़ा एसआइटीइ उन्हें अरबी नामों से, स्थानीय पुलिस उन्हें स्थानीय उपनामों और उनके साथी उनकी पहचान फेसबुक प्रोफाइल के जरिये करते हैं. मैं शेक्सपियर के लहजे में यह नहीं कह सकता कि नाम में क्या रखा है. नामावली की इस छाया रीति ने इन युवकों की पहचान को हाईब्रिड शिनाख्त में बदल दिया है. लाड़-प्यार और अमीरी में पले बच्चों के इस भटकाव के लिए सोशल मीडिया इनके अभिभावकों को पूरे तौर पर जिम्मेदार ठहरा रहा है. ऐसा ही सोचने वाली एक विद्वान शिक्षिका ने फोन पर मुझे बताया कि कैसे उनका एक मित्र अपनी हैसियत से बाहर जाकर अपने बच्चे को पढ़ा रहा है.
उनके पास न तो समय या प्रेम की कमी है, न ही पैसे की तंगी. फिर मध्यवर्गीय परिवार का बच्चा अपनी शुरुआती पढ़ाई अगर नयी उड़ान की उम्मीदों के साथ करता है, तो इसमें गलत क्या है. लिहाजा आतंक की इस व्याख्या में बहुत दम नहीं है कि पारिवारिक स्नेह की कमी से यह पैदा हुआ है. मैंने किसी सज्जन द्वारा फेसबुक पर पोस्ट किये आइएस में बहाली के तरीके के बारे में पढ़ा. दिलचस्प है कि इसमें उन लोगों को बुलावा भेजा जाता है, जो ज्यादा धार्मिक नहीं हैं. जनवरी के शुरू में कुछ आतंकियों द्वारा सोशल मीडिया पर की गयी गतिविधियों को इस श्रेणी में रख सकते हैं. असल में अगर आपका मजबूत धार्मिक आधार है, तो आपको खुदा और खुदाई की बेहतर समझ होगी और आप कभी भी विनाश के लिए इनका इस्तेमाल नहीं करेंगे. इसलिए आइएस उन युवाओं के पीछे लगता है जो दिमागी तौर पर हताश, दुविधाग्रस्त और कमजोर हैं.
जिहाद और फिलस्तीन में हुए अन्याय की बात करना उनके लिए पहला कदम है. इसके बाद वे पाश्चात्य संस्कृति की भर्त्सना शुरू करते हैं. इसके आगे वे क्या करते हैं, इस बारे में हम सबको जानकारी है.
दिलचस्प है कि ये सारी बातें हमने पिछले कुछ दिनों में जानी हैं. एक अन्य खबर से मुझे जानकारी मिली कि कैसे हमारे पैगंबर ने ऐसे समूह को लेकर चेताया है, जो इसलाम के नाम पर आतंक फैलाता है. ऐसे लोग जबानी तौर पर तो इसलाम के हिमायती होते हैं, पर दिल से नहीं. ऐसे लोग काले झंडे लहराते हैं और दावा करते हैं कि वे दौला (स्टेट) के हिस्सा हैं.
खबरें ऐसी भी आयी हैं कि अब वे नये ठिकानों की तलाश में हैं, क्योंकि मध्य एशिया के उनके इलाकों से खदेड़ा जा रहा है. यह कहना बहुत आसान है कि हम हजारों सालों से सेक्यूलर हैं और ऐसी शक्तियां हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकतीं. ऐसे लोगों को मेरी सलाह है कि वे ‘आइ एम मलाला’ पढ़ें, और जानें कि कैसे महज एक आदमी को पनाह देने और उसके अतिवाद को प्रश्रय देने के स्वात घाटी का स्वरूप बदल गया.
हाल में मेरे एक प्रोफेसर साथी ने मुझे अंगरेजी शब्द ‘असैसिन’ की उत्पत्ति के बारे में बताया. इस शब्द का इतिहास 12वीं सदी से हत्या की सनक के साथ जुड़ा है. धार्मिक संघर्ष के दौरान सीरिया के एक शिया नेता शेख अल जबाल ने युवाओं को हशीश थमाया तथा उन्हें हरम और दासियों के आदिम लोक के बारे में समझाया. इन लोगों को इस वादे के साथ संघर्ष के लिए भेजा गया कि वे उन्हें सौंदर्य की इस कल्पना जैसी मदहोशी वापस देंगे.
लोगों को बरगलाने का यह आजमाया नुस्खा है कि पहले उन्हें अकेला करो. ऐसे में उन्हें अपने ही लोगों की खामियां देखने के लिए बाध्य करना और यह बताना आसान होता है कि कैसे वे उनकी तरह नहीं हो सकते हैं. कल्पना कीजिए एक ऐसे युवक की, जिसे अपनी जिंदगी में किसी सेलिब्रटी के साथ डांस करने का मौका मिला हो और फिर वह नृशंस हत्यारा बन जाये.
यहां तक कि जेल में भी कई सारे हत्या अपराधियों में से कुछ को ही फांसी होती है. इसलिए गुजरे छह महीनों में ऐसा क्या हुआ कि ये बेहतरीन युवा क्रूर हत्यारे बन गये हैं. मुझे लगता है कि पुलिस इस तरह की दबी खबरों को काफी संजीदगी से लेगी.
बेशक हमें गहरे हस्तक्षेप के लिए आतंक निरोधी प्रकोष्ठों की जरूरत है. हमें बरगलाने वाली शक्तियों के खिलाफ एक प्रति रणनीति की भी दरकार है. पहला कदम तो यही होना चाहिए कि हम लोगों के अकेले या अलग-थलग पड़ने को रोकें. इसके लिए परिवार और दूसरी सामाजिक संस्थाओं को प्रेरक ऊर्जा के साथ आगे आना होगा. दूसरा जरूरी कदम है कि तमाम तरह के बेजा इस्तेमालों को लेकर खुद को जागरूक बनायें.
ऐसी एक धारणा बन गयी है कि सारी गलत बातें अंगरेजी माध्यम स्कूलों और मदरसों से ही जुड़ी हैं. दरअसल, पहले हम जीवन की तेज रफ्तार जीवन की राह को लेकर तनावग्रस्त होते हैं और बाद में इस निराशा से भर जाते हैं कि हमारे लिए कोई राह ही नहीं है.
मुझे याद है कि कैसे बांग्ला माध्यम के हमारे स्कूलों में इसलामी शिक्षा देने वाले शिक्षक प्रशांत मन के होते थे. अगर तुलनात्मक तौर पर देखें, तो उनके दोस्ताना सलूक के कारण रसायन विज्ञान के मुकाबले इसलामी शिक्षा में ग्रेड हासिल करना आसान होता था. यह एक तरीका था धर्म को लेकर भयमुक्त और तटस्थ बनने का और यह हमें सेक्यूलर बनने में मदद करता था. आज धार्मिक शिक्षा केबल टीवी और इंटरनेट के जरिये दी जाती है.
वैश्विक मुद्दों के प्रभाव के बाद हमारे लिए इनके प्रति उदासीन रहना मुश्किल होता है. हमारा लक्ष्य बदल जाता है और हम वैश्विक स्तर पर कामयाबी के बारे में फिक्रमंद और तनावग्रस्त होने लगते हैं. समाज में ध्रुवीकरण काफी तेज हुआ है, संपन्न और वंचित के बीच की खाई कभी इतनी चौड़ी नहीं थी. कई अंतरराष्ट्रीय शक्तियों को इन स्थितियों का लाभ मिल रहा है.
इनमें से कुछ हमारे राष्ट्रीय हितों से भी खेल रहे हैं, मसलन मेट्रो रेल और वस्त्र उद्योग. कुछ लोग ऐसे में उधार के विचार के लिए ठौर तलाश रहे होते हैं. सरकार को जरूर इस बात पर राष्ट्रीय सहमति के साथ सामने आना चाहिए कि हम कौन हैं और क्या होना चाहते हैं. हमको अपनी शिक्षा व्यवस्था को भी नये सिरे भी दुरुस्त करना होगा ताकि हम सामाजिक विसंगति को समझ सकें और हिंसक परजीवी न बनें.
जो कुछ भी हुआ उसके लिए मेरा हृदय दुखी है. जो क्रूरता दिखी, उसके लिए हम हम क्षमाप्रार्थी हैं. न हम ऐसे हैं और न ऐसा होना चाहते हैं.
(लेखक ढाका विश्वविद्यालय के अंगरेजी विभाग में प्रोफेसर हैं तथा डिपार्टमेंट ऑफ इंगलिश एंड ह्यूमैनेटिज व यूनिवर्सिटी ऑफ लिबरल आर्ट्स के सलाहकार हैं)(द डेलीस्टार डॉट नेट से साभार)
(अनुवादः प्रेम प्रकाश)
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